बयां से परे अपने ही देश में शरणार्थी हुए प्रवासी मजदूरों का दर्द
(पहली किश्त)
जब ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं, महानगरों से सैंकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांव-घर की ओर पैदल चलते चले जाते प्रवासी मजदूरों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। ये सभी पूरी तरह व्यथित, बेबस, परेशान और बदहवास हैं, ऐसे जा रहे हैं जैसे फिर कभी वापस नहीं आना हो। हालात 1947 के बंटवारे के सादृश्य हो चुके हैं। ये भूखे-प्यासे, थके हुए, पग-पग पर मिले अपमान व प्रताड़ना से बुरी तरह टूटे हुए, चले जा रहे हैं।
घर की ओर पैदल जाते इस महासैलाब में वे भी शामिल हैं जो महानगरों में रोजी-रोटी का जुगाड़ छोटे-मोटे व्यवसाय चलाकर किया करते थे जो पिछले ढाई महीने से बंद हो पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं। इनमें से अधिकांश की जमापूंजी महानगरों में रहते हुए ही, यानी, सामान्य हालात बहाल होने की उम्मीद करते-करते ही खत्म हो गई। महानगरों में उनके खाने-पीने और रहने के कितने उपाय किये गये थे इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मजदूर हफ्तों से आधे पेट खाकर रह रहे थे। उन्होंने जब पूरी तरह यह देख और समझ लिया कि सरकार के कहने पर, खासकर मोदी की चिकनी-चुपड़ी खोखली बातों व घोषणाओं के भरोसे अब और एक दिन के लिए भी पराये शहर में रहना मुश्किल है, तब उन्होंने घर के लिए निकलने का निर्णय कर लिया। बाद में, गिनी-चुनी श्रमिक स्पेशल ट्रेनों को चलाने के सरकारी निर्णय की इस असलियत को भी ये जल्द समझ गये कि ये चंद लोगों को भेजकर बाकी को बहलाने वाली बात है। इसीलिए, पंजीकरण की लंबी और दुरूह प्रक्रिया अपनायी गई, ताकि इन स्पेशल ट्रेनों से जाना आसान नहीं रह जाए और थक हार कर मजदूर जाने की जिद छोड़ दें। कहीं-कहीं मजदूरों को हिंदी के बदले अंग्रेजी में फार्म भरने के लिए कहा गया। सारी दिक्कतों के बाद भी किसका नंबर कब आयेगा, आयेगा भी या नहीं, किसी भी चीज की कोई गारंटी नहीं थी। नंबर आने की सूचना मोबाइल फोन पर बाद में भेजने की बात कही गई। जाहिर है, लोग पैदल ही निकल गये। वे समझ चुके थे कि घर गये बिना यहां जिंदा रहना मुश्किल है। इनके इसी अहसास ने उनमें अविचल व अटूट हिम्मत भर दी। डर पर उनकी विजय का राज इसी में छुपा हुआ है।
सड़क व रेल हादसों में और भूख, प्यास तथा थकान से उनके लगातार मरने की खबरें और उसके भयावह दृश्य विचलित कर रहे हैं, लेकिन ये दृश्य घटने के बजाए बढ़ते ही जा रहे हैं। प्रवासियों को इस तरह से जाते देख सभी डरे हुए हैं, लेकिन मजदूरों ने डर पर पूरी तरह विजय पा ली है। उनके लिए ‘मरता क्या नहीं करता’ वाली स्थिति है। वे समझते हैं, पैदल चलते हुए भूख-प्यास और थकान से लड़ते घर पहुंच गये तो जिंदा बच सकते हैं, लेकिन अगर वे रूक गये तो महानगर में भूख, बीमारी, अभाव और अपमान से मौत