एम. असीम //
18 दिन में बुराई पर अच्छाई की जीत की मिथकीय महाभारत युद्ध की कहानी की तर्ज पर 21 दिन में कोरोना को परास्त करने के लिए नरेंद्र मोदी द्वारा पूरे देश को तालाबंद किए चार महीने से अधिक गुजर चुके। विकसित यूरोपीय देशों में उस वक्त जारी कोरोना के कहर को देखते हुये मोदी ने फासिस्ट ‘महाबली’ के तौर पर खुद को स्थापित करने की चाहत में निर्णायक, दृढ़ व चमत्कारी कदम उठाने की अपनी गर्वोन्मत्त खब्त के चलते ये फैसला लेकर कोरोना के खिलाफ अपने मजबूत नेतृत्व का प्रदर्शन करने का प्रयास किया था क्योंकि उससे निपटने के लिए जरूरी वैज्ञानिक उपायों पर अमल करने का कष्टसाध्य धैर्यपूर्ण काम करने की उसकी न इच्छाशक्ति थी न कोई इरादा अर्थात स्वच्छता के बेहतर उपायों व मास्क आदि के प्रयोग के लिए जनता को शिक्षित करना, मुफ्त कोरोना जाँच के व्यापक कार्यक्रम व संपर्कों की तलाश के जरिये संक्रमित व्यक्तियों की पहचान, सामान्य हलके संक्रमण/लक्षण वाले व्यक्तियों को निर्धारित जरूरी अवधि के लिए अलगाव में रखने की व्यवस्था और गंभीर बीमारों के आवश्यक उपचार का इंतजाम करना।
किन्तु इस वास्ते सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं तथा सभी स्वास्थ्य कर्मियों के लिए सुरक्षा इंतज़ामों के भारी विस्तार व उनमें पर्याप्त निवेश की जरूरत पड़ती, यहाँ तक कि देश में निजी पूँजी के स्वामित्व वाले स्वास्थ्य कारोबार को भी सामाजिक नियंत्रण में लाने की आवश्यकता होती। पर यह शासक पूँजीपति वर्ग के स्वार्थ व उनके हित के लिए जारी नवउदारवादी नीतियों के विपरीत होता। चुनांचे आम लोगों को निजी पूँजी के स्वामित्व वाले स्वास्थ्य कारोबारियों के मुनाफे के चंगुल में फँसा अपने ‘नसीब’ के सहारे छोड़ देने के बावजूद महामारी को रोकने हेतु मोदी द्वारा भारी प्रयास करते दिखते रहने के लिए तालाबंदी एक बेहतरीन मौका थी। इसलिये पूँजीपतियों और उनके लगुए मध्य वर्ग दोनों ने ही इसका भरपूर स्वागत किया था क्योंकि गंदी-बदबूदार एवं घनी बस्तियों के गरीब मेहनतकशों से अपनी नफरत के चलते ‘उनसे होने वाले संक्रमण’ के जोखिम से चौकीदारों की बड़ी फौज द्वारा सुरक्षित अपने भरे-पूरे भंडार वाले घरों-बंगलों या ऊँची दीवारों से घिरी अपनी बड़े फाटकों वाली अपार्टमेंट सोसायटियों में ये खुद को कई सप्ताह तक बंद रखे रखने की कूव्वत रखते थे। अतः इन्होने ताली-थाली पीट, मोमबत्ती जला और पटाखे फोड़ तालाबंदी का स्वागत किया था।
सरकारी फैसलों के सर्वनाशी नतीजे
सर्वप्रथम तो तालाबंदी ने दसियों करोड़ गरीब मेहनतकशों के रोजगार छीनकर उन्हें बेघर बना भुखमरी की ओर धकेल दिया क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूरों के पास श्रमशक्ति बेचना ही जीवन का एकमात्र जरिया होता है एवं श्रमशक्ति बेचकर उन्हें उतनी ही न्यूनतम मजदूरी प्राप्त होती है जिससे वे जिंदा मात्र रह सकें और अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए निरंतर विवश रहें। अर्थात उनके पास कभी भी ऐसी कोई बचत या मुसीबत के