यह पहला मौका नहीं है जब बेरोजगारी के मुद्दे को लेकर चारों तरफ शोर बढ़ रहा है। भारत और दुनिया के तमाम देशों में दिनों-दिन बेकारों की फौज अनवरत रूप से बढ़ती ही जा रही है। इन समस्याओं का समाधान महज़ सरकारों और कुछ नीतियों को बदलने मात्र से हो जाएगा, यह भ्रम भी टूट रहा है। प्रतिवर्ष 2 करोड़ रोजगार पैदा करने को मुख्य एजेंडा में से एक के रूप में प्रचारित कर 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार सत्ता में आई। मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया जैसी योजनाओं को चमकाकर पूंजीपतियों को सस्ते दरों पर मजदूर मुहैया कराए गए। ठेका प्रथा, हायर एंड फ़ायर, अप्रेंटिसशिप व ट्रेनी प्रथा आदि की नीतियों ने श्रमिकों के जीवन को अनिश्चितता के अंधकार में ढकेल दिया। ये मजदूर विरोधी नीतियाँ यहीं नहीं रुकीं, मोदी सरकार द्वारा 44 श्रम कानूनों को निरस्त करके 4 श्रम संहिताओं (लेबर कोड) का निर्माण किया गया। इनमें से एक, वेतन संहिता, पारित भी हो चुकी है और बाकी तीनों को सरकार कोरोना महामारी द्वारा बनाये गई परिस्थितियों का फायदा उठाते हुए अध्यादेश या सरकारी ऑर्डर ला कर पास करने पर उतारू है, जिसके तहत महामारी में पहले से ही सबसे ज्यादा मार झेलने वाले मजदूर वर्ग के बचे हुए हक़ अधिकार भी उनसे छीन लिए जायेंगे और दमन का चक्र और तेज़ हो जायेगा। जो रही-सही कसर बची थी ‘देश न बिकने दूंगा’ का नारा देने वाली मोदी सरकार ने उसे भी पूरा करते हुए स्कूल, यूनिवर्सिटी, अस्पताल, बैंक, रेल, हवाई जहाज, एयरपोर्ट, पेट्रोलियम, कोयला खदान, एल आई सी, बी एस एन एल, बी पी सी एल, एन टी पी सी आदि को निजी हाथों में बेचना शुरू किया। वहीँ पहले से मौजूद नौकरियों में छंटनी का सिलसिला तेज होने लगा, और अब 8 घंटे काम करने के नियम को भी हटाकर श्रमिकों से 12 घंटे काम करवाने की योजना बन रही है और कुछ राज्यों में लागू भी हो गई है।
मजदूर वर्ग पर लगातार किये जा रहे हमलों की सूची और लम्बी है लेकिन इसी में सरकार का उद्देश्य साफ़ हो जाता है, देश के बड़े पूंजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा मुनाफा लूटने के लिए एक व्यापक उर्वर क्षेत्र थमा दिया जाए। इन परिस्थितियों में बेरोजगारी ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। किसानों की आत्महत्याओं को पीछे छोड़ प्रतिदिन लगभग 30 की दर से मजदूर व युवा आत्महत्या कर रहे हैं। एन एस एस ओ यानी ‘राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय’ के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के 2017-18 कि रिपोर्ट के अनुसार बेरोजगारी दर 6.1% रही, जो 45 सालों में अपने चरम अवस्था पर जा पहुंची। यह आंकड़े साफ़ बताते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के गहराते संकट के कारण मजदूरों व युवाओं को बेरोज़गारी व छटनी के रूप में भारी मार का सामना करना पड़ रहा था। लेकिन कोरोना वायरस आने के बाद जो आंकड़े हमारे सामने हैं वह डराने वाले हैं।
