श्रम कानून ‘सुधारों’ तथा नागरिक स्वतंत्रता पर तीखे हमले के बाद कोविड महामारी और तालाबंदी के बीच इस आपदा में अवसर ढूँढने का खुला ऐलान करने वाली फासिस्ट हुकूमत ने 30 जुलाई 2020 को जारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के जरिये शोषित मेहनतकश जनता पर एक और हमला बोला है। यह न सिर्फ शिक्षा पाने के अधिकार को अमीर बुर्जुआ अभिजात वर्ग तक आरक्षित और सीमित कर गरीब मेहनतकश जनता के सभी हिस्सों तथा विभिन्न दमित अल्पसंख्यकों के लिए शिक्षा से वंचना की नीति है बल्कि यह शिक्षा के अंधतावादी भगवाकरण का खुला नक्शा, संकीर्णतावादी संस्कृत-हिंदी भाषा फॉर्मूला लागू करने का डिजाइन और पूरे देश में आरएसएस के प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणवादी विचार पर आधारित शिक्षा-रोजगार की मौजूदा पदानुक्रम आधारित व्यवस्था को मजबूत करने का ब्लूप्रिंट भी है। किन्तु पहले कुछ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य जरूरी है।
भारतीय उपमहाद्वीप की जनता जब हजारों साल की नींद से जागते हुये एक ऐसे आधुनिक राष्ट्र के निर्माण में जुटी जो लुटेरे विदेशी औपनिवेशिक शासन और देशी सामंती उत्पीड़न दोनों के नृशंस जुल्म से मुक्त हो तब उनके बहुत से सपने और आकांक्षाएं थीं। उन आकांक्षाओं में से एक थी सामंती उत्पीड़कों द्वारा कानून और क्रूर दमन के बल पर उन्हें हजारों साल तक शिक्षा और ज्ञान के हर क्षेत्र – विज्ञान, कला, साहित्य – से वंचित रखे जाने की व्यवस्था को मिटा कर सबके लिए शिक्षा हासिल करना संभव बनाना। भारतीय जनता की इस महान आकांक्षा को उसके नवजागरण के कई अग्रणी दिग्गज विचारकों ने आवाज दी। इनमें से सिर्फ तीन का ही नाम लें तो देश के पश्चिम से सभी किस्म के शोषण-अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले जोतिबा फुले ने 19वीं सदी के उत्तरार्ध में सभी के लिए समान सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था की बात मजबूती से कही, तो 20वीं सदी के आरंभ में भारतीय केमिस्ट्री के जनक प्रफुल्ल चंद्र रे ने बंगाल से ये आवाज उठाते हुये कहा कि श्रम करने वालों को हर प्रकार के ज्ञान से वंचित रखना ही भारतीय समाज में विज्ञान और तकनीक के विकास के अवरुद्ध हो जाने का बड़ा कारण था, तो 1920-30 के दशक में उत्तर से महान साहित्यकार प्रेमचंद ने शिक्षा के दरवाजे किसी भी रूप में किसी के लिये भी बंद करने का विरोध करते हुये हर स्तर पर मुफ्त सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था की मांग बुलंद की। ये मांग उठाते हुये उन सबकी आशा थी कि सबके लिये समान सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था एक आधुनिक समाज का बुनियादी सिद्धांत होगा।
किंतु औपनिवेशिक साम्राज्यवादी शासन से सत्ता हस्तांतरण से शासक बने भारतीय पूंजीपति वर्ग ने बिना जरा देर लगाये अपने ऐतिहासिक रूप से निर्लज्ज, दोगले चरित्र के अनुरूप ही इस महान राष्ट्रीय आकांक्षा के साथ विश्वासघात कर दिया। देश की मात्र 11% आबादी – औद्योगिक-व्यापारिक पूंजीपति व जमींदारों – के वोट से चुनी गई संविधान सभा ने सार्वजनिक समान मुफ्त सार्वत्रिक शिक्षा व्यवस्था की गारंटी से इंकार करते हुये सिर्फ 6-14 आयु वर्ग के बच्चों के लिये सार्वत्रिक प्राथमिक शिक्षा का खोखला वादा संविधान के उन नीति निर्देशक सिद्धांतों में शामिल किया जिन्हें लागू करने की कोई कानूनी बाध्यता शासक वर्ग के लिये नहीं थी।