लिए रिजर्व फंड नहीं होता जिससे वे श्रमशक्ति विक्रय के बगैर भी अपना जीवननिर्वाह कर सकें। पर सरकार के तालाबंदी के हुक्मनामे ने उन्हें अपनी श्रमशक्ति बेचने से भी वंचित कर दिया। बहुतों को तो पहले किए जा चुके काम की मजदूरी का भी भुगतान नहीं मिला। अतः वे पूरी तरह विपन्न और बेसहारा होकर शरण और भोजन की तलाश में अपनी गंदी घनी शहरी बस्तियों को छोड़ अपने छोटे बच्चों सहित उन्हीं गाँवों की ओर सैंकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल सफर पर निकल पड़ने को मजबूर हो गए, जिन्हें वे कभी अत्यधिक दरिद्रता और भयंकर शोषण के बोझ से बचने और बेहतर रोजगार की खोज में पीछे छोड़ आए थे। इसका नतीजा था भूख व अन्य अनेक भारी कष्ट और बड़ी तादाद में रास्ते में ही मौतें।
दूसरे, खाद्य निगम के पास 10 करोड़ टन से अधिक खाद्यान्न भंडार होने के बावजूद सरकार इस विपदा के वक्त भी सार्वजनिक खाद्य वितरण व्यवस्था को विस्तारित कर सार्वत्रिक बनाने से इंकार की जिद पर अड़ी हुई है हालाँकि इस भंडार में से काफी अनाज यूँ ही सड़ जाने वाला है। मोदी ने भारी प्रचार के साथ जिस 80 करोड़ संख्या के लिए जिस सीमित मुफ्त खाद्य वितरण योजना का ऐलान किया था वह भी अत्यंत सीमित तौर पर ही लागू की गई है। मीडिया रिपोर्टों में आए सरकारी आँकड़ों के अनुसार इसका लाभ मात्र 10% व्यक्तियों को ही मिला है और कई राज्यों में तो एक भी व्यक्ति को नहीं। उधर ग्रामीण रोजगार योजना में रोजगार के लिए भारी माँग देखी गई है पर बहुत बड़ी तादाद में बेरोजगार इस योजना में साल भर में मिलने वाले मात्र 100 दिन के रोजगार का अपना कोटा अभी ही पूरा कर चुके हैं और आगे उन्हें इसका ये जैसा-तैसा सहारा भी खत्म होने को है। फिर माँग में इतनी वृद्धि के बावजूद भी इसके लिए बजट आबंटन में वृद्धि नहीं की गई है और बजट चुक जाने के बाद आगे किसी के लिए भी इसका लाभ लेना नामुमकिन होगा। अभी से ही कई राज्यों से सैंकड़ों करोड़ रुपये मजदूरी की रकम बकाया होने की खबरें आ रही हैं।
तीसरे, दीर्घकाल से बजट की भारी कमी से जूझती सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा महामारी के बोझ से चरमराकर जल्दी ही धराशायी हो गई क्योंकि बिस्तरों, उपकरणों, दवाओं से लेकर प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मियों एवं उनके लिए जरूरी बचाव प्रबंधों सभी का बेहद अभाव था। हम सभी ने अस्पताल से अस्पताल चक्कर लागते, इलाज के लिए दाखिल किया जाना तो दूर जाँच तक से इंकार कर लौटाये जाते, रास्ते में एम्ब्युलेन्स में ही और बहुतेरों के तो पास वह भी नहीं, तो यूँ ही अस्पतालों के फाटकों पर ही या सड़क किनारे दर्दनाक मौत का शिकार होने की भयानक खबरें देखी, सुनी और पढ़ी हैं। मरीजों के साथ ही छोड़ दिये गये शवों और देखभाल करने वालों के अभाव में दर्द और सांस तक न ले पाने से तड़पते मरीजों की दिल कंपा देने वाली तस्वीरें-वीडियो भी देखें हैं। इस सबसे भी दर्दनाक हालत गैर कोविड मरीजों जैसे जच्चाओं, हृदय-मस्तिष्क आघातों के तुरत इलाज की जरूरत वाले या डायलिसिस, कीमो, रेडियो थेरेपी जैसे नियमित उपचार की जरूरत वाले मरीजों की हुई है जिनके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था किए बगैर ही अस्पतालों को कोविड अस्पताल घोषित कर दिया गया, और नियमित उपचार के अभाव में उनकी मृत्यु तक हो गई।
