29 मार्च, रविवार को दुनिया भर में कोरोना से लड़ने की तैयारियों में सबसे असंवेदनशील सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘सबसे पहले मैं सभी देशवासियों से क्षमा मांगता हूं और मेरी आत्मा कहती है कि आप मुझे जरूर माफ करेंगे। क्योंकि कुछ ऐसे निर्णय लेने पड़ें हैं जिसकी वजह से आपको कई तरह की कठिनाइयां उठानी पड़ रही है, खास करके मेरे गरीब भाई बहनों को देखता हूं तो जरूर लगता है कि उनको लगता होगा कि ऐसा कैसा प्रधानमंत्री है, हमें इस मुसीबत में डाल दिया। उनसे भी मैं विशेष रूप से माफी मांगता हूँ’।
और ठीक इसके अगले दिन यूपी के बरेली जिले से एक खबर आती है, जहां प्रवासी मजदूरों के एक समूह को, जो सैकड़ों किलोमीटर अपने परिवार और सामान का बोझ उठाए पथरीली सड़क पर पैदल फटेहाल यात्रा में थे, उनको सड़क पर पशु सदृश बैठाकर दमकल की गाड़ियों से केमिकल की तेज बौछार से नहलाया गया, जिसकी वजह से कुछ लोगों को अस्पताल में भर्ती भी होना पड़ा। ऐसे में यह पूछना क्या लाजिम न होगा की सरकारों का यह दोगला रवैया क्यों है? प्रधानमंत्री के ताली, थाली और दीए जलाने के भ्रमात्मक प्रचारों से अलग इस ‘माफीनामे’ में किन मुसीबतों का जिक्र है? असल में देशभर में पक्ष विपक्ष के नेताओं ने इसके समाधान पर सोचने की तो दूर, इस स्थिति के मूल कारण पर बात करने की भी जहमत नहीं उठाई। और इनसे यह अपेक्षा भी करना निरी मूर्खता ही है, क्योंकि ये समस्त संसदीय पार्टियाँ अंततः अपने वर्ग हित से समझौता नहीं कर सकतीं।
चीन के बाद पूरे विश्व ने कोरोना एवं इसके संक्रमण का खतरा जान लिया था। कुछ देशों ने अपने स्वास्थ्य संबंधी तैयारियों पर काम भी करना शुरू कर दिया था, परंतु भारत और अमेरिका जैसे ‘महामानवों’ की सरकारें इसके प्रति निस्तब्ध व असंवेदनशील ही नहीं बनी रहीं, वरन इन्होंने तैयारियां ना करने हेतु, इस प्रश्न पर अतार्किक व असंवेदनशील बयानों की झड़ी भी लगा दी। ऐसा नहीं था कि यह कोरोना के खतरे को नहीं समझते थे, असल में पूंजीवाद के इन चहेते सेवकों ने अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के अनेक अंतिम प्रयासों के तहत जानबूझकर भ्रम फैला रहे थे।
कोरोना संक्रमण और इसके तीव्र प्रसार के लगभग ढाई महीने बाद भारत में 24 मार्च को देशव्यापी 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा हुई और यह तैयारियों के नाम पर उठाया गया इकलौता कदम था, जिसकी घोषणा महज 4 घंटे पहले की गई। जहां कई धनाढ्य वर्ग के लोगों को पहले से ही लॉकडाउन के मद्देनजर अपनी सारी जरूरी व्यवस्थाओं को दुरुस्त करने हेतु पूर्व खबर थी, वहीं सैकड़ों चार्टर्ड जहाजों से बहुत से धन्नासेठ अपने परिवार के पास भी पहुँच गये, परन्तु 130 करोड़ देशवासियों को लंबे लॉकडाउन में रहने की तैयारी हेतु महज 4 घंटे, क्या इसे जनविरोधी सरकारों की सोची समझी रणनीति न मानी जाए? सरकारें यह जानती थी कि लॉकडाउन की समुचित व्यवस्था करने हेतु उन्हें बहुसंख्यक मजदूर वर्गीय आबादी के लिए अनेक इंतजाम करने होंगे। अतः आकस्मिक व अपूर्ण तैयारियों के बावजूद यह घोषणा उन्हें नैतिक व कानूनी जिम्मेदारियों को पूरा न करने पर भी जनता के रोष से तात्कालिक तौर से बचाए रखेगा।
