प्रसाद वी. //
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी सेनानी भगत सिंह की 113वीं जयंती (28 सितंबर) एक ऐसे समय में पड़ रही है, जब चरमपंथी दक्षिणपंथी आरएसएस सहित विभिन्न वैचारिक समूह उनकी विरासत पर दावा करने और उन्हें बर्बाद करने की कोशिश कर रहे हैं। भारतीय मानस में उन्हें जो लोकप्रियता और सम्मान प्राप्त है, यह उससे और स्पष्ट हो जाता है। भगत सिंह न केवल रूसी क्रांति से अत्यधिक प्रभावित थे, बल्कि उन्होंने श्रमिक वर्ग वर्ग की तानाशाही की अवधारणा का पूरी तरह समर्थन किया। अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने अपने अनुयायियों से भारत में एक कम्युनिस्ट पार्टी बनाने का आग्रह किया, जो श्रमिक क्रांति का नेतृत्व करे और श्रमिक वर्ग वर्ग की तानाशाही स्थापित करे। इस प्रकार, वह हमारी धरती के शुरुआती मार्क्सवादी विचारकों और सिद्धांतानुयायियों में से एक है।
भगत सिंह को आमतौर पर उनकी वीरता से भरी शाहदत के लिए याद किया जाता है। लेकिन हम में से अधिकांश लोग उनके एक बुद्धिजीवी और एक विचारक के रूप में योगदान को भूल जाते हैं। उन्होंने न केवल अपने जीवन का बलिदान किया, जैसा कि कई लोगों ने उनके सामने और उनके बाद भी किया था, बल्कि उनके पास स्वतंत्र भारत का सपना भी था। अपने छोटे लेकिन गहन क्रांतिकारी जीवन में भगत सिंह अपने विचारों और चिंतन में निरंतर विकास से गुजरे हैं। उन्होंने क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम के साथ शुरुआत की और बाद में अराजकतावाद और फिर क्रांतिकारी विचारों को अपनाया, अंत में मार्क्सवाद तक पहुंचे।
“क्रांति से हमारा अभिप्राय है कि चीजों का वर्तमान क्रम, जोकि प्रत्यक्ष रूप से मौजूद अन्याय पर आधारित है, को बदलना होगा। समाज के सबसे आवश्यक तत्व होने के बावजूद उत्पादकों या मजदूरों का श्रम शोषकों द्वारा लूट लिया जाता है और वह अपने प्राथमिक अधिकारों से वंचित हो जाते हैं। किसान जो सभी के लिए अनाज उगाता है, अपने परिवार के साथ भूखा रहता है; बुनकर जो विश्व बाजार में कपड़ों की आपूर्ति करता है, उसके पास अपने और अपने बच्चों के शरीर को ढंकने के लिए पर्याप्त कपड़ा नहीं है; राजमिस्त्री, लोहार और बढ़ई जो शानदार महलों का निर्माण करते हैं, झुग्गी-झोपड़ी में रहने को बाध्य हैं। पूंजीपति और शोषक, समाज के परजीवी, अपनी झक पर लाखों लोगों को बर्बाद कर देते हैं।”
उन्होंने तर्क दिया कि एक ‘पूर्ण और मौलिक परिवर्तन’ आवश्यक है ‘और यह उन लोगों का कर्तव्य है जो समाज को समाजवादी आधार पर पुनर्गठित करने की जरूरत को महसूस करते हैं।’ इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए श्रमिक वर्ग की तानाशाही की स्थापना आवश्यक थी। (संस्करण – शिव वर्मा, सलेक्टेड राइटिंग्स ऑफ़ भगत सिंह, नई दिल्ली, 1986, पृष्ठ क्र. 74-75) [अंग्रेजी से अनुवाद]
