मोदी का ‘आत्मनिर्भर’ भारत नहीं, मजदूर वर्ग का समाजवादी आत्मनिर्भर भारत
12 मई 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 20 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की, जिसके जरिए कुटीर उद्योग, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग, मजदूर, प्रवासी मजदूर, किसान, मध्यम वर्ग और बड़े उद्योगों तक आपदा राहत या फायदा पहुंचाने की बात की गई। ज्ञातव्य है कि इस 20 लाख करोड़ में वो राशि भी शामिल है जिसे कोरोना संकट काल के पहले ही घोषित किया जा चुका है। ‘गोदी’ मीडिया इस पैकेज के आधार पर भारत को विश्व विजेता घोषित करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है, लेकिन इस भव्य और उदार प्रतीत होने वाले आर्थिक पैकेज का परत-दर-परत विश्लेष्ण करने के बाद एक बिल्कुल ही दूसरी छवि सामने आती है।
वैसे यह बताते चलें कि जब ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं ठीक उसी समय हमारे मोदी जी की आशाओं के विपरीत विदेशी निवेशक भारत से 16 बिलियन डॉलर निकाल चुके हैं। 20 लाख करोड़ के पैकेज को पांच दिनों तक मीडिया पर तरह-तरह से परोसने के ठीक बाद ही, यानी, आज से दो दिनों पूर्व शेयर बाजार 1000 अंक का गोता लगा चुका था। एमएसएमई कंपनियों व उद्योगों की तरफ से यह साफ-साफ कहा जा चुका है कि हमें लोन नहीं प्रत्यक्ष आर्थिक मदद चाहिए। वे अपना बिजनेस बढ़ाना नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें पता है खरीदार नहीं हैं। इसीलिए वे सीधे-सीधे प्रत्यक्ष करों में प्रत्यक्ष छूट, जीएसटी में छूट, बिजली बिल में छूट, कामगारों व कर्मचारियों की सैलरी देने में छूट, यानी, डायरेक्ट कैश ट्रांसफर आदि की बात कर रहे हैं। यह भी याद रहे कि 6.3 करोड़ एमएसएमई में से मात्र 45 लाख इकाइयों (इसमें भी उनको जो स्टैंडर्ड एकाउंट वाले हैं, यानी, जिन्होंने एनपीए नहीं किया है) को 3 लाख 70 हजार करोड़ रूपये की गारंटीशुदा लोन सुविधा दी गई है। बाकी के 5 करोड़ से भी अधिक इकाइयों का क्या हाल होगा यह भी स्पष्ट है। साफ है, जो अपेक्षाक़त बड़े और सक्षम हैं, वही इस सुविधा को लेंगे, हालांकि वे भी कह रहे हैं कि ‘ठीक है कि गारंटी है, लेकिन कोई फ्रेश लोन क्यों लेगा जबकि मांग और लेबर दोनों नदारद हैं।’ और मांग आज ही गिरी है, ऐसी बात नहीं है। कोविद-19 के बहुत पहले से मांग घटी हुई है और फ्रेश निवेश भारी संकट झेल रहा था। स्टार्ट अप कंपनियां जरूर विकास कर रही थीं, लेकिन गिरते दर से कर कर रही थीं। आज इनके 92 फीसदी को भारी रेवेन्यू (राजस्व) क्षति सहनी पड़ी है। इनके कुल में से 62 फीसदी को 40 प्रतिशत से अधिक और 34 फीसदी को 80 प्रतिशत से भी अधिक की रेवेन्यू क्षति हुई है। 70 फीसदी के पास मात्र शून्य से लेकर तीन महीने तक का, 22 फीसदी के पास 3 से 6 महीने तक का और मात्र 8 फीसदी के पास 9 महीने तक का फंड या कैश रिजर्व बचा हुआ है। आज जब कि संकट और गहरा हो चुका है, तथा किसी तरह की त्वरित रिकवरी की कहीं कोई संभावना नहीं दिख रही है, इनका भविष्य क्या होगा, हम समझ सकते हैं। जाहिर है, बेरोजगारों की एक विशाल सेना का हमारा देश सामना करने वाला है। बैंकों की हालत देखी जाए, तो सरकारी बैंकों को तो सरकार जबर्दस्ती लोन देने के लिए हांक सकती है, लेकिन निजी बैंक तो किसी भी तरह से लोन देने के लिए तैयार नहीं है। सारे बैंकों को अपनी मूल पूंजी के डूबने का खतरा सता रहा है। समग्रता में, भारतीय