प्रश्न यह नहीं है कि लॉकडाउन किया जाना चाहिए था या नहीं। निस्संदेह लॉकडाउन इस महामारी से लड़ने में एक बड़ी और प्रमुख भूमिका रखता है परंतु क्या बेहद अपर्याप्त तैयारियों व इस दौरान बदलने वाली स्थिति हेतु कोई ठोस कदम न उठाने से लॉकडाउन पूर्णतः सफल हो सकता है? इसका प्रायोगिक जवाब प्रत्यक्ष है, नहीं हो सकता। हम देख रहें हैं कि अमानवीय दमनकारी तरीके से थोपने की तमाम कोशिशों के बावजूद भी, भूख, बीमारी जैसी अन्य समस्याएँ लॉकडाउन की सीमा को धता बता रही है। बैंकों में, शिविरों में, खाद्य वितरण केंद्रों इत्यादि जगहों पर भीड़ जमा हो जा रही है। 28 मार्च को दिल्ली के आनंद विहार बस टर्मिनल में हजारों की भीड़ पर चलती लाठियां, राज्यों के सीमाओं पर उमड़े जनसैलाब की कुछ तस्वीरें ही भारत के लॉकडाउन की विफलता को जगजाहिर करने को पर्याप्त है। विश्व के सबसे बड़े ‘लोकतंत्र’ की बड़ी आबादी हेतु सरकार ने कोई व्यवस्था नहीं की और इस महामारी के दौर में भी इस आबादी को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया गया। रहने व खाने की विद्रुप अनिश्चितताओं के बीच लॉकडाउन की खबर सुनते ही मजदूरों को अमीरों के शहर में जान बचाना मुश्किल समझ आया, खास तौर से उन्हें जो वहाँ किसी तरह रोज कमाते खाते थे, उन्हें अपने पूर्व के अनुभवों के आधार पर पता था कि उनके प्रति निकम्मी यह व्यवस्था उनकी कोई मदद नहीं करेगी। अतः ‘मरता क्या ना करता’ की हालत में वह किसी प्रबंध के बिना सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांव की ओर पैदल ही प्रस्थान करने को बाध्य हो गए। यहां उनके ना तो रहने की व्यवस्था थी ना ही खाने की और ऐसे में कोरोना से मौत का डर कम और भूख से मौत का डर ज्यादा प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने लगा, जिसके फलस्वरूप वे जीवन को बचाने की अंतिम जद्दोजहद में अनेक दुर्गमताओं का वरण करने को विवश हुए। एक आकंड़े के अनुसार देश के महज चंद बड़े शहरों से कम से कम 6,00,000 मजदूरों का पलायन हुआ है, 22 से भी ज्यादा मजदूरों ने भूख व इलाज न मिलने की स्थिति में रास्ते मे ही दम तोड़ दिया।
इस ऐतिहासिक अमिट कलंक के समय भी मूलतः दमन के लिए ही प्रशिक्षित पुलिस व सैन्यबलों ने सरकार के इशारों पर इन पर लाठियां चलाई, इन्हें सड़कों पर घसीटा व कई के मौतों की जिम्मेदार बनी। जब देश इनके ऐसे पलायनों की हृदयविदारक खबरों से तपने लगा तब कई राज्य सरकारें महज औपचारिकता की घड़ियाली आंसू रोते हुए इनके व्यवस्था हेतु कोरी लफ्फाजी करने को विवश हुई और कुछ बसें चलाई गई जिनमें कई दिनों से पैदल चलते, इंतेजार करते मजदूरों को घास के गट्ठरों की तरह ठूंसा गया, कई जगह किराये से भी ज्यादा धनउगाही की गई, व उन्हें अनेक तरह की शारीरिक व मानसिक यंत्रणा का भी सामना करना पड़ा।
