मई दिवस से मजदूर वर्ग के राज्य तक, आज के बर्बर पूंजीवाद के विरुद्ध नईं उम्मीदों के पुनर्जीवन तक
हम मई दिवस से, जिसे मजदूर दिवस भी कहते हैं, बस चंद घंटे दूर हैं। सभी वर्ग सचेत मजदूर जानते हैं कि यह हमारे पूर्वजों के द्वारा 8 घंटे के कार्य दिवस की मांग के लिए पूंजीपति वर्ग के विरूद्ध चलाये गये वर्ग-संघर्ष की अमिट कहानी है। उसी की निरंतरता में हम आज भी इसे मनाते हैं। इसमें पहले टुकड़ों में और फिर मुकम्मल जीत हुई, हालांकि पूंजीपति वर्ग का हमला तथा मजदूरों का पलटवार दोनों अविरल जारी रहा, जिसमें हमारे पूर्वज अगर हारे तो जीते भी। यह क्रम आज भी जारी है।
मई दिवस मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी इतिहास से पूरे तौर पर और अभिन्न रूप से जुड़ा है। यह उसकी समस्त क्रांतिकारी विरासत को एकसूत्र में बांधता है। इसीलिए मजदूरों को इसे बार-बार पढ़ना व समझना चाहिए। मजदूरों को यह जानना चाहिए कि हमने संघर्ष की राह पर कब चले, बीच में कहां तक पहुंचे और हम आज कहां हैं तथा इन सबको जोड़ने वाली चीज क्या है। एकमात्र तभी हम आज वर्ग-संघर्ष की ठोस रूप से उद्घोषणा कर सकते हैं। एकमात्र इसी मायने में हम सबके लिए यह क्रांतिकारी उत्सव की तरह है जिसे हर साल दुनिया के सारे वर्ग-सचेत मजदूर जोर-शोर से मनाते हैं।
पूंजीपति वर्ग मई दिवस से घबड़ाता है और घृणा भी करता है। पूंजीवादी सरकारें सरकारी आयोजनों तथा सरकारी घोषणाओं तक सीमित करके इसके महत्व को अंदर से खोखला बनाने तथा खत्म करने का प्रयास करती हैं। इसके विपरीत, मजदूर वर्ग के लिए यह घोषणा करने का दिन है कि ”जब तक पूंजीवादी शोषण है तब तक मजदूर वर्ग का अस्तित्व है और पूंजी के शोषण के खात्मे तक हमारी लड़ाई किसी न किसी रूप में जारी रहेगा जिसमें अंतिम जीत निश्चित ही हमारी है, भले ही आज पूंजीपति वर्ग हमारी कमजोरियों की वजह से ज्यादा हमलावर है।”
पहली मई, 2020 के दिन इसे मनाते वक्त मजदूर वर्ग के सचेत तबके को इस बात का अहसास होना चाहिए कि हमारी लड़ाई आज कठिनतम दौर यानी फासीवादी दौर की लड़ाई बन चुकी है। लेकिन, हमें इस बात में जरा भी संदेह नहीं होना चाहिए कि फासीवादी रूप से हमलावर होने का मतलब पूंजीवाद का और भी अधिक सड़ जाना है जो कि इसके स्थायी रूप से संकटग्रस्त व रोगग्रस्त होने का परिणाम है। ज्यों-ज्यों यह हमला तेज हो रहा है, त्यों-त्यों पूंजीपति वर्ग अपने अंतिम विनाश की ओर बढ़ रहा है। जल्द ही मजदूर वर्ग अपनी कमजोरियों पर पार पाते हुए पूंजीपति वर्ग के सभी हमलों का प्रत्युत्तर देगा और मानवजाति को हमेशा-हमेशा के लिए इससे निजात दिलायेगा और अंतत: स्वयं भी मुक्त होगा। जैसा कि इतिहास की गति के आम नियम इसकी घोषणा पहले ही कर चुके हैं, मजदूर वर्ग की जीत व समाजवाद की स्थापना निश्चित है।
जीतों का सिलसिला
1 मई, 1886 की शिकागो की लड़ाई के पहले ही मार्च, 1871 में फ्रांसिसी मजदूरों ने पेरिस में अपनी सत्ता कायम की थी जिसे इतिहास में हम ‘पेरिस कम्यून’ के नाम से जानते हैं। मजदूर वर्ग इस तरह अपना ऐतिहासिक क्रांतिकारी इरादा जाहिर कर चुका था। हालांकि ‘पेरिस कम्यून’ ज्यादा दिन तक नहीं टिक सका और कुचल दिया गया, लेकिन इसने दिखा दिया कि शोषण का हमेशा के लिए अंत मजदूर वर्ग की सत्ता कायम कर किया जा सकता है। यह मजदूरों के पहले अंतरराष्ट्रीय संगठन प्रथम इंटरनेशनल का दौर था जिसे ‘पेरिस कम्यून’ की हार के बाद भंग कर दिया गया था। इंटरनेशनल में मजदूरों की मुक्ति के रास्तों को लेकर विचारों का टकराव काफी था, लेकिन फिर भी इसके नेतृत्व में यूरोप व अमरीका से लेकर आस्ट्रेलिया तक के मजदूरों ने जिस उत्साह और जोश से आपसी सहयोग की मिसालें पेश कीं उससे यह उम्मीद जाग उठी थी कि पूंजीवाद के दिन यूरोप में लद चुके हैं। मार्क्स-एंगेल्स की यह धारणा भी थी कि यूरोप के कई देश एक साथ समाजवाद में प्रवेश कर सकते हैं और करेंगे। लेकिन पूंजीवाद के साम्राज्यवाद में बदलने से यह नहीं हो सका। हालांकि ‘पेरिस कम्यून’ के प्रकट होने व उसकी हार के बाद मार्क्स–एंगेल्स के विचारों की जीत पक्की हो चुकी थी, लेकिन बहुतेरे मजदूर अभी भी कई तरह के विजातीय व पराये विचारों की गिरफ्त में थे। 1890 के दशक में पूंजीवाद अपनी उच्चतम मंजिल अर्थात साम्राज्यवाद के दौर में प्रवेश कर चुका था। इसने यूरोप में क्रांति की उम्मीदें खत्म कर दीं और उसकी धुरी पूरब की ओर शिफ्ट हो गई। 1883 में मार्क्स की और 1895 में एंगेल्स की मृत्यु हो चुकी थी।