अर्थव्यवस्था दूसरी तिमाही के दौरान (अप्रैल से जून के तीन महीनों में) 45 प्रतिशत का गोता लगा सकती है, ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है और जारी वित्तीय वर्ष के जीडीपी में भी 5 से 7 प्रतिशत की गिरावट की संभावना है। यानी, ग्रोथ रेट निगेटिव होने वाली है। यही हाल दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाओं की भी है। कल की खबर है, दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था जापान 2020 के शुरूआती महीनों में 3.4 प्रतिशत का गोता लगा कर मंदी में चली गई। जर्मनी और फ्रांस पहले ही मंदी में जा चुके हैं। दूसरी अर्थव्यवस्थायें भी जल्द ही इनके पीछे-पीछे जाने को तैयार बैठी हैं। आंकड़ों के इतर जमीनी स्तर पर संकट ने महाबर्बादी और मानवता के कत्लेआम की स्थिति पैदा कर दी है।
पहले इसमें मौजदू कुछ टेक्निकल झांसापट्टी पर गौर करें। जैसे, इस 20 लाख करोड़ के पैकेज में कई पुराने वायदों को ही दोहरा कर तालियां बटोरने की कोशिश की गयी है। गरीबी और अपनी जिन्दगी की जद्दोजहद से जूझती व राजनीतिक चेतना के अभाव से ग्रसित जनसाधारण की अज्ञानता की स्थिति का फायदा उठाते हुए पुराने बजट में किये गए वायदों को ही नई योजनाओं की शक्ल में पेश कर दिया गया है, जिससे लगे कि कोविद महामारी में संकट से बचाने के लिए सरकार काफी तत्पर है। उदाहरण के लिए, पीएम-किसान (प्रधानमंत्री-किसान सम्मान निधि) योजना के तहत पहले से ही इसके सभी लाभार्थियों को ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ योजना में शामिल करने की घोषणा फरवरी 2020 के बजट में ही कर दी गयी थी, जिसके लिए इस पैकेज में नए सिरे से 2 लाख करोड़ की राशि घोषित की गयी है। इसके अलावा ‘एक राष्ट्र, एक राशनकार्ड’ की योजना भी नई नहीं है, बल्कि जनवरी 2020 में ही खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री रामविलास पासवान ने 30 जून 2020 तक यह योजना पूरे देश में लागू करने की घोषणा कर दी थी। अब उल्टे, सरकार ने इस पुरानी योजना को नई तरह पेश करते हुए अपने लिए इसकी पूर्ति की समय सीमा बढ़ा कर मार्च 2021 कर दी है। इसी तरह, कई ऐसी ही दूसरी पुरानी योजनाओं को नई चादर ओढ़ा कर पेश करने की कोशिश इस ‘आत्मनिर्भर भारत’ के आर्थिक पैकेज में की गयी है।
वित्तमंत्री ने दूसरे दिन की घोषणा में उन 8 करोड़ प्रवासी मजदूरों को मुफ्त राशन देने की बात कही, जो एनएफएसए (नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट) या किसी अन्य व राज्य परियोजना के तहत नहीं आते। पिछले 50 दिनों तक सरकार की लापरवाही और उपेक्षा के शिकार इन 8 करोड़ लोगों का जीवन किन परिस्थितियों से गुजर रहा होगा, यह सरकार की कल्पना से परे दिखता है। अर्थशास्त्री जॉन द्रेज और रीतिका खेरा के अनुसार कम से कम 10 करोड़ लोग ऐसे हैं जो मार्च, 2020 को घोषित मुफ्त राशन वितरण की सरकारी योजना से बाहर हैं, क्योंकि यह योजना 2011 की जनगणना के आधार पर बनाई गयी थी। अर्थात अभी भी कम से कम 2 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें बिना किसी सरकारी मदद के छोड़ दिया गया है। साथ ही, येल विश्वविद्यालय द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार कम से कम 17.6 करोड़ गरीब महिलाओं के पास प्रधानमंत्री जन धन योजना खाता, जिसमें आर्थिक सहयोग के 500 रुपये जाने हैं, नहीं है। 