निश्चित है। वो भी बिना किसी अपने की उपस्थिति के और किसी सुकून के। पूरी दुनिया इसे देख रही है। लोग दुख जता रहे हैं। लेकिन मोदी सरकार? यह अंधी, बहरी और गूंगी बनी हुई है। मजदूरों की असह्य पीड़ा ये न तो देख सकती है, न ही सुन सकती है और न ही महसूस कर सकती है। ये बोले भी तो क्या बोले, ये तो अपनी जुबान पूंजीपतियों के पास गिरवी रख छोड़ी है। ये एक फूटी कौड़ी भी खजाने (जो जनता की ही है) से नहीं निकाल सकी, ताकि इन बेबस मजदूरों को आराम से घर पहुंचा दिया जाए। कितने खर्च होते सबको घर पहुंचाने में? यही 100 करोड़ रूपये के लगभग। लेकिन मोदी सरकार चुपचाप लोगों को हजारों किलोमीटर पैदल चलते और मरते-खपते देखती रही। आज भी देख रही है।
कितना नाज था इन सबको मोदी पर! उसी मोदी ने इन्हें मरने के लिए छोड़ दिया। 40 दिन होते-होते भरोसा ऐसा टूटा कि इधर सरकार रूकने को कहती रही, उधर मजदूर टोलियों में पूरे देश के कोने-कोने से निकलते रहे। महानगरों से ये बाय-बाय और टा-टा करने पर तुले हैं, चाहे जो हो जाए। ये फिर लौट कर वापस नहीं आने की बात भी कर रहे हैं। शायद इसीलिए, पूंजीपतियों के कहने पर मोदी ने इन्हें रोकने के सारे उपाय किये। पुलिस से पिटवाया, सड़कों पर असहाय छोड़ दिया, ताकि ये मजदूर थक-हार कर लौट जाएं, राज्यों की सीमायें सील कर दीं, इन्हें न तो सड़क पर और न ही रेल पटरियों पर चलने देने का सरकारी फरमान सुनाया गया, इनको मदद देने या खाना खिलाने वालों को दंडित किया गया, ट्रकों व कंक्रीट बनाने वाले मशीनों में छुपकर जाने वाले मजदूरों को खोज-खोज कर पीटा गया, छोटे-छोटे बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया। लेकिन इन सबके बावजूद, सड़कों, गांव की गलियों-कुचों, उबड़-खाबड़ पगडंडियो, जंगलों और रेलवे की पटरियों पर लांग मार्च करते मजदूरों व आम गरीब लोगों की तादाद लगातार बढ़ती ही जा रही है। गर्भवती महिलाएं, बुजुर्ग औरतें व मर्द, 10 वर्ष से लेकर दुधमुंहे बच्चे और बहुत सारा सामान सिर पर उठाये लोग चले जा रहे हैं।
कितना बड़ा आत्मबल है इनमें! राज्य की सीमायें सील कर दी गई हैं, पुलिस उनकी जान के पीछे पड़ी हुई है, पैरों में छाले पड़े हैं, चेहरे गरमी में झुलस कर बुरी तरह मुरझा चुके हैं। कोई बीमार मां-बाप को कंधे पर लादे चला जा रहा है, तो कोई अपनी पत्नी व बच्चों को। साइकिल, ठेलागाड़ी, रास्ते में बनाया गया लकड़ी गाड़ी, रिक्शा, टेम्पो, ट्रक …. जिसके हाथ जो लग रहा है उसमें बोरे की तरफ ठूंस-ठूंसाकर लोग घर की तरफ बढ़े जा रहे हैं। न खाने का कोई ठिकाना है, न ही पीने को पानी। रास्ते में पुलिस मारने दौड़ रही है, तो देह बिछा दे रहे हैं – लो मार लो। उन्होंने अब भागना बंद कर दिया है। भाग भी नहीं सकते। आखिर कब तक भागते और भागकर कहां जा सकते हैं। जाना तो उन्हें घर ही है और रास्ते पुलिस ने बंद कर रखे हैं, तो चारा भी क्या है। विदेशों से अमीरजादों को सरकारी भाड़े पर विमानों से मेहमान की तरह वापस लाने वाली सरकार का मजदूरों के प्रति यह रवैया देखकर संवेदनशील लोग भौंचक हैं।