साम्राज्यवाद ने विश्वयुद्ध को जन्म दिया जिसकी सुस्पष्ट व्याख्या लेनिन ने अपनी थीसिस ‘साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था’ में की थी। इस दौर में रूसी मजदूर वर्ग ने लेनिन व बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में आंशिक जीतों से आगे बढ़ते हुए रूस में जार की तानाशाही को हराया (फरवरी, 1917 में) और चंद महीनों बाद ही महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति संपन्न करके एक नये युग का सूत्रपात कर दिया। पेरिस कम्यून के विपरीत रूसी मजदूर वर्ग ने राज्य सत्ता पर कब्जा से आगे बढ़ते हुए समाजवाद का निर्माण किया, समाजवादी संविधान लागू किया, सभी तरह के शोषण व उत्पीड़न का खात्मा किया, अपने देश को पूंजीवाद और जमींदारी से मुक्त किया, उत्पीड़ित राष्ट्रों को आत्मनिर्णय (अलग होने का अधिकार सहित) का अधिकार देते हुए उनको सोवियम यूनियन के समाजवादी गणतंत्र में एकजुट किया और संपूर्णता में एक शोषणमुक्त समाज की नींव रखी। इतना ही नहीं, उसने 1944-45 में द्वितीय विश्वयुद्ध में पूरी दुनिया पर गुलामी थोपने वाले खूंखार जर्मन फासीवाद को भी सीधी टक्कर में परास्त किया। इसी दौर में सोवियत समाजवाद ने उपनिवेशों (साम्राज्यवादी औपनिवेशिक नीति के तहत गुलाम देशों) की राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई का न सिर्फ समर्थन किया, अपितु साम्राज्यवाद को घेरने की मजदूर वर्गीय रणनीति के तहत उनका सफलतापूर्वक नेतृत्व भी किया।
मानवद्रोही तथा रक्तरंजित द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों के एक बार फिर से विश्व पर युद्ध थोपने का प्रयास किया गया। अभी-अभी खत्म हुए विश्वयुद्ध की विभीषिका झेल चुकी जनता की भावना इसके विरूद्ध थी। इसे समझते हुए सोवियत यूनियन ने विश्वशांति के पक्ष में पूरी जनता को जागृत किया और सही रणनीति व कार्यनीति के बल पर पूरी दुनिया के सामने यह साबित कर दिखाया कि विश्व शांति के लिए समाजवाद की विश्वव्यापी जीत जरूरी है। विश्व समुदाय को इस बात का अहसास दिलाया गया कि खूंखार जर्मन फासीवाद की पराजय के बाद भी पूंजीवाद व साम्राज्यवाद के भरोसे दुनिया में शांति कायम करना असंभव है। लेनिन ने बिल्कुल सही कहा था, साम्राज्यवाद का मतलब ही युद्ध है। मजदूर वर्ग को पूरे यूरोप व अमेरिका के आम जनों के अतिरिक्त आइंसटीन जैसे महान वैज्ञानिक सहित विश्व के सभी शांतिप्रिय तथा न्यायप्रिय बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों तथा कलाकारों-नाटककारों आदि का व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ और इससे मजदूर वर्ग और समाजवाद का विजय अभियान और आगे बढ़ा। अमेरिकी साम्राज्यवाद को पीछे हटना पड़ा।
इन सबके बीच रूसी समाजवादी क्रांति के सिद्धांतकार लेनिन के सबसे सच्चे शिष्य कॉमरेड स्तालिन विश्व के मजदूर वर्ग का नेतृत्व कर रहे थे। हालांकि यह कहना बेहतर होगा कि यह वह दौर था जब स्तालिन साम्राज्यवाद तथा विश्वपूंजीवाद के खिलाफ मजदूर वर्ग की तरफ से पूरी मानवजाति का नेतृत्व कर रहे थे, क्योंकि दो-दो विश्वयुद्धों ने यह दिखा दिया था कि साम्राज्यवाद की वैश्विक लूट-खसोट की नीति से एक दिन यह पूरी धरती और समस्त मानवजाति के खत्म हो जाने का खतरा उपस्थित हो गया है। एटम बमों की विनाशकारी शक्ति दुनिया देख चुकी थी।
यह वह दौर था जब पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का प्रभाव क्षेत्र विश्व में सिमटता जा रहा था और मजदूर वर्ग तथा समाजवाद लंबे डग भरते हुए विश्व विजय की ओर बढ़ रहा था। लेनिनवाद में निहित सर्वहारा क्रांति का युग अपने चरमोत्कर्ष पर था। साम्राज्यवाद तथा पूंजीवाद की कब्र खोदते हुए मजदूर वर्ग विश्वक्रांति की अग्रिम चौकी तक जा पहुंचा था। एक तिहाई दुनिया पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के दायरे से बाहर निकल चुकी थी। मजदूर वर्ग के वर्ग-संघर्ष के इतिहास का वह स्वर्णिम दौर था। मई दिवस की जीतों से हम काफी आगे निकल चुके थे। सोवियत समाजवाद पूरी दुनिया के मजदूर वर्ग को आंदोलित व प्रेरित करने कर रहा था। वह मानवजाति की सबसे पवित्र भावनाओं, न्यायपूर्ण विचारधाराओं तथा धरती को शोषण मुक्त बनाने की इसकी नवीनतम घोषणाओं का प्रतीत बन चुका था।
बदलते विश्व परिदृश्य में हार की शुरूआत
महान जीतों से भरे दिनों में भी स्तालिन ने इस बात को देखने में कोई चूक नहीं की थी कि उपनिवेशों के मुक्ति संघर्ष की जीत के बाद विश्व के भौतिक खासकर आर्थिक-राजनीतिक हालात व समीकरण अंदर ही अंदर बदल रहे हैं। हालांकि यह सच है कि वे इसका सार-संकलन कर पाते इसके पहले ही वे इस दुनिया से विदा हो गये। युगास्लाविया प्रकरण व मार्शल टीटो की समाजवाद से गद्दारी में इसकी प्रथम स्पष्ट झलक देखी जा सकती है। फिर चीनी क्रांति के बाद आपसी सहयोग तथा विश्व परिस्थिति, खासकर अमेरिकी-कोरिया युद्ध को लेकर, माओ की स्तालिन के साथ महीने भर चली तनातनीपूर्ण वार्ता में भी इसे देखा जा सकता है। स्तालिन के लिए यह समझना कठिन नहीं था कि इन सबके पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण हैं। स्तालिन की मृत्यु के बाद पैदा हुई परिस्थिति के बाद तो यह स्पष्ट ही हो गया कि नया आकर ले रही विश्व परिस्थिति पहले से भिन्न है और साम्राज्यवादियों के पक्ष में है अर्थात मजदूर वर्ग का शक्ति संतुलन साम्राज्यवाद की तुलना में कमजारे पड़ता जा रहा था।
राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम जीत चुके नवोदित स्वतंत्र देशों में पूंजी, खासकर वित्तीय पूंजी और तकनीकी सहायता की तेज होती मांग और इसके लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद की ओर झुकने की उजागर हुई उनकी प्रवृति पुराने शक्ति संतुलन के बिखराव के केंद में थी। अन्य कारणों के साथ मिलकर इसने समाजवाद की जीत के और आगे फैलाव की संभावना को ग्रसित कर लिया। समाजवाद की पूरे विश्व में होने वाली अवश्यंभावी जीत को लेकर पैदा हो रहे संदेह के पीछे यह मुख्य कारण था। साम्राज्यवाद से मुक्त हुए देशों ने पूंजीवाद का रास्ता लिया था और वे वही रास्ता ले सकते थे। इसी के साथ हम पाते हैं कि पूंजीवाद का स्वर्ण काल अवतरित होता है। पूरे विश्व में पूंजीवाद की तीव्र प्रगति होती है और साम्राज्यवाद के नये उभार व प्रसार के लिए नया पथ प्रशस्त होता है। पूंजी खासकर कर वित्तीय पूंजी की तीव्र हो उठी मांग ने साम्राज्यवाद को नये तरीकों से, पहले आर्थिक तौर पर और फिर बाद में सैन्य तथा राजनीतिक तौर पर भी, औपनिवेशिक गुलामी से लड़कर आजाद हुए देशों में भी अपने पैर जमाने के मौके व अवसर प्रदान किये। साम्राज्यवाद की संकटग्रस्तता खत्म होने लगती है और इस तरह साम्राज्यवाद की मजदूर वर्गीय घेरेबंदी टूटने लगती है। उसके पुराने आधार के खिसकने का और समाजवाद के और आगे विकास व प्रसार के रूक जाने का यह सबसे बड़ा कारण था। स्तालिन की मृत्यु के बाद इसने संशोधनवाद की और एक और नये खेप, नवसंशोधनवाद के लिए माकूल जमीन मुहैया कराने का काम किया।
इस तरह द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन गुट की पराजय तथा इसके फलस्वरूप पूरे विश्व में समाजवाद की अगुआई में उपनिवेशों के मुक्ति संघर्ष की हुई महान जीत के उपरांत साम्राज्यवाद की करारी हार तो हुई, लेकिन इसने तत्कालीन विश्व में पूंजीवाद के तीव्र फैलाव की एक नयी विशाल भूमि भी निर्मित की। इससे विश्व के बड़े भू-भाग में साम्राज्यवाद को फिर से पैर जमाने में काफी मदद की। इन नये मुक्त हुए देशों के जो (राष्ट्रीय) पूंजीपति वर्ग कल तक सोवियत यूनियन के नेतृत्व में विश्व-समाजवादी मजदूर आंदोलन की कोतल शक्ति था और साम्राज्यवाद के खिलाफ सोवियत यूनियन और समाजवाद के साथ एकजुट था, कालांतर में वह साम्राज्यवाद का सहचर बना, क्योंकि उसकी वित्तीय तथा तकनीकी प्राथमिकताओं ने उसे अमरीकी साम्राज्यवादियों की गोद में जाने को विवश किया। पूंजीवाद के वर्गीय विश्लेषण के आधार पर यह एक स्वाभाविक बात थी।
उपरोक्त भौतिक परिस्थिति को एक और दूसरी भौतिक परिस्थिति का साथ और सहयोग भी मिला। तत्कालीन विश्व के एक बहुत बड़े भू-भाग में मजदूर वर्ग की संख्यात्मक रूप से शक्ति अत्यंत क्षीण थी और फिलहाल उन देशों में समाजवाद के लिए लड़ाई शुरू होने की कोई गुंजायश नहीं थी। इसका भी यही परिणाम निकला कि पूरे विश्व में विश्वपूंजीपति वर्ग तथा साम्राज्यवाद के विरूद्ध मजदूर वर्ग का पुराना शक्ति संतुलन कमजोर पड़ने लगा था।
कॉमरेड स्तालिन की मृत्यु के बाद उनकी अनुपस्थिति में यह स्थिति और अधिक उग्र हो उठी तथा समाजवाद की जीत के और आगे प्रसार के मार्ग में ऐतिहासिक रूकावटों के आगे पूरे विश्व में समाजवाद के फैलाव के साथ-साथ समाजवादी देशों में मजदूर वर्ग की अंतिम जीत की संभावना के बारे में भी कई संशय खड़े होने लगे, जिसने समाजवादी रूस में नवसंशोधनवाद की पौध के पनपने में खाद-पानी का काम किया। प्रतिकूल भौतिक परिस्थितियों ने स्तालिन की अनुपस्थिति में रूस में समाजवाद की प्रकट हुई प्रभावी हार को पूरे विश्व के लिए अवश्यंभावी हार में तब्दील कर दिया। इसने पूरे में मजदूर वर्ग के आंदोलन के विपर्यय की नींव रख दी जिसकी पूर्णाहुति 1991 में सोवियत यूनियन के विघटन के साथ संपन्न हुई।
तत्कालीन चीनी नेतृत्व, खासकर माओ ने साम्राज्यवाद की इस नई रणनीतिक जीत को नवउपनिवेशवाद का नाम दिया था, हालांकि यह साम्राज्यवाद के काम करने का वही तरीका था या है जिनके बारे में लेनिन अपनी थेसिस में पहले ही बता चुके थे। बाद में इस नये शब्दावली का खासकर विशेष प्रयोजन से किये गये प्रयोग से साम्राज्यवाद के बारे में लेनिन की समझ को आत्मसात करने में काफी दिक्कतें हुईं और आज भी आ रही हैं। इससे कई ऐसे निष्कर्ष निकाले गये, जो किसी भी तरह सही नहीं थे। जैसे यह माना गया कि उपनिवेशवाद अभी भी मौजूद है, भले ही वह नये रूप में। दूसरा यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि साम्राज्यवाद बिना उपनिवेश बनाये नहीं रह सकता है। इससे यह भी अर्थ निकाला गया कि उपनिवेशवाद साम्राज्यवाद की विशिष्ट उपज है और पहचान भी। इसीलिए जो देश उपनिवेशवाद से मुक्त होकर आजाद हुए उन्हें इस बात के कारण अर्धगुलाम या अर्धउपनिवेश माना गया, क्योंकि वे आर्थिक रूप से साम्राज्यवाद पर निर्भर थे। यानी, यह माना गया कि आर्थिक रूप से निर्भर देश राजनीतिक रूप से आजाद या स्वतंत्र नहीं हो सकते हैं। ये सभी निष्कर्ष लेनिनवाद की वास्तविक समझ से मेल नहीं खाते हैं और इनके हावी होने से भारत जैसे देशों में क्रांति की रणनीति व कार्यनीति बनाने में खासी दिक्कतें आयीं और अभी भी आ रही हैं।
