फासीवाद पर एक बार फिर, उसकी नवीनतम दिशा

शेखर //

पांच महीने बीत जाने के बाद भी कोरोना महामारी थमने का नाम नहीं ले रही है और कोविद-19 संक्रमितों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। लगता है यह लेख जब तक ‘यथार्थ’ के चौथे अंक में पाठकों के सामने आएगा तब तक भारत में संक्रमितों की संख्या 20 लाख के आंकड़ें को पार कर चुकी होगी। अमेरिका और ब्राजील के बाद संक्रमितों की संख्या में भारत तीसरे स्थान पर विराजमान है। कोविद-19 जनित स्वास्थ्य समस्याओं से मरने वालों की संख्या लगभग 40 हजार हो गई है और इस संख्या के बढ़ने की दर से आगे के भयावह मंजर का अनुमान लगाया जा सकता है। अब बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य नए कोविद-19 हॉटस्पॉट के रूप में उभर रहे हैं और यहां स्थिति दिन प्रतिदिन और भयावह होती जा रही है। लेकिन मोदी सरकार निर्लज्जतापूर्वक दावे कर रही है कि बाकी देशों की तुलना में भारत सरकार ने अपनी जनता के लिए बहुत कुछ किया है और बिकी हुई मीडिया इसका पूरा प्रचार कर रही है। इतनी मोटी चमड़ी तो केवल फासिस्टों की ही हो सकती है! नतीजे की परवाह किए बिना अपने मतदाताओं के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार तो केवल एक फासीवादी सरकार ही कर सकती है।

विकल्पहीन और दिशाहीन मोदी सरकार?

जहां आज जरुरत थी एक बड़े स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं के साथ साथ टेस्टिंग और ट्रेसिंग को बढ़ाने की, वहीं मोदी सरकार ने अमानवीय उपेक्षा दिखाते हुए जनता को ऐसी भयानक महामारी के खिलाफ लड़ाई में बिलकुल असहाय और निहत्था छोड़ दिया है। यही है मोदी के सपनों का आत्मनिर्भर भारत! ऐसा चित्रित किया जा रहा है कि सरकार स्वाभाविक तौर पर असहाय है और उसके हाथ में कुछ है ही नहीं। ऐसा दर्शाया जा रहा है कि सरकार बेकसूर है। गरीब धार्मिक लोगों के बीच तो यह बेतुका प्रचार तक चलाया जा रहा है कि यह सब तो भगवान की मर्जी है और भाग्य में यही लिखा है। और इसी तरह एक प्राकृतिक आपदा को एक भयावह मानव निर्मित आपदा में तब्दील कर दिया गया है और इसके बावजूद यह सरकार दावे कर रही है कि उनसे जो हो सकता था उन्होंने किया है। किसी भी निर्वाचित सरकार का ऐसा रवैया डरा देने वाला है। केवल सरकार ही नहीं, लेकिन न्यायपालिका ने भी ऐसे समय में जनता के प्रति बिलकुल संवेदनहीन रुख अपना लिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने ना केवल देश में हजारों लोगों को मरते देख भी उनसे मुंह फेर लिया, बल्कि उन्होंने तो प्रशांत भूषण जैसे लोगों, जिन्होंने कई बार अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई है और सर्वोच्च न्यायालय को उनकी जिम्मेदारियों का एहसास दिलाया है, के विरोधी स्वरों को कुचलना ही अपना प्रमुख लक्ष्य बना लिया। केवल एक फासीवादी राज्य सत्ता ही, जिसने जनता के बड़े हिस्से को अपने प्रतिक्रियावादी प्रचारों से अपने वश में कर लिया हो, ऐसी महामारी के दौर में जनता से इस कदर खिलवाड़ कर सकती है।

मोदी सरकार ने दिशाहीनता का चोगा ओढ़ लिया है, लेकिन वे दिशाहीन नहीं हैं। यह कैसे संभव है कि भारत जैसी देश की सरकार, जो अपने आप में एक महाद्वीप जितना बड़ा है और तो और भौतिक क्षमता और वैज्ञानिक सामर्थ्य से ओतप्रोत है, ऐसे समय में दिशाहीन हो जाए? यह तभी हो सकता जब सोच समझ कर अपने संसाधनों को जनता के बजाय दूसरों की, अर्थात मुट्ठीभर बड़े पूंजीपतियों की खिदमत में या उनके हितों की पूर्ति के लिए लगा दिया गया हो। यह केवल अमानवीय नहीं बल्कि एक आपराधिक कदम है जिसे छुपाने की भी कोशिश अब ये सरकार नहीं कर रही क्योंकि मोदी सरकार को यकीन है कि उसने बखूबी जनता के अंदर साम्प्रदायिकता का जहर भर कर उन्हें चुप करा दिया है। बड़े पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों के लिए उसका प्रेम इन सब से कहीं ऊपर है। इसका सबसे अच्छा उदहारण है मुकेश अम्बानी का दुनिया के दस सबसे अमीर व्यक्तियों की सूची में पांचवे पायदान पर आ जाना। यही नहीं, मोदी के सभी बड़े पूंजीपति मित्रों ने इस आपदा के दौर में अपनी संपत्ति कई गुना बढ़ा ली है। जो नुक्सान हुआ है वो केवल आम जन साधारण का जिनकी थोड़ी बहुत आय भी लॉकडाउन में पूरी तरह बंद हो गई और अभी भी वे बेरोजगारी, कंगाली, भुखमरी जैसी समस्याओं से घिरे हुए हैं।

अतः मोदी सरकार विकल्पहीन होने का सिर्फ ढोंग कर रही है। अगर वो चाहती तो अभी भी स्थिति को सुधारने के बहुत से विकल्प खुले हैं। सरकार चाहती तो कई कदम उठाए जा सकते थे जैसे देश के सभी बड़े निजी अस्पतालों को अधिग्रहित करना, बड़े कॉर्पोरेट उद्योगों को अस्पतालों, खास कर सरकारी अस्पतालों को आर्थिक सहयोग करने के लिए बाध्य करना, इन सभी क्षेत्रों में जनता की पहलकदमी को बढ़ावा देना ताकि जल्द से जल्द कोविद व गैर कोविद मरीजों के इलाज की पूर्ण व्यवस्था हो पाए, आदि। ऐसे कई उदहारण दिए जा सकते हैं। हालांकि इन कदमों पर मालिक वर्ग का विरोध आना लाजिमी और स्वाभाविक है। लेकिन अगर सरकार की मंशा रहती तो इन जैसे तमाम विरोधों को संभालना भी कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन इसके विपरीत सरकार ने पहले से त्रस्त जनता की मुश्किलें और बढ़ाते हुए सैनीटाईजर आदि जरुरी चीजों, जिसे इस महामारी में बचाव के लिए इस्तेमाल किया जाता है, पर 18 प्रतिशत जीएसटी लगा दिया। लोगों को ये तक नहीं पता है कि पीएम केयर्स का पैसा कहां इस्तेमाल किया जा रहा है। एक चुनी हुई सरकार द्वारा इस तरह का कृत्य बिलकुल आपराधिक और क्रूर है। 

