गोर्गी दिमित्रोव ने सही कहा था कि “कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की 13वीं कार्यकारी समिति ने फासीवाद की बिल्कुल सटीक परिभाषा दी है कि फासीवाद वित्तीय पूंजी के सबसे प्रतिक्रियावादी, सबसे अंधराष्ट्रवादी और सबसे साम्राज्यवादी तत्वों की खुली आतंकी तानाशाही को कहते हैं।” लेकिन अगर आम लोगों को फासीवाद समझना हो तो वे पिछले कुछ दिनों में घटित हुई वारदातों का विश्लेषण कर लें। ये घटनाएं फासीवाद का जीता जागता उदाहरण पेश करती हैं। योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश से आती खबरों ने पूरे देश को झकझोर दिया है। यह घटनाएं किसी भी न्याय-पसंद, अमन-पसंद और इस सीमित बुर्जुआ जनतंत्र पर (भी) विश्वास रखने वाले व्यक्ति के दिल को दहला देने के लिए काफी हैं। दो घटनाएं, पहली जिसमें हाथरस में 19 वर्षीय दलित युवती का जघन्य बलात्कार और हत्या की गई और उसके बाद यूपी पुलिस द्वारा जिस तरह मानव जीवन और जनतांत्रिक ढांचे की धज्जियां उड़ा दी गई, और दूसरी घटना जहां बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले में सीबीआई की खास कोर्ट द्वारा सभी 32 अभियुक्तों की ऐतिहासिक दोषमुक्ति। इन दोनों घटनाओं के बारे में बात करना जरूरी है। आइये इन दोनों मामलों का विश्लेषण करें और इनके सतह के नीचे झांकने की कोशिश करें।
14 सितंबर 2020 को चार ठाकुरों द्वारा एक 19 वर्षीय दलित युवती के साथ दिन-दहाड़े हुई बलात्कार की घटना का काफी विस्तृत और भयावह विवरण हमें खबरों से पता है। बलात्कार पीड़िताओं को किस हद तक मानसिक शारीरिक पीड़ा का सामना करना पड़ता होगा, इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। लेकिन इस मामले में, जैसा कि लगभग हर मामले में होता है, हालात को बदतर बनाने में शुरू से ही पुलिस की अहम भूमिका रही थी। परिवार वालों का आरोप है कि पुलिस ने एफआईआर लिखने में देरी की और पीड़िता जब “पत्थर के प्लेटफॉर्म पर पड़ी दर्द से कराह रही थी” तब भी पुलिस ने कुछ नहीं किया। परिवार वालों का ये भी कहना है कि आरोपियों के ठाकुर परिवार से होने की वजह से भी पुलिस एफआईआर लिखने में हिचकिचा रही थी। अभी भी यूपी पुलिस की हिम्मत देखिए कि वो पीड़िता और उसके परिवार को न्याय दिलाने के बजाय मामले में से बलात्कार का एंगल ही गायब करने में लगी है और कह रही है कि बलात्कार हुआ था इसके कोई सबूत मौजूद नहीं है। उत्तर प्रदेश के एडीजी प्रशांत कुमार ने बड़ी बेशर्मी से यह कहा है कि, “पुलिस ने मामले की शुरुआत से ही समयोचित कार्रवाई की है। … जो लोग मामले को भटकाने में (जाती का एंगल दे कर) लगे हैं उनकी पहचान करके उन पर कानूनी कार्रवाई की जाएगी।” पीड़िता को कभी एक अस्पताल तो कभी दूसरे अस्पताल में ले जाते रहा गया और रीढ़ की हड्डी और गर्दन में भयानक चोटों के बावजूद उसे एक हफ्ते तक सामान्य वार्ड में रखा गया, जब तक कि इस मामले में तूल नहीं पकड़ा और बाहर से दबाव नहीं बढ़ा, जिसके बाद उसे आईसीयू में रखा गया और आखिर में सफदरजंग अस्पताल ले जाया गया जहां उसकी मृत्यु हो गई।
