बजट 2024: मेहनतकशों व मध्य वर्ग की लूट से पूंजीपतियों की तिजोरी भरने की योजना

✒️ एम. असीम | ‘सर्वहारा’ #56 (1 अगस्त 2024)

रोजगार सृजन के नाम पर पूंजीपतियों को लाभ एवं बेरोजगारों से क्रूर मजाक

नरेंद्र मोदी सरकार ने 23 जुलाई को अपने तीसरे कार्यकाल का पहला सालाना बजट पेश किया और पूरी तरह स्पष्ट कर दिया कि उसकी जनविरोधी नीतियों की वजह से आम जनता में जो असंतोष है उसकी वह रत्ती भर परवाह नहीं करती। इस रोष के कारण गत लोकसभा चुनावों में उसे जो नुकसान हुआ और तात्कालिक रूप से पीछे हटना पड़ा, उसके बावजूद भी बड़े पूंजीपतियों द्वारा लाई गई यह फासीवादी सरकार अपने सरमायेदारपरस्त रवैये में जरा भी कमी नहीं करेगी और पूंजीपतियों के मुनाफों को बढ़ाने के लिए मजदूर-मेहनतकशों व मध्य वर्ग विरोधी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को और भी अधिक तेजी से लागू करेगी।

इसी रुझान के तहत देखा गया कि बजट में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के कल्याण, बाल व महिला विकास, पोषण, आदि कार्यक्रमों पर बजट आबंटन का जिक्र तक नहीं किया गया। गरीबों हेतु खाद्य सुरक्षा के आबंटन में 3.3% कटौती कर दी गई जबकि खर्च बढ़ाने की जरूरत है क्योंकि अभी भी 8 करोड़ आप्रवासी व असंगठित क्षेत्र के मजदूर निशुल्क राशन वितरण के दायरे से बाहर हैं। 

साथ ही मोदी सरकार ने जिन बड़ी बड़ी योजनाओं का खूब ढिंढोरा पीटा है, बजट से पता चलता है कि उन योजनाओं के लिए जितना आबंटन घोषित भी किया जाता है वह भी वास्तव में खर्च नहीं होता और बाद में उसका काफी बड़ा हिस्सा बहुत बहानों से कॉर्पोरेट पूंजीपतियों की मदद के लिए खर्च कर दिया जाता है। जैसे अनुसूचित जातियों के लिए आबंटित बजट का एक हिस्सा टेलीकॉम, सेमीकंडक्टर, आदि के नाम पर कॉर्पोरेट को दे दिया गया है। इसी तरह पिछले साल बजट में प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए 28 हजार करोड़ एवं ग्रामीण आवास के लिए 42 हजार करोड़ रुपये का आबंटन घोषित किया गया था। पर वर्तमान बजट के वास्तविक खर्च के आंकड़ों के मुताबिक इन योजनाओं पर 22 एवं 32 हजार करोड़ रुपये ही खर्च किए गए। ऐसी ही स्थिति ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा), सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, स्वच्छता, आदि पर खर्च की है जिन पर वास्तविक खर्च कुल बजट की तुलना में लगातार कम हो रहा है। इसकी वजह से मेहनतकशों व गरीबों के लिए व्यवस्थाओं में लगातार कटौती हो रही है और उन्हें निजी क्षेत्र से अत्यंत महंगी सेवा खरीदने या शिक्षा व स्वास्थ्य आदि से वंचित रहने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

हालांकि सरकार विभिन्न सर्वेक्षणों की रिपोर्टों में सामने आई बढ़ती बेरोजगारी के तथ्य को गलत बताती रही है और सरकारी आंकड़ों में कोरोना लॉकडाउन के दौरान भी करोड़ों नये रोजगार देने का दावा करती रही है। किंतु बेरोजगारी की स्थिति युवाओं के लिए इतनी भयानक रूप ले चुकी है कि कुल बेरोजगारों में 83% युवाओं की ही संख्या है और इन बेरोजगार युवाओं में दो तिहाई से अधिक सेकंडरी या इससे भी ज्यादा शिक्षित हैं। पर संभवतः पिछले चुनावी नतीजों ने उसे बेरोजगारी की समस्या को स्वीकार करने और बजट में इस पर कुछ कदम उठाते दिखने के लिए बाध्य कर दिया।

