✒️ संपादकीय | ‘सर्वहारा’ #55 (16 जुलाई 2024)
अभी दो या तीन दिन पहले की ही बात है जब भारत के दो सबसे बड़े अमीरों में से एक मुकेश अंबानी के बेटे अनंत अंबानी की शादी वीरेन मर्चेंट की बेटी राधिक मर्चेंट से संपन्न हुई, जिसमें यह दिखा कि भारत किस तरह गरीबों के महासमुद्र से घिरे चंद अमीरों के एक छोटे टापू में तब्दील होता जा रहा है। जब तक यह समारोह चला, देश के करोड़ों गरीब, मजलूम एवं मेहनतकश नागरिकों के लिए एक भद्दा मजाक बना रहा।
5000 करोड़ वाली इस शाही शादी में देश-विदेश के सारे नामी-गिरामी लोग – सिनेमा, खेल, योग, बिजनेस, धर्म और राजनीति से लेकर हर क्षेत्र के नामचीन लोग – शामिल हुए। दरअसल, इसमें एक तरफ रिलायंस के मालिक मुकेश अंबानी हैं, तो दूसरी तरफ वीरेन मर्चेंट हैं जो एक खरबपति व्यापारी और एनकोर हेल्थकेयर जैसी बड़ी कंपनी के मालिक हैं। जैसे अनंत अंबानी रिलायंस बिजनेस साम्राज्य का एक भाग (खासकर उर्जा इंडस्ट्रीज) संभालते हैं, उसी तरह राधिका मर्चेंट भी एनकोर हेल्थकेयर के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में डायरेक्टर के पद पर काबिज हैं। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इस शादी को संपन्न होने में कई हजार करोड़ रूपये ही नहीं खर्च हुए, 7 महीने का समय भी लगा, जिसके दौरान शानो-शौकत का अविश्वसनीय प्रदर्शन हुआ और देश व दुनिया के अमीरों का इसमें जमावड़ा लगा। अखबारों की कतरनें बता रही हैं कि कई सौ करोड़ के तो सिर्फ गिफ्ट लिये और दिये गये। स्वयं देश के प्रधानमंत्री मोदी ने इसमें शामिल हो वर-वधू को आर्शीवाद ही नहीं दिया, अंबानी परिवार के साथ पूरे दो घंटे बिताये और चुने हुए अतिथियों के साथ विशेष कक्ष में विशेष तरीके व उद्देश्य से आयोजित शाही भोज का आनंद भी उठाया। अगर गांधी परिवार को छोड़ दें, तो अंबानी को निशाना बनाने वाला विपक्ष भी इसमें शामिल हुआ और इस शाही शादी का पूरे तौर से लुत्फ उठाया। वैसे तो अंबानी के रसूख के बारे में सबको पहले से पता है लेकिन इस शादी में इसका आलम यह था कि मुंबई के ट्रैफिक रूट में भारी बदलाव कर दिया गया जिससे लगभग आधे मुंबई में आवागमन बाधित हुआ अथवा रुक सा गया। इस तरह पूरा शादी समारोह 7 महीनों तक महज दो जून की रोटी के जुगाड़ में बेदम हुई जा रही देश की जनता का निर्लज्जतापूर्वक मुंह चिढ़ाता रहा, उसकी गरीबी का मजाक उड़ाता रहा।
वैसे तो पूरा मेनस्ट्रीम मीडिया अंबानी परिवार के पक्ष में और उसके साथ खड़ा रहा तथा उसने किसी तरह की प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की, लेकिन फिर भी इस वैभवशाली शादी ने देश में अमीरी-गरीबी की बढ़ती खाई की बहस को फिर से हवा दे ही दी। लोग इस तरह के नग्न वैभव-प्रदर्शन की निंदा कर रहे हैं। देखा जाए, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिस देश में 60 प्रतिशत से अधिक लोग प्रतिदिन 300 रूपये पर किसी तरह गुजारा करते हैं, 80 करोड़ लोग सरकारी राशन के सहारे किसी तरह जिंदा हैं, लोग बेरोजगारी और महंगाई से त्राहिमाम कर रहे हैं – उस देश में ऐसी शादी के बाद गरीबी-अमीरी की बढ़ती खाई पर चर्चा जोर नहीं पकड़ती, तो ही आश्यर्च होता।
जाहिर है, इस चर्चे से अमीर लोग नाखुश हैं। इससे उनके आनंद और सुख में खलल पड़ता है। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। इस तरह की बहस और चर्चा से उनको डर भी लगता है। उन्हें पता है कि इस तरह की चर्चा से जन-विक्षोभ पैदा होता है। उन्हें यह भी मालूम है कि कुछ इसी तरह के बुरे हालात ने फ्रांस की क्रांति को जन्म दिया था। इस क्रांति से निकली एक प्रसिद्ध उक्ति थी – ”जब गरीबों के पास खाने के लिए कुछ नहीं होगा, तो वे धनिकों को खाएंगे।” (When the poor shall have nothing more to eat, they will eat the rich) जिसे आम तौर पर महान पूंजीवादी दार्शनिक और फ्रांसिसी क्रांति के अग्रदूत रूसो से जोड़ कर देखा जाता है। हम पाते हैं कि 2019-20 के बीच में कोविद महामारी के समय अमीरी-गरीबी के बीच की खाई सतह पर नग्न रूप में दिखी थी। तब हमने देखा है कि किस तरह यह सदियों पुरानी उक्ति 19वीं सदी के दूसरे दशक के अंत में, खासकर यूरोप व अमरीका में, बेरोजगारी, कंगाली और भूख से जूझते लोगों का प्रमुख नारा बन गयी। ”भूखे हो? धनिकों को खाओ” (Hungry? Eat the rich!) जैसा नारा सरकार के पूंजीपक्षीय रवैये के विरोध में निकले हजारों लोगों की जुबान तथा तख्तियों पर सुनाई देने व दिखने लगा था।
दरअसल ये नारा 21वीं सदी में उन 1 प्रतिशत सबसे धनी पूंजीपतियों, कंपनियों, बहुराष्ट्रीय निगमों और सरकार में बैठे उच्चाधिकारियों व नेता-मंत्रियों के खिलाफ जनाक्रोश का प्रतीक था जो गरीबी और मुफलिसी में पड़ी दुनिया की बहुलांश आबादी की मजबूरी से लाभ कमाते हैं और बुरे से बुरे वक्त में भी इससे बाज नहीं आते। ये नारा एक तरह की चेतावनी भी है कि अगर यह खाई नहीं भरती है और अगर इसे पैदा करने वाली पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था खत्म नहीं होती है और इसकी क्रूरता पर नियंत्रण कायम नहीं किया जाता है, तो एक दिन पूरी दुनिया के गरीब मेहनतकश लोग किसी भी तरह के नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे और इसके लिए कोई और नहीं ये धन्नासेठ व पूंजीपति ही जिम्मेवार होंगे, जो हर हाल में गरीब मेहनतकशों का खून चूसने और लोगों की मजबूरियों का फायदा उठाने पर आमादा रहते हैं।