हाथरस की घटना ना कोई पहली घटना थी, और ना ही यह आखिरी होगी। केवल रिपोर्ट किए गए मामलों की एक लंबी लिस्ट है सामने, जबकि सारी घटनाओं का एक छोटा हिस्सा ही रिपोर्ट किया जाता है। सभी मामलों पर से तो शायद कभी पर्दा हट ही नहीं पाए। हाथरस की घटना के ठीक बाद बलात्कार के कई मामले सामने आए, जैसे, बुलंदशहर में जो 14 साल की लड़की के साथ बलात्कार किया गया, आजमगढ़ में आठ साल की बच्ची का बलात्कार, बलरामपुर में एक 22 वर्षीय युवती को बुरी तरह प्रताड़ित किया गया, मारा गया और उनका बलात्कार किया गया जिसके बाद अस्पताल जाने के रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गई, बाघपत में 17 साल की लड़की का बलात्कार किया गया और आगरा में एक नाबालिक का बलात्कार हुआ। और इन सब के बीच पुलिस की प्राथमिकता साफ है जिसके तहत वे पूरे मामले को रफा-दफा करने में लगे हुए हैं और इसी क्रम में उन्होंने पीड़िता की लाश को परिवार वालों को देने के बजाय रातों रात बेहद अमानवीय तरीके से उसे जला दिया गया।
आइये, देश में बढ़ रहे बलात्कार और उत्पीड़न के मामलों पर एक नजर डालें। सरकार के द्वारा जारी किये गये आंकड़ों के अनुसार 2019 में प्रतिदिन औसत 87 बलात्कार की घटनाएं रिपोर्ट किये गए और कुल मामलों की संख्या 4,05,861 थी, जो कि 2018 की तुलना में 7% ज्यादा हैं। 29 सितंबर 2019 को राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ‘क्राइम इन इंडिया’ 2019 रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराध क्रमशः 7.3% और 26.5% बढ़ा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत 2009 से 2018 में रिकॉर्ड किये गये मामलों में क्रमशः 281.75% और 575.33% की वृद्धि देखी जा सकती है। इन तबकों के खिलाफ अपराध और उत्पीड़न के मामलों में इस कदर वृद्धि कोई इत्तेफाक नहीं है। यह बीजेपी और आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र, जो कि भारत में फासीवाद का चेहरा है, के लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए चलाए जा रहे घोर प्रतिक्रियावादी, महिला-विरोधी, जाती-विरोधी और सांप्रदायिक प्रचार का सीधा असर है। यह दिखाता है कि आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र में, जो कि मनुस्मृति के कथनों पर आधारित समाज होगा, महिलाएं, दलित, आदिवासी और मुस्लिमों को बेतहाशा दुःख तकलीफ और बर्बरता का सामना करना पड़ेगा और जहां ना जनतांत्रिक अधिकारों के लिए कोई जगह होगी और ना ही विरोध के लिए। नागरिकों को प्रजा बना दिया जाएगा जिनके कोई जनतांत्रिक अधिकार नहीं होंगे और यहां कि मामूली विरोध करने की भी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। जिस कदर महिलाओं और उत्पीड़ित तबकों के खिलाफ जुर्म और दमन बढ़ रहा है उससे ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनका यह फासीवादी प्रचार किस हद तक जनता के बीच घर कर चुका है।
हाथरस की घटना में यूपी पुलिस (और उनके ऊपर की ताकतें जिसमें उनके राजनीतिक आका भी शामिल हैं) के रुख को देखते हुए इस घटना पर विशेष रूप से गौर करने की जरूरत है। मौत के बाद जब पुलिस ने पीड़िता की लाश को सफदरजंग से उसके गांव वापस लाया तो उसे उसके घर ले जाने के बजाय, लाश को सीधा शमशान घाट ले जाया गया और रातोंरात, परिवार वालों के लाख विरोध और मिन्नतों के बावजूद, उसकी लाश का अंतिम संस्कार कर (जला) दिया गया। ऐसा लगता है की उन्हें ऊपर से यानी अपने राजनीतिक आकाओं से ये निर्देश मिला था कि चाहे जो हो जाए, लाश को जल्द से जल्द ठिकाने लगा दिया जाए। उनके परिवार वालों को अपनी बेटी का चेहरा भी एक बार देखने नहीं दिया गया। भारत जैसे ‘जनतांत्रिक’ देश में ऐसी बर्बर घटनाएं होते देखना दिल दहलाने के लिए काफी है। परिवार वालों का आरोप है कि पुलिस उनके साथ अंतिम संस्कार करने के लिए जबरदस्ती कर रही थी और इसे रोकने के लिए उन्होंने खुद को अपने घरों में बंद कर लिया था, लेकिन पुलिस की हिम्मत देखिए कि उन्होंने लाश को परिवार वालों के उपस्थिति के बगैर ही पेट्रोल डाल कर रहस्यमय तरीके से जला दिया जैसे मानो इसकी योजना पहले से बनाई जा चुकी हो। अन्य रिपोर्टों की मानें तो पुलिस ने ही परिवार वालों को उनके घरों में बंद करके और पूरे गांव को घेर कर लाश का अंतिम संस्कार कर (जला) दिया।
