कृषि विधेयक : कृषि नीति के मौजूदा बदलाव सरमाएदारों पर महर – गरीबों पर कहर

एस. वी. सिंह //

भारत के किसान की ‘मुक्ति’ का नम्बर भी आखिरकार लग ही गया!! मोदी सरकार समाज के एक के बाद दूसरे हिस्से की ‘मुक्ति’ की हड़बड़ी में है, रुकने-सुनने को बिलकुल तैयार नहीं। ‘मुक्ति’ से बचने की कोई गुंजाईश ही नहीं! इस बार, लेकिन, लगता है कुछ ज्यादा ही हो गया। सशक्त किसान समुदाय जो 2014 से ही इस फासीवादी सरकार का सबसे बड़ा समर्थक रहा है, गुस्से में तिलमिलाकर आग उगल रहा है। देशभर में किसान सड़कों और रेल की पटरियों पर जमे हुए हैं और आगामी 25-26 नवम्बर को भारत बन्द और दिल्ली घेराव का ऐलान हो चुका है। मोदी सरकार को अपने 6 साल के कार्यकाल में पहली बार किसानों के रोष विद्रूप संगीत का सामना करना पड़ रहा है। कृषि ‘सुधार’ के नाम पर 3 कानून; ‘कृषि उपज, वाणिज्य एवं व्यापार (संवर्धन एवं सुविधा) कानून 2020’; ‘मूल्य आश्वासन कृषक (सशक्तिकरण और सुरक्षा) समझौता कृषि सेवा कानून 2020; तथा ‘आवश्यक वस्तु संशोधन कानून 2020’लाकर मोदी सरकार ने कृषि व्यापार, संग्रहण एवं बिक्री के अति महत्वपूर्ण क्षेत्र में पूंजीवादी बाजारी शक्तियों के गले का जैसे पट्टा ही खोल दिया है। कृषि वाणिज्य व्यापार में लाए गए ये बदलाव सीधे तौर पर भी 80 करोड़ लोगों को गंभीर रूप से प्रभावित करने वाले हैं लेकिन परोक्ष रूप से देश के हर जीवित को प्रभावित करने वाले हैं क्योंकि कोई भी इन्सान, गरीब हो या अमीर, खाना खाए बगैर जिंदा नहीं रह सकता। इतने महत्वपूर्ण बदलाव लाने वाले अध्यादेश लाने के लिए सरकार ने 5 जून का दिन चुना, जब कोरोना महामारी की भयावहता; जिसमें एक लाख से ज्यादा लोग अपनी जान से हाथ धो चुके हैं और 68 लाख संक्रमित हो चुके हैं, देश कोरोना कुप्रबंधन में दुनिया में दूसरे नम्बर पर है; की वजह से अपने घरों में दुबके ‘आत्मनिर्भर’ बैठे हैं!! ‘आपदा में अवसर’ के नाम पर कोरोना महामारी को मोदी सरकार ने अपने आका कॉर्पोरेट के हित में इस कदर इस्तेमाल किया है जितना कोई दूसरा देश सोच भी नहीं सकता!! सरकारी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा देखिए; इन कृषि संशोधनों को ‘कोरोना महामारी के राहत पैकेज’ के रूप में प्रस्तुत किया गया था!! असलियत ये है कि कोरोना वायरस ने मोदी सरकार का असली घिनौना चेहरा देश के सामने नंगा कर दिया है, पर्दा फट चुका है। राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले कृषि विभाग और मंडी समितियों के मामले में आमूल चूल परिवर्तन करने के लिए भी,  किसी भी राज्य से कोई सलाह मशविरा ना करना, संसद में खासतौर से राज्यसभा में, जहाँ सरकार अल्पमत में है, इन्हें पास करवाने में हर धोखाधड़ी, जैसे जबरदस्ती समय बढ़ाना, विपक्ष की विरोध में की गई चिल्लाहट को ‘ध्वनी मत’ बताना; ये सब हथकंडे सिर्फ संसदीय मान्यताओं और संघीय ढांचे की मर्यादाओं को पैरों तले कुचलना ही नहीं है बल्कि मोदी सरकार का फासीवादी चरित्र रेखांकित करता है। देश, लेकिन, पतन के उस स्तर को छू चुका है, जब ना तो सरकार को ही इस बात की परवाह है कि उसका असली चरित्र नंगा हो रहा है और ना लोग अब इन कारनामों से हैरान होते हैं!! अँधेरा सर्वग्राही और सर्वव्यापी हो चुका है। कृषि बाज़ार में पूंजी के इस निर्बाध और बेरोकटोक हमले के बहुत भयानक परिणाम होने वाले हैं। लघु एवं सीमांत किसानों, जिनकी तादाद कुल किसानों की 86% है, की तबाही निश्चित है। वे अपनी छोटी छोटी जोतों से बेदखल होकर बे-रोजगारों की विशालकाय सेना का हिस्सा बन जिंदा रहने की जद्दोजहद में शहरों का रुख करेंगे जहाँ पहले से ही रोजगार के स्रोत सूख चुके हैं। पहले से ही संकट में घिसट रही अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी से चौपट हो चुकी है, उत्पादन हर क्षेत्र में 50% से भी नीचे स्तर पर है, ‘विकास की हरी कोपलें’ अब मोटी सरकारी पगार पर पल रहे दरबारी अर्थशास्त्रियों को भी नजर आनी बंद हो चुकी हैं। ‘उत्पादन कोरोना पूर्व का स्तर कभी नहीं छू पाएगा’ ये सच्चाई अब औपचारिक रूप से भी स्वीकार की जाने लगी है। दूसरी तरफ़ चंद एकाधिकारी पूंजीपतियों के पूंजी के पहाड़ विशालकाय होते जा रहे हैं। कोरोना लॉक डाउन काल में भी मुकेश अम्बानी की सम्पत्ति हर घंटे 90 करोड़ रुपये से बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में सरकार, मतलब पूंजीपतियों की मैनेजमेंट समिति, बड़े पूंजीपतियों को पूंजी निवेश और बेरोकटोक लाभ कमाने के अवसर प्रदान करने के लिए कृषि क्षेत्र का लगभग 62 लाख करोड़ का व्यापार तश्तरी में रखकर अर्पित कर रही है। ये बात दीगर है कि पूंजीवाद नाम का मरीज जो पहले ही आई सी यू में है और इतनी सारी जान लेवा बिमारियों से ग्रस्त है कि उस पर किसी भी इंजेक्शन का कोई असर नहीं हो रहा। एक बीमारी का ईलाज किया जाता है तो उससे दूसरी उससे भी घातक बीमारी के लक्षण नजर आने लगते हैं इसलिए ये ‘ईलाज’ उसके लिए प्राणघातक भी सिद्ध हो सकता है।

शांता कुमार समिति की सिफारिशें 

शेखी बघारते हुए लम्बे-चौड़े, ऊलजलूल वादे, कैसे पूरे होंगे इसकी फ़िक्र क्यों की जाए जब पूरे करने ही नहीं हैं, एकाधिकारी पूंजीपतियों की मनचाही आर्थिक मदद, ताबेदार, बिक चुका मिडिया और ऊपर से कट्टर राष्ट्रवाद और मजहबी खुमारी ने मिलजुलकर ऐसी भयानक लहर पैदा की कि लोकसभा चुनाव परिणामों पर खुद भाजपा यकीन नहीं कर पाई!! सत्ता हासिल कर सरकार ने अपने ‘असली’ काम में लगने के लिए इन्तेज़ार में बिलकुल वक़्त नहीं गंवाया। अगस्त 2014 में ही हिमाचल प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री तथा ‘संघ विचारक’ शांता कुमार की अध्यक्षता में एक 6 सदस्यीय समिति गठित की गई जिसके अन्य सदस्य थे; हरियाणा और पंजाब के मुख्य सचिव, कृषि लागत एवं मूल्य आयोग भूतपूर्व चेयरमैन अशोक गुलाटी जो इन कृषि कानूनों के सूत्रधार हैं, भारतीय खाद्य निगम के चेयरमैन, आई आई एम अहमदाबाद के जी रघुराम तथा हैदराबाद विश्वविद्यालय के जी ननचैय्या। उन्हें सौंपा गया काम था; भारतीय खाद्य निगम (FCI) की सम्पूर्ण कार्य पद्धति, वित्तीय संरचना एवं प्रशासन में ‘सुधार’ लाने के लिए क्या किया जाए? शांताकुमार समिति की सिफारिशों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि मौजूदा कृषि नीति बदलाव की तैयारी 2014 से ही शुरू हो चुकी थी।