इसके बाद कुछ दशकों तक शासक वर्ग इस सपने को पूरा करने के लिये कुछ सोहने-मीठे शब्दों भरे आश्वासन देता रहा जैसे कोठारी आयोग की सिफ़ारिश पर बनी 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के जरिये। इसमें बहुत सी सुहानी आशाजनक बातें कही गईं थीं जैसे कुल राष्ट्रीय आय का 6% शिक्षा पर खर्च करना, समान शिक्षा के लिये सभी बच्चों हेतु पड़ोस के स्कूलों की व्यवस्था, इत्यादि। पर असल में क्या? असल में इतना ही हुआ कि प्राथमिक विद्यालयों का कुछ प्रसार जरूर किया गया पर उनमें से अधिकांश में न इमारत थी, न पर्याप्त शिक्षक, न अन्य जरूरी मूल शैक्षणिक सामग्री व सुविधायें। माध्यमिक-उच्च स्तर पर भी कुछ विस्तार हुआ पर अधिकांश राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत से प्रभावित होकर सामाजिक सोच रखने वाले व्यक्तियों-संस्थाओं द्वारा। सरकार का ध्यान सिर्फ एक जगह केंद्रित रहा – बुर्जुआ राजसत्ता और विस्तारित हो रही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की प्रबंधकीय-प्रशासनिक कैडर की जरूरतों को पूरा करने के लिये कुछ विशिष्ट उत्कृष्टता के केंद्रों की स्थापना – उँगलियों पर गिने जाने लायक आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी, एम्स और एक जेएनयू, और बस काम पूरा।
पर 1980 के दशक में जब शासक पूंजीपति वर्ग ने नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और उससे जुड़ी प्रतिक्रियावादी फासिस्ट मुहिम का पालन-पोषण करने का रास्ता पकड़ा तो ये सुहानी पर लाचार निरर्थक बातें कहना भी उसके लिये मुमकिन न रहा। तब 1986 में आई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने समान सार्वजनिक मुफ्त शिक्षा के शासक वर्ग के पुराने वादे से पूरी तरह मुकरते हुये इस न्यायपूर्ण जनवादी आकांक्षा को निर्दयता से पैरों तले रौंद दिया। इसके उलट इसने त्रि-स्तरीय शिक्षा की बुनियाद पक्की की – थोड़े से ‘अत्यंत प्रतिभाशालियों’ के लिये सार्वजनिक उत्कृष्टता केंद्र, पर्याप्त क्रय शक्ति रखने वाले अमीरों के लिये निजी पूंजी के मालिकाने में अधिकतम मुनाफे के लिये संचालित शिक्षा की दुकानें तथा बाकी मेहनतकश आम लोगों के लिये सुविधाहीन सरकारी स्कूलों या दूर शिक्षण या ओपन स्कूल के जरिये कामचलाऊ साक्षरता व रोजगार कौशल का प्रशिक्षण। यहाँ-वहाँ थोड़ी-बहुत विभिन्नता तथा रूप परिवर्तन के साथ यही आज की हमारी शिक्षा व्यवस्था का मूल ढाँचा है। अब नई शिक्षा नीति फासिस्ट प्रतिक्रियावादी संरचना को जोड़ते हुये शासक वर्ग की इस नीति को और एक नए दर्जे पर ले जाने की घोषणा है।
लोगों को भ्रमित करने के लिए परोसी जाने वाली फासीवादी लफ्फाजी के असली चरित्र के अनुसार ही, नई शिक्षा नीति भी कई भारी भरकम शब्द इस्तेमाल करती है लेकिन जैसा कि मंत्री निशंक एक साक्षात्कार में कहते हैं, “नीति की खूबसूरती इसका लचीलापन है”, सब पर तुरंत ही पानी फेर दिया जाता हैं। बुर्जुआ ‘उदारवादियों’ को खुश करने के लिए ये सारी अच्छी अच्छी बातों का बखान करती है, सारी मीठी लगाने वाली बातें बोली जाती हैं, लेकिन आगे जाकर करती एकदम उसके उलट है। उदाहरण के लिए, सभी को सार्वभौमिक शिक्षा प्रदान करने के लिए, ये जहाँ नहीं हैं वहां स्कूलों के निर्माण की बात करती है लेकिन इसके बाद ही विस्तार से ये बताने लग जाती है कि यदि घर के नजदीक कोई स्कूल ना हो तो बच्चे और क्या क्या काम कर सकते हैं। हर एक ‘सुझाव’ पहले कही सारी बातों को नकार देता है और उन्हें अर्थहीन बकवास में बदल देता है। सिर्फ बोलने के लिए बराबरी और समन्वय की भी बातें होती हैं लेकिन असलियत में पर्यायी स्कूल व्यवस्था, दूर-शिक्षण और गुणवत्ताविहीन निजी स्कूलों का एजेंडा आगे किया जाता है। नई शिक्षा नीति से जुड़ा एक भी व्यक्ति अपने बच्चों या पौत्र को ऐसे स्कूलों में पढ़ने नहीं भेज सकता। “जो बच्चे स्कूलों में जाकर नहीं पढ़ पाते ऐसे बच्चों की पढ़ने