दूसरी तरफ, इस पूरी महामारी के दौरान महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है जिससे लोगों की जीवन-जीविका बुरी तरह प्रभावित हो रही है। अन्तराष्ट्रीय बाजार में दाम गिरने के बावजूद भी पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं। अतः कोविद मरीजों की जान बचाने या संक्रमण को रोकने के लिए जो रास्ते बचे थे उसे भी ये सरकार लगातार बंद करती जा रही है। क्योंकि यह मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में है ही नहीं। उनकी प्राथमिकताएं तय हैं और जगजाहिर भी – उन्हें अयोध्या में मंदिर बनाना है, कांग्रेस शासित राज्यों की सरकार गिरानी है, आने वाले बिहार और बंगाल विधानसभा चुनाव किसी भी तरह जीतने हैं, सरकारी कंपनियों को अपने भारतीय और विदेशी पूंजीपति मित्रों (आका कहना ज्यादा उचित होगा) को बेचना है, श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी संशोधन व उन्हें पूरी तरह स्थगित करके संगठित और असंगठित सभी मजदूरों पर हमले करना हैं और मानव अधिकारों के हनन के खिलाफ या जनता के पक्ष में आवाज उठाने वाले बुद्धिजीवियों और राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में बंद करना है। एनआईए ने पिछले दो सालों से जेल में बिना जुर्म साबित हुए सजा काट रहे लोगों की सूची में एक नाम और जोड़ दिया है, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ हैनी बाबू एमटी का और उन्हें भी भीमा कोरेगांव हिंसा और षड्यंत्र मामले में सह-अपराधी बताते हुई गिरफ्तार कर लिया है। हालांकि सच तो यह है कि भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा और षड्यंत्र में मोदी के चहेते संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे के नेतृत्व में दलितों को ही निशाना बनाया गया था। लेकिन यह तो स्वाभाविक है कि सरकार और एनआईए को इससे कोई मतलब नहीं है क्योंकि असली मुजरिम को पकड़ना और सजा दिलवाना उनका उद्देश्य है ही नहीं, बल्कि उन्हें तो इस घटना की आड़ में उन बुद्धिजीवियों को सबक सिखाना है जो मोदी सरकार और उसकी फासीवादी सत्ता के लिए खतरा बन सकते हैं। कोई भी प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी अगर गरीब मजदूर-मेहनतकश जनता के जनतांत्रिक या मानवीय अधिकारों के लिए लड़ता है या उनके हक की बात करता है या सरकार के खिलाफ आवाज उठाता है, उनके फासीवादी मंसूबों को बेनकाब करता है और अपनी कविताओं, साहित्य, कानूनी बौद्धिक कौशल और कड़ी मेहनत से जनता को जगाने और लड़ाई के लिए प्रेरित करने का काम करता है, तो वह इस सरकार के निशाने पर आ जाता है। जनता के बीच हिन्दू-मुस्लिम नफरत बढ़ाने वाला बेहद जहरीला  एवं प्रतिक्रियावादी प्रचार चला कर उनकी सोचने समझने की क्षमता और इस संवेदनहीन व घोर जन विरोधी सरकार के खिलाफ विरोध का स्वर बेहद कमजोर कर दिया है। 

यह सब क्या दर्शाता है? इन सबका क्या मतलब है?

अब तो लगता है नरेन्द्र मोदी को, व्यक्तिगत तौर से, ‘अपने’ लोगों की भी परवाह नहीं रह गई है, कोविद-19 महामारी जनित समस्याओं से जूझते आम लोगों की सुध लेना तो दूर की बात है। ठीक ठीक कहें तो, एक सच्चे प्रतिक्रियावादी की तरह, उसे अब अपने समर्थकों के बीच भी लोकप्रियता खोने का डर नहीं सता रहा। उसने अपने सच्चे और सबसे विश्वस्नीय भक्तों, मध्यम व उच्च मध्यम वर्ग की भी चिंता करनी छोड़ दी है। अब तो निम्न मध्यम या निम्न पूंजीवादी तबके को संबोधित करना तक उसके एजेंडा से बाहर हो चुका है, तो ऐसे में उन मजदूरों और गरीब किसानों की क्या बात की जाए जो शुरुआत से ही उसके निशाने पर हैं। हम पाते हैं कि मोदी के समर्थकों को भी इस महामारी के दौर में कोविद-19 संक्रमण या अन्य गंभीर बीमारियों के लिए प्रयाप्त इलाज नहीं मिल पा रहा है और कई लोग अस्पतालों में बेड और डॉक्टरों की कमी से मारे जा रहे हैं। अब वो भी बिना स्वास्थ्य सेवाओं के पूरी तरह आत्मनिर्भर आम जनता हो गये हैं।  यहां तक कि खुद भाजपा के निचले या मध्यम स्तर के नेता भी इस तरह की उपेक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं, जिसे मानो केवल इनकी मंडली के मुट्ठीभर लोगों और इनके आकाओं अर्थात बड़े पूंजीपति या उच्च स्तर के अपरिहार्य नेतागण के लिए ही रिजर्व कर दी गई हो, की कमी के शिकार हो रहे हैं। और बाकी सभी आत्मनिर्भर जनता बनने को मजबूर हैं।

अगर हम कुछ देर के लिए बाकी चीजें भूल भी जाएं तो भी ये सारे तथ्य अपने आप में इस बात की पुष्टि करते हैं कि मोदी सरकार की फासीवादी तानाशाही की जीत अब काफी नजदीक आ चुकी है और सार रूप में देखें तो बखूबी स्थापित भी हो चुकी है। इसीलिए उसे अब ‘अपने ही’ समर्थकों के गुस्से से भी फर्क नहीं पड़ने वाला। यह ये भी दर्शाता है कि आने वाले 2024 लोक सभा चुनाव में, अगर कराए गए तो, हारने का या कम वोट मिलने का खौफ भी इनके मन से खत्म हो चुका है। इसका क्या मतलब है? यह एक लक्षण है, इनके हाव-भाव बिलकुल एक फासीवादी तानाशाह की तरह है जिससे यह साफ पता चलता है कि मोदी-शाह की फासीवादी सत्ता सार रूप में स्थापित हो चुकी है, इसके खुनी पंजे गहराई तक धंस चुके हैं और ‘जनतंत्र’ इनके पैरों तले रौंदा जा चुका है जिसका आवरण या परदा बस एक पतली से डोर से लटका है जिसे कभी भी नोच कर फेंका जा सकता है।  