सिफारिशें

  1. खाद्य सुरक्षा (सरकारी सस्ते गल्ले) का लाभ जो मौजूदा समय देश के 67% गरीबों को मिल रहा है उसे घटाकर सिर्फ 40% लोगों तक ही सीमित कर दिया जाए। अनाज और दूसरे खाद्य पदार्थों की खरीद की छूट निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी दे देनी चाहिए। मतलब कृषि उपज व्यापार का निजीकरण किया जाना चाहिए।
  2. देश के 6 राज्यों; पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में भारतीय खाद्य निगम के सम्पूर्ण कामकाज को राज्य सरकारों को सोंप दिया जाना चाहिए।
  3. केंद्र द्वारा न्यूनतम समर्थन (MSP) मूल्य घोषित होने के बाद भी कुछ राज्य सरकारें उसमें जो अतिरिक्त अनुदान राशी जोड़ देती हैं। ये प्रथा तत्काल बंद होनी चाहिए।
  4. खाद्य अनुदान (सरकारी सस्ते गल्ले) की जगह नकद पैसे लाभार्थी के बैंक खाते में सीधे जमा कर दिए जाएं। ऐसा करने से सरकारों को अनुदान राशी में रु 33000 करोड़ रुपये की बचत होगी। इस बात से ये स्पष्ट हो जाता है की जब भी अनुदान की जगह लाभार्थी को नकद भुगतान की बात की जाती है तो वो वास्तव में उक्त लाभ/ अनुदान को बंद करने की ही कवायद होती है वरना इतनी भारी रकम की ‘बचत’ कैसे हो सकती है!!
  5. सरकार की ‘चावल उगाही नीति’ के तहत, सरकार की जरूरत के मुताबिक, चावल मिलों को चावल की एक निश्चित मात्रा (25% से 75%) सरकार को बाज़ार भाव से कम एक निश्चित भाव से देनी होती है। जिसे सरकार अनाज के सस्ते गल्ले की दुकानों द्वारा वितरण के लिए उपलब्ध कराती है। बाकी बचे चावल को चावल मिल मालिक खुले बाज़ार में बेचकर अधिक मुनाफ़ा कमाने के लिए स्वतन्त्र होते हैं। समिति ने सरकार की इस चावल उगाही नीति को बंद करने की सिफारिश की। मतलब सरकारी दुकानों द्वारा सस्ता गल्ला उपलब्ध कराने को बंद करने को सीधे तरह ना कहकर उसी बात को घुमा फिराकर कहा गया। चावल मिल मालिकों के मुनाफ़े की इतनी चिंता करने की वजह क्या है, इस बाबत कुछ नहीं कहा गया!!
  6. खाद्य भण्डारण को निजी कंपनियों को दिया जाए। भण्डारण के बाद किसान विक्रेता को एक वेयरहाउस रसीद जारी की जाए जिसे गिरवी रखकर किसान बैंकों से कर्ज़ ले सकें।
  7. भारतीय खाद्य निगम को भी अनाज को खुले बाज़ार में बेचने की छूट दी जाए। इसे ‘व्यापार में लचीलापन’ लाना बोला गया ठीक वैसे ही जैसे सरकार हर वक़्त ‘व्यापार करने में सरलता’ प्रदान करने की बात कर मालिकों को मजदूर श्रम की खुली लूट की छूट देती रहती है!!
  8. समिति ने 3 बहुत चौंकाने वाले तथ्यों को स्वीकार किया। पहला- कुल 6% किसान ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर अपना अनाज बेच पाते हैं, दूसरा- सरकारी खाद्य वितरण में कुल 40 से 50% की चोरी (लीकेज) होती है और तीसरा- 40 से 50% गरीबों को सस्ते गल्ले का लाभ नहीं मिलता जिसके वे हकदार हैं। दर्दनाक विडम्बना देखिए कि इस चौंकाने वाली सरकारी बेईमानी को स्वीकार कर उसे दूर करने और इस चोरी के लिए ज़िम्मेदार लोगों को दण्डित करने की सिफारिश करने के बजाए इस लूट की स्वीकारोक्ति को खाद्यान्न खरीदी और वितरण का निजीकरण करने के लिए इस्तेमाल किया गया!!
  9. एक और सिफारिश गौर करने लायक है। मंडी समितियां गेहूं और चावल की खरीदी पर जो टैक्स लेती हैं उसे एक दम कम किया जाए!! उदाहरण के लिए पंजाब में इस मद पर लिए जाने वाले कर को 14% से घटाकर मात्र 3 या 4% करने को कहा गया!!

ज़ाहिर है कि शांता कुमार समिति का गठन और उसकी सिफारिशें मौजूदा कृषि नीति बदलाव की शुरुआत थीं।

पहला कानून: ‘कृषि उपज, वाणिज्य एवं व्यापार (संवर्धन एवं सुविधा) कानून 2020’ 

रविवार 20 सितम्बर को राज्य सभा में संसदीय मान्यताओं का पैरों टेल कुचलते हुए जो दो बिल पास कराए गए, ये उनमें से एक है। कृषि उपज की सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन  मूल्य (MSP) पर खरीदी के लिए देश भर में कृषि उपज मंडियों (APMS) की कुल तादाद 28000 है जिनका एक निर्धारित खरीदी क्षेत्र होता है जहाँ सरकार द्वारा खरीदी की जाती है। इस नए कानून का उद्देश्य है जीवनावश्यक अनाजों तथा दूध, अंडा, मछली आदि की खरीद, व्यापार और बिक्री को सरकारी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त करना है। साथ ही निजी कंपनियों को खुले बाज़ार में किसी भी अनाज की कितनी भी खरीदी कर उसे कहीं भी ले जाकर बेचना सुनिश्चित करना है। ना कोई लाइसेंस की जरूरत ना कोई टैक्स देने की जरूरत। सिर्फ राज्य भर में ही नहीं एक राज्य से दूसरे किसी भी राज्य में पुरे देश भर में मुक्त व्यापार सुनिश्चित करना। मोदी सरकार का नारा है; ‘एक देश एक बाज़ार’। मौजूदा सरकार को अनेकता, विविधता से बहुत नफ़रत है, सब कुछ एक जैसा होना चाहिए। जी एस टी ने ‘एक देश एक कर’ लाया जिसने छोटे व्यापारियों के व्यापार को ध्वस्त कर उसे बड़े एकाधिकारी पूंजीपतियों के हवाले कर दिया ठीक उसी तरह कृषि उत्पाद में ‘एक देश एक बाज़ार’ गरीब किसानों को जमीनों से बेदखल ही नहीं करेगा बल्कि पुरे देश के गरीबों को गेहूं, चावल, दाल, तेल आदि के लिए भी मोहताज कर देगा। सब कुछ कॉर्पोरेट के गोदामों में जमा होगा और फिर वो अधिकतम मुनाफ़ा वसूलने के लिए हौड़ करेंगे!! साथ ही इतने विशाल, विविधतापूर्ण देश में ‘एक देश- सब कुछ एक’ की सनक ‘एक देश’ का सत्यानाश करके छोड़ेगी!! सरकार अनाज खरीद बिक्री का कोई हिसाब भी नहीं रखेगी। सब कुछ धन्ना सेठों के ‘विवेक’ पर निर्भर होगा!! इस बिल को ‘अनाज मंडी बाई पास बिल’ भी कहा जा रहा है जो बिलकुल सही है। सरकार को देश के खजाने की और गरीबों की कितनी चिंता है ये इस बात से भी साबित होता है कि निजी कंपनियों की खरीद के लिए कृषि उपज मंडियों से होने वाली कर वसूली जिसके द्वारा अकेले पंजाब राज्य ने पिछले साल कुल 350 रुपये की आय अर्जित की, सरकार उसे पूरी तरह माफ करने जा रही है जबकि दूसरी तरफ़ गरीब किसान मजदूरों का खून निचोड़ते हुए डीजल-पेट्रोल पर 250% तक टैक्स लगा रही है और उसे बढ़ाती ही जा रही है। एकाधिकारी पूंजीपति, जो बाज़ार में मुक्त स्पर्धा को समाप्त कर उसे एकाधिकारी कैसे बनाया जाए, इस विधा में विशेष योग्यता रखते हैं, उन्हें सरकार शुरू में ही 14% कर छूट देकर उनका मैदान साफ करने जा रही है। मोदी जी ठीक कह रहे हैं की कृषि उपज मंडियों को समाप्त नहीं किया जाएगा। दरअसल, उन्हें समाप्त करने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी वे स्वतः अपनी मौत मर जाएंगी!! पूंजीवाद किसी को मारने का गुनाह नहीं करता, वो खुद दम घुटकर मर जाए बस ये सुनिश्चित करता है। इसके साथ ही कृषि जिन्सों की इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग भी शुरू करने जा रही है ठीक वैसे ही जैसे शेयर मार्किट में दूसरी वस्तुओं की ट्रेडिंग होती है। भारत का गरीब किसान जो अपने हस्ताक्षर नहीं कर पाता, हर जगह अंगूठा टेकने को मजबूर होता है, अब ऑन लाइन ट्रेडिंग करके ‘अपनी आमदनी डबल करेगा’!!