की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ‘राज्य मुक्त स्कूलों’ को विस्तृत एवं सशक्त किया जाएगा।” इसका मतलब दूर दराज़ में रहने वाले ग़रीब बच्चे पत्राचार पाठ्यक्रम द्वारा ही पढ़ने वाले हैं! और शिक्षकों का क्या होगा? शिक्षकों की व्यवस्था के लिए एवं बच्चों के स्कूल छोड़ देने से रोकने के लिए, “सुशिक्षित स्वयंसेवकों, सेवानिवृत्त वैज्ञानिकों/सरकारी, अर्धसरकारी कर्मचारियों, पूर्व छात्रों और शिक्षाविदों का डेटाबेस तैयार किया जाएगा”, ‘बराबरी’ के उदारवादी वकीलों को खुश करने के लिए भी तो कुछ किया जाना ज़रूरी है जिससे वे इसे सही दिशा में एक बड़ी छलांग बता सकें। हाँ, बिलकुल है—‘हर कक्षा में से 3-4% अतिबुद्धिमान बच्चे चुने जाएँगे’। उदारवादियों को तो उनकी ‘बराबरी’ मिल गई लेकिन वास्तव में सार्वभौमिक एक समान सार्वजनिक शिक्षा तो ख़त्म हो गई!
शिक्षा की गुणवत्ता का क्या? उत्तर है न: “मूलभूत एवं संख्यात्मक साक्षरता का राष्ट्रीय मिशन”। पूर्वानुभव क्या कहता है? जी, ठीक यही, ग़रीब छात्रों के लिए मूलभूत एवं कार्यात्मक साक्षरता, हमने 1986 की नई शिक्षा नीति में सुना था! जब उन्हें अपना श्रम पूंजीपतियों को बेचकर उजरती गुलाम ही बनना है तो उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा चाहिए ही क्यों? सरकार ने उनके लिए व्यवसायिक एवं पॉलिटेक्निक शिक्षा की ही हुई है! इनके पाठ्यक्रम में कौशल प्रशिक्षण शामिल हैं; प्लम्बर, पुताई, बढईगिरी और दूसरे मेहनत के काम। बच्चों को दुकानों और उद्योगों में जाकर काम करना भी सिखाया जाएगा। इससे बाल श्रम बढेगा। भारत को पहले से ही महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश के रूप में जाना जाता है तो फिर इन बच्चों खासतौर से लड़कियों के शारीरिक शोषण एवं सुरक्षा की गारंटी कौन लेगा?
इसी क्रम में और आगे- “कला, सामाजिक विज्ञान, विज्ञान हों या नियमित अथवा व्यवसायिक; मूल पाठ्यक्रम हो या पाठ्यक्रम अतिरिक्त अथवा सह पाठ्यक्रम, इनके बीच कोई मूलभूत अन्तर नहीं होगा।” इसका मतलब हुआ कि भोले भाले लोगों को ठगने की लफ्फाजी के सिवा इस शिक्षा में कुछ भी नहीं होगा। और उन्हें इससे अधिक कुछ चाहिए भी क्यों? उन्हें किसी वैज्ञानिक और विवेकपूर्ण योग्यता की ज़रूरत ही नहीं है! उन्हें तो बस काम चलाऊ साक्षरता चाहिए जिससे वे आई टी सेल द्वारा भेजे गए व्हाट्सेप सन्देश पढ़ सकें और उन्हें आगे फॉरवर्ड कर सकें! शिक्षा नीति इसके बाद बच्चों पर बोर्ड की परीक्षाओं का दबाव काम करने की ओर आगे बढ़ती है। लेकिन फिर से, “कक्षा 3, 5 और 8 में छात्र उपयुक्त आयोग द्वारा आयोजित स्कूल परीक्षा में भाग लेंगे। परीक्षा में यदि उत्तर पुस्तिकाओं को कक्षा अध्यापक के अलावा दूसरे अध्यापक ने जांचा है तो उसे बोर्ड परीक्षा के बराबर माना जाएगा।” इसका मतलब हुआ कि ये शिक्षा नीति कक्षा 3 में भी एक बोर्ड परीक्षा लाने जा रही है जिससे तोता रटंत शिक्षा बढ़े।
नई शिक्षा नीति शिक्षा बजट को कुल सकल उत्पाद के 6% तक बढ़ाने की बात करती है। बहुत से उदारवादी एवं विशेषज्ञ इसकी बहुत प्रशंसा कर रहे हैं। लेकिन ये पैसा आएगा कहाँ से? असलियत में सरकार शिक्षा का बजट हर सालाना बजट में कम करती जा रही है। इसके बाद, ये सरकार उच्च शिक्षा के पुनर्गठन की बात भी करती है। लेकिन, इस स्तर के पुनर्गठन के लिए पैसा आएगा कहाँ से? नई शिक्षा नीति 2020 को सही से समझें तो पाएंगे कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अभी हाल में विश्वविद्यालय में सुरक्षा गार्ड, बिजली, पानी आदि के खर्च का अध्ययन करने तक के लिए एक समिति गठित की है। उच्च शिक्षा के लिए उपलब्ध धन व्यवस्था का तो पहले ही ये हाल है!!
