अमरीकी चुनाव – विकल्पहीन मेहनतकश जनता

एम. असीम //

‘न्यूयॉर्क में एक महंगी चंदाउगाहू बैठक में पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अमीर दाताओं को भरोसा दिलाया कि अगर वो चुने गए तो “कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होगा”।  ब्लूमबर्ग न्यूज के मुताबिक बाइडेन ने मंगलवार शाम (16 जून – सं) मैनहैटन के कार्लाइल होटल के आयोजन में दाताओं से कहा कि वो अमीरों को “बदनाम” नहीं करेंगे और वादा किया कि “किसी के जीवन स्तर में तबदीली नहीं होगी, कुछ भी बुनियादी परिवर्तन नहीं होगा”। बाइडेन ने दाताओं से निवेदन करते हुये आगे कहा कि आय में गैरबराबरी का दोष अमीरों पर नहीं डाला जाना चाहिए। “मुझे आपकी सख्त जरूरत है, और अगर मुझे उम्मीदवारी मिली तो मैं आपको कतई निराश नहीं करूँगा। मैं आपसे वादा करता हूँ”, उन्होने आगे जोड़ा।‘

उपरोक्त रिपोर्ट  साररूप में बता देती है कि आने वाले राष्ट्रपति चुनाव में अमरीकी जनता के पास चुनने के लिए सर्वनाशी बड़बोले हुडदंगी अर्ध-फासिस्ट डोनाल्ड ट्रंप का विकल्प क्या है। यही रिपोर्ट इस बात को भी बता देती है कि विनाशकारी आर्थिक संकट से करोड़ों के बेरोजगार होने, रिपब्लिकन नियंत्रित सीनेट द्वारा बेरोजगारी भत्ते को आगे न बढ़ाने से करोड़ों पर घरों से बेदखली के खतरे और कोविड से 2 लाख मौतों के लिए बहुसंख्या द्वारा ट्रंप के अत्यंत कुप्रबंधन को जिम्मेदार मानने से गुस्से से उबलती अमरीकी जनता और सभी जनमत सर्वेक्षणों में लंबे वक्त से बाइडेन के ट्रंप से आगे रहने के बावजूद भी ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति चुनाव जीत जाने की संभावना अभी भी समाप्त क्यों नहीं हुई है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

इन चुनावों की समझ के लिए हमें पहले एक संक्षिप्त ऐतिहासिक परिप्रेक्षय की जरूरत है। 1945 में फासिस्ट विरोधी विश्व युद्ध की समाप्ति पर अमरीका विश्व साम्राज्यवाद की प्रमुख शक्ति व नए विश्व पूंजीवादी वित्तीय ढांचे का नेता बनकर उभरा। इस नाते अमरीकी वित्तीय पूंजी को वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के अधिशेष में से एक बड़ा हिस्सा हथियाने का अवसर प्राप्त हुआ क्योंकि वह युद्ध पश्चात यूरोप-जापान के पूंजीवादी पुनर्निर्माण ही नहीं एशिया, अफ्रीका, लातिन अमरीका में नवस्वाधीन पूंजीवादी देशों में पूंजीवादी व्यवस्था के विकास का भी मुख्य वित्तीय निवेशक/ऋणदाता बना। अतः अमरीकी पूंजीवाद कुछ दशकों के लिए आर्थिक वृद्धि तेज करने में कामयाब हुआ। उच्च आर्थिक वृद्धि के इस दौर में अमरीकी पूंजीवादी शासक वर्ग इस विराट अधिशेष में से एक हिस्सा न सिर्फ अपने देश के मध्यम वर्ग को दे पाया बल्कि अपने घरेलू मजदूर वर्ग को भी उसका एक भाग दे पाने में सक्षम हुआ। नतीजा यह हुआ कि क्लासिकल बुर्जुआ लिबरल व एंग्लो-सैक्सन श्वेत राजनीतिक अवस्थिति वाली रिपब्लिकन पार्टी के मुक़ाबले बुर्जुआ सुधारवादी अवस्थिति लेने वाली डेमोक्रेटिक पार्टी के जरिये वह अमरीकी मजदूर आंदोलन के बड़े अंश को प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ राजनीतिक ढांचे में संस्थागत रूप में समायोजित कर लेने में भी सक्षम हुआ और अफ्रीकी व हिस्पानिक मूल की आबादी सहित लगभग अधिकांश यूनियनों में संगठित मजदूर वर्ग डेमोक्रेटिक खेमे में ही समाहित हो गया।