दूसरा कानून: ‘मूल्य आश्वासन कृषक (सशक्तिकरण और सुरक्षा) समझौता कृषि सेवा कानून 2020’

राज्य सभा के उप सभापति हरिवंश के साथ मिलीभगत से संसदीय मान्यताओं को कुचलते हुए किसानों के ‘सशक्तिकरण’ के लिए रविवार को जिस दूसरे कानून को पास किया गया, ये वही कानून है। इस कानून द्वारा जमीन का मालिक किसान और सरमाएदार कंपनियों के बीच कोई निश्चित फसल अथवा दूध उत्पादन के लिए लिखित समझौता किया जा सकेगा। मतलब अब, भेड़ और भेड़िया दोनों एक टेबल पर बैठ आपस के ‘व्यापार’ की शर्तें तय कर सकेंगे!! समझौता कम से कम एक फसल अथवा एक दूध उत्पादन सीजन के लिए और अधिकतम 5 साल के लिए किया जा सकेगा। फसल चक्र या दूध चक्र अगर उससे अधिक है तो उससे अधिक भी हो सकता है। बिक्री की दर और शर्तें भी अनुबंध समझौते में लिखी होंगी। अनुबंध समझौते की शर्तों का पालन ना होने पर होने वाले विवाद को सुलझाने के लिए एक ‘विवाद निवारण बोर्ड’ के गठन का प्रावधान है। जिसे 30 दिन के अन्दर विवाद निबटाना होगा। बोर्ड का निर्णय मान्य ना होने पर अपील जिला अधिकारी के सम्मुख की जा सकेगी। यहाँ भी निवारण फैसले के लिए 30 दिन का ही प्रावधान है। इसका मतलब हुआ की कंपनी के विरुद्ध किसान अदालत में नहीं जा सकेंगे। अंतिम फैसला जिला स्तर के सरकारी अधिकारियों को ही लेना है। किसानों को अपने इस बलपूर्वक किये जाने वाले ‘सशक्तिकरण व मुक्ति’ का विरोध करने के ठोस कारण मौजूद हैं। पहला अनुभव: देश में कई जगह पर बियर उत्पादन करने वाली कंपनियों ने आस पास के गांवों के किसानों के साथ जौ की फसल उगाने के करार किये जिसे एक निश्चित दाम पर खरीदने के करार हुए। पहली फसल में सब ठीक रहा। अगली फसल में किसानों ने जौ की फसल का क्षेत्र बढ़ा दिया। दूसरी तरफ़ उस विशेष बियर की बिक्री कम हुई। मांग गिर गई। कंपनी ने जौ की फसल खरीदने से मना कर दिया; ‘उत्पाद की गुणवत्ता घटिया है, इसमें नमी ज्यादा है’। किसान फसल का भण्डारण करने की स्थिति में होते नहीं इसलिए औने पौने दाम पर किसी तरह बा- मुश्किल वे अपनी फसल बेच पाए। दूसरा अनुभव: जमे हुए हरे मटर बेचने वाली कंपनी ‘सफल’ ने पंजाब में किसानों से मटर उगाने का ठीक वैसा ही समझौता किया। मटर के दाम रु @8/ प्रति किलो तय हुआ। जैसे ही कंपनी की मांग से मटर की आपूर्ति ज्यादा हुई, कंपनी ने वही थाथुर-माथुर वजह बताते हुए समझौते को तोड़ दिया। वही मटर किसानों ने 8 रु की जगह मात्र @2.5/ किलो की दर से बेचकर मटर से पीछा छुड़ाया। तीसरा अनुभव: पंजाब में ही ठण्डा पेय बनाने वाली कंपनी पेप्सी ने किसानों से आलू उपजाने का अनुबंध किया क्योंकि कंपनी पेप्सी के साथ आलू चिप्स के व्यापार को बढ़ाना चाहती थी जो युवाओं को बहुत पसंद है। आगे घटनाक्रम  बिलकुल समान रहा। बस एक अंतर रहा; किसानों के आन्दोलन उग्र और हिंसक होने पर ही कंपनी ने आलू खरीदे और मुकदमा अदालत में भी गया। चूंकि ना उत्पादन में अराजकता का पूंजीवाद का अन्तर्निहित नियम बदलने वाला है और ना सरमाएदार की फ़ितरत बदलने वाली है इसलिए इन ‘किसान-सरमाएदार’ समझौतों का भविष्य भी ठीक वही होना है जो उनका भूतकाल रहा है। सिर्फ समझौतों का ही नहीं, ये दैत्याकार कंपनियां अपने मुनाफ़े के रास्ते में रूकावट बनने वाले समझौतों से कैसे निबटते हैं इसके भी दो एकदम ताज़ा उदाहरण प्रस्तुत हैं जो सितम्बर माह के ही हैं; पहला: वोडाफोन मोबाइल कंपनी ने पहले हचिसन और फिर आईडिया कंपनियों को निगल लिया (हालाँकि वो खुद अब जियो द्वारा निगली जाने वाली है!), अपनी फ़ितरत के अनुसार कंपनी ने टैक्स में घोटाला किया और सरकार ने उस पर टैक्स और ब्याज मिलाकर कुल रु 27000 करोड़ की वसूली निकाल दी। इन कंपनियों को टैक्स-जुर्माने अदा करना कभी पसंद नहीं होता!! कंपनी ने सरकार को भुगतान करने के झूठे वादे कर 7000 करोड़ माफ करा लिए। अब वसूली 20000 करोड़ रुपये की रह गई। वोडाफोन का भुगतान का मूड फिर भी नहीं हुआ। कंपनी सुप्रीम कोर्ट चली गई। भारतवर्ष की सुप्रीम कोर्ट में वोडाफोन ने भारतवर्ष की सरकार को हरा दिया। भारतवर्ष की सरकार ने हेग (स्वीडन) में वोडाफोन के ख़िलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल में केस दायर कर दिया वहां भी भारतवर्ष की सरकार हार गई। अब 20000 करोड़ रुपये तो छोड़िए, भारतवर्ष की सरकार वोडाफोन कंपनी को 44 करोड़ रुपये हर्जाने और वकील फ़ीस की एवज में भुगतान करेगी!! दूसरा: फेसबुक कंपनी ने पिछले चुनावों के दरम्यान सत्ता पक्ष से पैसे ग्रहण कर एकदम झूठी, बे-बुनियाद और साम्प्रदायिकता बढ़ाने वालीं मतलब उग्र हिंदूवादी खबरें फैलाईं, ये बात साबित हो गई (ये कंपनी ऐसे कर्म कई देशों में संपन्न कर चुकी है)। ये निहायत ही गंभीर अपराध की कार्यवाहियां हैं जिनके तहत कंपनी के ख़िलाफ़ एफ आई आर दायर कर उनके अधिकारियों को तुरंत गिरफ्तार किया जाना चाहिए था। वैसा कुछ ना होते देख दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने ‘लोकतंत्र के सबसे पावन मंदिर’ दिल्ली विधान सभा में प्रस्ताव पारित किया कि देश में फेसबुक के सर्वोच्च अधिकारी को विधानसभा में बुलाकर लताड़ा जाए। उक्त अधिकारी ने विधानसभा प्रस्ताव का आदेश नकार दिया और विधानसभा जाने की बजाए ‘लोकतंत्र के दूसरे पावन मंदिर’ उच्च न्यायालय में चला गया। उच्च न्यायालय ने उसके फैसले को एकदम उचित ठहराया!! ‘माननीय विधायकों’ के चेहरे  खिसियाकर लाल रह गए!! ये कंपनियां अब इस आकार की हो चुकी हैं कि इनकी मालमत्ता कई देशों की कुल जी डी पी से भी अधिक हैं। ये देशों की सरकारें गिराने या बनाने की हैसियत रखती हैं। ऐसे में जिला अधिकारी इनके विरुद्ध किसान को जो न्याय दिलाएगा वो सब अच्छी तरह जानते हैं!!