26 मार्च, 2020 को घोषित योजना में लॉकडाउन का कहर झेलती जनता को 3 महीनों के लिए मासिक 5 किलो चावल/गेंहू, 1 किलो दाल और जनधन खाताधारक महिलाओं को 500 रूपए दिए जाने का प्रावधान बनाया गया था। यहां गौर करने वाली पहली बात ये है कि यह योजना न केवल अन्य करोड़ों (उपरोक्त आंकड़ों के अनुसार) गरीब मेहनतकश जनता को मौजूदा जानलेवा और विषम परिस्थितियों में अकेला और असहाय छोड़ देती है, बल्कि, जिन तक पहुंचती है उनके लिए भी बुरी तरह अपर्याप्त साबित हुई है। दूसरा, यह योजना 3 महीने, अर्थात जून 2020 तक के लिए ही घोषित की गयी है। इस अवधि के समाप्त होते ही लगभग 80 करोड़ गरीब ‘लाभार्थी’, जिनको मौजूदा लॉकडाउन ने भुखमरी और कंगाली की स्थिति में पहुंचा दिया है, का क्या होगा, इस प्रश्न पर सरकार की चुप्पी बेशर्मी और बेरहमी की सारी हदें तोड़ देती है। अर्थशास्त्री जयति घोष, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता हर्ष मंदर द्वारा पेश आंकड़ों की बात करें, तो अगर सरकार 80% आबादी के अनुसार सभी परिवारों को तीन महीने के लिए मासिक 7,000 रूपये और छः महीने के लिए प्रति व्यक्ति मासिक 10 किलो मुफ्त राशन देती है, तो इसकी कीमत लगभग जीडीपी के मात्र 3% के बराबर होगी। इन परिस्थितियों में जब कोरोना महामारी और लॉक डाउन के कारण कई गुना बढ़ चुके आर्थिक संकट और बेरोजगारी से समाज गुजर रहा है, तब एनएफएसए के मानदंडो से बाहर के भी कई परिवार, जो कल तक सुविधा संपन्न थे या गरीब और कंगाल नहीं थे, वे भी आज दाने-दाने को मोहताज हो गये हैं। ऐसे में उन सारे लोगों तक मदद पहुंचाना इस सरकार की जिम्मेवारी है जिससे वह पूरी तरह भाग रही है। पर्याप्त संसाधनों के मौजूद होने के बावजूद सरकार इस जिम्मेवारी को पूरा करने में बुरी तरह असफल रही है।
पीयूसीएल (पिपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) के द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी रिट याचिका से यह पता चलता है कि जून 2019 में खाद्यान भंडार में 8 करोड़ टन अनाज था, जो बफर स्टॉक मानदंडो के तीन गुना से भी अधिक है। इस साल मार्च तक 7.7 करोड़ टन अनाज हमारे पास मौजूद था। इन सभी आंकड़ों के सामने आते ही इस संवेदनहीन और हत्यारी सरकार का चरित्र जगजाहिर हो जाता है। गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं है, अनाज सड़ रहे हैं, लेकिन फिर भी क्यों लोग सड़कों पर कुपोषण और भुखमरी से बेमौत मरने को विवश हैं, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इस अनाज को मुफ्त में बाटने से खाद्य उद्योग में लगे पूंजीपतियों और गोदामों के मालिकों का मुनाफा, जो कि पहले से ही गिरता जा रहा है, और भी ज्यादा गिर जायेगा और बाजार में उनके शेयर के दाम कम हो जायेंगे। पूंजीवादी व्यवस्था में केवल इसी वजह से करोड़ों जनता को उनके द्वारा ही पैदा किये गये अनाज के अभाव में रखा जाता है और रखा जा रहा है।
पहले से ही लचर और संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था में लगभग दो महीने का लॉकडाउन झेल रही आवाम अपने जीवन में ऐतिहासिक विध्वंस का सामना कर रही है। जहां, इसकी सबसे बड़ी मार मजदूर-मेहनतकश वर्ग पर पड़ी है, वहीं छोटे दुकानदारों, व्यापारियों, रेहड़ी-पटरी वालों और यहां तक की मध्यम वर्ग के भी एक तबके पर इसकी मार पड़ी है और वे गरीबी और भुखमरी की कगार पर धकेल दिये गये हैं। सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार 34% परिवारों में मात्र अगले एक हफ्ते भर तक के लिए जीवन जीने के