यह समझने वाली बात है कि तब तक यह मुद्दा पूरे भारत में आग की तरह फैल चुका था और ऐसे में ड्यूटी पर मौजूद पुलिस वाले अपने स्तर पर इतना बड़ा निर्णय नहीं ले सकते थे। यह निर्णय, इस पूरी घटना को दबा देने के मकसद से, ऊपर से आया था। कुछ रिपोर्ट में यह भी बताया जा रहा है कि हाथरस में धारा 144 लगा दी गई और पुलिस ने चारों तरफ बैरिकेड लगा कर गांव को सील कर दिया और किसी को भी, यहां तक की मीडिया को भी, गांव में जाने और पीड़ित परिवार से मिलने नहीं दे रहे थे। एएनआई न्यूज एजेंसी ने 5 सितंबर को रिपोर्ट किया कि चंद्रशेखर रावण सहित 400-500 लोगों ने पीड़ित परिवार से मिलने के क्रम में धारा 144 का उल्लंघन किया और इस जुर्म में उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की दी गई है जिसमें आईपीसी और महामारी अधिनियम के तहत कई धाराएं लगाई गई हैं।
क्या यह देख कर ऐसा नहीं लगता कि हम किसी विदेशी घुसपैठियों के राज में जी रहे हैं? जवाब है हां। हम ये सोचने पर इसीलिए मजबूर हो रहे हैं क्योंकि इन घटनाओं का सबसे खौफनाक पहलु केवल यूपी पुलिस का संवेदनहीन रवैया नहीं, बल्कि यह है कि उन्होंने ऐसी हरकत देश भर में चल रहे विरोध प्रदर्शनों के बीच और उसके बावजूद किया। कई महिला संगठनों और छात्र-युवा संगठनों, यहां तक कि मजदूर संगठनों और मानवाधिकार संगठनों के द्वारा देश भर में चल रहे विरोध के बीच यूपी पुलिस द्वारा ऐसी हरकत की गई। यह इस घटना को कई गुना ज्यादा भयानक बना देता है। यह भलीभांति जानने के बावजूद की इस घटना पर पूरे देश की नजर है और ऐसे कदमों से एक जन विद्रोह उभर सकता है, एक पक्की फासीवादी सरकार की तरह उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्हें यकीन है कि उनके द्वारा फैलाए गए फासीवादी विचार जनता के दिमाग के भीतर इस कदर घर कर गए हैं कि कोई भी जनांदोलन एक हद के बाद आगे नहीं बढ़ सकता। और अगर बढ़ता भी है तो राज्य मशीनरी और देश भर में फैल चुके उनके गुंडों के फासीवादी संगठनों की मदद से उसे दबाया जा सकता है। जब राहुल गांधी और प्रियंका गांधी जैसे लोगों के साथ, जो कि विपक्ष की मुख्य ताकत और ‘आजादी’ के बाद देश पर सबसे ज्यादा समय के लिए सत्तासीन रहने वाली कांग्रेस पार्टी के सर्वप्रमुख नेताओं में से हैं, सभी मीडिया चैनलों की उपस्थिति में हाथरस के पीड़ित परिवार से मिलने के रास्ते में उनसे बदसलूकी की गई, हिरासत में लिया गया और अंत में आगे नहीं ही जाने दिया गया (पहली बार की कोशिश में नहीं मिलने दिया गया; दूसरी बार भी पुलिस ने बर्बरता दिखाई लेकिन अंत में जाने दिया), तो यह साफ है की आम जनता और कार्यकर्ताओं के जनतांत्रिक अधिकारों के लिए उनके मन में कितनी इज्जत बची होगी। यूपी सरकार ने मानो पूरे देश भर में चल रहे रोषपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया। विपक्ष के बड़े नेताओं के साथ इस तरह के दमनात्मक रवैये का सीधा अर्थ है कि उन्होंने खुद को सफलतापूर्वक सबसे ऊपर बैठा लिया है और राज्य मशीनरी के सभी संस्थानों को अपने पैरों के नीचे दबा लिया है जिसके बाद उनके लिए ‘जनतंत्र’ का ना कोई लिहाज बचा है ना उसकी कोई इज्जत बची है। वे अपने निरंकुश शासन के बल पर सभी आवाजों को दबाते चले जा रहे हैं।
