✒️ संपादकीय | ‘सर्वहारा’ #56 (1 अगस्त 2024)
अश्लील स्तर पर जा पहुंची आर्थिक गैर-बराबरी की खाई और पूरी दुनिया में अपने पांव पसारता व फुंफकारता फासीवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
ऑक्सफैम ने 25 जुलाई 2024 के अपने प्रेस वक्तव्य में कहा है कि “दुनिया के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों ने पिछले दस सालों में अपनी संपत्ति में कुल 42 ट्रिलियन डॉलर की बढ़ोतरी की है।” अनुमानत: यह बढ़ोतरी अमेरिका और चीन दोनों की अर्थव्यवस्थाओं के योग के बराबर है। दुनिया की कुल आबादी लगभग 800 करोड़ है, तो इसका 1 प्रतिशत 8 करोड़ हुआ। यानी, 800 करोड़ में से 8 करोड़ लोगों ने अपनी संपत्ति में एक अमेरिका और एक चीन जोड़ लिया है। बाकी बचे 792 करोड़ लोगों का जीवन कैसा होगा, हम समझ सकते हैं।
इसका घातक असर जनतंत्र के साथ-साथ पर्यावरण पर भी पड़ा है, क्योंकि श्रम के साथ-साथ प्रकृति के अतिदोहन और इसके लिए जनवादी अधिकारों का हनन किये बिना मुनाफे का इतना बड़ा पहाड़ खड़ा करना कठिन ही नहीं असंभव है। ऑक्सफैम इंटरनेशनल के असमानता नीति प्रमुख मैक्स लॉसन के शब्दों में – “असमानता अश्लील स्तर पर पहुंच गई है और अब तक सरकारें लोगों और पृथ्वी को इसके विनाशकारी प्रभावों से बचाने में विफल रही हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि “सबसे अमीर एक प्रतिशत अपनी जेबें भरता रहता है, जबकि बाकी लोग टुकड़ों के लिए तरसते रह जाते हैं।”
इस आर्थिक गैर-बराबरी को समझने के लिए आंकड़े को और महीनी से प्रस्तुत किया गया है। कहा गया है कि “ऊपर के एक प्रतिशत आबादी में प्रति व्यक्ति आय में पिछले एक दशक में 40000 अमेरिकी डॉलर की बढ़ोतरी हुई है, जबकि सबसे नीचे की 50 प्रतिशत आबादी में प्रति व्यक्ति आय में मात्र 335 अमेरिकी डॉलर – यानी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के हिसाब से मात्र 8 सेंट्स – की वृद्धि हुई है।” 100 अमेरिकी सेंट्स मिलकर एक अमेरिकी डॉलर के बराबर होते हैं। सच में, यह गैर-बराबरी अश्लीलता की सीमा छू रही है और समस्त धन व संपदा को सामाजिक स्वामित्व में ले आने की मांग प्रस्तुत कर रही है।
दुनिया भर में सरकारों की भूमिका बड़ी पूंजी के पक्ष में रही है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सरकारों का रुख व नजरिया इन अमीरों पर कम से कम टैक्स लगाने का रहा है। सरकार तो आखिर इन्हीं लोगों की है। ऑक्सफैम इंटरनेशनल इसकी इन शब्दों में पुष्टि करता है – “भले ही दुनिया के अमीर और अमीर होते जा रहे हैं, लेकिन उन पर लगने वाला टैक्स ऐतिहासिक रूप से कम हो गया है। यानी पिछले एक दशक में इन अमीरों पर टैक्स इतना कम है जितना पहले कभी नहीं रहा।” ऑक्सफैम का ही एक शोध बताता है कि ”पिछले चार दशकों में जी-20 देशों में शीर्ष 1% कमाने वालों की आय का हिस्सा 45 फीसदी बढ़ा है, जबकि उनकी आय पर लगने वाले शीर्ष टैक्स दरों में लगभग एक तिहाई की कटौती की गई है।”