संसाधन शेष हैं और लगभग 84% परिवारों की मासिक आय में गिरावट आई है। ऐसे में आय के स्रोत खो चुकी और बुरे वक्त के लिए बचाई हुई जमा पूंजी पर आश्रित जनता को इस आर्थिक पैकेज में राहत की जगह केवल नीतियों में फेरबदल ही मिल पाए हैं। भूखी अवाम को कर्ज लेने को कहा जा रहा है। एक फूटी कौड़ी भी किसी आम आदमी के तबके को नहीं मिला है। दरअसल संकटग्रस्ता में फंसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में इसके लिए अब गुंजायश ही नहीं बची है। पूंजीवाद कभी नहीं खत्म होने वाले दुष्चक्र व संकट में कुछ इस बुरी तरह फंस चुका है कि इसके खात्में में ही मानवजाति का कल्याण है। पैकेज में घोषित इन सुधारों व उपायों से इनकी मौजूदा हालत में कोई सकारात्मक परिवर्तन आने की उम्मीद तो नहीं ही है, उलटे ये नीतियां इनके भविष्य को भी अनिश्चित्ताओं और अभावग्रस्तता से भर देने वाली प्रतीत हो रही है। मतलब साफ है, अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर मांग बढ़ाने की शक्ति शेष हो चुकी है। किसी सुधारवादी नीति से अब कुछ होने वाला नहीं है।
इस 20 लाख करोड़ के पैकेज में पीएम-किसान (प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि) योजना के लाभार्थियों को ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ योजना के तहत कर्ज मुहैया कराये जाने की घोषणा की गयी है। गौर करने वाली बात यह है कि जहां ग्रामीण क्षेत्रों में, केवल 54% परिवारों के पास ही एक हफ्ते से अधिक समय के लिए संसाधन बचे हैं और शहरों से लौटे प्रवासी मजदूरों और लॉकडाउन के कारण बेरोजगारी की मार झेल रहे निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों की भूख से मौत की सैकड़ों खबरें आ चुकी हैं, वहां ऐसे में क्या केवल कर्ज मुहैया करा देने से, जिसके लिए भी पहले उन्हें किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने की प्रक्रिया से गुजरना होगा, उनकी तात्कालिक जरूरतों की पूर्ति हो जाएगी? क्या पहले से ही कर्ज में डूबे ग्रामीण किसानों और खेतिहर मजदूरों को और कर्ज मुहैया कराने की घोषणा उनकी मौजूदा दर्दनाक स्थिति का मजाक बनाना नहीं है? द ट्रिब्यून में छपे लेख में पंजाब के किसानों और खेतिहर मजदूरों की स्थिति को बताते हुए कृषि अर्थशास्त्री केसर सिंह भंगू कहते है कि, “अभी उन्हें नकद राशि की जरूरत है। किसान कर्ज-माफी या कम से कम सूद-माफी की हम उम्मीद कर रहे थे।” अखिल भारतीय किसान महासंघ के प्रेम सिंह भंगू का मानना है कि ‘एक राष्ट्र, एक बाजार’ योजना से केवल व्यापारियों और कॉरपोरेट जगत को फायदा होगा। वे कहते हैं कि, “हमें डर है कि इस योजना की आड़ में सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य और पैदावार की सरकारी खरीद खत्म करना चाहती है। यह किसानों के हित में कतई नहीं है।” हालांकि न्यूनतम समर्थन मूल्य आम किसानों के हित में कितना है यह बहस और विवाद का विषय है। दरअसल ऐसे आर्थिक विशेषज्ञ यह नहीं बताते या जानबूझ कर नहीं बताना चाहते कि अर्थव्यवस्था का यह संकट मौजूदा स्थापित क्षमता के कम उपयोग की वजह से है अर्थात मांग में उठान की प्रवृत्ति नहीं होने की वजह से है और भविष्य में भी इसके ऊपर उठने की संभावना कम से कमतर हो चुकी है। इसलिए व्यवस्था के नियंत्रकों और नियंताओं के अंदर एक गहरी निराशा का भाव है। कोविद-19 ने उनकी रही-सही उम्मीद खत्म कर दी है।