इस बात का सबसे हालिया और सबसे ठोस सबूत, हालांकि, सीबीआई की खास कोर्ट से आ रहा है, न्यायतंत्र का वो हिस्सा जिसे तथाकथित तौर पर ‘स्वतंत्र’ समझा जाता है। बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सभी 32 अभियुक्तों को सीबीआई की खास कोर्ट द्वारा दोषमुक्त करने का फैसला उन फैसलों की सूची में जुड़ गया है जो यह साफ दिखाता है कि अब इस न्यायातंत्र से ऐसा कोई फैसला नहीं आएगा जो सत्ता में बैठे लोगों को जेल की सलाखों के पीछे डाल दे (चाहे उन्होंने कितने ही बड़े अपराध क्यों ना किए हों) और देश को चला रहे राजनीतिक आकाओं को शर्मसार करे जो खुलेआम तानाशाही चला रहे हैं ताकि बड़े कॉर्पोरेट घरानों और पूंजीपतियों को देश की सारी संपत्ति के स्रोत, मजदूर और प्रकृति, को पूरी तरह लूटने की खुली आजादी दे सकें। इतिहास के पन्नो से मासूमों के खून छीटें मिटा दिए गये हैं। अपने फैसले में, सीबीआई कोर्ट के जज एस.के. यादव ने बड़ी मासूमियत से बचाव पक्ष के वकील की हां में हां मिला दिया कि इमारत को कुछ अराजक तत्वों ने तोड़ा जिन्होंने बीजेपी और वीएचपी के नेताओं की बात नहीं मानी जो असल में उन्हें रोकने की कोशिश कर रहे थे। जज ने ऑडियो-विसुअल सबूतों को मानने से भी इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि इसके कोई सबूत नहीं है कि अभियुक्तों ने कार सेवकों को उकसाया था, ना ही कोई सबूत है जो यह दिखाता हो कि इस पूरी घटना के पीछे कोई योजना काम कर रही थी। हालांकि, फैसला जो भी हो, सब जानते हैं कि प्रज्ञा ठाकुर जैसे अभियुक्तों ने खुलेआम गर्व से दावा किया था और आगे भी करेंगी कि बाबरी मस्जिद को ढहाने में उनका हाथ था। प्रज्ञा ठाकुर ने कहा था कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय वो वहां मौजूद थी और उन्होंने इस प्रक्रिया में हिस्सा भी लिया। इस घटना को अंजाम देने के लिए एक पूरा जनांदोलन तैयार किया गया था। लेकिन किसे फर्क पड़ता है जब पूरी प्रणाली ही तथ्यों को झूठलाने, अभियुक्तों को बचाने और उन्हें क्लीन चिट देने के लिए तैयार बैठी हो। अब उन अभियुक्तों के वंशज ही मथुरा और काशी को भी ‘आजाद’ करने की मांग कर रहे हैं। क्या आदरणीय जजों को ये बात पता थी? जो हुआ और जिसे पूरी दुनिया ने देखा, और अभी भी फोटो और वीडियो में देख सकते हैं, को पूरी तरह खारिज करते हुए सीबीआई कोर्ट ने बड़े आराम से यह कह दिया कि वे (अभियुक्त) असल में कार सेवकों को शांत कर रहे थे और उन्हें इमारत ध्वस्त करने से रोक रहे थे!
यह आश्चर्य की बात है कि यह फैसला देश को आश्चर्य में नहीं डालता है, मानो इतना उनके अंतरात्मा को झकझोरने के लिए काफी नहीं है ताकि वे उठ कर यह कह सकें कि अब बस बहुत हो गया। यह आश्चर्य की बात है कि अभी भी यह सभी घटनाएं उनके अंदर वो रोष नहीं भरती जिसके बाद पूरे देश की जनता के अंदर से विरोध की आवाज आए और वो देख पाए की हमारा प्यारा देश कहां जा रहा है। और इन सब के पीछे है आरएसएस और बीजेपी की हिन्दू-मुस्लिम की घृणित राजनीति है जिसे अपने अनगिनत संगठनों के माध्यम से वो जनता के भीतर पूरी तरह भर चुके हैं!