हार का ऐतिहासिक विपर्यय बन जाना
रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के गद्दारों (ख्रुश्चेव और ख्रुश्चेवपंथियों) ने समाजवाद तथा इसके मुख्य निर्माता कॉमरेड स्तालिन को बदनाम करने और रूस में फिर से धीरे-धीरे सत्ता वापिस पूंजीपति वर्ग को सौंपने का कदम उठाया। सबसे पहले इसने अमेरीकी साम्राज्यवाद से दोस्ती का हाथ बढ़ाया। इसने विश्वशांति के लिए (विश्वशांति के नाम पर और एटम बम का डर दिखाकर) साम्राज्यवाद का पिछलग्गू होना, क्रांति से पिंड छुड़ा लेना और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के नाम पर मजदूर वर्ग की क्रांति और अंतरराष्ट्रीयतावाद से पल्ला झाड़ने का रास्ता लिया। ख्रुश्चेव और इसके अनुयायियों के इस विचलन के खिलाफ लड़ने के विपरीत चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने शुरू ही काफी ढुलमुल रवैया अपनाया था। हालांकि नयी विश्व परिस्थिति के मद्देनजर मजदूर वर्ग के शक्ति संतुलन में हुए बदलाव के उपरोक्त संदर्भ में ही इसे देखा जाना चाहिए, क्योंकि इसी तरीके से यह ज्यादा साफ-साफ दिखाई देती है कि आखिर क्यों ख्रुश्चेव का नव संशोधनवाद पूरे विश्व में इतनी आसानी से विजयी रहा। उपरोक्त बदलते शक्ति संतुलन को नजर में रख कर देखें तो यह साफ हो जाता है कि यह एक ऐसा परिणाम कतई नहीं था जो एकदम से हमें आश्चर्य में डाल दे। बाद में, माओ की मृत्यु के पश्चात चीन में जो हुआ उसे भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। यह कोलाहल से भरे उस प्रश्न का जवाब देता है कि आखिर यह विचलन क्यों कर इतनी सरलता से ग्राह्य हुआ और पूरी दुनिया में धीरे-धीरे मजदूर वर्ग की लड़ाई कमजोर होती गई, कि आखिर क्यों ख्रुश्चेव की बहुतेरी गलत नीतियों व प्रवृतियों ने इसे इतनी आसानी से विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन को बुरी तरह जकड़ लिया और आखिर क्यों चीन में सफल हुई महान नवजनवादी क्रांति से आगे समाजवाद में जाने की कार्रवाई गलत दिशा में मुड़ गई। मजदूर वर्ग एक ऐतिहासिक विपर्यय के दौर में जा पहुंचा था और इसके पलटे जाने के लिए ऐतिहासिक कारकों का पैदा होना अनिवार्य हो गया।
बाकी यह तो जगजाहिर ही है कि जल्द ही सब कुछ बदल गया। चीन का रंग पूरी तरह बदल गया और 1991 में ख्रुश्चेव के अनुयायियों ने समाजवाद को पूरी तरह खत्म कर दिया और सोवियत यूनियन का विघटन कर दिया। इसके बाद भारत सहित पूरी दुनिया में मजदूर वर्ग वैचारिक-राजनैतिक तथा संगठानात्मक तौर से ही नहीं, नैतिक-मनोवैज्ञानिक तौर पर भी पीछे हटने पर मजबूर हो गया और पूंजीवाद के समक्ष पूरी तरह निहत्था हो वर्ग-संघर्ष के मैदान में खड़ा होने व हारने के लिए मजबूर हो गया। यह मामूली पराजय नहीं, ऐतिहासिक हार थी। एक विपर्यय था जिसकी शुरूआत भले ही इसके सबसे अच्छे पात्र ख्रुश्चेव के द्वारा हुई, लेकिन इसकी जड़े इस बात में निहित थीं कि समाजवाद का एक सफल दौर पूरा हुआ और इसके अगले दौर के लिए लिए परिस्थितियों का निर्माण होना बाकी था। आज जब हम विश्व पटल पर मजदूर वर्ग की सभी देशों में बहुसंख्या और इससे उपजने वाले भावी शक्ति संतुलन व समीकरण को देखते हैं, तो यह साफ हो जाता है कि समाजवाद की विश्वव्यापी जीत के अगले दौर के आमद की परिस्थितियां पूरी तरह परिपक्व हो चुकी हैं। इस बार मजदूर वर्ग की एक बड़ी निर्णायक जीत पूरे ग्लोब पर समाजवाद की विजय को रोकने वाला कोई नहीं होगा, यानी, समाजवाद की जीत बीच में बाधित नहीं होगी।
गलत दिशा में प्रस्थान कर चुकी तथा स्वयं ही गलत प्रवृतियों व नीतियों में फंसी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चलाई गई (ख्रुश्चेव के विरूद्ध) ‘महान बहस’ और समाजवाद के पूंजीवाद में पतन को रोकने वाली ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति’ की तथाकथित लपटों ने चीन को कहां पहुंचाया आज हम देख सकते हैं। चीन समाजवाद का गढ़ तो नहीं ही बन सका, वह मार्क्सवाद की सैद्धांतिक रक्षा करने में भी सक्षम नहीं हुआ, भले ही अत्यंत बड़े-बड़े दावे किये गये और आज भी किये जाते हैं। आज वह एक साम्राज्यवादी देश बनने की ओर तेजी से अग्रसर है। कॉमरेड अनवर हौजा के अल्बानिया का हस्र भी हम देख चुके हैं।
विश्वपूंजीवाद का स्थायी संकट और मजदूर वर्ग के पलटवार की संभावनाएं और उसका ऐतिहासिक महत्व