भगत सिंह और उनके साथियों ने भारत में एक समाजवादी क्रांति की अवधारणा को माना यह 21 जनवरी, 1930 को लाहौर षड़यंत्र केस में उनके द्वारा उठाए गए नारों से स्पष्ट मालूम होता है। वे सभी आरोपी के रूप में लाल स्कार्फ पहने अदालत में पेश हुए। जैसे ही मजिस्ट्रेट ने कुर्सी संभाली, उन्होंने निम्नलिखित नारे लगाए – ‘समाजवादी क्रांति जिंदाबाद, ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ जिंदाबाद, ‘जनता जिंदाबाद’, ‘लेनिन का नाम अमर रहे’, और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’। ‘भगत सिंह ने तब अदालत में निम्नलिखित तार को पढ़ा और मजिस्ट्रेट से इसे तीसरे अंतर्राष्ट्रीय तक पहुंचाने के लिए कहा –
‘लेनिन दिवस पर हम सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ भेजते हैं, जो महान लेनिन के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ कर रहे हैं, हम चाहते हैं कि रूस जिस महान प्रयोग को अंजाम दे रहा है उसमें सफलता मिले। हम अपनी आवाज को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग के आंदोलन से जोड़ते हैं। श्रमिक वर्ग की जीत होगी। पूंजीवाद की हार होगी। डेथ टू इंपीरियलिज्म’। (पृष्ठ 82)
भगत सिंह भारत के क्रांतिकारी युवाओं के बीच व्यक्तिगत आतंकवाद के तत्कालीन प्रचलन के विरोधी थे। उन्होंने बड़े पैमाने पर लोगों को खासकर किसानों और मजदूरों को संगठित करने की आवश्यकता को महसूस किया। उन्होंने अपने अंतिम लेखन में तर्क दिया कि कम्युनिस्ट पार्टी के लिए श्रमिकों और किसानों को संगठित करना सबसे ज़्यादा आवश्यक है। उन्होंने मजदूरों और आम लोगों को शिक्षित करने के माध्यम के रूप में श्रमिक यूनियनों को संगठित करने और आर्थिक मांगों को उठाने के साथ निरंतर संघर्ष करने की वकालत की। उन्होंने कहा – “मैं आतंकवादी नहीं हूं और न कभी था, सिवाय शायद तब जब मैंने अपने क्रांतिकारी करियर की शुरुआत की। और मुझे विश्वास है कि हम इन तरीकों से कुछ हासिल नहीं कर सकते। कोई इसे आसानी से हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के इतिहास से आंक सकता है। हमारी सभी गतिविधियां एक उद्देश्य के लिए निर्देशित थीं, सैन्य विंग के रूप में इस महान आंदोलन के साथ खुद को जोड़ना। अगर किसी ने मुझे गलत समझा है, तो वह अपने विचारों में संशोधन करें। मेरा मतलब यह नहीं है कि बम और पिस्तौल बेकार हैं, बल्कि इसके विपरीत है। लेकिन मेरा कहने का मतलब है कि केवल बम फेंकना बेकार ही नहीं, बल्कि कभी-कभी हानिकारक भी होता है। पार्टी के सैन्य विभाग को हमेशा आपात स्थिति के लिए सभी युद्ध सामग्री तैयार रखनी चाहिए। उसे पार्टी के राजनीतिक कार्य में मदद करनी चाहिए। वह स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकता है और न करना चाहिए।” (पृष्ठ 138)
जीवन संघर्ष
भगत सिंह के परिवार के पास राष्ट्रवादी पृष्ठभूमि के साथ एक क्रांतिकारी विरासत है। उनके पिता, सरदार किशन सिंह, और उनके चाचा, सरदार अजीत सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह, पंजाब के सबसे पुराने क्रांतिकारी संगठन भारत माता समिति से जुड़े हुए थे। 1907 में शुरू में बर्मा में निर्वासित किए गए अजीत सिंह को अपनी मातृभूमि से दूर ईरान, तुर्की, जर्मनी और आखिरकार ब्राजील जाना पड़ा। युवा भगत सिंह के लिए, ग़दर पार्टी के नेता करतार सिंह सराभा, एक पौराणिक नायक की तरह थे। 1916 में युवा सराभा, भगत सिंह से भी कम उम्र में शहीद हो गए थे। इसलिए उनके प्रारंभिक वर्षों में, उनके परिवार और बाकी माहौल ने भगत सिंह पर गहरा राष्ट्रवादी और क्रांतिकारी प्रभाव छोड़ा था।