परंतु उच्च पूंजीवादी आर्थिक वृद्धि का यह दौर दीर्घकालिक होना नामुमकिन ही था। 1970 का दशक आते अवश्यंभावी पूंजीवादी संकट फिर उठ खड़े हुये और टटपुंजिया व मजदूर वर्ग के साथ बांटे जा सकने लायक अधिशेष की मात्रा तब से निरंतर कम होती गई है। अतः शासक वर्ग के लिए सामाजिक कल्याण खर्च में भारी कटौती और बचत तथा मजदूर वर्ग अधिकारों पर निरंतर हमले वाली नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का सहारा लेना जरूरी हो गया, जिसका नतीजा है उसके बाद से लगातार घटती मजदूरी और बढ़ती बेरोजगारी दर। 1980 के दशक में रिपब्लिकन पार्टी के रोनाल्ड रीगन के राष्ट्रपति काल में इन नीतियों को बड़े पैमाने पर लागू किया गया और बिल क्लिंटन के राष्ट्रपति काल में डेमोक्रेटिक पार्टी ने भी यही रास्ता अख़्तियार किया। किंतु नवउदारवादी नीतियाँ पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था के अंतर्विरोधों का समाधान तो नहीं कर सकतीं थीं अतः तत्पश्चात आर्थिक संकट और भी गहन हुये हैं तथा अब एक संकट का ‘समाधान’ बस अगला उससे भी अधिक गंभीर संकट ही रह गया है। 21वीं सदी का आगाज ही 2001-02 के बड़े संकट से हुआ और वह ठीक से समाप्त भी नहीं हो पाया था कि 2007-08 में वैश्विक वित्तीय संकट आ खड़ा हुआ। इन दोनों का परिणाम मजदूर वर्ग के लिए भारी तकलीफों और टटपुंजिया लघु-मध्यम उद्योगों के भारी तादाद में दिवालिया होने में हुआ है।

इन लगातार पहले से अधिक गंभीर होते आर्थिक संकटों और मजदूर वर्ग पर उनके बढ़ते बोझ और मुसीबत ने मौजूदा नेतृत्व की गद्दारी और एक क्रांतिकारी पार्टी के पूर्ण अभाव के बावजूद भी सर्वहारा वर्ग में घोर असंतोष और बढ़ती स्वतःस्फूर्त वर्ग चेतना को जन्म दिया है। साथ ही साथ अमरीका में श्वेत एंग्लो सैक्सन प्रोटेस्टंट (WASP) बहुसंख्या और उत्पीड़ित ब्लैक व हिस्पानिक अल्पसंख्यकों के बीच पहले कुछ हद तक शांत हुये नस्ली तनाव की आग फिर से प्रज्वलित हुई है। अतः पिछले दो दशकों में अमरीका में एक ओर तो एक के बाद एक पहले से बड़े विरोध प्रदर्शन व आंदोलन सामने आए हैं, वहीं दूसरी ओर, नस्ली हमलों और हत्याओं, खास तौर पर ब्लैक आबादी पर, की घटनाओं में भी इजाफा देखा गया है।

बैरक ओबामा – मसीहा, और मायूसी

2007 में आरंभ वैश्विक वित्तीय संकट ने भारी वंचना, घरों से बेदखली, ट्यूशन फी में बेहद बढ़ोतरी और शिक्षा ऋण के कमरतोड़ बोझ, आदि के जरिये करोड़ों अमरीकियों के मध्यम वर्गीय ज़िंदगी जीने के ‘महान अमरीकी सपने’ को चूर चूर कर डाला। इससे पैदा रोष और बैंकों सहित वित्तीय पूँजीपतियों के अपराधों के खिलाफ घोर गुस्से के बीच 2007 का राष्ट्रपति चुनाव आया। अमरीकी मेहनतकश जनता में फैली घनघोर नाउम्मीदी के उस माहौल में बड़े किंतु अस्पष्ट वादों (‘यस, वी कैन’) से पैदा आशा की बड़ी लहर पर सवार होकर बैरक ओबामा महान मसीहा के रूप में उभरा और लगातार दो बड़ी जीतें हासिल कीं। पर एक के बाद एक अपने हर वादे को उसने धता बताई। ओबामा प्रशासन ने न सिर्फ सभी वित्तीय गुनहगारों की हिफाजत की, उन्हें सजा से बचाया बल्कि साथ ही उन्हें संकट से राहत हेतु तमाम किस्म की रियायतें दीं जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का अपना सबसे बड़ा वादा तक भी पूरा न किया। इसके अतिरिक्त उसके कार्यकाल में नस्ली हमले और हत्याएं भी फिर से बढ़ गईं और इनके अपराधियों को कोई सजा न मिली।  इसीलिए जल्दी ही ओबामा वाल स्ट्रीट के वित्तीय अल्पतंत्र और अमरीकी प्रशासन में स्थापित नवउदारवादी गिरोह का सर्वप्रिय बन गया।