शुरुआत में मोदी सरकार अपने समर्थकों की इज्जत करती थी या करने की जरुरत समझती थी। उसे कम से कम अपने युवा कार्यकर्ताओं और समर्थकों के लिए, दिखावे के लिए ही सही, कुछ करने और उनका ख्याल रखने की जरुरत थी। लेकिन अब उसे अपने पुराने मुद्दों और शैली से उन्हें रिझाने की जरुरत नहीं महसूस होती है। धीरे धीरे वह इन बाध्यताओं से बाहर आ चुकी है। ऐसा लगता है कि भविष्य के लिए अब वे मनमर्जी के लिये राज्य मशीनरी पर ही निर्भर रहना चाहते हैं, जैसे कि न्याय व्यवस्था जो अब पूरी तरह इनके वश में है और केवल एक मूक दर्शक बन कर रह गई है। हम भारत में मोदी की फासीवादी सत्ता के विकास की मौजूदा दिशा और उसका आगे का रास्ता साफ देख सकते हैं। इससे हमें उन फासीवादियों की चालाकी का पता चलता है जो पिछले 6 सालों में बहुत करीने से बखूबी इस बुर्जुआ जनतंत्र को, अन्दर ही अन्दर, एक फासीवादी राज्य में तब्दील करने में सफल रहे हैं। अतीत में इनके द्वारा ली गई दिशा और इनके कदमों को चिन्हित किया जा सकता है। सबसे पहले एक व्यापक जनाधार और अपने धूर्त सांप्रदायिक अंधराष्ट्रवादी प्रचार को अपने जुमलों और झूठे वादों (अच्छे दिन, दो करोड़ नौकरी प्रतिवर्ष, सभी के खातों में 15 लाख, किसानों की आय दोगुनी करना, आदि) से जोड़ कर साथ ही साथ अपनी महामानव और देशवासियों (हिन्दुओं) की रक्षा हेतु जन्मे एक अवतार की छवि के बदौलत उसने अपने आप को सर्वोच्च स्थान पर पहुंचा लिया। यह कार्य संपन्न होते ही उसने राज्य मशीनरी (न्याय व्यवस्था भी) के अधिकारियों को साम-दाम-दंड-भेद की नीति लगा कर अपने कब्जे में कर लिया और अपने जन विरोधी मंसूबों को अंजाम देना शुरू दिया। अंततः सभी संस्थाओं को पहले फंसाया गया और फिर पूरी तरह उस पर कब्जा कर लिया गया, और अब 2019 में पहले से भी ज्यादा बड़ी जीत हासिल करने के बाद, राज्य मशीनरी की मदद से, वो सभी से लड़ने को तैयार हैं, चाहें वो सड़कों पर आ कर सरकार का विरोध करते उसके पूर्व समर्थक ही क्यों ना हों। आरएसएस और उसके अन्य संगठनों से उसे अब ऐसे समर्थकों (गुंडों) की एक बड़ी तादात मिल चुकी है जो पैसे के लिए इनके जन विरोधी कुकृत्यों को जमीन पर अंजाम देती है और मुख्यतः इस फासीवादी सरकार की निजी सेना की तरह काम करती है, जो कि आज कल सोशल मीडिया से ले कर समाज के हर कोने में विराजमान हैं। जाहिर है कि अब मोदी सरकार अपने अंतिम जीत की तैयारी कर रही है। वह अपने समर्थकों के खिलाफ भी उसी तरह का नफरत और प्रतिशोध से भरा कदम उठाएगी अगर वे अपने मन में भरे गए जहर को दरकिनार करके मोदी और उसकी फासीवादी सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हैं। इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए और भूतपूर्व ‘स्वतंत्र’ राज्य मशीनरी या भूतपूर्व ‘जनतांत्रिक संस्थानों’ पर अपनी पकड़ पूरी तरह मजबूत करने के साथ ही, सभी टीवी चैनल और अधिकतर प्रिंट मीडिया स्वाभाविक तौर से मोदी सरकार की गोद में जा बैठी है और उनके जहरीले एजेंडे को जनता तक पहुंचाने का काम बखूबी कर रही हैं।