1991 के बाद से लेकर आज तक का काल उस दौर का परिचायक है जब पूंजी पूरी दुनिया में लगातार संकटग्रस्त रही है और इसीलिए आक्रामक भी होती गई। पूंजीवादी विकास के इतिहास का सबसे सुनहरा काल यानी पूंजीवाद का स्वर्ण काल 1980 के दशक में ही निपट चुका था और 1991 से शुरू हुए नवउदारवाद ने, यानी, पूंजी की खुली-नंगी लूट की इजाजत देने वाली पूंजीपक्षीय सुधारों तथा तीव्र निजीकरण की नीतियों ने, जिसे पूंजीवादी संकट को दूर करने के उद्देश्य से शुरू किया गया था, पूंजीवाद को अंतत: स्थायी ढांचागत संकट में धकेल दिया। 2008 के बाद से वह मरणासन्न स्थिति में अपनी मृत्युशैया पर पड़ा है और इसके स्वस्थ होने की उम्मीद स्वयं बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों को नहीं है। उन्होंने संकट के लगातार और अधिक गहराने पर आश्चर्यचकित होना बंद कर दिया है। वे नहीं चाहते हुए भी अब इस बारे में बोलने भी लगे हैं।
पूंजीवाद आज मरणासन्न अवस्था में है, तो क्या इसका अर्थ यह है कि वह हमलावर नहीं होगा या हमलावर होने की क्षमता खो चुका है? कुछ लोग कहते हैं, अगर मरणासन्न है तो इतना हमलावार कैसे है। यह सोच गलत है। पूंजी जितनी अधिक मरणासन्न होगी, ठीक उसी वजह से वह ज्यादा से ज्यादा हमलावर होगी, हमलावार होने के लिए बाध्य होगी। मरणासन्न होने का अर्थ यह है कि पूंजी के और अधिक विकास व संचय की संभावना खत्म हो जाती है, क्योंकि संचय के बिना वह जिंदा नहीं रह सकती है। अगर पूंजी से पूंजी का उत्पादन बंद हो जाए, तो पूंजी का जीवित रहना मुश्किल है। स्थिति क्या है? स्थिति यह हो गई कि न सिर्फ विकसित पूंजीवादी देशों में, बल्कि दुनिया के तमाम पूंजीवादी मुल्कों में पूंजी संचय की प्रक्रिया बाधित हो चुकी है। एकाधिकार का विस्तार और वित्तीय अल्पतंत्र का जन्म भी अन्य सभी ‘पिछड़े’ पूंजीवादी मुल्कों में इस बीच तेजी से हुआ है। दूसरी तरफ, साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण ने सभी देशों की बड़ी पूंजी को अंतरराष्ट्रीय बना दिया है। इस कारण देर से ही सही, लेकिन पूंजीवादी विकास के पथ पर बढ़ने वाले मुल्कों में मौजूद वित्तीय अल्पतंत्र अंतरराष्ट्रीय वित्तीय अल्पतंत्र के साथ पूरी तरह गूंथा हुआ है और उसका हिस्सा बन विश्वपूंजीवाद के संकट को आमंत्रित कर रहा है। विश्वपूंजीवाद का हर संकट संकट इन देशों का संकट भी बन जा रहा है। यह स्थिति विश्व पूंजीवाद के समझ घोर समस्या का सबब बन चुकी है।
इस स्थायी व ढांचागत संकट में फंसने के बाद इसके लिए इससे निकलना अब आसान नहीं है। अपितु, यह कहना बेहतर होगा कि यह संकट अब पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के खात्मे के साथ ही खत्म होगा, उसके पहले नहीं।
उसकी आक्रामकता आज सिर्फ मजदूर वर्ग के खिलाफ नहीं है। उसकी जद में अंतवर्ती वर्ग भी आ गये हैं। श्रम की अबाध लूट से सामान्य मुनाफा भी जब नहीं मिल पा रहा हो, तो बड़ी पूंजी ने छोटी पूंजियों पर सीधे डाका डालना शुरू कर दिया है जिसके दायरे में अब मध्य वर्ग भी आ चुका है। दूसरी तरफ, वह पूंजीवादी जनवाद और जनतंत्र के सभी उदार मानदंडों, अवधारणाओं तथा संस्थानों और इस तरह अब तक अर्जित सभ्यता व संस्कृति के विरूद्ध भी आक्रामक है। पूंजीवादी-जनवादी न्याय व्यवस्था को भी इसने अपनी मुट्ठी में कर ध्वस्त करता जा रहा है। यह पूंजीवाद के शासन करने के ऐतिहासिक आधारों व धरोहरों पर सीधा हमला है। एक तरह से आज पूंजी स्वयं अपने का स्वयं नष्ट करने पर तुली है। इसका क्या अर्थ है?
इससे एक बात तय है। वह यह कि उसकी आक्रामकता इसके मौत की ओर सरकने की निशानी है, क्योंकि आने वाले दिनों में पूंजी के शासन के टिके रहने का न सिर्फ आर्थिक आधार बल्कि राजनीतिक व सांस्कृतिक-नैतिक आधार भी खत्म हो जाएगा। यह सब मानवजाति को विद्रोह के लिए उकसा रहा है। नवउदारवादी नीतियों से पिंड छुड़ाने की ओर बढ़ना इसके बस की बात नहीं है। इसकी असफलता अब जगजाहिर हो चुकी है। यह आक्रामकता एक मायने में इस वजह से भी है। अपने विस्तार व विकास का रास्ता नहीं सूझने की हालत में वित्तीय पूंजी जैसे पागल हो उठी है। उसे पता है कि अगर संकट इसी तरह गहराता जाएगा, तो यह क्रांति की ‘बुझी हुई’ चिन्गारी को हवा देकर उसे धधका सकता है। जिस कम्युनिज्म रूपी भूत को मरा हुआ समझ कर पूंजीवादी दुनिया निश्चिंत हो चुकी थी उसके जग जाने का खतरा उपस्थित हो चुका है। यह देखते हुए कि उसके पास संकट से निजात पाने का कोई रास्ता नहीं बचा है, वह पूरी दुनिया में प्रतिक्रियावादी राजनीति के विस्तार में अपना रास्ता ढूंढ रहा है। पूंजी पूरी दुनिया में प्रतिक्रियावादी विचारधारा तथा राजनीति को आगे कर रही है जिससे फासीवाद का आधार मजबूत हो रहा है और फासीवादी ताकतें मजबूत हो रही हैं। लेकिन क्या इससे भी वह महासंकट का हल निकाल सकता है, इससे बच सकता है? जाहिर है, नहीं। उल्टे इसे पूंजी के हो रहे तीव्र केंद्रीकरण से विश्वपूंजीवाद में विस्फोट पैदा हो रहे हैं। यह क्रांति को फूट पड़ने का कारण बन सकता है और बनता जा रहा है। आम अवाम को यह क्रांति की ओर धकेल रहा है। यही इसकी मरणासन्न अवस्था का परिणाम है। यह उस दलदल में जा गिरा है जिसे अतिविकसित पूंजी ने पैदा किया है और इसीलिए इससे निकलने के लिए स्वयं पूंजी को पूंजी के चरित्र से अर्थात इसमें निहित सामाजिक संबंध से अलग करना होगा। आगामी क्रांति इसे सामाजिक स्वामित्व में लाकर ठीक इसी काम को अजांम देगी।