सरकार द्वारा पर्याप्त तैयारी और उचित योजना के बिना किये गए दो महीने के लॉकडाउन की आग मध्यम वर्ग तक पहुंच चुकी है। अप्रैल 2020 को भारत की बेरोजगारी दर 23.52% थी। लॉकडाउन में कई महीनों के बकाया वेतन के बोझ तले जीने को मजबूर मध्यम वर्ग को एक बड़ा झटका तब लगा जब खासकर बड़े पूंजीपतियों की चहेती मोदी सरकार ने लॉक डाउन के दौरान उद्योगों द्वारा कर्मचारियों का वेतन नहीं काटे जाने का निर्देश भी वापस ले लिया। आय के स्त्रोत बंद हो जाने के कारण गुलछर्रे उड़ाने वाले नहीं, अत्यंत संतुलित तरीके से जीवन जीने वाले मध्यम वर्ग के जीवन में भी भूचाल आ गया है। यह साफ है कि बुरे दिनों के लिए बचा कर रखी गयी जमा पूंजी भी बहुत दिन तक नहीं चलने वाली। आखिर वे खुद तो कोई संपत्ति पैदा करते नहीं हैं। उनकी कमाई तो उद्योगों में मजदूर के श्रम से निर्मित मुनाफे से आती है। जब उद्योग ही बंद हैं, तो उनकी कमाई कैसे आयेगी? पूंजीपति तो अपनी जमा पूंजी से इनको राहत देने वाले नहीं हैं। ऐसे में उनके नुकसान की भरपाई करने और उन्हें तत्काल आर्थिक मदद देने के बजाय उन्हें भी कर्ज के स्रोतों तक पहुंचा कर छोड़ दिया गया है। यहां भी स्पष्ट होता है कि अर्थव्यवस्था की कमर पूरी तरह टूट चुकी है जिसमें मध्यम आये वाले अपने समर्थक वर्ग को भी संतुष्ट करने की क्षमता नहीं है। निर्मला सीतारमण ने मध्यम आय वाले परिवारों के लिए मई 2017 में चलाई गयी योजना, जिसके तहत घर लेने के लिए उन्हें लोन में सब्सिडी दी जाती थी (क्रेडिट-लिंक्ड सब्सिडी स्कीम), की अवधि को एक साल बढ़ा कर मार्च 2021 तक कर दिया है। सरकार का मानना है कि इससे गृह निर्माण (हाउसिंग) सेक्टर को लाभ पहुंचेगा और नौकरियां बनेंगी, जबकि ये सेक्टर पहले से ही मांग के अभाव में सुस्त पड़ा हुआ है या कहें कि डूब चुका है। लेकिन सरकार के दिमाग में है कि इस पैकेज से सीमेंट, बालू, आयरन एंड स्टील इंडस्ट्री, आदि सेक्टर में मांग बढ़ेगी और मजदूरों को काम मिलेगा। कितनी सुंदर कल्पना में डूबने के लिए हमसे कहा जा रहा है! सतह पर चीजें सामान्य लग सकती हैं, लेकिन सतह के थोड़े ही अंदर जाने पर कलई खुल जाती है। इस योजना की असलियत भी सामने है। यह बात तो प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित है कि वर्तमान में अनिश्चित्ताओं से घिरा और अपनी स्थिति को दिन-प्रति-दिन और दयनीय होते देखता मध्यम वर्ग अपनी जमा पूंजी को घर खरीदने में लगाने से कतरा रहा है। जो खरीद सकता था वह पहले ही खरीद चुका है। इस क्षेत्र में सट्टेबाजी के लिए घर खरीदने में मध्य वर्ग भला क्यों पड़ेगा, जबकि यह सेक्टर पहले से ही डूबा हुआ है? यह मामूली बात भी आज किसी को समझ में नहीं आ रही है। जिनको घर नहीं है, वे आर्थिक रूप से इतने पंगु हैं कि मूल्य (औसत लाभ दर से भी नीचे के दाम पर) पर बिक रहे घर भी वे नहीं खरीद सकते हैं। वहीं, यह भी स्पष्ट है कि मध्य वर्ग में से औसत आय वाले तबके की तात्कालिक जरूरत अभी और घर खरीदना नहीं हो सकता है। तो फिर सवाल है, सरकार ने आर्थिक सहायता के नाम पर उन्हें घर के लिए कर्ज मुहैया कराने की योजना क्यों घोषित की? असल में सरकार इस योजना को बनाते समय लॉकडाउन, बेरोजगारी और आर्थिक संकट की तपिश झेलते मध्यम वर्ग की नहीं, बल्कि उन बिल्डरों और रियल एस्टेट जगत के धन्नासेठों के मुनाफे की फिक्र कर रही थी। लेकिन भला वे भी, एमएसएमई की कंपनियों की तरह, बेवकूफ नहीं हैं। उन्हें पता है कि डिमांड नहीं है। 2008 से ही संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था ने जनता की क्रयशक्ति अत्यंत कम कर दी है, जिसके फलस्वरूप वह आबादी, जहां से इस सेक्टर के लिए ठोस मांग उत्पन्न हो सकती थी, भी अब इस दौड़ से ही बाहर हो चुकी है। पूंजीवादी व्यवस्था मुनाफे के बेहद संकीर्ण दायरे और चौखटे के भीतर काम करती है। इसी का नतीजा है कि आज इसने दुनिया भर में ऐसे कई उदहारण खड़े कर दिये हैं, जहां खाली पड़े मकानों की संख्या बेघर आबादी से ज्यादा हो चली है।