वर्तमान में हालात यह है कि पलायन कर चुके मजदूरों को कई जगह सामुदायिक भवनों व स्कूलों में रखा गया है जहां वे एक-एक कमरे में सैकड़ों की संख्या में कैद किए गए हैं तथा इनके जांच की भी अब तक कोई व्यवस्था नहीं की गई है। ये वही मजदूर हैं जिन्होंने देश का निर्माण किया, शहरों के चमचमाती इमारतों की नीव डाली, परिवार से दूर अपना सबकुछ छोड़ कर शरीर को तोड़ देने वाली परिस्थितियों में श्रम किया लेकिन जब वे सैकड़ों किलोमीटर दूर पैदल चलकर गृहराज्यों की सीमाओं पर पहुँचे तो इनके नसीब में सील किये जा चुके बॉर्डर ही मिले और क्वारंटाइन करने के नाम पर इन्हें मवेशियों की तरह ‘राहत शिविरों’ में ठूंस दिया गया जहाँ इनके खाने-पीने की न्यूनतम व्यवस्था तक नहीं थी और रहने को ऐसी अमानवीय परिस्थितियां जहाँ संक्रमण का खतरा कई गुना बढ़ गया। ऐसे में क्या इनकी पीड़ा का अंदाजा लगाया जा सकता है? शायद नहीं। अभी भी पलायन पूर्णतः थमा नहीं है, न जाने कितने मजदूर सीमाओं पर और रास्तों में फंसे हुए हैं जिन्हें सरकार और उनके इशारों पर चलने वाली मीडिया दृश्यपटल से ओझल करने पर तुली हुई है। रक्सौल, बिहार व नेपाल की सीमा पर अपने घरों को लौट रहे मजदूरों के एक जत्थे को जब रोक दिया गया तो उनमें से एक शख्स कैमरे के सामने यह बोलता है कि ‘साहब जितना मारना है मार लीजिए, पर घर जाने दीजिए’ और इस पर भी वहां के अफ़सरान हंसते हुए दिखते हैं। क्या हमारी सामाजिक संरचना इतनी निम्न स्तर की हो चली है जहां भूख लाचारी व संक्रमण से डरे लोगों पर मंत्रियों का यह बयान आता है की ‘घर से निकले तो इन्हें गोली मार दो’? इस व्यवस्था में तो ऐसे संकट काल का फायदा उठा कर मजदूर वर्ग द्वारा लड़ कर हासिल किये गए अधिकारों को भी उनसे छीनने की क़वायद चल रही है। पंजाब, राजथान, गुजरात और हिमाचल प्रदेश ने मजदूरों के लिए 8 घंटे के कार्य दिवस को बढ़ा कर 12 घंटे करने का फैसला ले लिया है। साथ ही साथ मजदूरों की श्रम शक्ति को पूरी तरह निचोड़ने की मंशा रखने वाली सरकार के श्रम सचिव ने अपने बयान में यह साफ़ कर दिया है कि सरकार आने वाले दिनों में संविधान में मौजूद 44 श्रम कानूनों को हटा कर 4 श्रम संहिता लागू करके रहेगी।