इस बात के आज कोई मायने नहीं रह गये हैं कि ये भी इसी देश के नागरिक हैं। जब यही बात कल मजदूर वर्ग दुहरायेगा, तो इसके लिए लानत-मलानत किया जाएगा, यह कहते हुए कि ये देशद्रोही हैं और ये देश से प्यार नहीं करते हैं। जरा कल्पना कीजिए, यह कैसा देश है जहां की पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ की सरकारें ऐसी विकट परिस्थिति झेलते मजदूरों पर आठ घंटे के बदले 12 घंटे कार्यदिवस का बोझ डालती हैं और, इतना ही नहीं, उन सारे कानूनों को खत्म करने का एलान करती हैं, जिसके ज़रिये मजदूरों की सुरक्षा का ख्याल रखने के लिए मालिक वर्गों पर दवाब बनाया जाता था। अब कोई पूंजीपति इसके लिए बाध्य नहीं होगा कि मजदूर जहां काम करते हैं वहां पानी, लैट्रिन, साफ-सफाई, हवा, बंद कमरे में खिड़की, फेस मास्क, हैंड गलब्स, हैंड सैनिटाइजर, यानी, किसी भी तरह की सुविधा प्रदान करे। कोरोना बीमारी से मजदूरों को बचाने की इसमें कोई इच्छा दिखती है? मजदूर अब उपरोक्त सुविधाओं की मांग नहीं कर पायेंगे। अगर करेंगे तो वह कानून से बाहर की बात मानी जाएगी। मजदूर इसकी कहीं गुहार नहीं लगा सकेंगे।
गुजरात सरकार की बात तो और निराली है। इसने कहा है कि मजदूरों से काम 12 घंटे लिया जाएगा, लेकिन वेतन वह पहले की तरह आठ घंटे का ही देगा। दूसरी सरकारों ने थोड़ी ‘नरमी’ दिखाते हुए यह कहा है कि 12 घंटे के काम के लिए 12 घंटे का वेतन तो देंगे, लेकिन आठ घंटे की रेट से, न कि बढ़ी हुई दर से। यानी, ओभरटाइम काम करायेंगे, लेकिन ओभरटाइम रेट नहीं देंगे। इन सरकारों और मालिक वर्ग की देशभक्ति का यही नमूना है। और यह सब हो रहा है कोरोना महामारी से लड़ने के नाम पर तथा चौपट होती अर्थव्यवस्था को बचाने के नाम पर। मजदूरों को पूंजपति वर्ग द्वारा थोपी जा रही ऐसी देशभक्ति को मानने से सीधे-सीधे इंकार कर देना चाहिए।
अभी तक पूरा परिदृश्य हृदयविदारक बना हुआ है। सरकारों की बात छोड़िये, उच्चतम न्यायालय तक ने इनकी सुध नहीं ली। जबकि, बार-बार सुनवाई के लिए अर्जी डाली गई और मांग की गई कि इनकी सुध ली जाए। इनके वेतन, भोजन, आवास और मेडिकल जांच व इलाज की उचित व्यवस्था की जाए। लेकिन कुछ नहीं सुना गया। मजदूर पैसे-पैसे के लिए मोहताज थे और आधा पेट खाकर किसी तरह एक कमरे में 10-10 की संख्या में गुजारा कर रहे थे। जरा सोचिए, एक तरफ, कोरोना बीमारी का खतरा, पैसे खत्म होने के बाद भुखमरी से मरने का डर और मकान मालिकों की किराये के लिए जिल्लत तथा इस कारण बेघर होने का दंश, और दूसरी तरफ, सरकारों की उदासीनता तथा न्यायालयों में उनकी गुहार की अनदेखी! सभी जगहों से मिली दुत्कार के माहौल में वे आखिर कब तक ‘परदेस’ में टिके रहते! बिना किसी सहारे, उम्मीद या सुकून के, वे वहां कैसे और कितने दिन रह सकते थे?