1924 में भगत सिंह कानपुर गए और उन्हें यूपी के प्रसिद्ध कांग्रेस नेता गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा बटुकेश्वर दत्त, बिजॉय कुमार सिन्हा, जोगेश चट्टोपाध्याय और अन्य क्रांतिकारियों से मिलवाया गया। वहां वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के सदस्य बने। इस क्रांतिकारी संगठन के संविधान ने घोषणा की – “संगठन का उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारत में एक संघीय गणतंत्रीय सरकार की स्थापना करना है … इस गणराज्य के मूल सिद्धांत सार्वभौमिक मताधिकार की स्थापना और शोषण वाली सामाजिक व्यवस्था को नष्ट करना है।”
भगत सिंह 1925 की शुरुआत में लाहौर लौट आए और सोहन सिंह जोश द्वारा संपादित ‘कीर्ति’ के संपादकीय कर्मचारियों पर कुछ समय के लिए काम किया। मार्च 1926 में उन्होंने एक युवा क्रांतिकारी समूह की स्थापना की जिसे ‘नौजवान भारत सभा’ के नाम से जाना जाता था, जिसने HRA से आगे बढ़ कर घोषणा की कि इसका उद्देश्य “भारत में एक पूरी तरह स्वतंत्र श्रमिक व किसान गणतंत्र” की स्थापना करना था।
अगस्त-सितंबर 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में एक बैठक में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) में बदल दिया गया। भगत सिंह के वैचारिक विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया में ऐसा हुआ। इससे पहले भगत सिंह ने अक्टूबर क्रांति पर कई किताबें और लेख पढ़े थे। लेनिन उनके नायक बन गए। मार्क्स और बकुनिन के लेखन से परिचित होकर उन्होंने राष्ट्रवाद, अराजकतावाद, अहिंसा, आतंकवाद, धर्म, धर्मवाद और सांप्रदायिकता की लगातार आलोचना की। “आलोचना” और “स्वतंत्र सोच” उसके अनुसार “क्रांतिकारी के अपरिहार्य गुण” थे।
भगत सिंह एक ऐसे समय में नास्तिक बन गए थे जब अधिकांश भारतीय क्रांतिकारी अत्यंत धार्मिक थे। उन्होंने ज्ञान के लिए एक सक्रिय दृष्टिकोण के साथ द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के पक्ष में धर्म को खारिज किया। यह उल्लेखनीय पथ सच्चे क्रांतिकारियों की आत्मालोचना के जरिए विश्वास और विचारधारा की समस्याओं के तर्कसंगत समाधानों तक पहुंचने की क्षमता को प्रदर्शित करता है।
कम्युनिस्टों को अपनी ऐतिहासिक जड़ें भगत सिंह से जोड़नी चाहिए
किसी भी देश में मजदूर-वर्ग के आंदोलन के इतिहास में पूर्व के क्रांतिकारी आंदोलनों की निरंतरता होती है। लेकिन एक विराम के साथ, क्योंकि दोनों आंदोलनों की अंतर्वस्तु अलग-अलग है। फिर भी भारतीय मजदूर वर्ग के आंदोलन की उत्पत्ति उसके राष्ट्रवादी आंदोलन के समय हुई और उससे जुड़ी। भारत की सभी राष्ट्रीयताओं के एकीकरण के माध्यम से एक राष्ट्र के गठन की प्रक्रिया साम्राज्यवाद-विरोधी स्वतंत्रता संग्राम के इर्द गिर्द केन्द्रित हुई। लेकिन राष्ट्रवादी आंदोलन धर्म और जातिवाद के प्रभाव से मुक्त नहीं था।
