फ़रेब (कविता)

✒️ अली सरदार जाफरी | ‘सर्वहारा’ #57 (16 अगस्त 2024)

कौन आजाद हुआ?
किस के माथे से सियाही छूटी
मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का
मदर-ए-हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही

खंजर आजाद हैं सीनों में उतरने के लिए
मौत आजाद है लाशों पे गुजरने के लिए
चोर-बाजारों में बद-शक्ल चुड़ैलों की तरह
कीमतें काली दुकानों पे खड़ी रहती हैं
हर खरीदार की जेबों को कतरने के लिए
कार-खानों पे लगा रहता है
सांस लेती हुई लाशों का हुजूम
बीच में उन के फिरा करती है बेकारी भी
अपना खूं-ख्वार दहन खोले हुए

और सोने के चमकते सिक्के
डंक उठाए हुए फन फैलाए
रूह और दिल पे चला करते हैं
मुल्क और कौम को दिन रात डसा करते हैं
रोटियां चकलों की कहबाएं हैं
जिन को सरमाया के दल्लालों ने
नफअ-खोरी के झरोकों में सजा रखा है
बालियां धान की गेहूं के सुनहरे खोशे
मिस्र ओ यूनान के मजबूर गुलामों की तरह
अजनबी देस के बाजारों में बिक जाते हैं
और बद-बख्त किसानों की बिलक्ती हुई रूह
अपने अफ्लास में मुंह ढांप के सो जाती है
हम कहां जाएं कहें किस से कि नादार हैं हम
किस को समझाएं गुलामी के गुनहगार हैं हम
तौक खुद हम ने पहना रक्खा है अरमानों को
अपने सीने में जकड़ रक्खा तूफानों को
अब भी जिंदान-ए-गुलामी से निकल सकते हैं
अपनी तकदीर को हम आप बदल सकते हैं।


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