पूरा देश नोटबंदी के समय से देख रहा है, देश कैसे चल रहा है। प्रधानमंत्री एकाएक सबको अचंभित कर देने वाले फैसले लेने और अपने को बारंबार एक मजबूत शहंशाह साबित करने की लत के शिकार हो चुके हैं। 24 मार्च को भी नोटबंदी जैसा एकाएक अचंभित करने वाला लॉक डाउन का फैसला आया। इसके ठीक पहले तक मोदी सरकार ‘मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार पलटो’ अभियान में लगी थी। उसके पहले पूरे फरवरी ‘नमस्ते ट्रंप’ चल रहा था। उसके और पहले दिल्ली में इनके एमपी और एमएलए और नेताओं द्वारा ‘दंगा भड़काऊ भाषण’ कार्यक्रम दिल्ली विधान सभा चुनाव की जंग जीतने के लिए जोर-शोर से चलाया जा रहा था। जबकि, दूसरी तरफ, भारत में पहला कोविद संक्रमण मामला 30 जनवरी को ही प्रकट हो चुका था। 18-19 मार्च के बाद मोदी अपने सारे कार्यक्रम निपटाकर बिना किसी पूर्व तैयारी, सूचना व चेतावनी के 24 मार्च को लॉक डाउन की घोषणा कर देते हैं। सिर्फ चार घंटे की मोहलत दी गई। घोषणा और इसके लागू होने के बीच मात्र 4 घंटे का फासला रखा गया। परिणामस्वरूप, जो जहां थे वहीं फंस गये। आज तक फंसे हुए हैं। इससे पूरे देश में कितनी भयावह त्रासद स्थिति पैदा हुई, लोग किस तरह की जानलेवा परेशानियों में पड़े और इसने किस तरह की असहनीय मानसिक यंत्रनाओं में लोगों को धकेल दिया, इससे जुड़ी कहानियों का पूरी तरह सामने आना बाकी है। जब आयेंगी, तो हम देखेंगे कि किस तरह एक मां जो दिल्ली में अचानक हुए लॉक डाउन में फंस गई और दो महीने बाद घर गई तो न तो परिवार ने और न ही समाज ने संक्रमण के डर से घर में घुसने दिया; इसी तरह, कोई लड़का इंदौर में किसी रिश्तेदार के यहां महीनों फंस गया और रिश्तेदार के तिरस्कार से किसी दिन यूं ही घर से निकला तो फिर वापस नहीं लौटा और हमेशा के लिए कहीं गायब हो गया। कोविद-19 से लड़ने के नाम पर मोदी की लोगों को अचंभित करने की लत ने क्या और कितनी सामाजिक पीड़ा पैदा की है इसकी कल्पना हम आज नहीं कर सकते हैं।
यह हो सकता है कि शुरू में प्रवासी मजदूरों को भी प्रधानमंत्री के इस राजा टाइप व्यवहार या फिल्मी हीरो वाले स्टाइल से आनंद या मजा आ रहा हो, खासकर यह सोच कर कि ‘वाह, हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी सच में कितने करिश्माई सुपर हीरो हैं!’ लेकिन यही ‘आनंद’ आज उनके जीवन पर भारी पड़ गया। लगभग 14 करोड़ प्रवासी पूरे देश में फैले हुए हैं, जो किसी तरह कमाते हैं और अपना जीवन चलाते हैं। बिना किसी तैयारी के हुए लॉक डाउन को भला वे कैसे झेल रहे होंगे, यह सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
दूसरी तरफ, करिश्माई मोदी का कहा (जैसे मजदूरों को लॉक डाउन के समय का वेतन देने और किराया नहीं लेने की बात) किसी ने नहीं माना और वे उनके खिलाफ कोई ‘करिश्मा’ नहीं कर सके जिन्होंने उनका कहा नहीं माना। उल्टे, मोदी सरकार ने बाद में इसके लिए जारी किया गया सर्कुलर भी वापस ले लिया। प्रवासियों के साथ अन्याय होता रहा, मजदूर बेबसी में पड़े रहे। लेकिन, इन्होंने कुछ भी नहीं किया। बिल्कुल, कुछ भी नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने भी मजदूरों की एक नहीं सुनी। उसने कहा, ‘यह काम सरकार के जिम्मे का है और हम उसी पर छोड़ते हैं।’ लेकिन, जब पूंजीपतियों और मालिकों ने वेतन नहीं दे पाने की ‘मजबूरी’ या निशुल्क टेस्टिंग नहीं कर पाने की ‘मजबूरी’ की गुहार लगाई, तो इसी सुप्रीम कोर्ट ने झट से इनकी सुन ली। सरकार भी मान गई। हां, पुलिस ने मोदी या सुप्रीम कोर्ट के कहे बिना ही मजदूरों पर डंडे बरसाये, ये सबने देखा। इस पर भी गुहार की गई तथा कोर्ट में अर्जी लगाई गई। विनती की गई, – ‘मी लार्ड! ये पैदल चलते हुए सड़क और पटरियों पर भूख व थकान से मर रहे हैं, पुलिस पीट रही है, रेल से कट जा रहे हैं, ट्रक के नीचे आ रहे हैं, …. कुछ करिये, सरकार को कहिए, इन मजदूरों को सुरक्षित घर पहुंचाने की व्यवस्था करे’, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तिरस्कार भाव दिखाते हुए कुछ भी नहीं किया। उल्टे, ऐसी विनती करने वालों को ही भला-बुरा कहा। कइयों को तो दंडित भी करने की धमकी भी दी। किसी भले व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि कोरोना महामारी के बीच शराब बेचने पर रोक लगाई जाए, तो माननीयों ने उस पर एक लाख रूपये का जुर्माना ठोक दिया।
हमारे करिश्माई प्रधानमंत्री मोदी इस बीच मौन साधे रहे। मजदूरों की तरफदारी में एक शब्द तक नहीं कहा। इस बीच टेलीविजन पर कई बार प्रकट हुए, हवाई जहाज से फूल भी बरसवाये, लेकिन असंख्य दुख झेल रहे प्रवासियों की चर्चा तक नहीं की, एक शब्द में कहें, तो नाम भी नहीं लिया।
जाहिर है, जब लॉक डाउन 40 दिनों के बाद भी नहीं उठा, और न ही उनकी सुध लेने की पहल किसी ने की, तो मजदूरों का धैर्य टूटने लगा। भीतर ही भीतर एक किस्म का ‘विद्रोह’ उबलने लगा।
दूसरी तरफ, 18-19 अप्रैल के आसपास केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने उद्योगों को धीरे-धीरे खोलने की बात की घोषणा की। जाहिर है, यह भी सोचा गया होगा कि मजदूरों को तब तक रोका जाए और ऐसी परिस्थिति पैदा की जाए जिससे कुछ तो घर चले जाएं, लेकिन बाकी नहीं जा पायें, ताकि जब उद्योग खुलें तो इन बेबस मजदूरों को फिर से काम में जोता जाए। सरकारें यह भी देख रही थीं कि मजदूर गुस्से में आकर शहरों में ‘बवाल’ कर सकते हैं और सरकार के लिए यह स्थिति कल को सरदर्द में बदल सकती है। इसलिए गुस्से को एकाएक फूटने से रोकने के उपाय भी करना जरूरी था। आप पूरे प्रकरण को देखिए, ये साफ हो जाएगा कि ठीक-ठीक क्या रणनीति सरकार ने अपनायी और लागू की। श्रमिक स्पेशल ट्रेनों की आधी-अधूरी व्यवस्था इसी रणनीति का हिस्सा थी। पैदल जाने वालों को मदद करने के बदले तंग और तबाह करने की नीति, लेकिन उन्हें ऊपर-ऊपर से पैदल चले जाने की ‘अनुमति’ भी इसी रणनीति का हिस्सा है। सरकार सोच रही होगी, ऐसे आखिर कितने मजदूर जा पायेंगे? उधर ‘श्रमिक स्पेशल’ से लगभग दस से पंद्रह लाख या अधिक से अधिक बीस लाख मजदूरों को भेजने की व्यवस्था की गई, जबकि घर जाने वालों के लिए अब तक रजिस्ट्रेशन करवा चुके लोगों की संख्या, भाषा संबंधी तथा अन्य सभी तरह की अड़चनों के बावजूद, एक करोड़ तक पहुंच गई है। असल में, तो घर जाने को व्याकुल मजदूरों व प्रवासियों की संख्या कई करोड़ तक है। अधिकांश लोग तो रजिस्ट्रेशन ही नहीं करवा पाये। कुल मिलाकर मजदूरों को घर भेजने की नीति मजदूरों के अंदर के गुस्से को पूरी तरह फट