भारत में कोरोना महामारी के पाँव पसारने के बाद यह संकट और भी भयानक हो गया है। भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र (सी एम आई ई) द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि 22 मार्च 2020 में बेरोज़गारी दर 8.7% पहुँच गया, और उसी के अगले हफ्ते, 25 मार्च को लॉकडाउन शुरू होने के बाद, 29 मार्च को यह आंकड़ा 23.8% पर पहुँच गया। इस आंकड़ें में लगातार इजाफ़ा देखने को मिल रहा है और 19 अप्रैल 2020 की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार यह आंकड़ा 26.2% पहुँच चुका है। इतनी भारी गिरावट का अर्थ है कि केवल लॉकडाउन में 14 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए। जानकारों के अनुसार अभी और बुरे दिन आने वाले हैं।
श्रम भागीदारी दर (लेबर पार्टिसिपेशन रेट), यानी कुल जनसंख्या में से रोज़गार या बेरोज़गारी में काम की तलाश कर रहे लोगों की संख्या (लेबर फ़ोर्स), में भी भारी गिरावट जारी है। जनवरी 2020 में यह दर करीब 42.96% था यानी 44.30 करोड़ लोग या तो बेरोज़गार थे या बेरोज़गारी में काम की तलाश में थे, जो घटते हुए अप्रैल 2020 में 35.4% हो गई है, यानी संख्या में 36.5 करोड़ लोग। अर्थात् इस वर्ष जनवरी से अप्रैल के बीच लेबर फोर्स या श्रमिकों की तादाद में करीब 8 करोड़ की गिरावट हुई।
गंभीर संकट के इस दौर में सबसे ज्यादा प्रभावित वो 90% कामगार आबादी और उनका परिवार है जो असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं, जो रोज कमाते-खाते हैं और जिनका एक बड़ा हिस्सा दिहाड़ी मजदूर के रूप में है, जिन्हें कोई पेड लीव नहीं मिलता, जिनके लिए कोई फिक्स छुट्टी नहीं होती, और जो बीमारी महामारी के साथ-साथ भूख और गरीबी से भी जंग लड़ रहा है। इन दिहाड़ी मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा शहरों में भवन निर्माण कार्य से जुड़े लोग हैं। सरकारों ने इस आबादी को आर्थिक सहयोग देने की बातें कही है, लेकिन आंकड़े यह भी बताते हैं कि, 82% मजदूरों के पास अपने रोजगार के प्रमाण के रूप में कोई लिखित कॉन्ट्रैक्ट नहीं होता और 94% निर्माण मजदूर पंजीकृत (रजिस्टर्ड) ही नहीं हैं, तो कितने ज़रुरतमंदों तक कोई लाभ पहुँचेगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का कहना है कि कोरोना वायरस संकट के कारण जून 2020 तक भारत में करीब 20 करोड़ फुल-टाइम नौकरियां ख़त्म हो सकती हैं और साथ ही 40 करोड़ अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूर गरीबी में फंस सकते हैं। एन एस एस ओ के आंकड़ो के आधार पर ऐसा आंकलन है कि कोरोना वायरस का संकट ख़त्म होने के बाद करीब 14 करोड़ नौकरियों पर खतरा खड़ा होगा।
विश्व पूंजीवाद का इंजन कहे जाने वाले अमेरिका की स्थिति भी गहराते आर्थिक संकट में बद से बदतर होती जा रही है। कोरोना महामारी की मार से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में अमेरिका भी एक है। वहाँ मार्च-अप्रैल 2020 में कंपनियों ने करोड़ों की संख्या में अपने कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। बेरोजगारों की संख्या भी अब पुराने सभी रिकॉर्डों को तोड़ती चली जा रही है। अमेरिका में केवल कोरोना वायरस से हुए लॉकडाउन के बाद से, यानी