सीढ़ियां (कविता)

✒️ सुकांत भट्टाचार्य

(क्रांतिकारी कवि के 98वें जन्मदिन पर प्रस्तुति)

हम सीढ़ियां हैं — 

तुम हमें पैरों तले रौंदकर 

हर रोज बहुत ऊपर उठ जाते हो 

फिर मुड़कर भी नहीं देखते पीछे की ओर 

तुम्हारी चरणधूलि से धन्य हमारी छातियां 

पैर की ठोकरों से क्षत-विक्षत हो जाती हैं — रोज ही। 

तुम भी यह जानते हो 

तभी कालीन में लपेट कर रखना चाहते हो 

हमारे सीने के घाव 

छुपाना चाहते हो अपने अत्याचार के निशान 

और दबाकर रखना चाहते हो धरती के सम्मुख 

अपनी गर्वोद्धत अत्याचारी पदचाप! 

फिर भी हम जानते हैं 

दुनिया से हमेशा छुपे न रह सकेंगे 

हमारी देह पर तुम्हारे पैरों की ठोकरों को निशान 

और सम्राट हुमायूं की तरह 

एक दिन 

तुम्हारे भी पैर फिसल सकते हैं!


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