डर (कविता)

✒️ हूबनाथ | ‘सर्वहारा’ #55 (16 जुलाई 2024)

डर

डराता ही नहीं

सिखाता भी है

कि डर के माहौल में

कितना महत्वपूर्ण होता है

धीरज

कैसे बंधी रहती है हिम्मत

यकीन में पड़ी दरारें

कैसे मिटाई जाती हैं

डर कसौटी है

आस्था की

विश्वास की

मानवता की

डर के माहौल में भी

बची रही

जिसकी मनुष्यता

डिगा नहीं जिसका साहस

वह खरा मनुष्य है

डरा मनुष्य नहीं

डर इम्तिहान भी लेता है

उन विचारों का

उन पोथियों का

उन मूर्तियों का

उन पाखंडों का

जिन्हें सब कुछ समझकर

सौंप दिया हमने जीवन

उस व्यवस्था

और व्यवस्थापकों की भी

परीक्षा लेता है

जिन्हें गहरा भ्रम था

सर्व शक्तिमान होने का

डर सारे भ्रमों को तोड़ता है

सारे रहस्य खोलता है

अपनी तराजू पर तौलता है

और सबको

उनकी औकात बताता है

डर इतना भी डरावना

नहीं होता है जितना

एक बेशर्म तानाशाह

क्रूर हुक्मरान

लालची व्यवसायी और

घिनौनी सियासत होती है

डर नपुंसक बुद्धिजीवी और

नालायक अवाम से भी

कम डरावना होता है

डर उतना भी बुरा नहीं

जितनी बुरी व्यवस्था में

जी रहे हैं हम


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