बर्नी सैंडर्स – उभार और पददलन

इस प्रकार डेमोक्रेटिक पार्टी में 2016 में वह दोफाड़ हुआ जिसमें क्लिंटन-ओबामा के नेतृत्व वाले प्रभावी धडे ने हिलेरी क्लिंटन को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार के रूप में पेश किया जबकि अब तक निर्दलीय डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट रहे बर्नी सैंडर्स ने डेमोक्रेटिक पार्टी में शामिल हो राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए हिलेरी के मुक़ाबले अपना दावा पेश किया। क्योंकि हिलेरी पहले से ही वाल स्ट्रीट के बैंकों और वित्तीय सरमायेदारों तथा सैनिक-औद्योगिक जुंड़ली के युद्धोन्मादियों के खेमे की जानी पहचानी नवउदारवादी सदस्य थीं इसलिए डेमोक्रेटिक पार्टी की मजदूर वर्गीय पांतें खास तौर पर युवा कुछ हद तक रोजगार सुरक्षा प्रदान करने, कल्याणकारी कार्यक्रमों-नीतियों को बहाल व विस्तारित करने, सार्वत्रिक स्वास्थ्य सेवा, विश्वविद्यालयों की ऊंची फ़ीज़ में कमी, छात्र कर्जों में रियायत, युद्धोन्माद विरोध, आदि पर आधारित सुधारवादी कार्यक्रम प्रस्तुत वाले बर्नी सैंडर्स की हिमायत में जुटने लगे।

आम सदस्यों में बर्नी को मिली जबर्दस्त लोकप्रियता व समर्थन के बावजूद वित्तीय पूंजी, कॉर्पोरेट मीडिया तथा डेमोक्रेटिक पार्टी के नवउदारवादी संस्थागत तंत्र की मदद और हिमायत से हिलेरी उम्मीदवारी जीतने में कामयाब रहीं। डेमोक्रेटिक पार्टी का मानना था कि ब्लैक, हिस्पानिक व अन्य निम्न आर्थिक दर्जे वाले आप्रवासी उसके बंधे मतदाता है जो कुछ अस्मिता आधारित प्रतीकात्मक बातों और ओबामा जैसी भावनात्मक आकर्षक अपीलों से उसको ही वोट करेंगे। उनकी नजर में मजदूर वर्ग के पास भी डेमोक्रेटिक पार्टी के पक्ष में वोट करने के सिवा कोई चारा नहीं था। अतः हिलेरी ने दरअसल नवउदारवादी व दक्षिणपंथी मुद्दों पर अपना चुनाव अभियान चलाया ताकि रिपब्लिकन समर्थक अमीर व मध्यवर्गीय शहरियों को ट्रंप के गँवारू उपद्रवियों की भीड़ व कोलाहल का भय दिखाकर अपनी ओर खींचा जा सके। नतीजा ये हुआ कि रिपब्लिकन तो साथ नहीं आए, पर थोड़ी-बहुत रोजगार सुरक्षा, आम-फहम स्वास्थ्य सेवा और चरमराती व्यवस्था वाले अपने निवासी क्षेत्रों में बेहतर नागरिक सेवाओं, कॉलेज फ़ीज़ में कमी जैसी कुछ सीमित राहत की आस वाले मजदूर वर्गीय डेमोक्रेटिक समर्थक हिलेरी से और भी कट गए।

ट्रंप – बड़बोला हुडदंगी अर्धफासिस्ट

उधर रिपब्लिकन खेमे की ओर से उम्मीदवार बना रियल स्टेट कारोबारी, दलाल और बेशर्मी से नस्ली नफरत तथा स्त्रीद्वेषी बातें करने वाला हुडदंगी डोनाल्ड ट्रंप। उसने अमरीका को फिर से महान और सर्वश्रेष्ठ बनाओ के बड़बोले जुमले के साथ अंध राष्ट्रीय उन्माद फैलाया जिसका निशाना सभी आप्रवासी, पर खास तौर पर मुस्लिम व हिस्पानिक थे – उनको अवैध आप्रवासी बताते हुये अमरीकी जीवन में खलल डालने, जुर्म और आतंकवाद फैलाने का जिम्मेदार बताया गया। ट्रंप ने दक्षिणी सरहद पर मेक्सिको से आने वाले आप्रवासियों को रोकने हेतु सरहद पर दीवार खड़ी करने का वादा भी किया। इन सबके साथ ही उसने आयात व आउटसोर्सिंग पर रोक लगाने तथा चीन जैसे देशों के मालों पर आयात ड्यूटी बढ़ाकर स्थानीय मैनुफेक्चर को प्रोत्साहन देने और गायब होते जा रहे औद्योगिक रोजगारों को अमरीका में वापस लाने का आश्वासन भी दिया।