2008 के विश्वव्यापी संकट ने विश्वपूंजीवाद पर जो प्राणांतक प्रहार किया है उसकी चोट से वह अब कभी भी उबर नहीं सकेगा। लिहाजा वह स्वाभाविक रूप से पहले से ज्यादा हमलावर है, लेकिन इसका यह हमलावर रूप सिर्फ इसकी इस छटपटाहट का परिचायक है कि उसे उसके चरित्र से अलग किया जाए।
लेकिन मजदूर वर्ग भी आज उतने ही स्वाभाविक रूप से लाचार और कमजोर है, लेकिन इसकी यह लाचारी परिस्थितियों के बदलते ही ठीक होने वाली चीज है। वह आज प्रत्युत्तर देने की स्थिति में नहीं है, लेकिन संकट जैसे ही उसे बाध्य करता है वह कुछ भी, यहां तक कि पूरी तरह अविश्वसनीय कार्य कर सकता है। हमने अभी चंद दिनों पहले कोरोना के कारण हुए लॉक डाउन में हजारों किलामीटर पैदल घर के लिए चल दिया, जब पेट खाली और कंधे बोझ से लदे हुए थे।
स्तालिन की मृत्यु के बाद जिस तरह से पूरे विश्व में कम्युनिस्ट आंदोलन को पहले ख्रुश्चवपंथी अवसरवादियों ने और फिर उसके वाद चीनी क्रियेटिव मार्क्सवाद के पुरोधाओं और उसके विश्व भर में फैले अनुयायियों ने तमाम तरह की अवैज्ञानिक तथा गैर-क्रांतिकारी अवधारणाओं को इसमें घुसेड़ कर इसकी धार खत्म करने की कोशिश की है, उसका प्रथम स्वाभाविक नतीजा यह हुआ कि मजदूर वर्ग की अगुवा ताकतों का पतन हो गया। लेकिन इसका दूसरा प्रभाव निश्चय ही मजदूर आंदोलन पर पड़ा। वैचारिक-राजनैतिक हमला इतना बड़ा और गहरा था कि विश्व मजदूर आंदोलन का यह ऐतिहासिक विपर्यय काल मजदूरों की कई पीढ़ियों तक फैल गया और आज भी जारी है, मजदूर वर्ग के अगुवा की कम्युनिस्ट क्रांतिकारी चेतना के साथ-साथ मजदूरों की अपनी वर्ग चेतना भी ठूंठ होती गई है हालांकि अब इस पर पलटवार का वक्त आ चुका है। आज जब संकटग्रस्त विश्वपूंजीवाद पूरी तरह जर्जरावस्था में प्रवेश कर चुका है, तो वह वक्त भी अब बहुत दूर नहीं है, जब मजदूर वर्ग एक हारी हुई सेना से धावा बोलने वाली और फिर जीतने वाली सेना में अपने को जल्द ही तब्दील करेगा।
सबसे ज्यादा जरूरी चीज है कि मजदूर वर्ग के संगठनों व इसके लड़ाकू पांतों के सदर मुकाम का निर्माण। इसका न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पतन हो चुका है, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर वे सब के सब वास्तव में ढह चुके हैं। जो हैं वे निम्नपूंजीवादी प्रवृतियों और भटकावों से बुरी तरह ग्रस्त हैं। हम चाहे जितने दावे कर लें, लेकिन इससे इनकार करना मुश्किल है कि आज भारत में मदूवर वर्ग का सच्चा और क्रांतिकारी व राष्ट्रीय स्तर की कोई पार्टी नहीं है, कोई सदर मुकाम नहीं है। सदर मुकाम का अर्थ है लेनिनवादी पार्टी का होना, जो किसी भी रूप में भारत में मौजूद नहीं है, हालांकि उसकी अंशक कही जा सकने वाली कई पार्टियां या ग्रूप हैं। इन सबके बीच वाद-विवाद के जरिए इस पूरी परिस्थिति व हालात की कपाल-क्रिया नहीं की गई तो इन ताकतों के लिए आगे प्रचंड पूंजीवादी-फासीवादी हमलों के मध्य टिके रहना मुश्किल होगा और मजदूर वर्ग के लिए स्वाभाविक तौर पर और भी विषम हालात पैदा होंगे। हां यह जरूर है कि बाह्य व वस्तुगत परिस्थितियों की इसमें एक बड़ी भूमिका है और इसका असल भी दिखने लगा है।
कोरोना महामारी के आइने में
कोरोना महामारी ने जब हमला किया तो विश्वपूंजीवाद इसी हाल में था जैसा कि ऊपर वर्णित है। कोविद-19 नामक वायरस ने मानो बिजली की गति से यह दिखा दिया कि पूंजीवाद अपनी जीवन-क्षमता पूरी तरह खत्म कर चुका है और जितनी देर वह जिंदा लाश के रूप में हमारे बीच मौजूद है, वह मानवजाति के लिए हर क्षेत्र में पश्चगमन और अस्तित्व का संकट पैदा करेगा। महामारी में भी उसे सिर्फ और सिर्फ मुनाफा और लूट की चिंता है, लिहाजा कोविद-19 के विरूद्ध अस्तित्व के लिए युद्धरत मानवजाति की मदद करने के लिए आज पूंजीवाद के पास कुछ नहीं है, हालांकि पूरी दुनिया भौतिक प्रगति (आर्थिक, वैज्ञानिक व तकनीकी प्रगति) के क्षेत्र में आज विकास के उच्च्तम शिखर पर विराजमान है और किसी भी चीज का कहीं कोई अभाव नहीं है। और कुछ नहीं तो, भारत में मोदी सरकार के कारनामें ही देख लें, इसका जीता-जागता प्रमाण मिल जाएगा।
आज अतिप्रचुरता में दारिद्र्य का कलंकपूर्ण दृश्य चारो तरफ दिखेगा। यह पूंजीवाद की देन है और पूंजी के चरित्र के अनुरूप है। मुनाफे की बलिवेदी पर सब कुछ कुर्बान है। कोविद-19 के विरूद्ध लड़ाई में पूंजीवाद का यह मानवद्रोही चेहरा पूरी तरह सामने आ चुका है। जो कल तक नहीं देख सकते थे आज वे इसे देख पा रहे हैं। आज पूरी दुनिया में कोरोना से ज्यादा लोग बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण और पूंजीवादी अर्थतंत्र की अव्यवस्था से मरने को विवश हो रहे हैं। जबकि दूसरी तरफ, अनाज भंडार भरे पड़े हैं और समाज में हर सुविधा व चीज पैदा करने की अपरंपार क्षमता विद्यमान है। कोविद-19 जैसे सुक्षम जीव के हमले में पूंजीवाद एकबारगी नंगा हो चुका है।