चौथे, निजी स्वास्थ्य कारोबारियों ने कोविड को खून चूसने की हद तक मुनाफाखोरी का जरिया बना लिया। आईसीयू/वेंटिलेटर के लिए तो कोई सीमा थी ही नहीं, किंतु बिना इनकी जरूरत वाले मरीजों के लिए भी लाखों रुपये के पैकेज के नाम पर निजी अस्पताल लूट की स्कीमें चला रहे हैं। हालाँकि एक ही बचाव किट एक शिफ्ट में कई मरीजों के लिए प्रयोग होती है फिर भी इसके नाम पर हर मरीज के बिल में लाखों की रकम दिखाई जा रही है। उधर गैर कोविड मरीजों को हर बार अस्पताल जाने पर कोविड जाँच के लिए मजबूर कर लूटा जा रहा है। कोविड जाँच के बारे में हम पहले भी लिख चुके हैं कि कैसे लगभग 500 रु की लागत वाले टेस्ट के लिए निजी क्षेत्र को 4500 रु वसूल करने की छूट दे दी गई। उसमें भी कई अस्पताल/लैब 2,000-3,000 रु अतिरिक्त शुल्क जोड़ रहे हैं जिससे इसके लिए कुल 6,000-7,000 रु तक का भुगतान करना पड़ रहा है। फिर हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन से लेकर रेंदेसिवीर, फ़विपिरवीर, इटोलिजुमाब, जैसी कई बिना परखी, इलाज में लाभप्रद न पाई गई दवाओं को फौरी लाइसेंस दे दिया गया है। इनमें से कुछ को बनाने वाली दावा कंपनियाँ घोषित रूप से तो 20,000-30,000 कीमत पर बेच रही हैं पर अस्पतालों-दवा कंपनी गिरोहों की मिलीभगत से तैयार किए गये चोर बाजार में मरीजों से लाखों रुपये तक की मनमानी रकम उगाही जा रही है। हालत ये है कि गरीब मेहनतकश जनता की तो बिसात ही क्या, अपनी स्वास्थ्य बीमा पॉलिसियों के बल पर हाल तक खुद को निजी अस्पतालों में सुरक्षित समझते रहे मध्य वर्ग के लोग भी अब अस्पताल में इलाज कराने को अपनी हैसियत से बाहर पा रहे हैं हालाँकि यही तबका सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के ध्वंस और निजीकरण का बड़ा हिमायती रहा है।
पाँचवें, महामारी के भय और तालाबंदी तथा जनआंदोलनों के बिखराव का फायदा उठाकर फासिस्ट सत्ता ने बचे-खुचे बुर्जुआ जनवादी संस्थाओं, श्रमिक-यूनियन अधिकारों सहित सभी जनवादी अधिकारों पर हमला और तेज कर दिया है। हर ओर कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, आदि की गिरफ्तारियाँ की जा रही हैं और सभी विरोध आंदोलनों को बेहद सख्ती से कुचला जा रहा है।
टीके का सवाल
बिना किसी प्रभावी परखे गए इलाज वाले संक्रमण के तौर पर टीके का विकास ही कोविड की रोकथाम का सर्वाधिक कारगर उपाय है। 