चुनांचे, सिर्फ परंपरागत रूप से अनुदार, नस्ली नफरत भरी, ईसाई कट्टरपंथियों की बड़ी संख्या वाली दक्षिणी आबादी ही नहीं बल्कि इसके मोहक भ्रमजाल से श्वेत मजदूर व टटपुंजिया वर्गों की वह आबादी भी आकर्षित हुई जो पिछले कुछ दशकों के तीव्र आर्थिक संकटों में या तो बंद होते कारखानों-उद्योगों के अपने पुराने, तुलनात्मक रूप से आरामदायक रोजगार खो देने या वित्तीय संकटों में अपने छोटे-मोटे कारोबारों के बंद हो जाने से असुरक्षित, चिंतित व रोष से भरी हुई थी। डेमोक्रेटिक पार्टी ने उनको पूरी तरह नजरअंदाज करते हुये नवउदारवादी नीतियों का समर्थन किया था और वाल स्ट्रीट के वित्तीय सरमायेदारों के साथ खुली दोस्ती गाँठी थी, अतः तब तक डेमोक्रेटिक समर्थक रहे इन मजदूर वर्ग मतदाताओं की बड़ी तादाद ने उसका साथ छोड़ दिया, खास तौर पर पहले के औद्योगिक क्षेत्र रहे और चुनावों में हेर-फेर या स्विंग वाले मध्य-पश्चिम राज्यों में, और इस तरह बड़बोले अर्ध-फासिस्ट डोनाल्ड ट्रंप को जीत हासिल हुई। बहुत से विश्लेषकों का मानना है कि बर्नी सैंडर्स के उम्मीदवार होने पर यह मजदूर वर्ग वोट खेमा नहीं बदलता और ट्रंप को जीत नहीं मिलती।

ट्रंप के राष्ट्रपति काल में अमरीकी समाज में विक्षोभ, विघटन, टकराव का जो भारी बवंडर उठ खड़ा हुआ है उसके विस्तार में हम यहाँ नहीं जायेंगे। इसके लिए मुख्य रूप से तो तीक्ष्ण होते पूंजीवादी अंतर्विरोधों से पैदा संकट जिम्मेदार है जिससे ट्रंप का अमरीका का महान बना सकना तो दूर वह और भी अधिक तेजी से पतन के रास्ते बढ़ चला है। लगभग ‘मरने दो’ के बेशर्मी भरे अंदाज में दो लाख मौतों को नजरंदाज कर कोरोना संकट में भारी बदइंतजामी, आसमान छूती बेरोजगारी और अल्पसंख्यक ब्लैक आबादी के खिलाफ सामाजिक तथा संस्थागत नफरती तत्वों को दी जा रही खुली छूट ने अमरीकी समाज के सामाजिक-आर्थिक द्वंद्वों को उफान पर ला दिया है। इन गहराते अंतर्विरोधों और बहुसंख्यक आबादी के जीवन में बढ़ती मुसीबत और असुरक्षा के बीच अर्धफासिस्ट ट्रंप के हुडदंगी बड़बोलेपन ने अमरीकी समाज को खुले वर्गीय व नस्ली सशस्त्र टकराव के मुहाने पर ला खड़ा किया है हालाँकि इसमें मजदूर वर्ग व उत्पीड़ित समुदायों की बहुसंख्या वाला पक्ष अभी भी मुख्यतः स्वतःस्फूर्त एवं असंगठित संघर्ष ही कर रहा है। यह सब बातें सुविज्ञात हैं।

बर्नी –लौ फिर से उठी, बुझा दी गई!

2020 के चुनाव की डेमोक्रेटिक उम्मीदवारी के लिए एक बार फिर से बर्नी सैंडर्स के नेतृत्व वाले डेमोक्रेटिक सोशलिस्टों और पार्टी पर काबिज नवउदारवादी नेतृत्व के बीच मुक़ाबला था। बुर्जुआ जनवाद के बारे में अपने अंध सुधारवादी रुझान के भ्रम से पीड़ित डेमोक्रेटिक सोशलिस्टों को इस बार पक्का भरोसा था कि बर्नी आसानी से विजयी हो सकेगा क्योंकि पिछले 4 सालों में निरंतर जमीनी राजनीतिक मुहिम, उसके नतीजे में इस दौरान अन्य कई छोटे चुनावों में उनके ओकासीओ-कार्थेज, रशीदा तालिब, आदि उम्मीदवारों की जीतों और 2016 की तुलना में इस बार कहीं अधिक सुसंगत एवं साहसी प्रगतिशील राजनीतिक मुद्दों वाले अभियान ने उन्हें बहुत उत्साहित कर दिया था।