आइये, विपक्षी बुर्जुआ खेमे पर भी एक नजर डाली जाए। अभी तक सभी सरकारों ने कोविद-19 से लड़ने के लिए “हर्ड इम्युनिटी” का ही सहारा लिया है, अब चाहे इससे हजारों, लाखों या संभवतः करोड़ों लोग क्यों ना मारे जाएं। और अगर इस आपराधिक उपेक्षा को जल्द नहीं रोका गया तो इन आंकड़ों को सच होते देर नहीं लगेगी। लगभग सभी विपक्षी पार्टियां इस महत्वपूर्ण सवाल पर मोदी के साथ खड़ी हैं। “हर्ड इम्युनिटी” कायम होने की प्रक्रिया में अगर लाखों लोगों की मौत भी हो जाती है तो भी उन्हें इससे कोई आपत्ति नहीं है। दूसरी तरफ, उन सभी पार्टियों के, ऊपर से ले कर नीचे तक, पूरी तरह भ्रष्ट होने के कारण मोदी सरकार ने सीबीआई, ईडी व अन्य सरकारी एजेंसियों की मदद से उन्हें बड़ी आसानी से अपने चंगुल में कर लिया है। और यही वजह है कि मोदी सरकार द्वारा राज्यों को जीएसटी में हिस्सा नहीं देने के बाद भी वे सब चुप हैं। यहां तक कि वे संसद के सत्र शुरू करने की मांग तक नहीं कर रहे हैं, जबकि मोदी सरकार अपने  मंत्रीमंडल के हुक्मनामे और अध्यादेशों के सहारे ही शासन कर रही है और उसे पूरे देश की जनता पर थोपे जा रही है। अब तो ऐसा लगता है कि आगे इन अध्यादेशों की भी जरुरत नहीं पड़ेगी। मोदी-शाह गुट के लोगों के मुंह से जो निकले, वो ही कानून होगा। बस थोड़ी बहुत रुकावटों को ठिकाने लगाना बाकी है। हालांकि जमीन पर यह कवायद पहले ही लागू हो चुकी है। अब सभी के लिए, विपक्षी पार्टियां हो या आम जनता, संसद अप्रासंगिक हो गया है। सब कुछ खुलेआम घटित हो रहा है लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसका संज्ञान लेने और बुर्जुआ संविधान को बचाने की कोशिश करने के बजाय मूक दर्शक बन कर बैठा है। आवाज उठाने वालों की अंधाधुंध गिरफ्तारियों से सभी भयभीत और सहमे हुए हैं। अगर कहीं उम्मीद बची है तो केवल क्रांतिकारी ताकतों पर ही, लेकिन वे भी, मुख्यतः विभिन्न मुद्दों पर विखंडित होने के कारण जिसका आधार कभी गंभीर तो कभी तुच्छ होता है, अपने कार्यभार को पूरा करने में अक्षम साबित हुए हैं। मजदूर वर्ग का क्रांतिकरण होने में अभी भी वक्त है। वे अभी भी रियायतों और सुविधाओं पर आधारित अवसरवादी ट्रेड यूनियनों की पुरानी समस्याओं से घिरे हुए हैं। ‘वाम’ दल अपनी आवाज उठा रहे हैं लेकिन बेहद कमजोर स्वर में। संगठित और उन्नत मजदूर वर्ग, जिसे मजदूर आन्दोलन का ढाल माना जाता है, संशोधनवादी संसदीय वाम के नेतृत्व में रह कर अपनी क्षमता खो चुके हैं और उनके पूंजीपतियों या बुर्जुआ सरकार के खिलाफ न्यूनतम विरोध की आत्म-समर्पण की नीति पर चलने को विवश हैं। इसके लिए जिम्मेदार और कोई नहीं बल्कि बुरी तरह विखंडित क्रांतिकारी ताकतें ही हैं जिनके द्वारा मजदूर आन्दोलन में एक पर्याप्त हस्तक्षेप का बड़ा अभाव अभी भी बना हुआ है। बुर्जुआ पार्टियां या न्याय व्यवस्था अब फासिस्टों के लिए कोई चुनौती नहीं हैं। आज का सुप्रीम कोर्ट केंद्र के मौजूदा फासीवादी तंत्र के मर्जी के अनुसार ही चलने को विवश है। अतः अब मोदी सरकार अपने हिन्दू राष्ट्र, फासीवाद का भारतीय रूपांतरण, के चिर स्वप्न को पूरा करने के बेहद करीब पहुंच चुकी है। अब अपने ही लोगों द्वारा, मोदी-शाह ने 42वे संवैधानिक संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ को हटाने की याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में डाल दी गई है।   

अब लोगों को जीने या मरने, जैसी कि उनकी आर्थिक स्थिति हो, छोड़ कर मोदी सरकार अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन में जुट गई है ताकि लोगों के धार्मिक भावुक पक्ष का इस्तेमाल करके उन्हें उत्तेजित और लामबंद किया जा सके और उनके मन में साम्प्रदायिकता का जहर घोल कर उन्हें कोविद-19 महामारी को सम्भालने में हुई लापरवाही और उससे जनित आर्थिक व स्वास्थ्य-सेवा संबंधित समस्याओं, मुख्यतः बेरोजगारी और गरीबी में हुई बेतहाशा वृद्धि व आम जनता को हुई बेहिसाब तकलीफों से ध्यान हटा सके और पूरे माहोल को अपने पक्ष में कर सके। मोदी को पता है कि उसके समर्थकों में से कई ऐसे हैं जिनको कोरोना महामारी के दौरान नारकीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ा है और ऐसे में वे करोड़ों रूपए खर्च करके राम मंदिर बनाने के फैसले का विरोध करेंगे, लेकिन फिर भी वो यह जोखिम उठाने को तैयार हैं। वो जानते हैं उन्हें क्या करना है और उनके मनमाफिक ‘कार्यकर्ता’ कहां से मिलेंगे। मोदी की प्राथमिकताएं तय हैं और उसे फर्क नहीं पड़ता अगर उसके समर्थकों या भक्तों के एक छोटे हिस्से का उससे मोह भंग भी हो जाता है। जब पूरी राज्य मशीनरी हाथ में हो तो ऐसी बातों का डर भला क्यों सताए। अब तो राफेल आधारित क्षद्म राष्ट्रवाद से उन्हें दुबारा रिझाया जा सकता है। टीवी चैनल अपने काम पर लग गए हैं।    

इन सब के साथ ही मोदी सरकार राज्यों की निर्वाचित कांग्रेस सरकारों को गिराने में भी व्यस्त है। पिछली बार, लॉकडाउन के ठीक पहले ये खेल मध्य प्रदेश में खेला गया था, अब राजस्थान में कोशिशें चल रही हैं जो सफल भी हो जाएंगी और महाराष्ट्र में भी आगे यही प्रकरण दोहराए जाने की पूरी उम्मीद है। कांग्रेस और टीएमसी, यानी राहुल गांधी और ममता बनर्जी ही हैं जो अभी तक मोदी के खिलाफ बोलने की हिम्मत कर रहे हैं, बाकी सभी पार्टियों को डरा कर या खरीद कर चुप करा दिया गया है। यहां तक कि लालू प्रसाद यादव की राजद को भी गुप्त माध्यमों के जरिए हथिया लिए जाने की खबर आ रही है। हालांकि ममता बनर्जी और राहुल गांधी अभी तक खुलेआम मोदी का विरोध करते दिखते हैं, लेकिन उन्हें सत्तासीन बड़े पूंजीपति वर्ग और साम्राज्यवादी ताकतों का समर्थन नहीं प्राप्त है और हम जानते हैं कि उनके समर्थन के बिना मोदी सरकार को ना तो संसदीय रास्ते से हराया जा सकता है और ना ही अन्य गैर-संसदीय या अवैध रास्तों से (जाहिर है, बुर्जुआ विपक्ष के द्वारा)। बिहार में, शासक पार्टियों जदयू और भाजपा के बीच कटु आतंरिक संघर्ष चलने के बाद भी नितीश कुमार के पास भाजपा के साथ रहने के अलावा और कोई विकल्प मौजूद नहीं है। समग्रता में केंद्र सरकार की पूरी मशीनरी दिन रात एक कर के कैसे भी बिहार और बंगाल में बड़ी जीत सुनिश्चित करना चाहती है ताकि जनतंत्र, जनतांत्रिक अधिकारों और कम्युनिस्टों पर अंतिम रूप से हमले करने से पहले बुर्जुआ विपक्ष की तरफ से आने वाली किसी प्रकार की चुनौती की सम्भावना पूरी तरह खत्म हो जाए। तब तक जनतंत्र का आवरण बनाए रखने में इन्हें कोई आपत्ति नहीं है।   

फरवरी 2020 दिल्ली दंगे – क्या न्याय की मांग को ही अपराध मानना नया कानून है?