100 से ज्यादा उम्मीदवार सबसे पहले टीके के विकास और परीक्षण की दौड़ में थे जिसमें से 20 से अधिक अभी परीक्षण के किसी चरण में पहुँच चुके हैं जिसमें दो भारत में हैं। हमेशा की तरह इस बार भी दुनिया भर में देखा जा रहा है कि न सिर्फ टीके के लिए जरूरी शोध और परीक्षण का अधिकांश काम सार्वजनिक क्षेत्र के शोध संस्थानों में हो रहा है, साथ ही सरकारें इसके लिए विभिन्न निजी पूँजी मालिकाने वाली दवा कंपनियों को नकद राशि की सहायता भी कर रही हैं। उदाहरणार्थ अमरीकी सरकार इसके लिए 6 अरब डॉलर निजी कंपनियों को आबंटित कर चुकी है। भारत में भी भारत बायोटेक नामक निजी कंपनी के टीके के शोध और परीक्षण कार्य का बड़ा हिस्सा सरकारी मेडिकल शोध परिषद (आईसीएमआर) कर रहा है। किंतु सार्वजनिक क्षेत्र में हुये तमाम कार्य के बावजूद विकसित होते ही यह टीके निजी पूँजीपतियों की ‘बौद्धिक संपदा’ करार दे दिये जायेंगे जिससे वे इसकी ऊँची कीमतें वसूलकर अरबों-खरबों का मुनाफा कमा सकें। अमेरिका में सार्वजनिक मदद पाने वाली फाइजर इसके लिए 15-20 डॉलर प्रति खुराक दाम की बात कर रही है जबकि भारत में ऑक्सफोर्ड वाले टीके का लाइसेंस धारक सीरम इंस्टीट्यूट एक खुराक के लिए 1000 रु कीमत का अनुमान बता रहा है। ऊपर से अभी पता नहीं कि इस टीके की एक खुराक पर्याप्त होगी या एक से ज्यादा। अतः, स्पष्ट है कि सार्वजनिक धन व ज्ञान/तकनीक की भारी मात्रा निजी पूँजीपतियों के मालिकाने में हस्तांतरित की जायेगी जिससे वे महामारी का लाभ उठाकर उच्चतम एकाधिकारी मुनाफा प्राप्त कर सकें। यह पूंजीवादी जनतंत्र में समानता व आजादी के असली शोषणमूलक चरित्र और संपत्ति निर्माण अर्थात पूंजीवादी संचय के पूँजीपतियों की प्रतिभा तथा कठिन परिश्रम का परिणाम होने के सफ़ेद झूठ की कलई भी खोल देता है।
कोविड का बेरोक प्रसार
केंद्र-राज्य सरकारों द्वारा सभी सूचनाओं के प्रसार को रोक तथा जरूरत अनुसार जाँच के बजाय उस पर तमाम किस की अडचनें लगा कोविड के प्रसार की स्थिति को छिपाने के हर मुमकिन प्रयास के बावजूद इसके अनियंत्रित फैलाव की बात काफी समय से सभी को मालूम है तथा भारत अब इसका तीसरा सर्वाधिक प्रभावित देश बन चुका है। पिछले कुछ दिनों में तो नये रोगियों तथा मौतों के मामले में भारत दुनिया में सबसे ऊपर पहुंच गया है, कुल मृत्यु संख्या चालीस हजार से अधिक हो चुकी हैं और यह संख्या अभी भी बढ ही रही है।
पुलिस के नृशंस बल के जरिये लागू तालाबंदी से कोविड का खात्मा कर देने के मोदी के दावों के बावजूद यह बेरोकटोक बढता ही गया है। अतः अब मोदी सरकार के पास के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है कि वह आर्थिक गतिविधियों को चलाने की अधिकाधिक अनुमति दे क्योंकि उत्पादक पूँजी का चक्र अत्यधिक बाधित हो चुका है हालांकि कुछ इजारेदार पूँजीपति फिर भी अपनी पूँजी बढाने में सफल रहे हैं लेकिन उसका मुख्य कारण वित्तीय बाजारों की गतिविधियां व सट्टेबाजी हैं, उत्पादन चक्र नहीं। तालाबंदी के दौरान पूंजीपतियों की मुनाफाखोरी में मदद के सिवा सरकार ने कोविड की रोकथाम के लिए जरूरी कोई भी वैज्ञानिक उपाय पर अमल नहीं किया। अतः अब मोदी सहित सभी मंत्री अफसर इस पर पूरी चुप्पी साध चुके हैं जैसे कोविड की समस्या पूरी तरह समाप्त हो चुकी हो हालांकि इसकी वजह से आम लोगों की दुख तकलीफ बढती ही जा रही है। इसके बजाय अब वे सीमा पर झडपों के जरिये अंधराष्ट्रवाद और अयोध्या में मंदिर निर्माण के जरिये धार्मिक उन्माद को भडकाने में जुट गए हैं ताकि आम जनता की आर्थिक व स्वास्थ्य संबंधी तकलीफों पर अपनी पूर्ण उदासीनता की ओर से उनका ध्यान भटका सकें।