किंतु पार्टी के नवउदारवादी संस्थागत नेतृत्व का प्रतिरोध भी इस बार कहीं अधिक कटु, बेहतर तैयारी के साथ संगठित, हमलावर, चतुराई-चालाकी से भरा और हेराफेरी वाला था। परिणाम यह कि विशेषतया नौजवानों सहित बड़ी तादाद में आम कार्यकर्ताओं के जोश खरोश से भरे समर्थन के बावजूद इस बार तो ओबामा-क्लिंटन खेमे के उम्मीदवार जो बाइडेन के सामने बर्नी खेमा चुनाव मुहिम को अंत तक चलाने में भी कामयाब न हुआ और बाइडेन बहुत आसानी से ही मुक़ाबला जीत गया।

बाइडेन-हैरिस – नवउदारवादी मुहिम

इस बार डेमोक्रेटिक पार्टी 2016 से भी कहीं जोरों से नवउदारवादी कार्यक्रम के साथ मैदान में है। उन्हें लगता है कि इस तरह मजदूर वर्ग खास तौर पर ब्लैक-हिस्पानिक अल्पसंख्यकों के साथ ट्रंप प्रशासन समर्थित फासिस्ट श्वेत प्रभुत्ववादी गिरोहों के टकराव से अपनी आरामदायक एवं समृद्ध ज़िंदगी में पैदा खलल के डर से मध्यम वर्गीय शहरियों को ट्रंप की जीत से इस द्वंद्व के और तीव्र होने का भय दिखाकर अपने पक्ष में खींच लाना मुमकिन होगा। हाल में सम्पन्न डेमोक्रेटिक पार्टी कन्वेंशन में यही देखा गया कि डेमोक्रेटिक सोशलिस्टों द्वारा उठाए गए सभी सुधारवादी कल्याणकारी मुद्दों को पूरी तरह धता बता अत्यंत प्रतिक्रियावादी नवउदारवादी कार्यक्रम को अपनाया गया तथा बोलने के लिए भी कॉलिन पॉवेल जैसे सबसे खतरनाक किस्म के युद्धोन्मादियों एवं पूर्व रिपब्लिकनों तक को सर्वाधिक वक्त दिया गया। यहाँ तक कि बाइडेन के जोड़ीदार के रूप में कमला हैरिस का नाम भी इसी आधार पर चुना गया है क्योंकि एक और तो इससे बाइडेन के नस्ली अलगाव के समर्थन के इतिहास से बेचैन ब्लैक आबादी को कुछ अस्मितावादी प्रतीकात्मक भरोसा दिलाया जा सकेगा, तो दूसरी ओर, वित्तीय पूँजीपतियों एवं नवउदारवादियों को भी पूरी तरह आश्वस्त किया जा सकेगा कि बाइडेन की जीत की स्थिति में डेमोक्रेटिक सोशलिस्टों के ‘बावलेपन’ वाले कार्यक्रम की प्रशासन में कोई जगह न होगी क्योंकि कमला हैरिस सीनेट में ट्रंप के कुछ सर्वाधिक घटिया जनविरोधी प्रस्तावों को समर्थन देने के लिए जानी जाती हैं जिनमें उसकी युद्ध नीति और आप्रवासी बच्चों को उनके परिवारों से अलग करना शामिल है।

इसी पर टिप्पणी करते हुये डेविड सिरोटा Jacobin में लिखते हैं, ‘डेमोक्रेटिक कर्ताधर्ताओं ने इस कन्वेंशन को यूनियनों पर हमला करने, हजारो मजदूरों की छंटनी करने, पर्यावरण सवाल से इंकार करने वाले, 9/11 के जीवितों को जोखिम में डालने वाले, और झूठ बोल हमें लाखों के कत्ल वाले युद्ध में झोंकने वाले रिपब्लिकन बहादुरों के प्रचार का केंद्र बना दिया …. खुद उम्मीदवार के शब्दों में “कुछ भी बुनियादी परिवर्तन नहीं होगा”। डेमोक्रेटिक राष्ट्रीय परिषद को चलाने वाले दलालों ने पार्टी पर कॉर्पोरेट पैसे का असर कम करने के प्रस्ताव को दबा दिया। …. यह पूरी तरह वैसा ही है जैसा ओहायो राज्य सीनेटर नीना टर्नर ने कहा था, “ये किसी को ऐसा कहने की तरह है कि ‘तुम्हारे सामने गू भरा कटोरा ही है, पर हम तुम्हें पूरा नहीं आधा खाने को ही तो कह रहे हैं।‘ पर है तो यह गू ही।“ … खुद डेमोक्रेटिक उम्मीदवार ऐसा व्यक्ति है जिसने अपराध कानून लिखा, दिवालिया कानून की अगुवाई की, रिपब्लिकनों के साथ मिलकर इराक युद्ध को अधिकृत किया – और, हाँ, उसकी जोड़ीदार वो है जिसने अपने कानूनी विभाग को स्टीव मनुचिन पर मुकदमा चलाने से रोका।‘