लॉकडाउन के बाद से ही रेहड़ी-पटरी वालों की जीवन जीविका पूरी तरह थम गयी है। शहरों में भाड़े के मकान में रहने वाले इन लोगों ने अपनी जमा पूंजी लॉक डाउन खुलने के इंतजार में किराए के रूप में खर्च कर दी। कइयों ने तो कर्ज तक ले कर लॉक डाउन की घोषणा के बाद भी शहरों में बने रहना चुना, क्योंकि उन्हें लगा कि वे लॉकडाउन खत्म होने के बाद कमा कर अपना जीवन संभाल लेंगे, लेकिन अनियोजित लॉक डाउन बढ़ता ही गया। नियोजन दूर-दूर तक कहीं नहीं दिखा। और अब वे भुखमरी और कंगाली झेलने को विवश हैं। ऐसे में उनको इस भयानक परिस्थिति से निकालने के लिए शीघ्र ही नकद राशि उन तक पहुंचाई जानी चाहिए थी, लेकिन उनको इस आर्थिक पैकेज में मिला है ₹5,000 करोड़ का कर्ज, जिससे प्रत्येक रेहड़ी-पटरी वाला ₹10,000 तक की कार्यकारी पूंजी (वर्किंग कैपिटल) कर्ज पर ले सकेगा। यहां भी तत्काल राहत नहीं है। जहां लॉक डाउन खत्म होने की अवधि निश्चित नहीं है और उसके बाद भी कोरोना के कारण समाज में फैले संकोच के कारण उनके व्यापार से जुड़ी अनिश्चित्ताओं को साफ महसूस किया जा सकता है, वहां क्या वे अपने पहले से ही नारकीय बन चुके जीवन को कर्ज में डूबो कर और ध्वस्त करना चाहेंगे? सरकार बखूबी जानती है कि चंद मुट्ठी भर लोग ही इस योजना का लाभ उठा पाने में सक्षम होंगे और बाकी जनता के लिए ये करोड़ो के आंकड़े पुराने सरकारी योजनाओं की तरह बेकार की घोषणा भर ही रह जायेंगे। यहां भी साफ है, कोविद ने पहले से ही गिर चुके डिमांड को और नीचे गिरा दिया है।
भले ही आज कांग्रेस विपक्ष में होने के कारण लगातार यह मांग कर सरकार को परेशान कर रही है कि डायरेक्ट कैस ट्रांसफर किया जाए। लेकिन वह ऐसा सिर्फ इसलिए बोल रही है, क्योंकि मोदी सरकार बदनाम हो और जनता शासन की बागडोर उससे छीन कांग्रेस को थमा दे। अन्यथा, कांग्रेस जैसी बड़े पूंजीपतियों की पार्टी को पता है कि भारत की अर्थव्यवस्था न सिर्फ मांग की भयंकर कमी से जूझ रही है, अपितु, मांग पैदा करने की क्षमता में भी भयंकर कमी का सामना कर रही है। संकट ढांचागत है और गिरावट की ढलान स्थायी है, भले ही कुछ समय के लिए ग्रोथ के कुछ टीले पैदा होते रहें। स्वयं कांग्रेस की सरकार होती तो उसके लिए भी वही स्थिति होती जो आज मोदी के समक्ष उपस्थित है। फर्क सिर्फ इतना है या होता कि कांग्रेस संकोच करते हुए यह सब करती, इस पर मानवीय परत चढ़ाने की भरसक कोशिश करती, जबकि मोदी सरकार वही सब डंके की चोट पर कर रही है। इसके पास जनता को भटकाने के लिए, बांटे रखने के लिए हिंदू-मुस्लिम और राष्ट्रवाद सहित कई दूसरे अस्त्र (ट्रोल सेना जो किसी का भी मुंह बंद कर सकती है) भी मौजूद हैं, जो कि कांग्रेस के पास नहीं हैं। दोनों का इस्तेमाल बड़ा पूंजीपति वर्ग अलग-अलग तरीके से और अलग-अलग समय पर करता है। इसलिए, दोनों के तरीके अलग-अलग हैं, भाषा अलग-अलग है, राजनीतिक प्रतिक्रिया और पैंतरे अलग-अलग हैं, जबकि लक्ष्य और निशाना एक ही हैं।