तीसरा कानून: ‘आवश्यक वस्तु संशोधन कानून 2020’

ये कानून 22 सितम्बर को पास हुआ। उस दिन संसदीय हेराफेरी की आवश्यकता ही नहीं रही  क्योंकि तब तक 10 सांसद निलंबित हो चुके थे और उसका विरोध करते हुए विपक्ष वाक आउट कर गया था। ये कानून, एक बहुत पुराने और जनहित वाले ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955’ को बदलने के लिए लाया गया है। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 कानून की धारा 3(1) के अनुसार सरकार जीवनावश्यक वस्तुओं जैसे खाद्यान्न, रासायनिक खाद एवं पेट्रोलियम आदि पदार्थों को आवश्यक वस्तु घोषित कर इनका उत्पादन, खरीद, वितरण, भण्डारण आदि को नियंत्रित एवं विनियमित कर सकती है। मौजूदा आवश्यक वस्तु संशोधन कानून ने जीवनावश्यक वस्तुओं को भी सरकारी नियंत्रण से पूरी तरह हटा दिया है। इसमें कहा गया है कि सरकार कोई भी नियंत्रण,  इन वस्तुओं जैसे गेहूं, चावल, आलू, प्याज, खाद्य तेल आदि पदार्थों पर, सिर्फ युद्ध, अकाल, अत्याधिक मूल्य वृद्धि तथा अति गंभीर प्राकृतिक विपदा के समय ही कर सकती  है। अन्यथा ये वस्तुएं भी बाकि वस्तुओं जैसे ही ‘बाज़ार नियम’ से संचालित होंगी। इस कानून का सबसे घातक और घोर जन विरोधी पहलू ये है कि कोई भी कंपनी कितना भी अनाज खरीदकर कितना भी स्टॉक जमा कर सकती है। अनाज, दालें, आलू, प्याज, खाद्य तेल आदि अत्यंत जीवनावश्यक वस्तुओं के मामले में इस प्रस्तावित खुले बाज़ार में सरकार इन चार परिस्थितियों में ही हस्तक्षेप कर सकेगी; युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि तथा गंभीर प्रकृति की प्राकृतिक विपदा। स्टॉक करने के सीमा के बारे में सरकार तब ही हस्तक्षेप करेगी जब कीमतों में तीव्र वृद्धि हो। ‘तीव्र वृद्धि’ का मतलब इस तरह बताया गया है; कीमतों में 100% की वृद्धि, खराब ना होने वाले खाद्य पदार्थों के मामले में 50% की वृद्धि। कीमत वृद्धि को पिछले 12 महीनों में हुए बदलाव अथवा खुदरा मूल्यों में पिछले 5 साल के औसत भाव, दोनों में जो कम हो, के आधार पर तय किया जाएगा। एक बार सारा अनाज सेठ जी के गोदामों में चला जाने के बाद इस मूल्य वृद्धि को रोकने के उपायों को लागू कैसे किया जाएगा, इस विषय पर कुछ नहीं कहा गया है। हाँ, एक जगह स्टॉक सीमा को समझते हुए जो कहा गया है उससे इस बदलाव की गंभीरता और लोगों के जीवन मरण के प्रश्न पर सरकार की असीमित उदासीनता ज़ाहिर हो जाती है। “कीमतें नियंत्रित करने के आदेश उस कृषि-कंपनी के बारे में लागु नहीं होंगे जिसके पास जमा स्टॉक उसके कारखाने में लगी मशीनों की क्षमता से अधिक नहीं है”!! क्या इस देश में इस तरह कारखानों की मशीनों की उत्पादन (Processing) क्षमता का ब्यौरा रखा जाना संभव है? क्या कारखानेदार इतने भले लोग हैं कि वे अपने निजी प्लांट की प्रोसेसिंग क्षमता उतनी ही रखेंगे जितनी सरकार चाहेगी? क्या वे उस क्षमता बढ़ाने के लिए सरकार के फरमान का इन्तेजार करते बैठेंगे? ऐसा सोचना हास्यास्पद या रोनास्पद ही कहा जाएगा!! आज जब औद्योगिक पूंजी और बैंकिंग पूंजी एक हो चुके हैं जिससे एक एक एकाधिकारी पूंजीपति को उपलब्ध पूंजी की कोई सीमा नहीं है, अगर अकेली अडानी ग्रीन अथवा रिलायंस रिटेल कंपनी देश का सारा गेहूं और चावल खरीद ले तो किसी को कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। अपने मुनाफ़े के लिए कुछ भी हेराफेरी, घपला, झूठ, फरेब करने से परहेज ना करने वाली ये कंपनियां फिर क्या हाल करेंगी, अंदाज लगाकर ही सिहरन होती है। लोगों की ज़िन्दगी की कीमत इन सत्ताधीशों के दिमाग में क्या है, इससे ये भी ज़ाहिर हो जाता है। ये कानून तीनों कानूनों में सबसे भयावह है। गरीब की थाली में जो सूखी रोटी बची है वो भी ग़ायब हो जाएगी। देश फिर से ब्रिटिश कालीन अकाल देखने को मजबूर होगा दूसरी तरफ़ सरमाएदारों की पूंजी के अम्बार और विशाल होते जाएंगे।