पड़ने से रोकने की रणनीति थी। गुस्साये मजदूरों को पूरी तरह रोकने का फैसला मजदूरों को खुले विद्रोह के लिए बाध्य कर देता, जैसा कि इसकी एक बानगी गुजरात में दिखी। इसलिए हम पाते हैं कि व्यापक मजदूरों के लिए घर जाने का कोई न कोई ‘रास्ता’ छोड़ दिया गया, ताकि उनके आक्रोश की उर्जा तमाम कष्ट उठाकर घर जाने की जिद में खप जाए। इस बीच मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन की कमजोरियों और अदूरदर्शितापूर्ण कार्रवाइयों ने इन मजदूरों को निहत्था छोड़ दिया। मजदूरों के अंदर के ‘उबाल’ को सरकार ने अच्छे तरह से घर जाने की जिद व लड़ाई तक सीमित रखने में सफलता पा ली।
लेकिन, यह रणनीति तब बेकार हो गई जब बहुत बड़ी संख्या में मजदूरों ने पैदल जाने का निर्णय कर लिया, जिनमें गर्भवती महिलाएं तक शामिल हो गर्इं। जब उनकी यात्रा के दौरान पुलिस द्वारा उनके पीटे व खदेड़े जाने तथा रास्तों व सीमाओं की नाकेबंदी की बात बाहर निकली और इसकी चर्चा पूरे विश्व में होने लगी, यहां तक कि ‘गोदी’ मीडिया भी इसे उठाने लगी, तो यह रणनीति असफल होती दिख रही है। चारो तरफ थू-थू हो रही है। अब महानगरों में रूके मजदूरों ने भी घर जाने की मांग तेज कर दी है। एक तरह के भय का संचार हो चुका है जिससे भी मजदूर तेजी से घर जाने का निर्णय ले रहे हैं।
दरअसल, सरकार और इसके अधिकारी इस बात का अंदाज नहीं लगा पाये कि मजदूर इतनी बड़ी संख्या में सैंकड़ों किलोमीटर पैदल निकल पड़ेंगे। ‘मजदूरों का पैदल मार्च’ अब इतिहास बना चुका है। इसे ‘लांग मार्च’ कहा जा रहा है। इसने पूरे देश में मजदूरों में पैदल ही घर की ओर कूच करने की प्रेरणा पैदा कर दी। सरकार ने सोचा था कि पैसे के अभाव में मजदूर टिकट खरीद नहीं सकेंगे, लेकिन वे ‘पैदल टिकट’ लेकर निकल गये, जिसे सरकार चाह कर भी रोकने में विफल रही। इसे इतिहास में मजदूरों का एक शांतिपूर्ण विद्रोह माना जाएगा। प्रवासी मजदूरों ने एक मगरूर सरकार, अंधी और आत्मसमर्पण कर चुकी न्याय व्यवस्था तथा पूरी की पूरी आदमखोर व्यवस्था को अपने दुख सहने की अपार शक्ति तथा भूखे-प्यासे थककर चूर होकर भी सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलने की जिद और क्षमता का प्रदर्शन करके घुटने पर ला खड़ा किया है, हालांकि वह आज भी मजदूरों को घर जाने से कोई न कोई तरीके से रोक रही है। लेकिन मजदूरों को घर पहुंचाने की घोषणा करने पर सरकार आज मजबूर हुई है, इसमें कोई शक नहीं है। यह भी एक जीत है।
दूसरी तरफ, यह भी सच है कि आज भी सरकारें मजदूरों को घर जाने के रास्ते में रोड़े अटका रही हैं। दरअसल यूपी सरकार द्वारा सीमायें सील कर यहां-वहां फंसे मजदूरों को बसों से भेजने का निर्णय भी मजदूरों को तंग करने के लिए ही है। जरा सोचिए, इस नाम पर उन्हें सीमाओं पर जलते सूर्य से तपती दुपहरी में खुले मैदानों में बिना किसी व्यवस्था के रोक कर दो से तीन अधिकारियों के सहारे हजारों मजदूरों का पंजीकरण करने का नाटक सरकार कर रही है। सवाल है, मजदूरों के लिए एकाएक पंजीकरण क्यों जरूरी हो गया, जबकि एक-एक पल मजदूरों के ऊपर भारी पड़ रहा है? क्या प्रवासी मजदूर आज अपने ही देश में शरणार्थी हो गये हैं? क्या अब कहीं आने-जाने वाले को पहले अपना पंजीकरण कराना पड़ेगा?