इसके बाद सवाल आता है शिक्षा के माध्यम का। नई शिक्षा नीति बताती है कि “जहाँ तक भी संभव है, कक्षा 5 तक, या हो सके तो 8 तक या फिर उससे भी आगे, शिक्षा का माध्यम गृह भाषा/ मात्र भाषा/ स्थानीय भाषा/ क्षेत्रीय भाषा रहेगी।” यह शिक्षा के अधिकार कानून 2009 के अनुसार ही है जिसके अनुसार जहाँ तक भी संभव हो शिक्षा का माध्यम मात्र भाषा ही होनी चाहिए। बिलकुल ठीक बात है। लेकिन, पहली बात, क्या ये संभव है? निशंक से जब पूछा गया कि क्या ये बात निजी स्कूलों में प्रभावी शिक्षा के माध्यम में भी लागू होगी? (हिन्दू जुलाई 31) तो उनका जवाब था, “गतिशील भारत बनाने के लिए हम सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं।” अर्थात, निजी स्कूलों की बात आते ही वे पूरी तरह जनवादी हो जाते हैं; उनपर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी। ये सिर्फ़ सरकारी स्कूलों में ही लागू होने वाला है जहाँ गरीबों के बच्चे पढ़ते हैं। इसका मतलब है; हम बच्चों के मां- बाप की आर्थिक हैसियत के अनुसार शिक्षा के माध्यम के मामले में भी दो श्रेणियां चालू रखने जा रहे हैं।
असलियत ये है कि इस सब के पीछे कुछ और छुपा हुआ है। भारतीय भाषाओं को समृद्ध एवं सशक्त बनाने के नाम पर हिंदी भाषा को सारे देश में थोपा जाने वाला है। संस्कृत को भी सभी स्कूलों में लागू किया जाने वाला है। भाजपा शासित राज्यों में हिंदी पहले से ही शासन-सूचना की आधिकारिक आम भाषा हो ही चुकी है। मोदी सरकार और उसे घेरे रखने वाला नौकरशाह अमला सभी नागरिकों से अनिवार्यत: हिंदी में ही बात करता है। प्रधानमंत्री हमेशा देश को संबोधन हिंदी में ही करते हैं। इससे साफ ज़ाहिर है कि गैर अंग्रेजी माध्यम तथा त्रिभाषीय फोर्मुला धीरे धीरे हिंदी को ही शासन एवं सत्ता के कामकाज में प्रस्थापित कर देगा। हालाँकि ये तय है कि कोई भी सरकारी फरमान किसी भी भाषा को सशक्त और समृद्ध नहीं बना सकता। भारतीय भाषाओं को समृद्ध करने के लिए ये सुनिश्चित करना होगा कि दुनिया भर का ज्ञान उसमें उपलब्ध हो (मूल हों या अनुवाद, किताबें, किताबें, और किताबें छपी जायें) और वो तकनीक की मदद से विभिन्न भाषाओं के परस्पर संपर्क एवं व्यवसाय से ही संभव हो सकता है। और ये अंग्रेजी अथवा किसी विदेशी भाषा में सभी को निपुण बनाकर ही हो सकता है।
“कुछ विषय, कुशलता, क्षमता को स्कूल में महत्व दिया जाएगा जैसे, वैज्ञानिक स्वभाव तथ्यात्मक सोच, सृजनशीलता एवं नवोंमेषण, कला और सुन्दरता की परख..” और “शिक्षा को अधिक प्रयोग आधारिक, सम्पूर्ण, समावेशी, प्रश्नोंमुख, खोज आधारित, ज्ञानपरक, चर्चा आधारित, लचीला और असलियत में आनंददायक बनाने के लिए शिक्षा शास्त्र का विकास होना ज़रूरी है।” लेकिन होगा कैसे? ‘भारत के ज्ञान’ का समावेश कर के और वो होगा प्राचीन भारत के ज्ञान को जानकर और इसके आधुनिक भारत की चुनौतियों और सफलताओं पर होने वाले प्रभाव का अध्ययन करके और भविष्य की शिक्षा, स्वास्थ्य एवं वातावरण पर इसके प्रभाव का अध्ययन करने से। एक