ऐसे में फ़ासीवाद के इस विस्तारकाल में लोकतंत्र की सबसे अहम प्रहरी के रूप में विद्यमान न्यायपालिका से भी न्याय की कितनी आशा की जा सकती है, इस प्रश्न का आकार आज कई गुना बढ़ गया है। वैसे तो पूंजीवाद में न्याय मजदूर वर्ग के लिए बहुधा आभासी ही बना रहता है, परन्तु अब यह स्थिति और भी बदतर हो चली है। पूर्व में मारुति मजदूरों के शोषण व दमन के मामले पर मजदूर विरोधी फैसला या अन्य ऐसे कई मामलों पर न्यायालय का स्पष्टतः वर्गीय चरित्र प्रकट होता रहा है। हाल ही में 7 अप्रैल को प्रवासी मजदूरों के अस्तित्व संकट की परिस्थिति पर सुनवाई के दौरान न्यायिक खंडपीठ ने यह बयान दे कर, कि वे स्वास्थ्य अथवा प्रबंधक विशेषज्ञ नहीं है और मजदूरों की बदहाली पर कुछ कर नहीं सकती, सरकार के प्रति अपनी निष्ठा का पर्याप्त प्रमाण दे दिया। वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की फंसे हुए मजदूरों की स्थिति पर डाली गयी याचिका पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने यह पूछ डाला कि जब मजदूरों को खाना दिया ही जा रहा है तो उन्हें आर्थिक मदद की क्या ज़रूरत है? ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय की संवेदनशीलता और जनपक्षधारिता पर स्पष्ट प्रश्नचिह्न लगना लाज़मी है।
दरअसल वस्तुस्थिति यह है कि पूँजीवाद अपने कालक्रम के सबसे बुरे दौर में 2008 से ही फंसा हुआ है, जहाँ यह मरणासन्न प्रतीत होता है, क्योंकि इसके स्वनिर्मित दमघोंटू वैश्विक आर्थिक संकट लगभग स्थाई तौर से इसके अंतर्निहित मुनाफे की अतिमांग को तो खारिज कर ही रहा है बल्कि स्थिति ऐसी है कि यह अपने इस अस्तित्व को बचाये रखने में भी पूर्णतः समर्थ नहीं हो पा रहा है। ऐसे में भारत जैसा देश अपने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर इसे फासीवाद रूपी अंतिम प्राणवायु से संभाले रहने के प्रयासों में लगा हुआ है। विगत कुछ वर्षों से भारत में सत्तासीन फ़ासिस्ट पार्टी अपने समस्त तंत्रों व निकायों को अतिप्रतिक्रियावादी, जनविरोधी व अमानवीय कृत्यों को बर्बरता से अंजाम देने हेतु तैयार कर चुकी है और अनवरत हमले भी कर रही है। पहले से ही पूंजी के जुए के नीचे कुचले जा रहे श्रमिक वर्ग पर फासीवाद लगातार अपने खुले व क्रूर हमले कर रहा था। सांप्रदायिकता और अंधराष्ट्रवाद के वास्तविक सतही कारनामों के छाये में उसने अनेक नागरिकमात्र अधिकारों को भी छीन लिया है या उसके हनन की पूर्ण तैयारी कर ली है। मोदी शासनकाल में जहाँ एक तरफ प्रस्तावित व पारित किए गए बदलाव व नए कानून जैसे- नई श्रम संहिता, नागरिकता संशोधन अधिनियम, यू.ए.पी.ए. में संशोधन, नए आरटीआई संबंधी बदलाव, धारा 370 पर हमला व नए आर्थिक लूट के लिए लाए गए बैंकों व निजी कंपनियों संबंधी कानूनों ने इसकी फासिस्ट मंशा जगजाहिर कर दी, तो वहीं दूसरी तरफ निजीकरण की आग में देश की करोड़ों जनता का जीवन व उनके भविष्य को सूली पर चढ़ा देने के बदले अपने पूंजीपति आकाओं की सेवा की उनकी प्रतिबद्धता ने उनके ‘देशप्रेम’ की साफ परिभाषा भी दिखा दी है। ऐसे में कोरोना महामारी जैसी आपदा को झेलना क्या इस पूंजीवादी व्यवस्था में संभव है जहाँ सारी सम्पदा मुट्ठीभर पूंजीपतियों के हाथ में सौंप दी गयी है?