मजदूरों के साथ बरती जा रही ऐसी निर्दयता और बेरहमी और इसे करने वालों को मजदूर वर्ग हमेशा याद रखेगा। मजदूर इससे जो सबक हासिल कर रहे हैं वक्त आने पर उसका इस्तेमाल भी करेंगे यह तय है।
20 लाख करोड़ के पैकेज में इन्हें क्या मिला, इसका खुलासा एक अन्य लेख में किया गया है, लेकिन हम यहां बस इतना कहना चाहते हैं कि इस पूरे पैकेज में से एक फूटी कौड़ी या एक धेला भी पैदल मार्च करते बेबस मजदूरों को घर पहुंचाने के लिए उपलब्ध नहीं कराया गया है। मोदी सरकार चाहती तो भारतीय रेलवे, जो प्रतिदिन 6000 ट्रेनें चलाता है, दो से तीन दिनों में सभी घर जाने को इच्छुक प्रवासियों को घर पहुंचा सकता था। सेना के पास मालवाहक जहाज हैं, जिनके द्वारा भी प्रवासी मजदूरों को आसानी से घर पहुंचाया जा सकता था। मजदूरों को इतना कष्ट झेलने के लिए विवश नहीं होना पड़ता। पेट्रोल और डीजल की जमीन चुमती कीमतों के कारण खर्च पहले की तुलना में आधे से भी कम आता। लेकिन, मोदी चुपचाप देखते रहे। न्यायालय मूकदर्शक बन चुपचाप देखता रहा। पूरी व्यवस्था को मानो लकवा मार गया। पूंजीवादी समाज के व्यवस्थापक और कर्णधार देखते रहे कि किस तरह छोटे-छोटे बच्चे, दूधमुंहे बच्चे, बुजुर्ग महिला व पुरूष, बीमार, गर्भवती महिलाएं भूखे-प्यासे, थके-हारे, बीच रास्ते में पुलिस से खदेड़े जाते, दौड़ाये जाते व पीटते, कटते व मरते ….चलते चले जा रहे हैं। शासकों और पूंजीपतियों की आत्मा न तो कांपी, न ही जागी। मोदी को अपने पुराने भाषण तक याद नहीं आये। ‘जनतांत्रिक राज्य’ की अंतरात्मा मर चुकी है। इसको झकझोर कर जगाने वालों में से कइयों को मोदी सरकार बहुत पहले से ही जेलों में बंद कर रखी है। आज की पूंजीवादी समाज व्यवस्था में दिखावटी तौर पर भी कोई संवेदना शेष नहीं बची है।
हम फासिस्ट शासन तले सांस ले रहे हैं। हम जानते हैं, मोदी सरकार बड़े तथा कॉरपोरेट पूंजीपतियों के खुल्लमखुल्ला लूटतंत्र के सिवा और कुछ नहीं है। मोदी सरकार की एक बहुत बड़ी खूबी है। वह यह कि वह कोई दिखावा नहीं करती। जिसकी वह सेवा करती है, उसकी दिखती भी है। वह जानती है, मजदूर जितना अधिक बेबस और लाचार होंगे, उनका श्रम उतना ही जयादा और सस्ते में निचोड़ा जा सकेगा जिससे देश में ‘विकास’ होगा। इस विकास का अर्थ क्या है, मजदूर इस महामारी में देख चुके हैं। देश के इस विकास में मजदूरों का विकास शामिल नहीं है। कोरोना महामारी ने दिखा दिया कि जीडीपी की दर को बढ़ाने वाले मजदूरों का विकास इतना भी नहीं हुआ कि वे दो से तीन महीनों तक, यानी लॉक डाउन खत्म होने तक, ढंग से अपने और अपने परिवार को जिंदा रख सकें। उनके पास इतनी भी बचत नहीं हो सकी कि वे अपने रूम का किराया दे सकें, भोजन का जुगाड़ कर सकें और लॉक डाउन में मध्य वर्ग की तरह आराम से टेलीविज़न के सामने बैठ गप्पे लड़ाते घर में रह सकें। ऊपर से पुलिस द्वारा इन बेबस प्रवासियों की घेर-घेर कर जहां-तहां की जा रही पिटाई ने रही-सही कसर पूरी कर दी। इस पिटाई को, जिसके नये-नये भयावह दृश्य फेसबुक से लेकर सोशल मीडिया