हिंसा का स्तर और पुलिस-प्रशासन की सहभागिता की बात करें तो 2002 में हुआ गुजरात जनसंहार फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों से कई गुणा बढ़कर था। हालांकि दिल्ली में हुई हिंसा गुणात्मक तौर पर उससे आगे है जिसका, अभी के समय में फासीवाद के उदय की दिशा का मूल्यांकन करने हेतु, ध्यानपूर्वक विश्लेषण जरूरी है। दंगों के पश्चात पुलिसिया कार्रवाई पर गौर करने से इस गुणात्मक वृद्धि पर वाजिब रौशनी मिलती है। यही गुणात्मक वृद्धि भीमा कोरेगांव मामले में भी देखी गई थी, हालांकि तब वह भ्रूणावस्था में थी। अगर कोई दंगों के बाद छानबीन और जांच के नाम पर पुलिस द्वारा की जा रही कार्रवाई पर गौर करे, और फिर भीमा कोरेगांव मामले में जो हो रहा है उसपर ध्यान दे, तो 2002 गुजरात जनसंहार की तुलना में उपरोक्त गुणात्मक वृद्धि साफ दिखाई पड़ती है। दिल्ली दंगों के कुछ दिन बाद प्रकाशित हुई दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की तथ्यान्वेषी रिपोर्ट के मद्देनजर इस विषय पर चर्चा करना उपयोगी सिद्ध होगा। इस तथ्यान्वेषी कमिटी को अन्य उद्देश्यों के साथ पुलिस की भूमिका पर भी तथ्य इकट्ठा करने के मैंडेट (अधिकार) के साथ गठित किया गया था।

यह रिपोर्ट उपरोक्त बातों की पुष्टि करती है। दंगों के बाद छानबीन के नाम पर हुई पुलिसिया कार्रवाई यह स्पष्ट कर देती है कि न्याय की मांग करना एक अपराध बन चुका है और न्यायपालिका भी इस नए कानून का पालन कर रही है। यहां जोर देकर कहना उचित होगा कि यह एक विजयी होते फासीवाद, जिसे अपनी किसी करनी से कोई भय नहीं रहा, के ही लक्षण हैं।

रिपोर्ट[1] के परिचयात्मक विवरण में लिखा है – “रिपोर्ट उचित तौर पर विस्तृत और निष्पक्ष है परंतु दिल्ली पुलिस के असहयोग के कारण, तथ्यान्वेषी कमिटी इससे अधिक विस्तृत व सटीक रिपोर्ट पेश नहीं कर पाई।” (इटैलिक लेखक द्वारा) दिल्ली पुलिस द्वारा असहयोग पर अल्पसंख्यक आयोग का खुलासा अपने आप ही कई चीजें बयां कर देता है।

लेकिन मुख्य सवाल है कि, इसकी परवाह किसे है? राजसत्ता का कोई ऐसा अंग नहीं बचा जिसे इसकी परवाह है या होगी। न्यायपालिका को भी नहीं। तथ्यान्वेषी कमिटी के चेयरमैन श्री एम. आर. शमशाद (जो सुप्रीम कोर्ट में ऐडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड भी हैं) अपनी प्रस्तावना में वही बात फिर दोहराते हैं – “मुझे यह रिकॉर्ड में ले आना चाहिए कि अगर दिल्ली पुलिस ने अपेक्षित जानकारी मुहैया कराई होती, जिसका डीएमसी [दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग] व तथ्यान्वेषी कमिटी ने अनुरोध किया था, तो रिपोर्ट कहीं ज्यादा विस्तृत होती।” (इटैलिक लेखक द्वारा)

आखिरकार दिल्ली पुलिस किसके निर्देशों पर इस स्तर की धृष्टता दिखा सकती है? आखिर क्यों दिल्ली पुलिस आज इतनी शक्तिशाली दिख रही है कि अल्पसंख्यक आयोग जैसी एक सांविधिक संस्था की अवहेलना करने पर भी उसपर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जाती, चाहे कार्यपालिका या न्यायपालिका द्वारा? 2002 में वाजपेयी ने कम से कम जनता की जनतांत्रिक धारणा का ‘सम्मान’ करने का ढोंग करते हुए ही सही लेकिन राजधर्म निभाने की बात कही थी। तब हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट आज जितने विचारहीन और संज्ञाशून्य नहीं थे। पुलिस द्वारा ऐसे खुलेआम तरीके से इस ऊंचे स्तर की धृष्टता, जो तथ्यान्वेषी कमिटी के संपूर्ण कार्यकाल के दौरान दिखाई गई, उस वक़्त निश्चित ही नहीं दिखाई जा सकती थी।

खास तौर पर पुलिस प्रशासन द्वारा जान-माल की रक्षा करने में नाकामी एवं प्राथमिकी दर्ज करने में देरी करना/जटिलता पैदा करना या दर्ज करने से इंकार करना, पर चर्चा करते हुए रिपोर्ट विस्तारपूर्वक बताती है कि दिल्ली पुलिस ने दंगों के दौरान व उसके बाद भी “गैरकानूनी भीड़ को तितर-बितर करने के लिए अधिकृत शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया, और ना तो हिंसा भड़काने वालों को रोकने, गिरफ्तार या पकड़ कर रखने  के लिए ही कोई कदम उठाए।” आगे लिखा है – “शिकायतों का स्वरूप गंभीर होने के बावजूद, पुलिस ने दर्ज प्राथमिकियों पर कार्रवाई नहीं की। कुछ मामलों में पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज ही नहीं की जब तक कि शिकायतकर्ता ने आरोपियों के नाम उसमें से नहीं हटाए। हेल्पडेस्क ने उन शिकायतों को दर्ज किया जिसमें आरोपी ‘अज्ञात’ बताए गए, लेकिन उन शिकायतों को दर्ज कराना कठिन था जिनमें हत्या, लूट, आगजनी जैसे गंभीर आरोप थे और आरोपी नामित थे। जहां इन शिकायतों को डायरी में दर्ज कराया गया या डाक व अन्य माध्यमों से भेजा गया, उन्हें प्राथमिकी के रूप में दर्ज किया गया या नहीं इसका कोई पुष्टीकरण तक संभव नहीं है।”