कोविड संकट पर सर्वहारा नजरिया
कोविड बीमारी के साथ साथ आम जनता की तकलीफों से पूरी तरह उदासीन सरकार द्वारा थोपी गई सख्त तालाबंदी से जनता खास तौर पर मेहनतकश जनता के जीवन में बढते कष्टों की मौजूदा स्थिति पर वामपंथी समूहों का नजरिया क्या होना चाहिये? प्रचारात्मक और विरोध कार्यक्रमों के जरिये पूंजीवादी व्यवस्था का पर्दाफाश करना और जनता के इन मुद्दों को उठाना – एक, सभी के लिये मुफ्त कोविड जाँच की सुविधा; दो, सभी संक्रमित व्यक्तियों के लिए जरूरी अवधि तक अलगाव में रहने के लिए सार्वजनिक इंतजाम तथा गंभीर मरीजों के लिए इलाज की व्यवस्था एवं इस हेतु सभी निजी अस्पतालों, लैब, आदि को सार्वजनिक नियंत्रण में लेना; तीन, सभी श्रमिकों के लिए रोजगार की गारंटी या बेरोजगारी भत्ता; चार, बिना किसी कार्ड या पंजीकरण की शर्त रखे खाद्यान्न व मूलभूत जरूरत की वस्तुओं के मुफ्त सार्वत्रिक वितरण का कार्यक्रम आरंभ करना; पाँच, सभी खाली घरों, फ्लैट, इमारतों को नियंत्रण में ले बेघरों को उपलब्ध कराना ताकि वे उपयुक्त भौतिक दूरी सुनिश्चित कर सकें; छ:, जनवादी तथा श्रमिक अधिकारों पर हमला बंद कर राजनीतिक व छोटे-मोटे अपराधों के सभी कैदियों को रिहा करना, आदि। इन व ऐसे ही अन्य सवालों पर संयुक्त जनवादी संघर्षों के लिए सभी शक्तियों को जल्द से जल्द एकजुट करना सभी वामपंथी समूहों का प्रमुख लक्ष्य व कार्यभार होना चाहिये था।
बजाय इसके कुछ वामपंथी समूहों ने अपना लक्ष्य कोविड को फैलाने या फैलने के भय का वातावरण बनाने में पूंजीवादी-साम्राज्यवादी साजिश का ‘पर्दाफाश’ करना निश्चित किया है। उनके अनुसार इस साजिश के जरिये शासक वर्ग अपने फासिस्ट/अधिनायकवादी शासन का शिकंजा और भी कसना तथा सभी जन प्रतिरोध आंदोलनों को कुचलना चाहते हैं। एक और प्रवृत्ति कोविड नाम की किसी महामारी के अस्तित्व से ही पूर्ण इंकार की भी है। इनके अनुसार यह एक काल्पनिक वाइरस द्वारा फैलाई गई काल्पनिक बीमारी है जिसके मरीज किसी वास्तविक शरीरक्रियात्मक समस्या की वजह से नहीं बल्कि इसको लेकर समाज में फैलाये गये आतंक के माहौल से पैदा डर की वजह से मर रहे हैं। या फिर इसकी तुलना टीबी जैसी बीमारी से कर बताया जाता है कि उससे कोविड से अधिक मृत्यु होती हैं अतः कोविड पर भय का माहौल बनाने के बजाय उन बीमारियों पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। उनके अनुसार कोविड पर व्यापक भय का माहौल बनाने में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और दवा कंपनियों की मिलीभगत जिम्मेदार हैं जो इसके जरिये भारी मुनाफा कमाना चाहते हैं। चुनांचे उनका मुख्य जोर विभिन्न बीमारियों के तुलनात्मक संक्रमण मृत्यु दर (आईएफ़आर) या रोगी मृत्यु दर (सीएफ़आर) के प्रचार पर है ताकि यह स्थापित किया जा सके कि कोविड कोई विशेष घातक बीमारी ही नहीं है जिस पर इतना ध्यान देने या इसकी वजह से आतंक का माहौल बनाया जाता।