पर वित्त मंत्री ने रोजगार सृजन के नाम पर क्या किया? उन्होंने आम लोगों को राहत देकर, उनकी क्रय शक्ति बढ़ाकर, बाजार में मांग बढ़ा कर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में भी विस्तार की जो सीमित संभावना होती है ताकि बढ़ी मांग की पूर्ति हेतु उत्पादन में निवेश और नये रोजगार पैदा हों, वह नहीं किया। खुद केंद्र सरकार के नौ लाख से अधिक पद खाली पड़े हैं लेकिन उन पर भर्ती के बजाय पदों को ही समाप्त किया जा रहा है। रोजगार सृजन के प्रति मोदी हुकूमत के रूख का पता इस बात से ही चल जाता है कि सरकारी आंकड़े बताते हैं कि इस साल में ही केंद्र सरकार के कुल कर्मियों की संख्या में 48 हजार की कमी हो जाएगी। इसके बजाय उन्होंने नये रोजगार देने के नाम पर पूंजीपतियों को प्रोत्साहन दिया और कहा कि हर नये रोजगार पर कंपनियों को 15 हजार रुपये तक का पहला वेतन सरकार की ओर से दिया जाएगा। 

लेकिन अगर उत्पादन का वास्तव में विस्तार नहीं हो रहा है तो कोई पूंजीपति नये रोजगार क्यों देगा? इसके बजाय वह पहले से रखे गए श्रमिकों की छंटनी कर देगा और नये मजदूर काम पर रखेगा या पुरानों को ही फिर से नई भर्ती दिखा देगा। इस प्रकार दिखाई गई हर नई भर्ती के ऐवज में पूंजीपति को 15 हजार रुपये सरकार की ओर से प्रोत्साहन राशि मिलेगी और बिना नये रोजगार के ही पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ जाएगा। यह हमारी कल्पना नहीं है। कुछ साल पहले भी रोजगार सृजन के लिए ऐसी नीति लाई गई और इसके नाम पर सरमायेदारों ने सरकार से कई सौ करोड़ रुपये हासिल कर लिए थे जबकि कोई भी नया रोजगार सृजित नहीं हुआ। यह रोजगार बढ़ाने के बजाय सरकार द्वारा एकत्र की गई टैक्स की रकम से पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने की योजना है।

रोजगार बढ़ाने के नाम पर इसी प्रकार 500 बड़ी कंपनियों में 5 हजार रुपये महीना स्टाइपेंड वाले अप्रेंटिस रखे जाने की योजना है। ऐसे अप्रेंटिस बेरोजगार युवाओं को प्रशिक्षण के नाम पर सरकार द्वारा इन कंपनियों को आबंटित किए जाएंगे। इन्हें लुभाया जाएगा कि प्रशिक्षण व कौशल प्राप्त करने से उन्हें रोजगार मिलेगा। पर वास्तव में तो अर्थव्यवस्था में रोजगार का सृजन न होने पर रोजगार कैसे मिलेगा? लेकिन रोजगार की लालसा में ये युवा 5 हजार रुपये की भुखमरी वाली मजदूरी पर और भी अधिक काम करने के लिए विवश होंगे और पूंजीपति इनके बल पर अधिक मजदूरी वाले नियमित व ठेका मजदूरों को निकाल बाहर करेंगे क्योंकि सरकार हर साल ऐसे सस्ते मजदूर कंपनियों को उपलब्ध कराती रहेगी।इनकम टैक्स में मामूली छूट, कैपिटल गेन पर टैक्स, इंडेक्सिंग को समाप्त करना जैसे बदलाव मध्यम वर्ग की पीठ पर छुरे के समान ही हैं और इनका लाभ भी वित्तीय पूंजीपतियों और सट्टेबाजों को ही होगा। जहां शिक्षा में बजट पर लगातार कमी की जा रही है वहीं सरकारी खर्च पर गया के विष्णुपद मंदिर और बोधगया में विश्वनाथ मंदिर की तर्ज पर कॉरिडोर बनाने की घोषणा जरूर हो गयी है।


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