स्वयं अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कार्य बल (वर्क फोर्स) के 85% हिस्से की मासिक आय ₹10,000 है और लगभग 50% आबादी की मासिक आय ₹5,000 या ₹166 दिहाड़ी से भी कम है। इसी विश्वविद्यालय की हालिया रिपोर्ट के अनुसार लॉकडाउन के दौरान लगभग 80% शहरी मजदूरों ने अपनी नौकरी खो दी है। जिनकी बची हुई है, उनकी साप्ताहिक आय में औसत 61% की गिरावट देखी गयी है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि कम खा कर और इसके बावजूद कर्ज ले कर, यानी, किसी तरह घसीटते हुए अपनी जीविका चलाने वाले परिवारों की संख्या में भी वृद्धि आई है। जहां समाज में लोगों का जीवन केवल न्यूनतम आवश्यकताओं तक ही सीमित रह गया हो, ऐसे में सरकार की यह 20 लाख करोड़ की योजना, जो केवल आपूर्ति पक्ष को सुदृढ़ करने के लिए है, समाज को आर्थिक संकट से तो कतई नहीं निकाल सकती है, क्योंकि, दूसरी तरफ, संकट का (पूंजीपतियों के पक्ष से बोलें तो) सबसे निराश करने वाला पहलू यह है कि अर्थव्यवस्था में अब और अधिक मांग पैदा करने की क्षमता कम से कमतर होती जा रही है। लॉक डाउन से पहले अति उत्पादन से उपजे आर्थिक संकट के दौर में फैक्टरियां लगभग अपनी आधी क्षमता पर उत्पादन करने को विवश थीं। लॉकडाउन के दौरान, इस आर्थिक पैकेज की घोषणा से ठीक पहले, रिजर्व बैंक ने बैंकों को कर्ज देने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट घटा दिए थे। इसके बाद भी बैंकों ने उद्योगों को अपेक्षाकृत ऊंचे ब्याज दरों पर कर्ज देने के बजाय 3.75% की न्यूनतम ब्याज दर पर अपनी अतिरिक्त राशि रिजर्व बैंक में जमा करना उचित समझा और मई के पहले हफ्ते में प्रतिदिन लगभग 8 लाख करोड़ की राशि रिजर्व बैंक में डाली गयी। इसके पीछे की वजह साफ है। मौजूदा अनिश्चितता के दौर में बैंकों को यह खतरा सता रहा कि कहीं ज्यादा ब्याज के लालच में उनकी मूल राशि ही न डूब जाये। दूसरी तरफ, उद्योग जगत भी पहले से और ज्यादा गहरा चुके आर्थिक संकट में खुद को और कर्ज लेने और बाद में चुका पाने की स्थिति में नहीं पा रहा है। स्थापित से कम उत्पादन क्षमता का उपयोग कर उत्पादन करने के बावजूद बाजार भर चुका है और माल (उत्पाद) बिक नहीं पा रहे। अतः पूंजी निवेश का स्पेस, जो पहले से ही खत्म होता जा रहा था, कोरोना वैश्विक महामारी के बाद और भी अधिक सिकुड़ गया है और निवेश के लिए विकल्प और भी घट गये हैं या कहिए खत्म ही हो गये हैं। पूंजीवाद में अंतर्निहित अतिउत्पादन के इस संकट को पाटने के लिए 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज के रूप में सरकार तरलता (liquidity) बढ़ाने को आतुर है, लेकिन न बैंक कर्ज देने को तैयार हैं और न ही पूंजीपति लेने को तैयार हैं, क्योंकि वह भविष्य में उसे चुका पाने में खुद को अक्षम पा रहा है। अर्थव्यवस्था के उबरने की उम्मीद न तो उद्योगों को है, न बैंकों को और, सच पूछिए, तो न ही सरकार को है। ऐसे में सरकार ने सप्लाई साइड के लिए और कर्ज देने की पेशकश तो की, लेकिन मांग साइड को समृद्ध करने के लिए कैश ट्रांसफर की नीति को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया है। यह चाहने और नहीं चाहने से ज्यादा वस्तुगत स्थिति की विवशता से जुड़ा पहलू व सवाल है। 20 लाख करोड़ रूपये के इस पैकेज से यह साफ संदेश आ रहा है कि अर्थव्यवस्था की त्वरित रिकवरी की कोई उम्मीद किसी को नहीं है, न तो सरकार को, ना हीं बैंकों और उद्योंगों को। इसीलिए कोई भी अत्यधिक रिस्क लेने को तैयार नहीं है। सभी को बस इस बात का इंतजार है कि देखें, और कितने ध्वंस के बाद यह संकट खत्म होता है।