यह मुख्य रूप से इसलिए हुआ क्योंकि भारतीय राष्ट्रीय पूंजीपति संघर्ष के नेतृत्व में थे। आगे पूंजीवाद का विकास और राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष का विकास हुआ, जब विश्व पूंजीवाद ने साम्राज्यवाद के विकास के कारण अपने सभी प्रगतिशील चरित्र खो दिए थे। उस कारण से, हमारा स्वतंत्रता आंदोलन दो विपरीत रुझानों में विभाजित है – एक साम्राज्यवाद व सामंतवाद के साथ समझौते की और दूसरा एक गैर-समझौतावादी प्रवृत्ति। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में पहली प्रवृत्ति प्रमुख थी। इसके कारण भारतीय राष्ट्रवाद धर्म-उन्मुख हो गया और स्वाभाविक रूप से यह हिंदू राष्ट्रवाद बन गया। क्योंकि यह प्रवृत्ति लोकतंत्र और धार्मिक और सामाजिक पूर्वाग्रहों की अवधारणाओं के बीच समझौता करने के लिए तैयार थी।
हिंदू राष्ट्रवाद ने आबादी के अन्य तबकों के बीच अपनी प्रतिक्रियाएं पैदा की है। नतीजतन, मुस्लिम समुदाय ने एक अलग प्रवृत्ति बनाई जिसके परिणामस्वरूप देश का विभाजन हुआ और इसके बाद हुए सांप्रदायिक दंगों में लाखों लोगों की मृत्यु हुई। जातिवाद की समस्या भी गहरी थी और इसके खिलाफ संघर्ष में भारी समझौते हुए। उस पर प्रतिक्रिया के रूप में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का जन्म हुआ।
जब पूंजीवाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवाद के चरण में पहुंचा, बुर्जुआ क्रांति ने अपना क्रांतिकारी चरित्र खो दिया था और प्रतिक्रियावादी बन गया था। आगे यह प्रगति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उन्नति के लिए बाधक बन गया। तब से अतीत के क्रांतिकारी बुर्जुआ मानवतावाद ने धर्म और सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से समझौता करना शुरू कर दिया। विश्व पूंजीवाद के ऐसे मोड़ पर भारतीय राष्ट्रवाद विकसित हुआ। स्वाभाविक रूप से, हम भारतीय राष्ट्रवाद में दो समानांतर रुझान पाते हैं। भारतीय मज़दूर वर्ग का आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांतिकारी प्रवृत्ति का एक विस्तार है; लेकिन एक विराम के साथ।
भगत सिंह ने 1928 में 16 वर्ष की आयु में अछूत समास्या शीर्षक से एक लेख लिखा था। मुहम्मद अली जिन्ना ने 1923 में कांग्रेस की बैठक में हिंदू और मुस्लिम मिशनरी संगठनों के बीच अछूतों को विभाजित करने का प्रस्ताव दिया था। भगत सिंह ने वह लेख उसी की पृष्ठभूमि में लिखा था। उन्होंने संवेदनशील रूप से उन समय में अछूतों की स्थिति को सामने रखा और कुछ समाधान पेश किए। इस प्रकार, भगत सिंह इस तरह की भावनाओं से ऊपर थे और ऐसी बुराइयों से लड़ते थे।
कम्युनिस्टों को कृतज्ञ होना चाहिए कि इतिहास ने हमें ऐसा नेता दिया है जिसके प्रति में दक्षिणपंथी ताकतों को भी सम्मान व्यक्त करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। जब तक इस प्रवृत्ति और इसके सर्वोच्च आदर्श भगत सिंह, जो एक छोटी उम्र में कम्युनिस्ट मूल्यों और दार्शनिक दृष्टिकोण के स्तर तक पहुंच चुके थे, का पर्याप्त सम्मान नहीं किया जाता है और योग्य स्थान नहीं दिया जाता है, हम अपने देश में मजबूती से कम्युनिस्ट आंदोलन को संगठित नहीं कर सकते हैं।
[अनुवाद – मनुकृति तिवारी]
यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 5/ सितंबर 2020) में छपा था
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