इसके ठोस संकेत हैं कि अगर इसे नहीं रोका गया तो ये एक अंत की शुरुआत होगी जहां भारत की अनेकता में एकता की महान परंपरा नष्ट कर दी जाएगी। इतिहास की अग्रसर गति रोक दी जाएगी। एक गंभीर पश्चगमन की प्रक्रिया चलाई जा रही है जो धीरे धीरे अपनी पूर्ण विजय के बेहद करीब पहुंच चुकी है। सभी जनतांत्रिक संस्थानों को एक एक करके आम जनता को दबाने का, खास कर मजदूरों, मेहनतकशों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और जाहिर तौर पर अल्पसंख्यकों, खास कर मुस्लिमों को दबाने के हथियार के रूप में तब्दील किया जा रहा है। उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जा रहा है। और वहीं दूसरी तरफ, सभी सार्वजनिक व प्राकृतिक संपदा को धड़ल्ले से और बेरोकटोक बड़े पूंजीपतियों और कॉर्पोरेट घरानों को सौंपा जा रहा है। मीडिया विरोध की हर चिंगारी को, जो कि जनता के जनतांत्रिक अधिकारों और जीवन-जीविका पर लगातार बढ़ते हमलों के खिलाफ एक बड़ी आग बन सकता है, बुझाने और जनता का ध्यान भटकाने में लगातार लगी हुई है। उसके बावजूद जो भी विरोध के स्वर उठ रहे हैं उन्हें या तो धमकाया जाता है, जेलों में ठूंसा जाता है या मार दिया जाता है।
हमारे प्रधानमंत्री गुजरात मॉडल के उपज भी हैं और उसके रचनाकार भी जिसने उन्हें उनके राज में भारत के भविष्य की एक झलक प्रस्तुत करने का मौका दिया, एक ऐसा भारत जहां अल्पसंख्यकों को घेटोआइज़ (आम आबादी से अलग करना) किया जाएगा और उनका नरसंहार किया जाएगा और बड़े उद्योगों को ‘इज़ ऑफ डूइंग बिज़नस’ के नाम पर संसाधनों को लूटने और अनुमोदन हासिल करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। मोदी में बड़े पूंजीपति वर्ग को एक ऐसे शासक की झलक दिखी जो उनके लूट-खसोट की पूरी आजादी सुनिश्चित करेगा और इसके साथ ही एक प्रतिक्रियावादी जनांदोलन चला कर और लोगों में नफरत की राजनीति भर कर वो जनता के बीच अपनी लोकप्रियता भी बरकरार रखेगा और इसकी आड़ में धीरे धीरे सभी संस्थानों पर कब्जा करके एक खुली बुर्जुआ तानाशाही कायम कर सकेगा। हम देख सकते हैं कैसे गुजरात मॉडल को पूरे देश भर में लागू किया जा रहा है। यूपी में जो हम देख रहे हैं उसे पूरे देश में लागू होने वाले निरंकुश शासन का अग्रदूत समझा जा सकता है।
इसमें कोई शक नहीं है कि मोदी ने कॉर्पोरेट पूंजीपतियों को बेतहाशा लूट की जगह दी जैसा कि हम सभी क्षेत्रों में, जैसे कृषि, कोयला, बैंक, बिजली, रक्षा और इन जैसे अनेकों क्षेत्रों में, लाई जा रही निजीकरण और निगमीकरण की नीतियों के रूप में देख सकते हैं, और इसके बावजूद मोदी को उसके अंधभक्तों का समर्थन प्राप्त है। लेकिन हम जानते हैं कि आर्थिक संकट पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का एक अवश्यम्भावी सत्य है और यह लगातार गहराएगा और गहरा रहा है। बेतहाशा बढ़ती बेरोजगारी और छिनती नौकरियों की वजह से मोदी की लोकप्रियता को भी एक झटका लगा है, जैसा कि हम सितंबर के पहले हफ्ते से ले कर मोदी के जन्मदिन (17 सितंबर) तक छात्र-युवाओं द्वारा देशभर में हुए स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों में देख सकते हैं। मुनाफे का पहिया अभी भी रुका हुआ है, जीडीपी अभी तक नेगेटिव है और निवेश ना के बराबर है। पूंजीपति वर्ग हर एक क्षण और बेचैन होता जा रहा है। और इसी पृष्ठभूमि पर योगी आदित्यनाथ अपना नया यूपी मॉडल बना रहे हैं, जो कि मोदी के गुजरात मॉडल से भी ज्यादा सांप्रदायिक, जातिवादी, महिला विरोधी और मजदूर-मेहनतकश विरोधी होगा।