सर्वेक्षणों में बाइडेन आगे, पर ट्रंप की जीत मुमकिन

अतः आगामी चुनाव का परिदृश्य ऐसा है जिसमें असली विकल्प की गैरमौजूदगी में कई लोग ट्रंप के मुकाबले ‘छोटी बुराई’ मानकर बाइडेन को वोट देंगे जरूर पर अधिसंख्य मेहनतकश जनता और प्रगतिशील मतदाताओं में उसके पक्ष में कोई उत्साह नहीं है। ऐसे में उसका चुनाव अभियान भी जमीन पर गायब है और मुख्यतया डिजिटल ही है। ऐसे में 3 नवंबर का चुनाव बहुत मुश्किल और कांटे का होने वाला है। एक ओर कोविड का भय है तो दूसरी ओर पूरे राजकीय तंत्र और फासिस्ट व नस्ली सशस्त्र गुंडावाहिनियों की मिलीभगत से ट्रंप खेमा लगभग हर मतदाता को चुनौती दे बाधित करने वाला है। बड़ा सवाल यह है कि नीरस, उत्साहहीन बाइडेन-हैरिस मुहिम से प्रेरित होकर कितने लोग घर से उठकर लंबी पंक्तियों में शामिल हों वोट देने की जहमत उठाने वाले हैं। इसके उलट ट्रंप समर्थक नफरत से ही सही पर जोश से भरे हैं और उसका खेमा सशरीर घरों के दरवाजे खटखटा रहा है और हर मुमकिन प्रयास में जुटा है। वो मुख्यधारा और सोशल मीडिया दोनों के जरिये फर्जी खबरों व अफवाहों का इस्तेमाल करने की चालबाजियाँ भी ज़ोरों से चल रहा है। फिर उसके समर्थक कोविड को फर्जी बीमारी बता रहे हैं इसलिए उन्हें वोट डालने जाने में उसका कोई डर भी नहीं है।

बुर्जुआ राज्य पर अंदरखाने फासिस्ट कब्जा

एक और अहम पक्ष पूरे अमरीकी बुर्जुआ जनतांत्रिक राज्यतंत्र पर अंदरखाने ट्रंप समर्थकों का कब्जा है। बहुत से सदिच्छा भरे भालेमानुस, जो इस बात को नहीं समझते कि फासीवाद और कुछ नहीं बल्कि बुर्जुआ राज्य का ही वह रूप है जिसका सहारा वित्तीय पूंजीपति अत्यंत तीक्ष्ण आर्थिक संकट की घड़ी में पूंजीवादी व्यवस्था की हिफाजत के लिए लेते हैं, ऐसा तर्क देते आ रहे थे कि अमरीका सशक्त संस्थागत तंत्र वाला एक सुविकसित जनतंत्र है, अतः फासिस्ट शक्तियाँ उसे उतनी आसानी से अपनी इच्छा के आगे न झुका पायेंगी जैसे उन्होने सामंती अवशेषों वाले कमजोर भारतीय जनतंत्र को किया था। पर यह बात पूरी तरह गलत साबित हुई है और अमरीकी ‘सुविकसित एवं सशक्त’ बुर्जुआ जनतांत्रिक राज्य के सभी संस्थान भी फासिस्ट प्रहारों के समक्ष उतनी ही फुर्ती से घुटने टेक चुके हैं। चुनाव की दृष्टि से अहम अमरीकी डाक सेवा (USPS) का ज्वलंत उदाहरण लेते हैं।