मार्च के तीसरे हफ्ते के बाद से अप्रैल तक में 2.6 करोड़ लोगों ने बेरोजगारी भत्ता पाने के लिए आवेदन किया है जहाँ आखरी हफ्ते में ही लगभग 70 लाख आवेदन आ गए। गौरतलब है कि कोरोना महामारी के पहले यह संख्या प्रति हफ्ते औसतन 3.5 लाख ही रहती थी। कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि असली आंकड़े इससे भी भयावह है और अमेरिका में बेरोज़गारी दर 20% पहुँच चुकी है। गौरतलब है कि 1930 की महामंदी (ग्रेट डिप्रेशन) के दौरान यह दर 25% के करीब पहुंचा था। 2008 की आर्थिक मंदी के दौर में भी अमेरिका में इतनी तेजी से बड़ी संख्या में रोजगार खत्म नहीं हुए थे। 2008 से 2010 के बीच डेढ़ साल की अवधि में बेरोजगारी भत्ते के लिये किये गये आवेदनों की संख्या 3.7 करोड़ थी, और प्रति हफ्ते यह संख्या औसतन 5 लाख के ही ऊपर-नीचे रही, जबकि आज 1 महीने की अवधि में यह संख्या ढाई करोड़ पार कर गई है और हालत और बिगड़ने की ही संभावना जताई जा रही है।
पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी के विकास में मौजूद अंतर्विरोधों के द्वारा नियमित अंतराल पर मंदी का संकट गहराता रहता है। आज भारत और दुनिया के तमाम देश इसकी चपेट में हैं। भारत की विकास दर गिरती चली जा रही है। वैश्विक ब्रोकरेज कंपनी ‘गोल्डमैन सैश’ के अनुसार चालू वित्त वर्ष में भारत का जीडीपी विकास महज़ 1.6% रहेगा (जो कि पिछले वर्ष 5% था) जो अर्थव्यवस्था को कई दशक पीछे ले जाएगा। विशेषज्ञों का मानना है कि कोरोना संकट के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था को ₹9 लाख करोड़ का नुकसान हो सकता है, जो भारत के जीडीपी के 4% के बराबर है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का अनुमान है कि विश्व अर्थव्यवस्था का विकास दर 3% नेगेटिव में होगा यानी विश्व अर्थव्यवस्था 3% सिकुड़ेगी, जिसमें अमेरिका, यूरोप व अन्य देशों को निगेटिव विकास दर देखने को मिलेगा।
पूंजीवाद जनित इस आर्थिक मंदी के दौरान कोरोना महामारी के आ जाने से संकट कई गुना गंभीर रूप ले चुका है और जैसा हर आर्थिक मंदी में होता है, इसकी सबसे बड़ी मार आम मेहनतकश जनता पर पड़ रही है। मंदी में भी पूंजीपति वर्ग का मुनाफ़ा दर बरकरार रहे इसके लिए देश की विशाल मेहनतकश आबादी को लगातार भूख, गरीबी, कुपोषण और बेकारी के दलदल में धकेला जा रहा है और कार्यरत मजदूरों को लद्दू जानवार की तरह काम करवाने की नीतियाँ बन रही हैं और लागू हो रही हैं। लेकिन क्या बेरोज़गारी की समस्या महामारी से पैदा हुई है? कोरोना महामारी के आने से बेरोज़गारों की “सेना” में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है, लेकिन बेरोज़गारी तो हमेशा से ही समाज में उपस्थित रही है और महामारी आने के पहले भी तो इसकी संख्या में वृद्धि ही आ रही थी।