मौजूदा यूपी सरकार के राज का इतिहास (और वर्तमान) विरोधियों और आम जनता पर ढाए गए जुल्मों का एक भयावह चित्र पेश करता है। यूपी सरकार द्वारा लाए गए फासीवादी जन विरोधी नीतियों की एक लंबी फेहरिस्त हमारे सामने मौजूद है जिसमें शामिल है युवाओं को परेशान और उनकी मोरल पोलिसिंग करने के लिए बनाए गए एंटी-रोमियो स्क्वाड, मुस्लिमों और दलितों की अनेकों मॉब लिंचिंग के पीछे काम करने वाले गौ रक्षक दल और उनका पूरा नेटवर्क, अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्रों पर हुए हमलों और पीड़ितों को ही दोषी बता कर उन्हें जेल में ठूंसना, सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं की छवि और निजी जानकारी के बड़े बिलबोर्ड सड़कों पर लगाना और उनसे भारी-भरकम जुर्माना वसूलना, कोविड-19 की आड़ में तीन सालों के लिए श्रम कानून रद्द करना, हाल में ही लव जिहाद पर अध्यादेश लाने की बात, परीक्षाओं में उत्तीर्ण छात्रों को भी पक्की सरकारी नौकरी देने से पहले पांच साल संविदा पर रख कर हर छः महीने पर उनका मुल्यांकन करना, और यूपीएसएसएफ (उत्तर प्रदेश स्पेशल सिक्यूरिटी फोर्स) का गठन जो कि एक ऐसा पुलिस बल होगा जिसे बिना कोर्ट वारंट के कार्रवाई करने और लोगों को गिरफ्तार तक करने की पूरी आजादी होगी। यह सब आने वाले दिनों की एक दिल दहला देने वाली छवि प्रस्तुत करते है। हो सकता है कि लोगों को अभी भी ये भ्रम हो कि हिंदुत्व के नाम पर जो भी किया जा रहा है वो आम हिन्दू भाइयों के लिए है, लेकिन सत्य यही है, जो कि दिन प्रतिदिन और साफ होते जा रहा है, कि यह पूंजीपतियों को आम मेहनतकश जनता के खून का आखरी कतरा तक चूस लेने के अवसर प्रदान करने के मकसद से किया जा रहा है। इन फासीवादियों के सपनों के भारत में अल्पसंख्यकों को उनकी जगह दिखा दी जाएगी, लेकिन उससे ज्यादा भयावह यह है कि विरोध की आवाजों के उठते ही उनका गला घोंट दिया जाएगा, मजदूरों के पास खुद को बचाने के लिए कोई कानून नहीं होंगे, विरोध प्रदर्शनों को बेरहमी से कुचल दिया जाएगा, किसी भी तरह के विपक्ष की कोई जगह नहीं होगी और उनके फासीवादी गुंडों की निजी सेना खुलेआम सड़कों पर घूमेगी और सर उठाने वाले हर व्यक्ति के दिलों में दहशत भरेगी। और जब ये सब संपन्न हो जाएगा तो बड़े पूंजीपतियों को आकाश से ले कर पाताल तक सब कुछ लूटने से रोकने वाला कोई नहीं बचेगा। ये है उनके राम राज्य या हिन्दू राष्ट्र की सच्चाई।
लेकिन जैसे जैसे आम जनता पर अत्याचार बढ़ाये जा रहे हैं और बेरोजगारी और कंगाली अभूतपूर्व स्तरों तक पहुंच चुकी है और थमने का नाम नहीं ले रही है, वैसे वैसे सभी धर्मों के लोग, खासकर के हिन्दू धर्म के लोग हाशिये पर धकेले जा रहे हैं जिसकी ताप वो लगातार महसूस कर रहे हैं। मजदूर वर्ग से ले कर मध्यम वर्ग तक, सभी तबकों ने मौजूदा कोविड-19 महामारी के दौरान नारकीय परिस्थितियों का सामना किया है और अभी भी कर रहे हैं जिसकी वजह सिर्फ और सिर्फ निर्वाचित सरकारों की लापरवाही और उदासीनता है। जनता का हर हिस्सा चाहे वो छात्र-युवा हों, मजदूर, महिलाएं, किसान, छोटे-मझोले