कृषि-नीति बदलावों का राजनीतिक महत्व  

कृषि बिल राष्ट्रपति के शुभ हस्ताक्षर होकर कानून बन चुके हैं। इन बदलावों का महत्व हम तब ही समझ पाएंगे जब हम पहले ‘किसान’ शब्द का सही अर्थ समझ जाएँ। किसान एक अस्पष्ट शब्द है जिसकी जगह दूसरे स्पष्ट अर्थ देने वाले शब्दों को इस्तेमाल करने से जान पूछकर बचा जाता है जिससे ये भ्रम बना रहे कि सब किसान एक जैसे हैं, उनके हित-अहित समान हैं। अगर सही शब्द का प्रयोग हो तो ‘किसान’ बोलते ही जो करुणा, दया के तीव्र भावावेग उमड़ते हैं वे नहीं उमड़ेंगे। ‘किसान’ बोलते ही एक भूखा, कंगाल, हताश, कुंठित, दयनीय, हड्डियों का कंकाल जिसकी सारी चर्बी और मांस पेशियाँ निचुड़ चुकी हैं, ऐसे मनुष्य की तस्वीर जहन में आती है, सहानुभूति और दया का एक तीव्र भावावेश उमड़ उठता है जो तर्क विवेक को ढक लेता है। ये तस्वीर सही है, झूठ नहीं है लेकिन यक्ष प्रश्न ये है कि क्या सारे किसान ऐसे ही हैं? उदाहरणार्थ ; पंजाब में अकाली दल के सारे एम एल ए- एम पी किसान हैं तथा बाकी पार्टियों के 90% नेता किसान हैं। क्या उनमें से एक भी ऐसा है? क्या वे ऐसी ही दया, सहानुभूति के पात्र हैं? क्या वे सब करोड़ों की कर छूट के हकदार हैं? उत्तर है; नहीं। पिछला संसदीय चुनाव लड़ते वक़्त सुखबीर सिंह बादल ने जो हलफनामा दिया था उसके अनुसार उनकी आय 217.99 करोड़ है। उनकी पत्नी हरसिमरत कौर बादल की आय 217 करोड़ है। महाराष्ट्र से किसान सुप्रिया सुले की आय 165.42 करोड़ है। सत्रहवीं लोकसभा के सबसे धनी एम पी, म प्र के ऐसे ही एक गरीब किसान नकुल नाथ जो कमल नाथ के सुपुत्र हैं, उनकी आय मात्र 660 करोड़ रुपये है। रीडिफ डॉट कॉम में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक 2014-15 में कुल 4 लाख कंपनियों ने कृषि आय बताकर आयकर में जो छूट ली है उसका ब्यौरा इस प्रकार है; कावेरी सीड्स 186.63 करोड़, मोंसंतो इण्डिया 94.40 करोड़। कृपया नोट करें, कृषि कंपनियां भी उनकी ‘कृषि’ आय पर बिलकुल उसी तरह की छूट की हकदार हैं जैसे की व्यक्तिगत किसान। इकनोमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के धनी किसानों पर उससे भी ज्यादा नकद पैसा मौजूद है जितनी काली कमाई बाहर के गुपचुप बैंकों में जमा है। उनकी कमाई ‘कृषि’ की है इसलिए उस पर टैक्स नहीं है, इसलिए उसे बाहर देशों के अदृश्य बैंकों में जमा करने की जरूरत नहीं है। जमीन खरीद कर या फिर कृषि प्रोसेसिंग कंपनी खोलकर ‘किसान’ बन जाना और फिर कोई भी टैक्स देने से बच जाना, हमारे देश के टैक्स चोरों का सबसे लोकप्रिय हथकंडा है। दूसरा दृश्य खेती किसानी का क्या है? लघु किसान मतलब जिनके पास 5 एकड़ से कम कृषि भूमि है और सीमांत किसान जिनके पास मात्र 2.5 एकड़ से भी कम कृषि भूमि ही बची है; इनकी तादाद कुल किसानों की तादाद का 86% है और इनके पास खेती की जमीन कुल कृषि भूमि का मात्र 43.6% है। इससे भी अहम बात ये है कि अकेले सीमांत किसान ही कुल किसानों का 67% हैं। औसत कृषि जोत लगातार घटती जा रही है। 2011-12 में 1.15 हेक्टेयर से घटकर 2015 -16 में ये 1.08 हेक्टेयर ही रह गई। कृषि भूमि मालिकाने के आधार पर हो रहे ध्रुवीकरण को ये नए कृषि कानून बहुत तीव्र कर देने वाले हैं। लगभग 56 करोड़ सीमांत किसान किसी भी तरह जमीन के उस छोटे से टुकड़े से अब गुजारा नहीं कर पाएंगे और उनको ग्रामीण सर्वहारा के महासागर में ही समा जाना है। छोटा व्यवसायी चाहे व्यापार में हो या खेती में, पूंजीवाद में उसे मरना ही है। खेती किसानी में अभी तक पूंजीवादी  आग की तपिश पूरी खुलकर देने से जान पूछकर बचा जाता रहा लेकिन अज पूंजीवाद को उसके मरणासन्न संकट ने उस जगह लाकर पटक दिया है कि वो ऐसी कोई ‘मेहरबानी’ करने की स्थिति में बचा ही नहीं। लघु, सीमांत किसानों की मंजिल ग्रामीण सर्वहारा है, कितना भी अप्रिय लगे, इस तथ्य को नकारना सच्चाई से आंख मूंदने जैसा है। दूसरी तरफ़, धनी किसान वर्ग जो अब तक अपनी सुरक्षित आरामगाह में सुकून से शोषण का ‘सुख’ भोग रहा था उसके मज़े के दिन भी ग़ायब हो जाने वाले हैं। मौजूदा कृषि नीति बदलावों के रूप में कृषि क्षेत्र में होने वाले  नव उदारीकरण के हमले का सबसे कष्टदायक प्रहार इसी वर्ग पर करने वाला है क्योंकि उन्हें अब दैत्याकार सरमाएदार बहुराष्ट्रीय कंपनियों से प्रतियोगिता की भट्टी में तपना होगा। पूंजीवाद सिर्फ अर्ध-सर्वहारा को ही सर्वहारा नहीं बनाता बल्कि कितने ही बड़े खिलाड़ी भी बह जाते हैं। पूंजी के सांद्रण और केन्द्रीकरण की प्रक्रिया को पलटा नहीं जा सकता। पश्चिमी देशों की ही तर्ज़ पर यहाँ भी निर्बाध पूंजीवाद खेती किसानी में भी वही हालात पैदा करेगा। पूंजीवाद का सार्वभौम मन्त्र है; ‘व्यवसाय में कौन जिएगा, कौन मरेगा; ये बाज़ार तय करेगा’। भारत एक विशाल देश है, कृषि व्यापार का कुल आकर लगभग 62 लाख करोड़ है जिसके लिए रिलायंस रिटेल, अडानी ग्रीन, टाटा संपन्न, आई टी सी, मोनसेंटो इण्डिया, कावेरी सीड्स, पतंजलि और ऐसी ही दूसरी कंपनियां इस बाज़ार को हड़पने के लिए लार टपका रही हैं और उनकी लाड़ली मोदी सरकार इस विशालकाय केक को तश्तरी में सजाकर उन्हें प्रस्तुत कर रही है। मौजूदा कृषि नव उदारीकरण का एक निश्चित परिणाम ये होने वाला है कि ग्रामीण बुर्जुआ वर्ग और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग का वर्ग विभाजन स्पष्ट हो जाने वाला है, धुंधलका हट जाने वाला है।

‘कृषि उपज मूल्य (MSP) बढ़ाओ’ नारे वाले किसान आन्दोलन किस के हित में हैं? 