मजदूर वर्ग बनाम पूंजीवाद का यह मूल झगड़ा आज मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मानवजाति की रक्षा बनाम पूंजीवाद की विनाशलीला में तब्दील हो चुका है। यह स्थिति क्रांति के भावी उभार की उम्मीदों के आधार पुख्ता कर रही है। मजदूर वर्ग तथा इसकी ताकतों को उम्मीदों के इस पुनर्जीवन को पूरी शिद्दत से समझना और महसूस करना चाहिए, क्योंकि यह वह समय है जब पूंजीवाद अपना नैतिक आधार भी खोने को है। इसकी मुत्यु तो निश्चित तब होगी, जब मजदूर वर्ग अपनी ऐतिहासिक भूमिका में प्रकट होगा, लेकिन इसके मौत की आहट को आज ही सुना जा सकता है। मजदूर वर्ग के एक धक्के से इसकी जर्जर काया को धराशायी किया जा सकता है, गर जो हम इसे जरूरी समझें।
इसके अतिरिक्त, एक-दो और महत्वपूर्ण बातें हैं जिन पर गौर किया जाना चाहिए। पहला, पूरे विश्व में मजदूर वर्ग का शंक्ति संतुलन एक बार फिर से मजदूर वर्ग के पक्ष में झुकने लगा है। पहली बात तो यह है कि पूंजीवाद का कोई और स्वर्ण काल नहीं आने वाला है, क्योंकि दुनिया के कोने-कोने में पूंजी का अतिविस्तार हो चुका है और अधिकाधिक संख्या में समाज का तेजी से सर्वहाराकरण हुआ है और हो रहा है। पूंजी आधिक्य से पूंजी कराह रही है और समाज तबाही के कगार पर आ चुका है। बाजार और निवेश दोनों के अभाव में पूंजी के साथ-साथ समाज पीस रहा है। इसकी संभावना खत्म हो चुकी है कि बड़े पैमाने पर पूंजी का विस्तार हो सके। मतलब विनाश और ध्वंस ही अब मानवजाति की नियति है। अतिविकसित हो पूंजी अपने भार से लरज कर मर रही है। दूसरा, दुनिया के लगभग तमाम मुल्कों में मजदूर वर्ग की संख्या बहुसंख्या बन चुकी है और श्रम बनाम पूंजी का अंतरविरोध वहां मुख्य अंतरविरोध बन चुका है। यानी, विश्वपूंजीवाद को फिर से घेरने वाली तथा समाजवाद को पूरे विश्व पटल पर ले कर जाने वाली भौतिक ताकतें आज पूरी शिद्दत से विद्यमान हैं, भले ही आज उनकी वैचारिक-राजनीतिक क्षमता जो भी हो। इसके अतिरिक्त पूंजी के अंतरराष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया के तहत तमाम पूंजीवादी मुल्कों में हुए एकाधिकारी पूंजी के विकास ने फासिस्ट उभार पैदा किये हैं जिससे उन मुल्कों में मजदूर वर्ग को अन्य टूटपूंजिया वर्गों व सामाजिक संस्तरों का सहयोग भी बड़े पैमाने पर प्राप्त हो रहा है, जो कल तक इसके विरोधी थे। जाहिर है, इससे मजदूर वर्ग की पूंजीवाद पर रणनीतिक प्रहार करने की क्षमता में काफी इजाफा हुआ है।
आज कोविद-19 के विश्वव्यापी हमले ने विश्वपूंजीवाद को ऐसी स्थिति में डाल दिया है जिसमें वह न तो पीछे लौट सकता है, न ही आगे बढ़ सकता है। अगर वह मानवतावादी बनने की कोशिश करता है तो उसके मुनाफे का साम्राज्य स्वयं उसके विरूद्ध विद्रोह कर बैठेगा। केंद्रीकृत पूंजी का विश्वव्यापी साम्राज्य व अल्पतंत्र इसे इसकी इजाजत नहीं देगा। दूसरी तरफ, और यह बहुत महत्वपूर्ण है, अगर वह लूट व मुनाफे की फिक्र करता है, जो कि करेगा, तो फिर इसे मानवजाति के संभावित विद्रोह का सामना करना पड़ सकता है। बस एक ही बात है जो इसे सुकून दे रही है। वह है मजदूर वर्ग की पूंजीवाद पर धावा बोलने की अपनी स्वयं की तैयारी का अभाव जिसकी सबसे प्रमुख कड़ी उसके देशव्यापी सदर मुकाम का निर्माण है, जो अधर में लटका हुआ है।
वक्त करीब आ चुका है
मजदूर वर्ग आज बर्बादी और तबाही के जिस मोड़ पर खड़ा है वहां से वह तेजी से जागरूक होगा और रहा है। कोरोना महामारी और विश्वपूंजीवाद के संकट के मिश्रित हमले में अगर वह आज बेहाल-परेशान है और यह क्लांति और दुख देता है, तो इसका एक दूसरा पक्ष भी है। ठीक यही क्लांतिकर दिखने वाली परिस्थिति उसे पूंजीवाद के मानवद्रोही चरित्र को समझने में मदद भी कर रहा है और कालांतर में क्रांतिकारी बनायेगा। यह कहना बेहतर होगा कि वह जागरूक होने के लिए बाध्य है। अन्य उत्पीड़ित वर्गों के साथ भी यही बात लागू होती है।
क्रांति एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के साथ-साथ राजनीतिक प्रक्रिया भी है। इतिहास में जो व्यवस्था कालातीत हो जाती है, जरूरी नहीं है कि लोगों की नजर में भी यानी राजनीतिक रूप से भी वह कालातीत साबित हो गई हो। जब तक कोई व्यवस्था, चाहे वह अत्यधिक शोषण और लूट पर ही क्यों न टिका हो, बहुसंख्य लोगों में जीवन-निर्वाह की उम्मीद जगाये रखती है; जब तक उस व्यवस्था में बहुमत आबादी घोर अभाव तथा तीव्र शोषण के बावजूद अपनी जिंदगी चला ले पा रही है; जब तक अपना व अपने परिवार के जिंदा रहने की आम जनता की उम्मीदें खत्म नहीं हो गई हैं, तब तक क्रांति के लिए वह समाज आगे नहीं आता है। क्रांति जनता के लिए अंतिम अस्त्र की तरह होती है। क्रांति का काल तब शुरू होता है जब किसी मोड़ पर किन्हीं कारणों से, जैसे लंबे युद्ध के वक्त, वह व्यवस्था बहुसंख्य आबादी के अंदर जिंदा रहने की उम्मीद जगा पाने में असफल होने लगती है। एकमात्र तभी समाज व व्यापक जनता उस व्यवस्था को पलटने की तैयारी में अपने को झोंकती है अर्थात जीवन को बचाने के लिए जिंदगी को दांव में लगाती है। यह एक क्रांतिकारी संकट का काल होता है। यह क्रातिकारी विस्फोटों के फूट पड़ने की संभावनाओं से भरा काल होता है।