दरअसल बेरोज़गारी की समस्या की जननी मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था है जिसकी सेहत के लिए बेरोजगारी का बना रहना अत्यावश्यक होता है। क्यों? हम कह सकते हैं कि कोई पूँजीपति मशीनों और अन्य साधनों की सहायता से कम श्रम के साथ पहले जितना ही उत्पादन हासिल करने की अपनी प्रवृत्ति के द्वारा हमेशा उत्पादन की लागत को कम करना चाहता है ताकि बाज़ार की लड़ाई में वह हमेशा आगे बना रह सके। इसके लिए मशीनों का उपयोग कर मजदूरों की छटनी करने और पूंजीपतियों की आपसी प्रतिस्पर्धा में कुछ कंपनियों के दिवालिया हो जाने का अवश्यंभावी परिणाम बेरोजगारी है।
इसके अलावे पूँजीपतियों को बेरोजगारों के रूप में ऐसी “एक औद्योगिक आरक्षित सेना” की अन्य कारणों से भी जरूरत होती है। जीवन-मरण की स्थिति से प्रतिदिन जूझ रही बेकारों की यह फौज पूंजीवादी उत्पादन के तीव्र विकास के लिए सस्ती मानव सामग्री के रूप में पूंजीपतियों के शोषण के काम भी आती है जो पूंजीपतियों के लिए मुनाफा पैदा करने की जिंदा मशीनें बन जाती हैं। ये बिना उचित मजदूरी के, बिना किसी सुविधा या सुरक्षा के, अपने पेट की भूख को शांत करने के लिए अपने हीं हक अधिकारों की बलि देकर 12-14 घंटे काम करने को विवश है। ऊपर से इनके रख-रखाव के लिए पूंजीपति वर्ग को एक ढेला तक खर्च नहीं करना पड़ता। हम सभी जानते हैं कि जितने अधिक लोग बेरोजगार रहेंगे, मजदूरी व वेतन का स्तर उतना ही नीचे रहेगा। बेरोजगारों की भीड़ कम से कम कीमत पर काम करने को तत्पर रहती है जिसका फायदा पूँजीपति काम पर लगे लोगों की मजदूरी को कम से कम स्तर पर बनाए रखने में उठाते हैं। उद्योगों की चढ़ती में भी वे बेरोजगारों की इस आरक्षित फौज का जमकर इस्तेमाल करते हैं। इस तरह बेरोजगारी अपने आप में पूँजीवादी विकास का एक महत्वपूर्ण उत्तोलक बन जाती है। इसलिए ज़ाहिर है, कोरोना महामारी के चले जाने के बाद भी विशाल आम मेहनतकश आबादी के जीवन की समस्याएं भी चली नहीं जायेंगी, बल्कि और बढ़ने ही वाली हैं। लॉकडाउन में ठप पड़े फैक्ट्रियों व उद्योगों से पूंजीपतियों को हो रहे नुकसान की भरपाई यह सरकार मजदूरों व आम जनता से ही करवाने वाली है जब भूख और गरीबी से लड़ रहे बेरोजगार मज़दूरों को बिना किसी हक अधिकार के 12-14 घंटे कम वेतन पर बिना सुरक्षा और कानून के लद्दू जानवर की तरह काम करवाया जाएगा। अपने गाँव लौट रहे मजदूर भी आने वाले दिनों में भुखमरी, गरीबी और बेरोज़गारी का सामना करते हुए अंततः वापस लौट कर इन्हीं परिस्थितियों में काम करने पर विवश होंगे।
इसलिए मेहनतकश जनता को यह समझ लेना चाहिए कि उसके जीवन की यह दशा की असली वजह कौन है। मुनाफे पर आधारित जिस व्यवस्था में कुछ मुट्ठीभर लोगों के हाथों में पड़ी पूंजी के विकास के लिये यह आवश्यक शर्त है कि समाज में बेकारों व मजबूरों की सेना बनी रहे, वह आखिर किसके हित में काम करेगी? क्या कुछेक नीतियों में बदलाव कर देने या सत्ता में व्यक्तियों के बदल दिये जाने से इन समस्याओं का समाधान हो जाएगा? नहीं! बेरोज़गारी व मजदूर-मेहनतकश जनता के जीवन में अन्य समस्याओं का समाधान पाने के लिए हमें मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के क्षितिज से आगे बढ़ कर देखना होगा।
यह लेख मूलतः सर्वहारा : समसामयिक मुद्दों पर पीआरसी की सैद्धांतिक एवं राजनीतिक पाक्षिक कमेंटरी (अंक 1/ 15-30 अप्रैल ’20) में छपा था
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