लघु और सीमांत किसान समाज का अधिकतम शोषित तबका है और विडम्बना देखिए, उनके शोषक वे खुद हैं। उनकी हालत मजदूर से भी ज्यादा दयनीय और पीड़ादायक है, उनके काम के घंटे तय नहीं हैं, उन्हें उस वक़्त तक काम करना होता है जब वो मूर्छित होकर गिर ना पड़ें। तब भी कराहट के साथ ये ही कहते पाए जाते हैं, ‘काश थोड़ा काम और कर पाता, दिन थोड़ा और लम्बा होता’!! बीमार होने पर भी काम पर ना जाने का विकल्प उनके पास नहीं होता क्योंकि वे खेती के साथ पशु भी पालते हैं और पशुओं को उस दिन भी खाने को चारा चाहिए जब वे बीमार हों और उन्होंने खुद खाना ना खाया हो!! वे खुद और साथ में उनके छोटे छोटे बच्चे और महिलाएं उनकी उस छोटी सी जोत की क़ैद में तड़पने को विवश रहते हैं जिसमें कितनी भी मेहनत कर ली जाए बचना तो कुछ है ही नहीं। जैसे जैसे उनकी खेती की जमीन का आकार छोटा होता जाता है, उनकी मुसीबतों का पहाड़ बड़ा होता जाता है। रोज जो हम किसान आत्महत्या की हृदयविदारक दास्तानें पढ़ते हैं वे सब सीमांत किसान ही होते हैं। उनकी ज़िन्दगी वैसे ही नर्क है इसलिए वे ये दर्दनाक फैसला करने में देर नहीं करते। उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है, उनका कसूर क्या है, वे उसकी वजह से अंजान होते हैं, साथ ही उनका भोलापन और अज्ञानता उन्हें कृषि उत्पादों की कीमतें (MSP) बढ़ाने के लिए धनी किसानों द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलनों का हिस्सा बना देते हैं। इन मूल्य बढ़ाओ आन्दोलनों की अगली कतारों में पुलिस की लाठी-गोली खाने वाले किसान हमेशा सीमांत किसान ही होते हैं, धनी किसान सुरक्षित दूरी पर अपनी एस यू वी में बैठे अगले चुनाव लड़ने की गोटियाँ बिठा रहे होते हैं। खेती किसानी में भी अब पुराने बैल हल और रहट की सिचाई के दिन लद चुके और ट्रेक्टर-हारवेस्टर सीमांत किसानों के बस में नहीं इसलिए ‘खेती करें या छोड़ बैठें’ ये दुविधा इनके सामने हमेशा बनी रहती है। शहर में निजी चौकीदारी की नौकरी भी उनका उस खेती से पिण्ड छुड़ाने के लिए काफी होती है। कृषि उत्पादों में भी उनके पास बेचने लायक कुछ होता ही नहीं। उनकी खरीद उनकी बिक्री से हमेशा ज्यादा होती है। इसलिए हर मूल्य बढ़ाओ आन्दोलन के सफल होने पर उनकी मुसीबतें और कर्ज़ बढ़ते जाते हैं। वे कभी भी पेटभर नहीं खा पाते। वे दुधारू पशु पालते हैं लेकिन उनके बच्चे दूध का स्वाद किसी त्यौहार के मौके पर ही ले पाते हैं क्योंकि अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए उन्हें एक एक बूंद दूध बेच देना होता है।                    

हमारे देश में खेती किसानी की दशा और जाति आधारित उत्पीड़न के मुद्दे पर अमेरिका में जन्मीं भारतीय स्कॉलर, समाजशास्त्री तथा मानवाधिकार कार्यकर्ता गेल ओम्वेट ने बहुत वैज्ञानिक अध्ययन किया है तथा उनकी शोध रिपोर्ट, ‘भारत में पूंजीवादी खेती तथा ग्रामीण वर्ग’ से ये उद्धरण हमारे विषय से सामायिक है; “भारत के ग्रामीण परिदृश्य में छाए हुए किसान आन्दोलनों की मुख्य ताकत पूंजीपति किसान हैं। ये भी महज इत्तेफाक नहीं है कि ये आन्दोलन विकसित  पूंजीवादी खेती वाले क्षेत्रों में ही अधिक हो रहे हैं, उनकी, कृषि उत्पाद का मूल्य बढ़वाने की मांग भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के व्यवसायीकरण को ही साबित करती है, और ये बात आज़ादी पूर्व में होने वाले किसान आन्दोलनों से इस बात में पूर्णत: भिन्न है कि इनके निशाने पर कोई ग्रामीण शोषक नहीं होता है; बल्कि ये आन्दोलन, इस विचारधारा के तहत कि शहर ही ग्रामीण भाग का शोषण कर रहे हैं; ‘सभी किसानों’ को जोड़ने की बात करते हैं। ये तथ्य धनी किसानों का औद्योगिक बुर्जुआजी के प्रति आक्रोश दर्शाता है और इसीलिए कुलक (धनी शोषक किसान) अपने  नेतृत्व में सारे ग्रामीण लोगों को गोलबंद करना चाहते हैं और उन्हें इस मकसद में सिर्फ लघु किसान ही नहीं बल्कि अत्यंत निर्धन किसानों को अपने पीछे लगाने में कामयाबी भी मिल रही है, खासतौर से तब जब कई वामपंथी पार्टियाँ भी उनका समर्थन कर रही हैं।”

आज जब पूंजी चंद हाथों में केन्द्रित होती जा रही है और ये एकाधिकारी पूंजीपति किसी विशेष क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सभी क्षेत्रों, फल सब्जी से हवाई जहाज तक के सभी व्यवसायों को अपने कब्जे में करते जा रहे हैं, सरकारें उनके आगे नतमस्तक हैं और जब मध्यम ही नहीं कितने ही विशालकाय पूंजीपति भी बाज़ार में टिक नहीं पा रहे हैं ऐसी स्थिति में लघु और सीमांत व्यवसायियों; किसान हों या उद्योगपति, उनका गंतव्य स्थान सर्वहारा वर्ग ही है, ये तय है। पहले भी यही होना था। इन कृषि नीति बदलाव का प्रभाव ये होने वाला है की इस प्रक्रिया की गति बढ़ जाने वाली है। पहले ये काम सालों में होता था, अब महीनों में ही निबट जाएगा। कृषि उत्पादों का खरीदी मूल्य बढ़वाना और स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट लागू करवाना जिससे कृषि उत्पादों के दाम 50% बढ़ाए जाने का प्रावधान है, शुद्ध रूप से धनी किसानों के हित और गरीब, शोषित लघु और सीमांत किसानों के अहित की मांगें हैं। यही कारण है कि कई किसान संगठन इनका समर्थन भी कर रहे हैं जैसे महाराष्ट्र का शरद जोशी द्वारा स्थापित शेतकरी संघटना और दक्षिण के राज्यों में सक्रीय फेडरेशन ऑफ़ आल इंडियन फार्मर्स एसोसिएशन (FAIFA)। दूसरी ओर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति जो 250 विभिन्न किसान संगठनों का एक संयुक्त गठबंधन है, इन नीतिगत बदलावों का जोरदार विरोध कर रहा है। प्रत्येक जिले में आन्दोलन करते हुए इस संगठन ने 25 तथा 26 नवम्बर को दिल्ली बंद का आह्वान किया है। लेकिन इसके अखिल भारतीय संयोजक वी के सिंह ने भी किसानों की असली स्थिति स्वीकार करते हुए कहा है; “ये (समर्थन मूल्य रु 1850 रहते हुए मक्का को उससे आधे दाम पर बेचने को मजबूर होना) इसलिए हुआ है क्योंकि उन किसानों (लघु एवं सीमांत) के पास ना तो भण्डारण के साधन हैं और ना देश में दूर बेचने जाने के संसाधन हैं क्योंकि 86% किसानों के पास तो खेती की जमीन मात्र 2 या 3 एकड़ ही बची है।” वस्तु स्थिति ये है कि आज भी, नए कृषि कानून लागू होने से पहले भी, कुल 6% किसान ही कृषि उपज मंडियों में निर्धारित दर पर अपनी फसल बेच पाते हैं। 86% किसान तो अपनी खड़ी फसल को औने-पौने दामों पर बेचने को विवश होते हैं और उनके अनाज को ये धनी किसान ही खरीद लेते हैं। गन्ना खरीद में तो ये ‘व्यापार’ आम है। धनी किसान आधे दाम पर गन्ना खरीदकर चीनी मीलों पर ट्रकों से गन्ना सप्लाई करते हैं। बगैर गन्ना उपजाए, ये लोग किसानों से कई गुना ज्यादा गन्ने की आपूर्ति करते हैं।

धनी किसान- कुलक- ग्रामीण पूंजीपति कौन है?