जब दुनिया भर में आर्थिक गैर-बराबरी का भयंकर आलम हो, तो यह स्वाभाविक ही है कि पूंजीपति वर्ग इसके विरोध में उठने वाली आवाजों को दबाने का इंतजाम भी करेगा। यही कारण है कि ठीक इसी दौरान फासीवादी तानाशाही थोपने की कोशिश भी काफी तेज हुई है। इसलिए जनतंत्र भी बचेगा या नहीं, ये सवाल पूंजीपति वर्ग के अंदर से ही उठना शुरू हो चुका है। इस संदर्भ में ग्लोबल स्टेट ऑफ डेमोक्रैसी रिपोर्ट 2022 (चौथा संस्करण) की ओर ध्यान आकृष्ट करना जरूरी है जो अपनी प्रस्तावना की पहली पंक्ति में ही कहता है कि यह रिपोर्ट “ऐसे समय में आया है जब दुनिया भर में लोकतंत्र पर शाब्दिक और औपचारिक दोनों तरह से हमला (literal and figurative assault) हो रहा है।”
रिपोर्ट पूरी दुनिया के बारे में, यहां तक कि यूरोप व अमेरिका के बारे में भी कहता है कि ‘लोकतंत्र कमजोर हो रहा है और तानाशाही मजबूत हो रही है।’ रिपोर्ट यह भी कहता है कि “यद्यपि लोकतंत्र के सभी पहलुओं में क्षरण हुआ है, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया की संप्रभुता पर इसका प्रभाव चौंकाने वाला है।” रिपोर्ट भारत का नाम लेते हुए कहता है कि यहां भी लोकतंत्र कमजोर हुआ है और हो रहा है।
आगे वह लोकतंत्र के मूल्य में लोगों के विश्वास में आई गिरावट का जिक्र करता है। उसकी यह बात सही है कि लोकतंत्र का अर्थ एक सामाजिक अनुबंध है जिसमें नागरिकों और उनके ऊपर शासन करने वालों के बीच एक करार निहित होता है। इस करार के अनुसार, शासन करने वालों द्वारा प्रदान की जाने वाली कुछ प्रमुख सार्वजनिक वस्तुओं व सुविधाओं के बदले नागरिक शासित होने की सहमति देते हैं। अगर लोकतंत्र के अंतर्गत शासन करने वाले ऐसा करने में विफल होते हैं, जैसा कि दुनिया भर में दिख रहा है, तो नागरिकों के इसके प्रति विश्वास में गिरावट आना एक स्वाभाविक बात ही है।
पूरी दुनिया में हो रहे लोकतंत्र के क्षरण के मुख्य कारणों के बारे में भी रिपोर्ट में विस्तार से कहा गया है। मूल रूप से यह रिपोर्ट आर्थिक मंदी और इसके कारण विशाल जनता की जीवन-जीविका पर छाये संकट के साथ-साथ विश्वयुद्ध शुरू होने के खतरे और इससे उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों, खासकर धुर दक्षिणपंथ के उभार को इसके मुख्य कारण के रूप में चिन्हित करती है। हम अपनी तरफ से सिर्फ इतना जोड़ देना चाहते हैं कि ये सभी कारण लगभग स्थाई बन चुके हैं और जाहिर है बड़ी पूंजी का मुनाफा बरकरार रखने के लिए जनता के हितों पर लगातार हमला होता रहेगा और इसलिए सामाजिक अनुबंध यानी लोकतंत्र का ज्यादा से ज्यादा तनावग्रस्त रहना और उसके टूटकर बिखर जाने की संभावना पैदा होना भी स्वाभाविक है। सवाल है, इसका निदान क्या है? निश्चित ही लोकतंत्र को और गहरा बनाना होगा, जैसा कि रिपोर्ट में भी कहा गया है। लेकिन इसे गहरा बनाना एकमात्र इसी तरह से संभव है कि पूंजी की बादशाहत और मुनाफा से प्रेरित होने वाली व्यवस्था को खत्म किया जाए, क्योंकि ये ही लोकतंत्र के और गहरे में विस्तार की मुख्य बाधा है। हम पाते हैं कि दुनिया भर में बड़ी पूंजी की लूट-खसोट के खिलाफ जो जन उभार दिखाई दे रहा है, उसमें इसके बीजकण मौजूद हैं। हमें अपना विश्वास इसी में व्यक्त करना होगा। कोई और रास्ता नहीं है। वर्तमान के ऊपरी रंग-रोगन से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। पुरातन को ढाह कर नूतन की स्थापना करना ही एकमात्र उपाय बचा है।