डाक सेवा अमरीकी चुनाव में एक अहम भूमिका अदा करती है क्योंकि कोई भी अमरीकी मतदाता सशरीर वोट देने जाने के बजाय डाक मतपत्र मांगने और डाक के जरिये ही भेजने का अधिकारी है और हर चुनाव में यह काम तीन हफ्ते पहले ही शुरू हो जाता है। कोविड वातावरण में यह सबको जाहिर है कि इस बार ऐसा करने वाले अधिकांश डेमोक्रेटिक मतदाता हैं क्योंकि ट्रंप समर्थकों ने तो पहले ही कोविड को फर्जी बीमारी घोषित किया है और वे अभी से ही मतदाता केन्द्रों पर जाकर वोट डालने का अभियान चला रहे हैं। पहले से ही यह भाँपकर, और डाक सेवा को कमजोर करने वाले कुछ पुराने ओबामा-बाइडेन प्रशासन के नवउदारवादी फैसलों का लाभ उठाकर, रिपब्लिकनों ने डाक सेवा के बोर्ड पर कब्जा कर लिया है तथा खुलेआम चुनाव में हेराफेरी के लिए इसका प्रयोग कर रहे हैं। उन्होने डाक सेवा का बजट काट दिया है, बड़ी तादाद में डाक छाँटने वाली मशीनों को बंद कर दिया है, स्टाफ में कमी कर दी है ताकि डाक पहुंचाने के काम को, खास तौर पर ऐसे अधिक डाक वाले मौकों पर, धीमा किया जा सके। डेमोक्रेटिक उम्मीदवारी के लिए हुये प्राइमरी चुनावों में, जिनका संचालन भी अमरीकी चुनाव आयोग ही करता है, ऐसा देखा जा चुका है। न्यूयॉर्क राज्य प्राइमरी चुनाव में लगभग 20% मतपत्र देरी के नाम पर अस्वीकार कर दिये गए जिनमें 30 हजार अकेले खास तौर पर मजदूर वर्गीय इलाके ब्रुकलिन के थे। कैलिफोर्निया में ही एक लाख से अधिक मतपत्र अस्वीकृत किये गए। ऐसा ही अन्य राज्यों में भी देखा गया। अब अमरीकी डाक सेवा खुलेआम डाक मतपत्रों के पहुंचाने के काम को धीमा करने में जुटी है और खास तौर पर डेमोक्रेटिक समर्थक क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर मतपत्रों के देरी से पहुँचने की वजह से गिनती के वक्त अस्वीकार कर दिये जाने का खतरा सामने आ खड़ा हुआ है। ऐसे ही, बहुत से मतदाता पा रहे हैं कि मतदाता सूची में उन्हें ‘निष्क्रिय’ करार दे दिया गया है और 3 नवंबर को वोट देने के लिए उन्हें पहले कुछ फॉर्म भरने और दस्तावेज़ जमा करने की कष्टसाध्य प्रक्रिया से गुजरना होगा। स्थिति इतनी गंभीर है कि डेमोक्रेटिक सम्मेलन में मिशेल ओबामा ने डेमोक्रेटिक वोटरों से विनती की कि वे अपनी सेहत का जोखिम उठाकर भी घंटों पहले, हो सके तो पहली रात को ही, सशरीर वोट देने हेतु लाइन में लग जायें।

साफ जाहिर है कि ट्रंप खेमा उस मूल्यवान सीख भरी कहावत को सही सिद्ध करने में पूरी ताकत से जुटा है कि फासिस्ट चुनाव के जरिये सत्ता में आते तो हैं पर चुनाव के जरिये जाते नहीं। चुनांचे ये पूरी तरह मुमकिन है कि उसकी नवउदारवादी आर्थिक एवं अन्य नीतियों से अपनी ज़िंदगी में आई दुख-तकलीफ से अमरीकी जनता मे छाए बड़े असंतोष और रोष के बावजूद भी ट्रंप चुनाव का नतीजा अपने पक्ष में हथियाने में कामयाब हो जाये। बाइडेन के पक्ष में बड़ी भारी वोटिंग ही इसे रोक पाएगी। क्या बाइडेन/हैरिस जोड़ी ऐसा कर सकने में सक्षम है, देखा जाना बाकी है।

 बाइडेन की जीत फासीवाद की हार नहीं

लेकिन बाइडेन इस चुनाव को जीत भी ले तो यह अमरीका में फासिस्ट उभार के लिए तात्कालिक व अस्थायी झटका ही होगा। पूरी संभावना यही है कि वो नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को और भी ज़ोरों से लागू कर मेहनतकश जनता की मुसीबतों में और और भी इजाफा करेगा। इससे फासिस्ट मुहिम का हमला और भी तेज व सशक्त होगा और संभावित है कि ट्रंप जैसे बड़बोले के बजाय कहीं ज्यादा चालाक एवं दुष्ट फासिस्ट के नेतृत्व में वे और भी ताकतवर होकर वापसी करें जैसा ओबामा के बाद हुआ था। ऊपर उद्धृत लेख में डेविड सिरोटा कहते हैं, ‘एक कलंक भरी कहानी ओबामा एवं ट्रंप शासन को आपस में जोड़ती है। यह अतिसरलीकृत ही सही पर मूलतः बात को स्पष्ट करती है: एक लोकप्रिय अभियान से चुनाव में जीत, तत्पश्चात कॉर्पोरेट शक्ति के समक्ष आभिजात्य प्रशासन का समर्पण, उससे पैदा मोहभंग तथा मायूसी का माहौल, जिसने नस्लवादी और स्त्रीद्वेषी नफरत फैलाते एक बड़बोले को राष्ट्रपति पद पर काबिज हो जाने में सफलता दिला दी। हमारा सौभाग्य है कि ट्रंप इतना आत्ममुग्ध, अनाड़ी एवं अकुशल है – कई मामलों में उसकी अपनी मूर्खता ने चीजों को उतना बदतर होने से रोका है जितना वे हो सकती थीं। पर मैं जानता हूँ कि नवंबर में फासीवाद का खतरा टलने नहीं जा रहा है, इसलिए मुझे उत्साहित या खुश होने के लिए मत कहिए।

असल समस्या क्या है?