पुलिस का थानेदार हो या तहसीलदार; गाँव में जब जाते हैं तो पहले किसकी कोठी में जाकर ‘चाय-पानी’ करते हैं? चकबंदी के दौरान डिप्टी कलेक्टर से भी ज्यादा फैसले किसने लिए? किसने खुद सारी उपजाऊ जमीन हथिया ली, और दूर बंजर पड़ी असिंचित जमीन वाला खेत किसके हिस्से में आएगा, ये फैसला किसका था? कौन है जो हर सत्ताधारी पार्टी के एजेंट की तरह काम करता है? कौन है जो 2014 चुनाव से कल तक मोदी की आरती उतारते नहीं थकता था? किसी भी विरोधी स्वर को धमकाकर कौन बंद कर देता है? दलितों पर खासतौर से महिलाओं पर ज़ुल्म कौन करता है, या ज़ुल्म करने वालों को कौन बचाता है? फिर भी यदि लोग ना मानें तो कौन पीड़ित पक्ष से भी पहले थाने में बैठा नजर आता है? ग्राम सभा से लोकसभा तक के चुनाव की तिकड़म में हर वक़्त कौन लगा रहता है? मजदूरी बढ़ाने या मजदूर का भुगतान करने की मांग उठते ही कौन बौखला जाता है? मजदूरों का नेतृत्व करने वाले मजदूर कार्यकर्ता को पुलिस से ‘सीधा करवाने’ की भभकी कौन देता है? या फिर, फसल के वक़्त तुम लोग मजदूरी बढ़ाने के लिए काम पर नहीं आ रहे ना, देखते हैं अपनी गैय्या के लिए घास कहाँ से लाओगे, मजदूरों को बार बार ये हूल कौन देता है? कौन है जो कलफ लगे चिट्टे कपड़े पहने हर वक़्त पंचायत करने के अंदाज में अपने दालान पर मूढ़े पर विराजमान रहता है, कभी भी खेत में मेहनत करता नजर नहीं आता? कौन है जिसे ‘किसान आन्दोलन’ में भीड़ दिखाने के वक़्त, अपने राजनीतिक भाव चमकाने के लिए, अचानक गरीब किसानों और मजदूरों के प्रति अपार प्रेम, सदभाव उमड़ पड़ता है? ‘हम सब भाई हैं, आखिर किसान हैं, एकता में ही ताकत होती है, हम सब एक रहेंगे तो कोई हमारा कुछ नहीं उखाड़ पाएगा’, अचानक ऐसी उदारता और भाईचारे के दौरे किसे पड़ने लगते हैं? घोर जातिवादी, पितृसत्ता प्रभुत्ववादी, गैर-बराबरी का जन्मजात पोषक, खूंखार जल्लाद अचानक गौतम बुद्ध का अवतार कौन बन जाता है? इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है; धनी किसान, कुलक, ग्रामीण बुर्जुआजी!! यही है गरीब किसानों, खेत मजदूरों का असली दुश्मन। विशाल ग्रामीण शोषित पीड़ित वर्ग प्र ज़ुल्म करने वाला, उनका निर्मम शोषण करने वाला, सत्ता का असली एजेंट। ग्रामीण भाग के शोषित पीड़ित अच्छी तरह जानते हैं उसे। किसी को ज्यादा समझाना नहीं पड़ता लेकिन इस मामले में भ्रम पैदा करने और उसे लगातार बढ़ाते जाने के कसूरवार वो हैं जो कृषि उत्पादन संबंधों की असलियत से आंख मूंदते हुए कुलक की इन ‘चारित्रिक विशेषताओं’ से उसे ‘सामंत’ घोषित कर देते हैं; मानो बुर्जुआजी का तो ऐसे अत्याचारों से कभी कोई वास्ता रहा ही नहीं!! औद्योगिक मजदूरों को उनके संगठित होने के पहले काल खंड में क्या ऐसे ही ज़ुल्म नहीं सहन करने पड़े? ‘इंग्लैंड में मजदूरों की दशा’ में सर्वहारा के महान नेता फ्रेडेरिक एंगेल्स ने जो बताया है वो सच्चाई क्या ऐसे अत्याचारों से कुछ कम है? 1947 में अंग्रेजों द्वारा भारतीय बुर्जुआ वर्ग को सत्ता हस्तांतरण के वक़्त की अवस्थिति का सही मूल्यांकन करने के कारण एक बार फिर गेल ओम्वेट को, सधन्यवाद, उद्दृत करना सामायिक है; “1947 में जो आज़ादी हासिल हुई वो बुर्जुआ वर्ग के प्रभुत्व वाली कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में हुई; और उस वक़्त कृषि क्षेत्र में व्याप्त अर्धसामंती संबंधो का विध्वंस बुर्जुआ तरीके और उस वक़्त सत्तासीन हुए बुर्जुआ वर्ग के हितों के अनुरूप ही हुआ ना कि कट्टर कृषि क्रांति के अनुरूप।”      

‘ग्रामीण क्रान्तिकारी समुदाय’ को संगठित करो — नए कृषि कानूनों का विरोध करो   

मोदी सरकार द्वारा लिया जा रहा हर कदम शोषित पीड़ित समुदाय को मार्क्सवाद-लेनिनवाद का नया अध्याय सिखाता जा रहा है, भले उसके लिए उन्हें बहुत भारी क़ीमत चुकानी पड़ रही है। ‘किसान’ शब्द सुनते ही ‘अहा ग्राम्य जीवन’ वाले अंदाज में भावविभोर होना छोड़े बगैर सही रास्ता नजर नहीं आएगा। ग्रामीण भाग में वस्तुगत उत्पादन संबंधों का द्वंद्वात्मक मूल्यांकन और वर्ग संघर्ष को समझाना- समझाना दिन ब दिन आसान होता जा रहा है, आने वाले वक़्त में कमज़ोर नजर वालों अथवा ‘सामंती नजर दोष’ वालों को भी आसान होने जा रहा है। जैसे, जी एस टी ने शहरी अर्धसर्वहरा को समाप्त कर दिया ठीक उसी तरह कृषि क्षेत्र में ये नव उदारवादी हमला ग्रामीण भाग से लघु और सीमांत किसानों को सर्वहारा की पांतों में धकेलेगा, ये निश्चित है जिसे बार बार दोहराने की जरूरत है। दूसरा परिणाम और भी भयावह होने वाला है। जैसा कि हम प्याज के दामों में देखते हैं; कभी दाम रु 10 प्रति किलो हो जाते हैं और कभी रु 75 प्रति किलो। इसका कोई सम्बन्ध प्याज उत्पादन से नहीं है ये एक मात्र, विशाल खरीदी कर, भण्डार कर, बाज़ार में सप्लाई रोक कर और फिर भाव बढ़ने पर बेचने का खेल है जिसका अकूत मुनाफ़ा धनी व्यापारियों की जेब में जाता है, किसान वैसे का वैसा ही बना रहता है। औद्योगिक पूंजी और बैंकिंग पूंजी के मिल जाने से कॉर्पोरेट की क्रय शक्ति अपार-असीमित हो चुकी है, निवेश के रास्ते कम होते जा रहे हैं। देश का सारा अनाज अकेला मुकेश अम्बानी या गौतम अडानी खरीद सकता है और उसका जब तक चाहे भण्डारण भी कर सकता है। उससे देश में क्या हालात पैदा होंगे, सोचकर सिहरन होती है। इतिहास पढ़ें तो मालूम पड़ेगा कि हमारे अधिकतर ‘पुराने पूंजीपति’ अंग्रेजों के राज में, अंग्रेजों से मिलकर, अनाज का भण्डारण कर, अकालों के वक़्त मंहगा बेचकर ही बने हैं, वही कार्य बहुत बड़े पैमाने पर दोहराया जाएगा और गरीब की तश्तरी में जो सूखी रोटी बची है वो भी ग़ायब हो जाने वाली है।

