बंदर (कविता)

✒️ अशोक कुमार | ‘सर्वहारा’ #55 (16 जुलाई 2024)

सच ही कहा था

डार्विन ने

पहले आदमी बंदर था

फिर आदमी हुआ

विकास की इस दौड़ में

जो पिछड़ गए

वो बंदर ही रह गए

बंदर से

जो आदमी हो गए थे

लगता है

उनमें से कुछ

फिर से

बंदर होने की

उल्टी यात्रा पर निकल पड़े हैं

लेकिन मुसीबत यह

कि अब बंदर ये हो नहीं सकते

और आदमी ये रहे नहीं।

(कवि पूर्व ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और लेखक हैं।)


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