कोविद-19 ने भारत सहित पूरी दुनिया को ठीक इसी दिशा में वस्तुगत रूप से धकेल दिया है। कोरोना महामारी के खिलाफ भी मानो एक युद्ध चल रहा है जिसमें आम लोगों के हिस्से में बेबसी और मौत आई है। मजदूर वर्ग को ही नहीं, इसने पूरी मानवजाति को यह देखने के लिए बाध्य कर दिया है कि पूंजीवाद के रहते मानवजाति की बहुसंख्या के जिंदा रहने की संभावना कम से कमतर हो चुकी है। न तो कोरोना महामारी से और न ही कोरोना ममामारी से ऊपजे हालात में भुखमरी के हालात से बचने का कोई कारगर तरीका शेष बचने वाला है। मानवजाति का बहुत बड़ा हिस्सा क्रांतिकारी भूमिका में आने के लिए अभिशप्त है।
संकटग्रस्त पूंजीवाद, जो कोरोना महामारी के पूर्व ही मुश्किल से अपनी सांसे ले पा रहा था, उसे कोविद-19 ने गर्दन से पकड़ कर पूरी तरह असहाय कर दिया है। आज का परिदृश्य क्या है, इस पर गौर करें। पूरी दुनिया में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में प्राथमिकता के आधार पर निवेश की मांग हो रही है। स्वास्थ्य सेवाओं तक आम लोगों की पहुंच बढ़ाने की मांग तेज हो रही है। निजी व विशालकाय कॉरपोरेट अस्पतालों की उपादेयता को बनाये रखने के लिए उसे राज्य के अंतर्गत ले आने की मांग हो रही है। निजी कॉरपोरेट उद्योगों की उपादेयता तथा इससे जुड़े भ्रष्टाचार पर सवाल उठ खड़े हो रहे हैं। पूरे उद्योग जगत की क्षमता को समाज की बेहतरी के लिए प्रयोग में लाने की मांग बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं, मांगें नहीं पूरी किये जाने की संभावना के मद्देनजर पूरी दुनिया में वर्तमान समाज के ढांचे पर सवाल भी खड़े हो रहे हैं। ये सब दिखा रहा है कि परिस्थितियों का तेजी से क्रांतिकरण हो रहा है। कल तक ‘निजी नियंत्रण’ की पवित्रता पर सर झुकाने वाले लोग ही अब ‘राजकीय नियंत्रण’ की पूजा अर्चना करने लगे हैं, तो इसमें छुपे साफ संकेतों को समझने की जरूरत सबसे अधिक मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी प्रतिनिधियों की बनती है जिन्हें आगे का कार्यभार पूरा करने करने का जिम्मा लेना चाहिए और लेना होगा। जहां यह सही है कि कोविद-19 के खतरों में जीवन की रक्षा के नाम पर फासीवादी सरकारें बंदिशें लादने का काम कर रही हैं, वहीं यह भी सच है कि जन उभार की एक झलक मात्र में ये सूखे पत्ते की तरह ये बंदिशें हवा में उड़ जाएंगी। निरंकुशता क्षण भर में खाक में मिल जाएगी और हिटलर और मुसोलिनी की औलादों को जनता जमीं में जिंदा गाड़ देगी। आज पूंजीवाद के सारे रास्ते कुछ देर चलकर बंद होने वाले हैं। कोविद-19 की यही सबसे बड़ी क्रांतिकारी भूमिका है।
ऐसे में आगामी दिनों में इसकी पूरी संभावना है कि मजदूर वर्ग उठ खड़ा होगा, इसलिए नहीं कि उसने क्रांति की समझ विकसिक कर ली है या मार्क्सवाद समझ लिया है, बल्कि इसलिए कि उसके इसके बिना जिंदा रहने की संभावनाएं खत्म हो चली हैं और वह यूं ही मरने के लिए तैयार नहीं है। यहां तक कि मजदूर वर्ग के इतर अन्य वर्ग भी बहुत तेजी से यह सब होते देख रहे हैं और समझने की कोशिश कर रहे हैं कि पूंजीवाद के रहते आखिर समाज बचेगा या खत्म हो जाएगा।
यहां आकर मजदूर वर्ग की अगुवा ताकतों को, जो पहले से ही मजदूरों के बीच कार्यरत हैं, को वर्तमान के ठहराववादी सोच तथा अन्य बाकी हिचकिचाहटों से बाहर निकल कर सामने प्रकट हो सही नारे व कार्यक्रम के साथ मजदूर वर्ग के टूटते आस को क्रांति की ओर मोड़ने का काम करना होगा। वे जो क्रांति की गतिकी को समझते हैं वे यह जरूर समझेंगे कि वह समय आ गया जब क्रांतिकारी परिवर्तन के काम के बारे में ठोस रूप से बात की जाए अर्थात एक ऐसी चीज के रूप में बात की जाए जो एक आसन्न ऐतिहासिक परिघटना की तरह घटने वाली है और जिसे होने के लिए बस चंद चीजों की जरूरत है। उनमें से एक वह चीज है जो हमारे पास है। यानी, मजदूर वर्ग की तमाम ठोस व निर्णयकारी शक्तियों के केंद्रीकरण को व्यक्त करने वाली एक पार्टी जो सर्वहारा वर्ग की समस्त सेनाओं के सदर मुकाम की तरह बिना विचलित हुए काम करने अर्थात घटना प्रवाह के शीर्ष पर बने रह कर नेतृत्व करने में सक्षम हो।
यहीं से क्रांति के उभार की और मानवजाति के पुन: उत्थान की उम्मीदों का पुनर्जीवन शुरू होता है। ठीक यही वह चीज है जिसके बारे में मई दिवस, 2020 के अवसर पर सबसे अधिक गौर किया जाना चाहिए।
यह लेख मूलतः सर्वहारा : समसामयिक मुद्दों पर पीआरसी की सैद्धांतिक एवं राजनीतिक पाक्षिक कमेंटरी (अंक 1/ 15-30 अप्रैल ’20) में छपा था
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