रिपोर्ट तमाम विवरणों के सहारे बताती है कि दंगों के दौरान, जब मासूम मुस्लिम पुरुष व महिलाओं पर हमले हो रहे थे, पुलिस की इन हमलों में भागीदारी थी और उसने हमलों को बढ़ावा भी दिया – “जहां पुलिस ने कुछ कार्रवाई की भी, पीड़ित बताते हैं कि पुलिस ने ही भीड़ को हटाने की कोशिश कर रहे अपने सहकर्मियों को रोक दिया (एक सीनियर ने कहा था, “उन्हें मत रोको” यानी भीड़ को)… कुछ मामलों में जहां भीड़ खुलेआम हिंसा को अंजाम दे रही थी, पुलिस केवल दर्शक के रूप में उन्हें देखती रही। अन्य मामलों में, पुलिस ने ही खुले रूप से हिंसक तत्वों को हिंसा व हंगामा तथा हमला जारी रखने की अनुमति दी (एक सीनियर ने कहा था, “जो मन में आए करो”)… कुछ वर्णन बताते हैं कि कैसे पुलिस व अर्धसैन्य अधिकारियों ने हमला समाप्त होने पर भीड़ को संरक्षण प्रदान करते हुए इलाके से बाहर निकाला।” रिपोर्ट आगे बताती है – “हाल की एक विस्तृत रिपोर्ट उत्तर-पूर्वी दिल्ली के निवासियों द्वारा दर्ज की गई अनेक शिकायतों के बारे में बताती है जिनमें सीनियर पुलिस अधिकारियों के मुस्लिमों के खिलाफ लक्षित हिंसा में अगुवाई व भागीदारी करने और उसे बढ़ावा देने के लिए नाम शामिल हैं।”

लेकिन यह भी गुजरात में जो हुआ उससे अभी के बीच के फर्क को व्यक्त नहीं करते। असल फर्क तब साफ दिखाई पड़ता है जब रिपोर्ट कहती है कि – “पीड़ितों को ही गिरफ्तार कर लिया गया है, खास कर उन्हें जिन्होंने आरोपियों के खिलाफ नामित शिकायतें दर्ज कराईं थी।” इसी वजह से कई मुस्लिम शिकायतकर्ता थाने जा कर अपनी शिकायत के बारे में पता करने में भी अनिच्छुक रहे हैं, क्योंकि उनको यह डर है कि ऐसा करने पर उन्हें ही झूठे मामलों में फंसा दिया जाएगा। जिन्होंने अपनी शिकायत को आगे नहीं भी बढ़ाया है उन्हें भी दंगा-ग्रसित इलाकों में से व अन्य इलाकों से भी जैसे जामिया से सटे इलाकों से सैकड़ों की संख्या में गिरफ्तार किया गया है। यहां तक कि जिन्होंने भी सीएए-एनआरसी-एनपीआर विरोधी आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई है और उनकी अगुवाई की है या फिर उनमें हिस्सा भी लिया है, उन्हें भी दंगा भड़काने की साजिश के मामलों में डालकर गिरफ्तार किया गया है, जिसमें कुछ ‘हिंदू’ सीएए विरोधी भी शामिल हैं। हाल यह है कि जो भी पीड़ित पुलिस की भागीदारी या निष्क्रियता के साक्षी हैं वो इंसाफ पाने के लिए पुलिस के पास जाने से भी कतरा रहे हैं, और यही दिल्ली पुलिस चाहती भी थी। संदेश स्पष्ट है – फासिस्ट व उनके समर्थक चाहे हिंसा भड़काएं, आपकी या आपके परिवारवालों पर हमले करें या हत्या ही क्यों न कर दें, उन्हें राजसत्ता द्वारा ना तो दोषी ठहराया जाएगा ना ही कोई सजा दी जाएगी। आज यह मुख्यतः मुस्लिमों के साथ हो रहा है, लेकिन कल हिन्दुओं को भी यही झेलना होगा। इसलिए अगर वो आपको मारें, आपके परिवारवालों की हत्या कर दें, बेतहाशा हिंसा भड़काएं, तो भी शिकायत मत करिए। कोई आपकी रक्षा में तो नहीं ही आने वाला, उल्टा शिकायत करने पर आपको ही गंभीर आरोपों में फंसा दिया जाएगा। उत्तर प्रदेश में तो यह और भी अधिक जोरों से पहले से ही चल रहा है। डॉक्टर कफील खान इस तरह की प्रताड़ना के प्रमुख उदाहरण हैं, लेकिन वह अकेले नहीं हैं जो ऐसा निर्मम अन्याय सह रहे हैं। उनके साथ-साथ सैकड़ों या उससे भी ज्यादा लोग हैं।

हालांकि एक संदेश उपरोक्त बातों से भी अधिक खतरनाक है। वह ये है कि ‘अगर आप न्याय की मांग करो या न्याय के लिए लड़ो, तो आप फासीवादी सरकार को परेशान करने या नुकसान पहुंचाने वाले तत्व माने जाएंगे और इसी कारण आप हमले के शिकार हो सकते हैं, जिसका जिम्मेवार हमलावर नहीं बल्कि आप, जिसने न्याय की मांग की और उसके लिए लड़ा, खुद होंगे और जिसकी कीमत आपको चुकानी होगी और राजसत्ता की कोई संस्था आपके बचाव में नहीं आएगी।’ क्या यह एक चीखता सबूत नहीं है कि इस पूंजीवादी ढांचे में फासिस्ट अब अजेय हो चुके हैं, जिस पर अंदरूनी रूप से उनके द्वारा सालों पहले कब्जा हो गया था जो बाहरी रूप से 2019 के बाद हुआ, और अब देश में जनतांत्रिक नियंत्रण व संतुलन के लिए कोई तंत्र या संस्था नहीं बची है? जो सोचते हैं कि व्यवस्था के भीतर से दबाव डाल कर 2014 के पूर्व का भी पूंजीवादी जनतंत्र वापस लाया जा सकता है, उनके लिए अब काफी देर हो चुकी है।