साक्षात्कार में निशंक का कहना है कि स्कूलों के पाठ्यक्रम में इन सब तत्वों का निश्चित एवं वैज्ञानिक समावेश किया जाएगा। उदाहरण के लिए, आधुनिक औषधि विज्ञान के छात्रों को अब आयुर्वेद का भी अध्ययन करना होगा क्योंकि ‘भारत के ज्ञान’ को सभी पाठ्यक्रमों में समाहित करना है। कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसा करने से वैज्ञानिक सोच और तथ्यपरक ज्ञान का दावा कूड़ेदान में चला जाएगा। उसी प्रकार बी एड का पाठ्यक्रम बुनियादी कर्तव्यों पर जोर देगा, ये बात मसौदे में दो बार कही जाती है लेकिन मौलिक अधिकारों पर चुप्पी साध ली जाती है। बिलकुल उसी तरह धर्मनिरपेक्षता, बोलने की आज़ादी और समाजवाद पर कुछ नहीं; यही इनके असली मंसूबे हैं।
शिक्षा के व्यवसायीकरण (मुनाफाखोरी) के बारे में भी नई शिक्षा नीति में कई शीर्षक मौजूद हैं। लेकिन शीर्षक के नीचे दिए तथ्यों को पढ़ा जाए तो वे सब व्यवसायीकरण को बढ़ावा देने वाले ही हैं जैसे, ऊपर बताए भाषाई माध्यमों के आधार पर पैदा होने वाले दो तरह की श्रेणियों से मुनाफे की दुकानों के रूप में निजी स्कूल हर जगह नज़र आएंगे। आधुनिक तकनीक का उपयोग करते हुए ई शिक्षा मतलब इंटरनेट पर शिक्षा पर भी जोर दिया गया है। ये भी ग़रीब बच्चों के लिए पक्षपातपूर्ण और अन्यायकारक है। स्मार्ट फोन अथवा इंटरनेट उपलब्ध ना करा पाने के कारण छात्रों एवं अभिभावकों की आत्महत्या की खबरें हम पढ़ ही चुके हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों को भी यहाँ अपनी शाखाएँ खोलने की अनुमति दी जाने वाली है इसका मतलब शिक्षा का निजीकरण ही है। ग़रीब और मेहनतकश वर्ग के बच्चे ना सिर्फ इन कॉलेजों के खर्च वहन नहीं कर पाएंगे बल्कि ऐतिहासिक रूप से पिछड़े समुदाय भी अपना प्रतिनिधित्व गँवा देंगे क्योंकि इन कॉलेजों में कोई आरक्षण नहीं होगा।
सारांश ये है की जहाँ पहले से ही भयंकर आर्थिक असमानता एवं शोषण मौजूद है वहाँ नई शिक्षा नीति समाज में मौजूद अमीर-ग़रीब की खाई को और गहरा और मजबूत बनाएगी। ग़रीब और अधिक ग़रीब और अमीर और अधिक अमीर होते जाएंगे। समग्र, बहुविषयी, अंत:विषयी, समग्र सीख नाम के भारी भरकम शब्द महज दिखावे के लिए हैं। नई शिक्षा नीति का असली मक़सद अमीर वर्ग द्वारा ग़रीब मेहनतकश वर्ग के श्रम को लूटने की प्रक्रिया को और आसान बनाना है। कुल मिलकर इसका उद्देश्य है कि वंचित तबके के बच्चों को ज्ञान से महरूम करना है जिससे उनमें वैज्ञानिक समझ और सच्चाई जानने की परख विकसित ना होने पाए और वो मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था द्वारा हो रही उनकी लूट के कारणों और उनसे लड़ने के तरीकों की समझ तक स्वयं ज्ञान अर्जित कर ना पहुँच सकें। मेहनतकश अवाम पर होने वाले इस हमले को हमें पहचानना होगा और इस नई शिक्षा नीति के विरुद्ध संघर्ष तीव्र करना होगा।
यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 4/ अगस्त 2020) के संपादकीय में छपा था
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