भारत के मजदूर वर्ग का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्रों में काम करता है जिसकी बड़ी आबादी दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करती है। सीएसडीएस की रिपोर्ट के अनुसार यहाँ बड़े शहरों में 29% दिहाड़ी मजदूर हैं, जबकि उपनगरों में यह आंकड़ा 36% का है, वही गांव में दिहाड़ी मजदूरों की संख्या 45% है, जिसमें मुख्यतः खेतिहर मजदूर हैं। राजधानी दिल्ली में यह संख्या 27% है अर्थात दो करोड़ आबादी वाली चमकती दिल्ली में 50 लाख से ज्यादा दिहाड़ी मजदूर हैं। इनकी प्रतिदिन की आय इतनी भी नहीं है की ये इन शहरों में रहकर भूख, शिक्षा, घर व स्वास्थ्य की बुनियादी समस्याओं से भी पार पा सकें। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 70% आबादी गाँवों में जीवन बसर करती है और एक बड़ी आबादी बेघर है। क्या जब कोरोना से लड़ने हेतु सरकार मात्र लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग का राग अलाप रही हो तब उनके सामने ये आंकड़े चीखकर उनकी बेईमानी का सबूत नहीं दे रहे? ऐसे में सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता नलिन कोहली का यह आधिकारिक बयान की ‘महज कुछ लाख लोगों को दिक्कत हो रही है’, सरकार की संवेदना और घड़ियाली आँसुओं का वास्तविक सत्य दर्शाता है। इस मुनाफाखोर भूखी व्यवस्था के प्रति उनकी वफादारी और जनता के लिए हीन भावना का खुलेआम प्रदर्शन सरकार के अन्य कई मंत्रियों द्वारा भी किया गया है। प्रधानमंत्री व सरकारों के कई झूठे आश्वासनों व प्रशासन के बर्बर सलूक के बावजूद हाल में कई जगह मजदूरों ने अपना खुला विद्रोह दर्ज किया है। 11 अप्रैल को सूरत व बैंगलौर जैसे शहरों में मजदूरों ने सैकड़ो की संख्या में जीवन रक्षा हेतु समुचित सुविधा और घर जाने की व्यवस्था की मांग के साथ सड़कों पर निकल कर प्रदर्शन किया। लाठियों से मार खाने के बावजूद पेट की भूख ने उन्हें संघर्ष करने पर बाध्य कर दिया और कई जगह उग्र प्रदर्शन भी हुए। अभी सरकार इस मामले को ठंडा भी न कर पाई थी कि फिर 14 अप्रैल को देश भर के कई प्रमुख शहरों में हजारों मजदूरों का व्यवस्था के खिलाफ खुला गुस्सा फूट पड़ा। बांद्रा, अहमदाबाद, हैदराबाद, सूरत जैसे तमाम जगहों से भारी संख्या में मजदूरों द्वारा सरकारी आदेश के खिलाफ विद्रोह की खबरे सामने आईं। यह सभी प्रदर्शन स्वतः स्फूर्त तरीके से हुए, परन्तु इनमें दिखने वाले सांकेतिक लक्षण बड़े विद्रोह की बानगी दिखाते हैं। इन विरोध प्रदर्शनों की गतिकी और परिस्थितिजन्य बाध्यता देखने पर यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि जल्द ही पूरे देश के स्तर पर गरीब व मेहनतकश आबादी बड़े आंदोलन को अंजाम देगी।