तथ्यान्वेषी कमिटी की रिपोर्ट पर वापस आते हैं। रिपोर्ट में आगे लिखा है – “उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए लगभग सभी हिंसा-संबंधित मामले जिनमें पुलिस द्वारा छानबीन जारी है, इस पर आधारित हैं कि सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों ने ही दंगों की योजना बनाईं थी ताकि वे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की फरवरी के तीसरे हफ्ते में होने वाली भारत यात्रा के साथ इसे घटित करें।” दिल्ली पुलिस ने खुद जो कहानी सामने रखी है उसके अनुसार निर्विवाद तथ्यों के सामने क्या यह बात सच साबित होने लायक है? नहीं, बिलकुल भी नहीं। ट्रंप यात्रा की पहली आधिकारिक खबर भारत में 13 जनवरी को छपी जबकि पुलिस के ही अनुसार “साजिशकर्ताओं” की तथाकथित बैठक 8 जनवरी 2020 को हुई थी! तो फिर उपरोक्त आरोप कैसे सही हो सकते हैं? पुलिस द्वारा जारी कहानी और तथ्यों के बीच अंतर्विरोध साफ है। परंतु, एक बार फिर कहें तो, इसकी परवाह किसे है? कौन इसकी चिंता करेगा? न्यायपालिका ने इसका संज्ञान नहीं लिया। दूसरी तरफ, कपिल मिश्रा ने अपना भड़काऊ भाषण 23 फरवरी 2020 को दिया। अन्य भाषण व बयान, जो भाजपा नेताओं व मंत्रियों (जिसमें अमित शाह भी शामिल है) द्वारा दिए गए थे जिनमें सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा भड़काने की बातें थी, 13 जनवरी 2020 के बाद ही दिए गए थे। लेकिन यह सारी बातें दिल्ली पुलिस ने खुशी-खुशी नजरअंदाज कर दी हैं, और जिन अदालतों में पुलिस कार्रवाई को कानूनी रूप से चुनौती दी गईं है, उन्होंने भी सुविधापूर्वक तरीके से इन पर ध्यान नहीं दिया है।

न्यायपालिका के ठीक सामने दिल्ली पुलिस की खुलेआम मनमानी के एक अन्य उदाहरण पर गौर करते हैं, जो कोर्ट के सामने घटित हुआ और कोर्ट शांत रहा। यह तब हुआ जब दिल्ली पुलिस ने खुले तौर पर गिरफ्तार/डीटेन किए गए व्यक्तियों के नामों का खुलासा करने से इनकार कर दिया जैसा कि उसकी स्टेटस रिपोर्ट में लिखा है जो ब्रिंदा करात बनाम दिल्ली सरकार (17 जून 2020) के केस में उसने दिल्ली हाई कोर्ट को सौंपा। यह तो एक बात है कि यह दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 41सी का उल्लंघन करती है जिसके अनुसार सभी गिरफ्तार व्यक्तियों का नाम व पता, और उनके साथ गिरफ्तार करने वाले अधिकारियों के नाम और पद, हर जिला पुलिस कंट्रोल रूम के नोटिस बोर्ड पर प्रकाशित होना अनिवार्य है। इससे भी बड़ी और चिंताजनक बात यह है कि हाई कोर्ट ने इसका संज्ञान नहीं लिया और पुलिस को अपने मन मुताबिक कार्रवाई करने दी।

लेकिन यह इस शर्मनाक कहानी का अंत नहीं है।

पुलिस ने अल्पसंख्यक आयोग की तथ्यान्वेषी कमिटी के सवालों पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं जताई। रिपोर्ट कहती है – “दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने डीएमसी अधिनियम की धरा 10(एच) के तहत 18.03.2020 को एक नोटिस (क्रमांक 2020/254) जारी की जिसमें 23 फरवरी 2020 के बाद डीटेन किए गए व्यक्तियों की सूची एवं थानावार प्राथमिकियों और प्राथमिकी में परिवर्तित नहीं की गई शिकायतों की कॉपी मांगी गई।” लेकिन जैसा अपेक्षित था, दिल्ली पुलिस ने कमिटी को कोई जवाब तक नहीं दिया, लिस्ट सौंपने की तो बात ही क्या की जाए। रिपोर्ट के अनुसार – “रिपोर्ट संकलित होने तक आयोग को इसका कोई जवाब नहीं मिला।”

आयोग ने मीडिया रिपोर्ट और मिल रही शिकायतों के आधार पर दिल्ली पुलिस द्वारा मनमाने रूप से की जा रही गिरफ्तारियों पर चिंता जताते हुए एक अन्य पत्र (18 मार्च 2020 को क्रमांक 2020/259) भेजा। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के डीसीपी ने 13 अप्रैल 2020 के एक पत्र में आरोपों को नकार दिया और बिना कोई विवरण देते हुए कहा कि गिरफ्तारियां कानूनी प्रक्रिया और छान-बीन के अनुसार ही निष्पक्ष व न्यायसंगत ढंग से हो रही हैं। अतः सुविधापूर्वक तरीके से पुलिस ने जांच के लिए तथ्यान्वेषी कमिटी को सूची देने से इनकार कर दिया! भले ही यह अटपटा लगे, लेकिन स्पष्ट है कि दिल्ली पुलिस बिना किसी चिंता के अक्खड़ ढंग से खुद को सर्वोच्च समझते हुए कार्रवाई कर रही है। लेकिन यह भी अंत नहीं है। रिपोर्ट में आगे बढ़ते हैं।

तथ्यान्वेषी कमिटी ने फलतः दिल्ली पुलिस के सर्वोच्च अधिकारियों के पास सीधे जाने का निर्णय लिया। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के डीसीपी को भेजा गया ईमेल दिल्ली पुलिस कमिश्नर को भी 11.06.2020 को भेजा गया था, मामले में अभी तक दर्ज की गईं सभी चार्जशीटों पर जानकारी और शीघ्र अतिशीघ्र एक बैठक की तारीख मांगने हेतु उनसे विनती की गई। कमिटी ने उन जानकारियों की विस्तृत सूची भी पत्र के साथ संलग्न की थी जो उसे बीते दिनों में पुलिस से चाहिए थी। इस संबंध में, रिपोर्ट कहता है – “इस रिपोर्ट के समापन की तारीख तक, तथ्यान्वेषी कमिटी को दिल्ली पुलिस से कोई जवाब नहीं मिला।” एक बार फिर, बेचारे आयोग की परवाह किसे है? अंततः कमिटी को “प्राथमिकियों की कॉपियां उन पीड़ितों से इकट्ठा करनी पड़ीं जो भी उन्हें साझा करने को तैयार हुए।” हालांकि, कइयों ने “प्रतिहिंसा के भय से प्राथमिकी साझा करना नहीं चाहा और नहीं किया।” संदेश दीवार पर साफ-साफ लिखा है, भले ही हम उसे पढ़ना नापसंद करें। भारतीय राजसत्ता फासीवादी बन चुकी है। मगर यह इसके जर्मन प्रकार से भिन्न है, या यूं कहें कि यह उससे भी अधिक खतरनाक है।