कृषि में इस नव उदारवादी हमले का पुरज़ोर विरोध होना जरूरी है। ये विरोध, लेकिन, महज दिखावा ना हो इसलिए ये जानना, समझना बहुत जरूरी है कि इसका नेतृत्व किसके हाथ में है और इसका असल मकसद क्या है, इसके कामयाब होने पर किस वर्ग का हित होने वाला है? ये सवाल, दरअसल, हर आन्दोलन में शरीक होने से पहले हर आन्दोलनकारी के लिए जानना अत्यंत आवश्यक है वर्ना लड़ने वाले लोग ठगे जाएंगे जैसा कि लघु और सीमांत किसानों के साथ होता आ रहा है। आज़ादी आन्दोलन में भी यही हुआ; लड़े मेहनतकश और सत्ता हथिया ली बुर्जुआजी ने जो अब अंग्रेजों से भी ज्यादा जुल्म कर रहे हैं। यही उसके आन्दोलनों में होता आ रहा है। अपनी हड्डियाँ गलने तक मेहनत कर रहे और फिर भी कर्ज़ में डूबते जा रहे, फांसी के फंदों  पर झूलते जा रहे भयानक तरह से शोषित लघु एवं सीमांत किसान को ग्रामीण सर्वहारा के साथ मिलकर किसान आन्दोलन का नेतृत्व अपने हाथ में लेना होगा, धनी किसानों का पिछलग्गू बनकर खुद को और एक बार इस्तेमाल करने के लिए प्रस्तुत नहीं करना है। इसीलिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था की, उत्पादन की विभिन्न शक्तियों की गहन जाँच पड़ताल बहुत जरूरी है। हिन्दू बिजनस लाइन की रिपोर्ट के अनुसार कुल 14.5 करोड़ परिवार खेती के काम में लगे हुए हैं। प्रति परिवार 5 सदस्यों का औसत लें तो कुल 72.5 करोड़ लोग खेती पर निर्भर हैं। 67% सीमांत किसान हैं। अत: उनकी तादाद हुई 48.57 करोड़। 19% लघु किसान हैं मतलब, 13.77 करोड़। भूमिहीन खेत मजदूरों की तादाद 19.51 करोड़ है। इनके आलावा छोटी छोटी दुकानें लगाए, कारीगरी कर जीवन यापन कर रहे लोगों की तादाद लगभग 1.15 करोड़ है। ये है ‘ग्रामीण क्रान्तिकारी खण्ड’ जिसकी कुल संख्या है 83 करोड़। ये इतनी बड़ी सेना अपना गुजारा खेती से नहीं कर पाती इसलिए विस्थापित मजदूरों के रूप में मजदूरी के लिए शहर तथा फसल के वक़्त गाँव, इस तरह किसी तरह जिंदा है। इनके हित एक समान हैं। अगर मौजूदा कृषि कानून ना लाए गए होते, या इन्हें वापस भी ले लिया जाता है तब भी इनका जीवन ज्यों का त्यों नरक बना रहने वाला है। धनी किसानों को मौजूदा कृषि कानून नहीं चाहिए लेकिन बाकी स्थिति जैसी है वैसी ही चाहिए इसलिए उनके नेतृत्व में लड़ी जाने वाली लड़ाई में इस विशाल क्रान्तिकारी समुदाय का एक बार फिर से ठगा जाना निश्चित है। अत: उनसे स्पष्ट और सुरक्षित दूरी बनाना जरूरी है। इस विशाल क्रान्तिकारी फौज को अपने क्रान्तिकारी संगठन गठित कर, दो उद्देशीय जन आन्दोलन छेड़ने पड़ेंगे, एक तात्कालिक और दूसरा दीर्घकालिक। तात्कालिक मांगें: मौजूदा तीनों कृषि कानून तुरंत वापस लो, आवश्यक वस्तु कानून 1955 के साथ कोई छेड़छाड़ सहन नहीं करेंगे, शहरी हो या ग्रामीण सभी को साल भर रोजगार सुनिश्चित करो, गुणवत्तापूर्ण सरकारी सस्ता गल्ला पर्याप्त मात्रा में सभी को उपलब्ध करो, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था मजबूत करो तथा उसमें हो रही धांधलियों के ख़िलाफ़ सख्त कार्यवाही करो, कोरोना महामारी की तबाही के मद्देनजर सभी गरीबों को पर्याप्त मात्रा में सभी खाद्य पदार्थ मुफ़्त उपलब्ध कराओ, मनरेगा का बजट बढ़ाओ, साल में हर परिवार को कम से कम 300 दिन रोजगार सुनिश्चित करो अथवा कम से कम 15000 रुपये मासिक बेरोजगारी भत्ता दो, मनरेगा में दैनिक न्यूनतम मजदूरी रु 500 सुनिश्चित करो, मनरेगा में मजदूरी का भुगतान हर सप्ताह करना सुनिश्चित करो, आंगनवाड़ी और आशा वर्कर्स को न्यूनतम वेतन सुनिश्चित करो, मनरेगा तथा आंगनवाड़ी कर्मियों के मामले में सभी श्रम कानून लागू करो, श्रम कानूनों में किए सभी बदलाव रद्द करो, सभी को मुफ़्त स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध करो, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को सशक्त करो, सभी को उच्च स्तर तक मुफ़्त शिक्षा उपलब्ध कराओ, नई शिक्षा नीति वापस लो,  सभी को आवास की व्यवस्था करो, सभी किसानों और मजदूरों को सम्मानजनक पेंशन सुनिश्चित करो, दलितों पर होने वाले अत्याचार रोकने के लिए कड़े कदम उठाओ, महिलाओं पर होने वाले अन्याय रोकने के लिए हर आवश्यक कदम उठाओ, दलितों, वंचितों को सुरक्षित तथा सम्मानपूर्ण जीवन सुनिश्चित करो।

दीर्घकालिक संघर्ष

सतत छोटी होती जा रही जोतों की जेल से मुक्ति हुए बगैर इतने विशाल समुदाय को इन्सान जैसी ज़िन्दगी मुमकिन ही नहीं। एकदम विशाल, लाखों एकड़ के विशाल फार्म चाहिए जो पूरी तरह से आधुनिकीकृत और मशीनीकृत हों। जिनमें काम करने का अपना लुत्फ होगा, काम एक सजा नहीं बल्कि मज़ा हो। इनसे पैदावार सैकड़ों गुना बढ़ जाएगी। ये, लेकिन, सिर्फ और सिर्फ समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है। इसीलिए मौजूदा दमनकारी, अन्याय, शोषण और लूट की इस मानवद्रोही पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़कर मेहनतकश वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी व्यवस्था कायम करना हर किसान मजदूर का दीर्घकालिक लक्ष्य होना ही चाहिए।

83 करोड़ की इस ‘ग्रामीण क्रान्तिकारी सेना’ को किसी ‘मुक्तिदाता’ की जरूरत नहीं। वे खुद इस युग के मुक्तिदाता हैं। इन स्वयंघोषित मुक्तिदाताओं की ‘मुक्ति’ भी इन्हीं के मजबूत हाथों से होनी है!! ये इतनी सशक्त क्रान्तिकारी ऊर्जा है कि इनके इरादों को कोई नहीं रोक पाएगा। ना सिर्फ अपनी मुक्ति बल्कि सदियों से जमा होती जा रही घोर जातिवादी, पुरुषवादी लम्पट सड़ांध को दफ़न कर एक नए समाज की रचना की स्थापना की ज़िम्मेदारी इस वीर समुदाय के सशक्त कन्धों पर ही है। समानता, न्याय, प्रेम पर आधारित नए समाज के नई कोपलें प्रस्फुटित करने वाले नए लाल सूरज का उदय इन्हीं के दम से होगा और उसी से होगा शहीद-ए-आजम भगतसिंह और उनके क्रान्तिकारी कॉमरेडों के सपनों वाली असली आज़ादी और नए भारत का निर्माण।

यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 6/ अक्टूबर 2020) में छपा था

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