असल बात को समझने के लिए हमें बर्नी सैंडर्स जैसी परिघटनाओं की और गहराई से पड़ताल करनी होगी। ब्रिटिश लेबर पार्टी में जेरेमी कोर्बिन या ऐसे ही अन्य कुछ औरों की तरह अमरीकी डेमोक्रेटिक पार्टी में बर्नी सैंडर्स भी बचत-सादगी की नवउदारवादी नीतियों, सामाजिक सेवाओं के खर्च में कटौती, बढ़ती बेरोजगारी, गिरती मजदूरी, गायब होती पेंशन, सिकुड़ती बचतों, श्रम एवं यूनियन अधिकारों पर हमले के विरुद्ध मजदूर वर्ग में बढ़ते असंगठित व स्वतःस्फूर्त असंतोष, रोष और चिंता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन पार्टियों के आम सदस्यों में उन पुराने सामाजिक जनवादी कल्याणकारी अच्छे दिनों की वापसी के लिए तड़प ही वह वजह है जो ऐसे लोकप्रिय नेताओं को सामने ला रही है हालांकि इन पार्टियों का नेतृत्व व संगठित ढांचा इन्हें पसंद नहीं करता क्योंकि यह नेतृत्व या तो अमरीकी डेमोक्रेटिक पार्टी की तरह हमेशा से ही शासक वर्ग का प्रतिनिधि रहा है या ब्रिटिश लेबर पार्टी की तरह बहुत पहले ही मजदूर वर्ग आंदोलन के साथ गद्दारी कर जर्जरित पूंजीवादी व्यवस्था का अंतिम पहरूआ बन चुका है।

किंतु यह उभरती वर्ग चेतना अपने समर्थन और जोश के बावजूद अभी भी स्वतःस्फूर्त एवं भूतकाल उन्मुख है – बुर्जुआ जनतंत्र में ही सुधार एवं कल्याण के अच्छे दिनों की वापसी का स्वप्न इसका आधार है। वे नहीं समझ रहे कि वो नीतियाँ एक समय विशेष में ही मुमकिन थीं जब इन साम्राज्यवादी मुल्कों के वित्तीय पूंजीपति दुनिया भर के मेहनतकशों की श्रमशक्ति की लूट से इतना अधिशेष जुटा पाने की स्थिति में थे कि इसमें से एक भाग (‘रिश्वत’) अपने देश के मजदूर वर्ग के साथ भी बाँट सकते थे। अंतहीन वैश्विक वित्तीय संकट के दौर में अब वैसा कर पाना नामुमकिन है और इन अच्छे दिनों की चाहत कभी न पूरी होने वाली शेखचिल्ली की कपोलकल्पना ही है। बल्कि हर देश के वित्तीय पूंजीपति अब अपने मुनाफ़ों और पूंजी संचय की हिफाजत हेतु राज्यसत्ता पर नग्न प्रतिक्रियावादी एवं अधिनायकवादी फासिस्ट आधिपत्य का सहारा अधिकाधिक तौर पर लेंगे। ऐसे में इन पार्टियों में अत्यल्प पूंजीवादी सुधारों की बात कर सामाजिक जनवाद का अति नरम, विनम्र, भोला चोला ओढ़ने वाले बर्नियों और कोर्बिनों के लिए भी कतई कोई गुंजाइश बचने का सवाल ही नहीं उठता और उन्हें जल्द से जल्द लात मारकर भगा ही दिया जायेगा।

इन देशों में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में सभी जगह की सारी मेहनतकश जनता को ही समझ लेना चाहिए कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों, फासीवाद, नस्लवाद, अंधराष्ट्रवाद, पितृसत्ता, जाति अत्याचार, भाषाई या इलाकाई प्रभुत्व वगैरह सबकी शक्ति का आधार अब निजी संपत्ति आधारित पूंजीवादी उत्पादन संबंध और उन आर्थिक संबंधों की हिफाजत के लिए निर्मित पूंजीवादी राज्यसत्ता ही है। इन सबका प्रतिरोध और इनको पराभूत करने का संघर्ष अब पूंजीवाद उन्मूलन और समाजवाद निर्माण हेतु मार्क्सवाद-लेनिनवाद के पथ प्रदर्शन में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में समस्त मेहनतकश जनता के संघर्ष के तहत ही चलाया जा सकता है। प्रत्येक देश के सर्वहारा वर्ग को इसके लिए खुद को बुर्जुआ जनतांत्रिक भ्रमों एवं सामाजिक जनवादी सुधारवाद से मुक्त कर इस मकसद हेतु अपने संघर्ष के अपने वर्गीय औजारों का निर्माण करना ही होगा।

यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 5/ सितंबर 2020) में छपा था

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