क्या जो आज जेल में हैं वो फासिस्टों की बेदखली तक वहीं रहेंगे? संभवतः हां।

गंभीर रूप से बीमार वरिष्ठ क्रांतिकारी कवि वरवर राव, जिनकी विश्वभर में प्रतिष्ठा है, की रिहाई में उठी मांग के ऊपर जनमानस में मचे हाहाकार के बावजूद जमानत पर भी उनकी रिहाई मिल पाने में असफलता, हम सब के मन में एक गंभीर आंतरिक हलचल पैदा कर रहा है – क्या ऐसे प्रगतिशील, क्रांतिकारी, उदारवादी (लिबरल) और जनवादी विचारों वाले बुद्धिजीवियों, अधिवक्ताओं व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेलों में हमेशा के लिए कैद रहना होगा, वो भी बिना सुनवाई के? सबसे प्रत्यक्ष रूप से संभव जवाब है – हां। संभवतः हां। क्योंकि उन्हें नए (संशोधित) यूएपीए कानून के अंतर्गत आरोपित किया गया है, इसलिए उनके रिहा या बरी होने का एक ही रास्ता है, और वह यह है कि सरकार खुद ही उनका रिहा या बरी होना चाह ले और इसकी अनुमति दे दे। इसके अलावा और कोई संभव रास्ता नहीं।

इस तरह यहां से भी एक स्पष्ट संदेश आ रहा है। इस प्रकार की अमानवीय निष्ठुरता भी राजसत्ता के फासीवादी चरित्र को बयां करती है। वरवर राव के गंभीर स्वास्थ्य संबंधित कारणों के बावजूद उनकी रिहाई के सवाल पर राज्य मशीनरी द्वारा कोई संवेदना या चिंता नहीं दिखाई गई। शारीरिक रूप से 90 प्रतिशत विकलांग प्रोफेसर साईबाबा की रिहाई में उठी मांग का भी यही अंजाम हुआ। यहां तक कि वरवर राव को उचित गुणवत्तापूर्ण व कुशल चिकित्सा सुविधा भी जनता द्वारा मचे हाहाकार के बाद ही मुहैया कराई गई। यह साफ बताता है कि पूंजीवादी राज्य का फासीवादी रूपरेखा के अनुसार नवनिर्माण हो चुका है जिसे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के जीवन की जरा भी चिंता नहीं है। ऐसी बातें कि सुधा भारद्वाज ने एक हाई कोर्ट जज बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था, फासिस्टों पर कोई नैतिक प्रभाव नहीं डालती। और यह स्वाभाविक भी है। बिलकुल हाल में प्रसिद्ध अधिवक्ता प्रशांत भूषण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुओ मोटो (स्वतः संज्ञान लेते हुए) अवमानना (कंटेम्प्ट) का केस भी इस फासिस्ट नवनिर्माण को बेपर्दा वाला एक और खुला संदेश है।

इन परिस्थितियों में बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, जैसे प्रसिद्ध दलित बुद्धिजीवी आनंद तेलतुम्बड़े आदि, की रिहाई की उम्मीद लगभग ना के बराबर है। राजस्थान मामला भी दिखाता है कि ‘कानून के रक्षकों’ के पास स्वयं कानून के लिए कोई सम्मान नहीं बचा है। कानून की अवहेलना ही नया कानून है। जब पूरी मशीनरी ही नियंत्रण में है तो क्या बुर्जुआ कैंप में कोई भी इस ‘कानून की अवहेलना’ के खिलाफ लड़ेगा? यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी अपने पुराने फैसलों का सम्मान नहीं कर रही है। अदालतों में न्याय मिलना अब एक असामान्य सी घटना लगने लगी है। लेकिन कार्यपालिका को यदा कदा होने वाली इन असामान्य घटनाओं से ज्यादा परेशानी नहीं होती है। इनसे भी निपटने के लिए मोदी सरकार द्वारा ईजाद किया गया सबसे बेहतरीन तरीका है इन पर ध्यान ही नहीं देना, और जब यह ज्यादा परेशानी पैदा करे या ध्यान देना जरूरी हो जाए, तो न्याय का बंद लिफाफा मॉडल को अपना लेना जिसके तहत सरकार आदेश के अनुपालन की रिपोर्ट बंद लिफाफे में भेजती है और कोर्ट उसे स्वीकार कर लेता है। बिना किसी परेशानी के ‘न्याय’ मिल जाता है। और ध्यान रहे कि यह महज कल्पना नहीं है बल्कि असलियत में हो रहा है। साथ ही याद कीजिये, अदालतों को हमारे गृह मंत्री के द्वारा ही सुझाया गया था कि ऐसे फैसले देने की ‘गलती’ ना करें जिन्हें ‘जनता’ स्वीकार और लागू ना कर पाए। बीते सालों में अदालतों ने सुझाव में अंतर्निहित संदेश को समझ लिया है और तय कर लिया है कि ‘गलती’ नहीं करना बेहतर है।

फासीवाद ने इस प्रकार देश में लगभग सभी चीजों पर कब्जा जमा लिया है। पूंजीवादी जनतंत्र के अधिकतर अंदरूनी ढांचे, जिन्हें जनतंत्र का स्तंभ कहा जाता है, या तो ढह चुके हैं या उनपर कब्जा कर उन्हें फासिस्टों की रूपरेखा के अनुसार ढाल दिया गया है। अब केवल क्रांति ही इसे बचा सकती है। और कोई भी सच्ची क्रांति, जो असल में एक जन क्रांति हो और सर्वहारा व मेहनतकश वर्ग की अगुवाई में आगे बढ़े, केवल पूंजीवादी जनतंत्र को ही नहीं बचाएगी, बल्कि जनतंत्र को पूंजी की बेड़ियों से भी बचाएगी। फासिस्टों को बेदखल कर उन्हें पूरी तरह ध्वस्त कर देने वाली क्रांति समाज को सभी भूतपूर्व शोषणकारी व्यवस्थाओं के पुराने अवशेषों और झाड़-झंखाड़ से भी मुक्त करेगी ताकि फासीवाद को हमेशा के लिए परास्त किया जा सके। इससे एक बिलकुल नए युग और एक नए, सर्वहारा के अधिनायकत्व वाले, समाज का आगमन हो सकेगा। अगर समाज और उसके साथ संपूर्ण मानव जाति खुद को फासीवाद के चंगुल से छुड़ाना चाहती है तो आज नहीं तो कल, यही उसका अंतिम मुकाम होना है।

फासीवाद मुर्दाबाद! बड़े पूंजीपतियों का शासन मुर्दाबाद!


[1] रिपोर्ट के सभी उद्धरण लेखक द्वारा अंग्रेजी से अनुवादित हैं।

यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 4/ अगस्त 2020) में छपा था

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