इस बात को कहने का अर्थ इससे इंकार करना नहीं है कि हर किस्म और परिमाण के संकटों का प्रयोग पूँजीपति शासक वर्ग द्वारा एक मौके के तौर पर किया जाता है। इसके जरिये शासक वर्ग संकट का सारा आर्थिक बोझ मेहनतकश जनता पर डालता है जिसके लिए वह छँटनी, तालाबंदी, मजदूरी में कटौती, काम के घंटे बढाने, सुरक्षा इंतजामों व मूल जरूरतों की सुविधाओं में कटौती, यूनियन तथा अन्य श्रमिक अधिकारों के हनन, आदि का सहारा लेता है। साथ ही वो इसके आधार पर एक भय का माहौल भी तैयार करता है जिसका सहारा लेकर आम जनता के बचे-खुचे जनवादी अधिकारों पर भी डाका डाला जा सके। इस सरकार ने भी यही किया है – एक ओर दुनिया भर में सबसे कड़ी तालाबंदी और कर्फ्यू लगा कर, दूसरी ओर पूंजीपति वर्ग को रियायती दर पर पूँजी उपलब्ध करा, कर व गैर-कर शुल्कों की दरों में कटौती, निजीकरण में तेजी तथा सार्वजनिक सेवाओं पर खर्च घटा कर। यहाँ इस बात से भी कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि भय के माहौल में कई फर्जी ‘इलाज’ मनमानी कीमतों पर बेचकर भारी मुनाफाखोरी तथा लूट को भी अंजाम दिया गया है जो अभी भी जारी है।
यहाँ मुख्य बात यह है कि मजदूर वर्ग के जनवादी संघर्षों का प्रधान मकसद हर उस समस्या और सवाल के जरिये मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के शोषणमूलक व दमनकारी चरित्र का पर्दाफाश करना है जो मेहनतकश तबके के जनमानस को विक्षोभित व आंदोलित कर रहा हो, चाहे उससे होने वाली तकलीफ का तुलनात्मक स्तर शोषित जनता की अन्य मुसीबतों के मुक़ाबले, कम या ज्यादा, कितना भी क्यों न हो। अतः, मेडिकल या सार्वजनिक स्वास्थ्य की नीति के दृष्टिकोण से इन तुलनात्मक अध्ययनों व शोध का महत्व कितना भी हो, सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक संगठनों का प्रधान मकसद वह नहीं हो सकता। वह मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में सुधार का भ्रम फैलाने वालों या एनजीओ वादियों का काम तो हो सकता है मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी समूहों का नहीं। उनका काम तो हर उस सवाल पर प्रचार, विक्षोभ व विरोध आंदोलन की मुहिम चलाना है जो उस वक्त मजदूर वर्ग के दिमाग को मथ रहा हो और समस्त तुलनात्मक अंतरों के बावजूद कोविड वह मुद्दा है जो इस वक्त मजदूर वर्ग के दिमाग को मथ रहा है। इसलिये कोविड या टीबी या किसी और रोग से होने वाली मृत्यु/नुकसान का तुलनात्मक अध्ययन नहीं, बल्कि वर्तमान में मौजूद सवाल पर फौरी राहत एवं जनवादी अधिकारों की हिफाजत के लिए आवाज उठाने हेतु जन संघर्ष समितियां गठित करते हुये मेहनतकश जनता को आंदोलनों में लामबंद करना हमारा कार्यक्रम होना चाहिये।
यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 4/ अगस्त 2020) में छपा था
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