वैश्विक वित्तीय पूंजी के खेल में आगे बढ़ते भारत के प्रत्येक हिस्से में मजदूरों का जीवन नारकीय ही बना हुआ है। ऐसे में कोरोना से उत्पन्न संकट व फासीवाद की मार झेल रहे मजदूरों का जीवन सबसे दुष्कर दिनों में आ पहुंचा है। देश को चलायमान रखने वाले व विकास हेतु एकमात्र श्रम व उसके स्रोतरूपी मजदूर वर्ग अपना सब कुछ न्यौछावर करके भी उपेक्षा व अमानवीय घृणा का शिकार बना रहता है, तभी तो कोरोना के महासंकट के बावजूद भी मजदूर वर्ग को बचाने की तैयारी दोयम दर्जे पर भी नहीं है, और ना ही भविष्य में पूंजीवाद के रहते इस महाआबादी के जीवन मूल्य हेतु कोई आशा की किरण दिखाई देती है।
भारत में लॉकडाउन के 4 हफ्ते पूरे हो चुके हैं और सरकार ने थाली, दीये और सांप्रदायिकता के धुन पर जनता को बरगलाने के प्रयासों को तेज कर दिया है, हालाँकि कहीं भी स्वास्थ्य सेवाओं की जितनी जरूरत है उसका 10वां हिस्सा भी पूरा नहीं हुआ है। स्वास्थ्य कर्मियों को अहम व अपरिहार्य चिकित्सकीय सामग्री मांगने पर सरकारी धमकी व दमन का सामना करना पड़ रहा है व अल्पसुविधाओं के नाम पर भी निजी पूंजी को ही मुनाफा दिया जा रहा है। अब भी करोड़ों जनता का जीवन हाशिए पर है। सामूहिक आकस्मिक संक्रमण की संभावनाएं बढ़ रही हैं। ऐसे में जनता के लिए सरकार द्वारा न रहने-खाने की सुविधा की गई है, ना ही महामारी से उनको बचाने की कोई मंशा ही दिखाई दे रही है। केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा घोषित सहायता पैकेज अपनी अपर्याप्तता में जनता का मजाक ही उड़ाते दिखते हैं। कई जगहों पर तो यह महज मौखिक आश्वासन बन कर रह गये हैं और बाकी जगहों पर दिए जाने वाला राशन जानवरों के खाने लायक भी नहीं है। अधिकांश जगहों पर कोई भी अतिरिक्त राशन मुहैया नहीं हुई है और न ही करोड़ों की आबादी में से चंद लाख लोगों को छोड़कर किसी को सहायता राशि मिली है। सरकार के रुख और तैयारियों का मूल्यांकन किया जाए तो एक ही निष्कर्ष निकलता है कि सरकार कुछ लाख जनता की मृत्यु कि प्रबल आशंका से भी विचलित नहीं है।
वर्तमान में प्रतिक्षण और खराब होते हालात से साफ दिख रहा है कि भारत इस महामारी की चपेट में कसता चला जा रहा है। देश की व्यवस्था वायरस संक्रमण के इस फैलाव को रोकने में पूरी तरह असमर्थ नजर आ रही है। स्वास्थ्य सेवाओं के अंधाधुंध निजीकरण और बचे हुए खस्ताहाल सरकारी उपक्रमों पर निर्भर होकर भारत इस महामारी से तभी लड़ पायेगा जब कोई अभूतपूर्व चमत्कार हो जाये। बहरहाल यह तो स्पष्ट है कि यह अवधी थोड़ी लंबी होने जा रही है, ऐसे में देश में हाहाकार की स्थिति हो जा सकती है। नए परिदृश्य में मध्यम वर्ग भी खासे नए परेशानियों का सामना करने जा रहा है। पहले से ही बेरोजगारी और दैनिक दुर्दिनों के दंश को झेलता यह वर्ग अब बेहाल हो उठा है। महामारी के दौरान 12 करोड़ नौकरियाँ जा चुकी है और आगे आर्थिक संकट का गहराना अवश्यम्भावी रुप में तय है। नए रोजगार सृजन की कल्पना तो अब लेशमात्र भी न रही बल्कि और घनघोर अंधकारमय भविष्य हमारा इंतेजार कर रहा है। थाली और दिया हेतु प्रचार करने वाली जनता भी अब दुखों से शिथिल होती जा रही है और उसका अंतर्मन जान चुका है कि अब देश को तथाकथित ‘महामानव’ भी बचाने में असक्षम है। वहीं देश का मजदूर वर्ग भी समझ चुका है कि उसपर पड़ने वाली मार कोरोना कहर के बाद और तेज हो जाएगी। पूंजी को घाटे से