व्यापारी या निम्न पूंजीवादी तबका हो, सभी कहीं ना कहीं इस सरकार से नाखुश और असंतुष्ट हैं। यहां तक कि मोदी के कट्टर समर्थक रह चुके लोग भी आज सरकारी नीतियों के खिलाफ खुलेआम स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन में हिस्सा ले रहे हैं। यह सबूत है कि उम्मीद की किरण अभी बाकी है और इन भयावह दिनों का अंत जरूर होगा। हालांकि यह सच है कि आज देश को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है।
हमें समझने की जरूरत है कि ऐसे दौर में जहां सरकार बहरी हो गई है, वहां एक-दो दिवसीय टोकन प्रदर्शन, अपील और प्रार्थनाओं की आवाज सरकार को सुनने पर मजबूर करने के लिए काफी नहीं है। पिछले कुछ दिनों की घटना ये दिखाती है कि मौजूदा सरकार हमें अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की आजादी देने के लिए भी खुद को बाध्य नहीं समझती। तो फिर यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो हमारे तात्कालिक मांगों को सुनेगी या हमारी समस्याओं को हल कर देगी? यह है आज का मुख्य सवाल। मौजूदा सरकार का जनता की मांगों और आशाओं के प्रति रवैया पूरी तरीके से जन विरोधी है। सभी प्रगतिशील जनवादी ताकतों को इसे रेखांकित करना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं है कि योगी का उत्तर प्रदेश हिन्दू राष्ट्र की एक झलक है और उनका उद्देश्य साफ है। यह सरकार जनता की सेवा करने के लिए नहीं आई है। दुनिया में कहीं भी ऐसी सरकारों ने कभी जनता के जीवन की इज्जत नहीं की है और इतिहास में कहीं भी वो ऐसे प्रतीकात्मक प्रदर्शनों से डरी नहीं है। यह बदलाव साफ है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। आज का कार्यभार है इस स्वतःस्फूर्तता के शीर्ष पर सवार होना, और ऐसे दौर में जनता की शिक्षा, राजनीतिकरण और लामबंदी पर ध्यान देने की जरूरत है, और तात्कालिक मांगों के आगे हमारे दीर्घकालीन लक्ष्य को रखने की और दोनों को एक साथ मिला कर लोगों को हर अन्याय के खिलाफ खड़ा करने की जरूरत है। हमारा काम है एक नई दुनिया के सपने की लौ को लोगों के दिलों में जलाने के नए तरीके इजात करना और एक ऐसी दुनिया बनाना जहां से पूंजी के एकाधिकार की छाया भी हटा दी गई हो और हर तरफ न्याय और समृद्धि व्याप्त हो। प्रगतिशील जनतांत्रिक ताकतों को यह कला जल्दी सीखनी होगी क्योंकि बढ़ रहे बलात्कारों, हत्याओं और कॉर्पोरेट लूट के बीच एक अशांति का दौर जल्द आ रहा है। हमारी जिम्मेदारी है कि हम जहां भी हैं वहां एकता कायम करें और जल्द से जल्द अपनी शक्तियों को जोड़ लें। आइये, हम उस कार्यभार को महसूस करें जो इतिहास के इस मोड़ पर हमारे कंधो पर डाला गया है। आइये, हम अपने देश के सर्वहाराओं का आह्वान करें कि वे मौजूदा स्थिति में, जो हर तरफ से हमें घेर रही है, के बीच राजनीतिक हस्तक्षेप करें। हम उम्मीद करते हैं कि पूंजीवाद की सड़ती लाश को हम उसकी कब्र तक पहुंचा कर रहेंगे। आइये, हम इसकी कब्र खोदने वालों की मदद करें ताकि वो इस कार्यभार को पूरा कर सकें और एक नई दुनिया की नींव रख सकें जहां मानवजाति को ऐसी भयावहता कभी ना झेलनी पड़े।
यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 6/ अक्टूबर 2020) के संपादकीय में छपा था
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