के सभी मंचों पर लगातार आ रहे हैं, देख पाना सच में हिम्मत की बात है, खासकर इस तरह के दृश्य जिसमें एक गर्भवती महिला सड़क पर बच्चे को जन्म देती है और फिर थोड़ी ही देर में गरमी में झुलस चुके मुरझाये चेहरे के साथ छालों से भरे पैरों के सहारे सैंकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा पर निकल पड़ती है! दुधमुंहे बच्चों को ट्रकों में सामान की तरह फेंकते हुए अपनी सीट पक्की करने के लिए लोग मजबूर हो रहे हैं!! मानव होने की गरिमा को पूरी तरह कुचल दिया गया। ये सब आखिर क्या है? क्या भारत में इन मजदूरों ने इतनी पूंजी भी पैदा नहीं की है कि इन्हें इज्जत के साथ घर पहुंचाया जा सके या अगर इन्हें महानगरों में ही रोकना था, तो मानवीय गरिमा के साथ इन्हें वहां रखा जा सके? क्या मजदूर इसके भी हकदार नहीं हैं कि ऐसी महामारी में उनकी और उनके परिवार की देखभाल सरकार ढंग से करे? क्या न्यायालय इनकी सुध नहीं ले सकता था? क्या मालिकों को इनकी जिम्मेवारी नहीं लेनी चाहिए थी जिनकी ही तिजोरियों को ये मजदूर भरते हैं? और पूरा समाज क्या कर रहा है? वह मध्यवर्ग क्या कर रहा है जो मजदूरों के श्रम से उत्पन्न अतिरिक्त मूल्य के बल पर ही उच्च वेतन के मजे उड़ाता है? अगर कोई कुछ नहीं कर सकता है, तो फिर मजदूर वर्ग के पास विद्रोह का ही एक रास्ता बचता है। उस वक्त यह मध्यवर्ग ही छाती पीटने वालों में सबसे आगे रहेगा।
दरअसल, आज का मध्यवर्ग सबसे गया-गुजरा है, जो कुछ नहीं करता है, कुछ नहीं सोचता है, सिवाय इसके कि वह टेलीविज़न और व्हाट्सअप पर इन मजदूरों को मरते-खपते देखता रहता है और इन्हें ही इस बात के लिए कोसता है कि ये लॉक डाउन के नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं।
कुल मिलाकर, कोरोना महामारी ने यह साबित कर दिया कि निजी पूंजी व संपत्ति पर आधारित पूंजीवादी समाजों में ‘मजदूरों का कोई देश नहीं होता, उसकी कोई सरकार नहीं होती।’ यह भी कि ‘न्याय के मंदिर इनके लिए नहीं, पूंजीपतियों और उनके लगुए-भगुए और शासकों व इनके छुटभैयों के लिए हैं।’
हम मजदूरों से कहना चाहते हैं, इन्हें छाती पीटने दीजिए। जी भर कर और मजे उड़ाने दीजिए। आपके दुखों पर हंसने दीजिए। ये और जोर से लॉक डाउन के उल्लंघन के लिए आपको दोष देते रहें। इन्हें जो मर्जी है करने दीजिए, इन्हें पता ही नहीं है कि उनमें से अधिकांश का ऐसा ही हस्र होने वाला है। आप अब इस समाज को उलट देने की तैयारी करिये। जो दर्द मिला है, उसे ही मर्ज की दवा बना लीजिए। न्यायालय की चिंता भी मत कीजिए। इस न्यायालय के न्याय से भी बड़ा इतिहास का न्याय होता है। उसके आदेश को सुनिये, जो यह कह रहा है कि यह पूंजीवादी समाज मानवजाति पर बोझ बन चुका है और अगर पृथ्वी पर मानवजाति को जिंद रहना है तो पूंजीवाद को पलटना और नया समाज बनाना जरूरी है।
यह लेख मूलतः सर्वहारा : समसामयिक मुद्दों पर पीआरसी की सैद्धांतिक एवं राजनीतिक पाक्षिक कमेंटरी (अंक 2/ 1-15 मई ’20) में छपा था
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