उबारने के लिए उनकी आय कम की जा चुकी है, काम के घंटे बढ़ा दिए गये हैं और उन्हें पूर्व से भी बद्तर जीवन दिनचर्या में धकेल दिया जाने वाला है। जहाँ बीमारी से मौतों के बीच भी उन्हें इस सरीखे का जीवन मिले तो फिर भविष्य इससे भी बुरा होने वाला है। मानव जीवन के आलोक में देश की जनता के सामने कई प्रश्न खड़े हो गए हैं जिनको अब हल किये बिना भविष्य के घने अंधेरे में एक भी प्रकाश की किरण नहीं दिखाई दे रही। जैसे क्या कोई पूंजीवादी सरकार अपने जनता के जीवन के प्रति सही मायने में उत्तरदायी है? क्या जीवन रक्षा में भी सरकारें महज धनी वर्ग के लिए जिम्मेदार है? क्या समस्त धर्म अपने आडम्बरसह आज निरर्थक साबित नहीं हो रहे? क्या ये धार्मिक किलें एवं इनकी अनगिनत संपदा भी महामारी के इस दौर में जनता को किसी भी तरह सुरक्षित कर रही है? क्या सरकारें इतनी मौतों से सबक लेकर भी स्वास्थ्य, शिक्षा, व जीवन के बुनियादी आवश्यकताओं हेतु इनके पूर्ण उन्नत सरकारीकरण करने को तैयार हैं? जवाब यही है कि कोई भी सरकार इसी व्यवस्था के अंतर्गत पूँजी की दास होती है और वह पूंजीपति वर्ग हित मात्र के लिए ही अस्तित्व में है।
प्रश्न है कि अभी उचित तौर पर क्या होना चाहिए? अभी यथाशीघ्र सरकारें किसी भी हालत में देश के समस्त गरीब व मेहनतकश आबादी को इस संक्रमण से बचाने हेतु उचित व्यवस्था की प्रतिपूर्ति करे, मसलन समाज के अंतिम मानव इकाई तक खाने, संक्रमण से बचाव के मद्देनजर उनके जीने व रहने का निशुल्क इंतेजाम, व अधिकतम परीक्षण का प्रबन्ध करे। सरकारें देश के तमाम बड़े पूंजीपतियों, धन्नासेठों, मठों और अत्यंत अमीर सरकारी मुलाजिमों व राजनेताओं, जिन्होंने कोरोना काल और उसके पहले दशकों तक आम जनमानस के श्रम की लूट से अपनी तिजोरियां भरी हैं, से कानूनी तौर पर देश की रक्षा के लिए इनकी अकूत संपत्ति के समर्पण को कहे अन्यथा इनकी संपत्ति जब्त की जाए और उनका सामाजीकरण किया जाये। ज़रूर यह सतह पर एक कठोर कदम प्रतीत हो सकता है, किन्तु जब लाखों करोड़ों बेकसूर लोगों की जान बचाने का यही एक मात्र उपाय हो तो यह कीमत कम ही है। ये महज कोई एक प्राकृतिक हादसा नहीं है जिसने हमें इस निर्णायक स्थिति में डाल दिया कि अब मानव समाज की अगली दिशा क्या होगी। बावजूद इसके की कई उदारवादी अब भी पूंजीवाद के इन क्रूर सीमाओं को न्यायसंगत मानते हुए सिर्फ दयाभाव की प्रधानता से समय पार कर लेना चाहते हैं परन्तु निसंदेह कोरोना संकट ने यह खुले तौर पर ज़ाहिर कर दिया है कि पूंजीवाद अपने रहते हुए हमेशा ऐसी महामारियों की संभावना बढ़ाएगा और सर्वथा मुनाफे हेतु विश्व मेहनतकश आबादी की बलि चढ़ाने वाली पूंजी के ये निरंकुश शासक इससे उबरने के लिए गुणोत्तर रूप में अपने अमानवीय कृत्यों को अंजाम देते रहेंगे। अतः मानव सभ्यता के बचे रहने की यह एकमात्र शर्त बन गया है कि मजदूर वर्ग अपने ऐतिहासिक दायित्व को पूरा करते हुए मुनाफ़े और निजी पूंजी पर टिकी इस व्यवस्था से मानवता को मुक्त करें।
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