जरा इस पर भी विचार करें। सरकार ने सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों के लिए 3 लाख करोड़ के संपार्श्विक-रहित (कोलैटरल फ्री) कर्ज की घोषणा की है और साथ में एक साल तक बैंकों द्वारा कर्ज की वसूली पर रोक लगा दी गयी है। सरकार ने पूंजीपति वर्गों को इस संकट के दौर से निकालने के लिए यह भी घोषित कर दिया है कि कोरोना महामारी के दौर में कर्ज नहीं चुका पा रहे उद्योगों को अगले एक साल तक दिवालिया नहीं घोषित किया जायेगा और इस दौरान लिए गए सभी कर्ज डिफॉल्ट नहीं करार दिए जायेंगे। यह प्रश्न उठ रहा है कि जो कर्ज लेंगे वे इसका करेंगे क्या, जबकि मांग गिरी हुई है। यहां साफ है कि जो पूंजीपति वर्ग लोन लेंगे, वे भी इन 3 लाख 70 हजार करोड़ का इस्तेमाल अपने पुराने कर्ज को चुकाने के लिए करेंगे न कि उत्पादन बढ़ाने के लिए। उधर बैंक अपने एनपीए कम करने के लिए इसका इस्तेमाल करेंगे। इससे उत्पादन में या उसके फलस्वरूप नौकरियों या भारत की अर्थ व्यवस्था में वृद्धि होगी इसकी उम्मीद कोई नहीं कर रहा है। घोर से घोर पूंजीपक्षीय अर्थशास्त्री भी यह कहने को तैयार नहीं है कि ग्रोथ दर में वृद्धि होगी। इस पैकेज की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें सरकार के लिए भी जोखिम की स्थिति कम है, क्योंकि जब कोई कर्ज ही नहीं लेगा, तो सरकार की खुद की देनदारी और जिम्मेवारी भी कम रहेगी। बिना ज्यादा जोखिम के एक बड़े पैकेज की घोषणा करने का श्रेय मोदी सरकार को जरूर दिया जा सकता है और दिया जाना चाहिए। हालांकि तालियां न तो जनता से मिल पा रही है, न ही पूंजीपतियों से। सत्य, वह भी इतने कठोर सत्य, के आगे सब असमर्थ हैं। इस पैकेज से बड़े उद्योंगों और बैंकों ने अपने सीमित लक्ष्यों की पूर्ति करने की ठानी है, जो बताता है कि हालत वास्तव में क्या है। अर्थव्यवस्था के आगे बढ़ने या उसमें प्रगति की कोई उम्मीद नहीं है। यह पहले भी काफी कम ही थी।
कोविद-19 महामारी में अमेरिका, इंगलैंड और इटली जैसे देशों की हालत दुनिया के सामने है। ऊपर जापान, जर्मनी और फ्रांस की चर्चा की गई है। फिलहाल, जो स्वास्थ्य व चिकित्सा संबंधी क्षमताओं की फेहरिस्त में अव्वल देश माने जाते थे, वे कोरोना के खिलाफ जंग में बुरी तरह धराशाई हुए हैं। उसकी वजह सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को पूरी तरह नवउदारवादी नीतियों के तहत ध्वस्त कर देना है और एकमात्र निजी स्वास्थ्य सेवा को आगे बढ़ाना है। निजी क्षेत्र महमारी या आपदा के समय मानवजाति को बचाने के लिए भला क्यों आगे आएगा? यह तो सर्वविदित ही है कि उनका वित्तीय ढांचा इसकी इजाजत नहीं दे सकता है, चाहे वे इसके लिए कितने भी अधिक दबाव में क्यों न हों। उनकी तुलना में समाजवादी मॉडल की छाया के प्रभाव वाले दूसरे देशों, जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को मजबूती से बनाये रखा गया, की स्वास्थ्य एवं चिकित्सा प्रणाली कोविद-19 महामारी को मात देने और संक्रमण को रोकने में अपेक्षाकृत सफल रहे हैं।
2008 से ही संकट के ढांचागत संकट प्रतीत होने और इस कारण इसे स्थायी होते देख कट्टर से कट्टर बुर्जुआ अर्थशास्त्री भी, जो कल तक निजीकरण की पैरोकारिता करते नहीं थकते थे, वे भी आज स्वास्थ्य सेवाओं के सरकारीकरण और सार्वजनिकीकरण के पक्ष में खुल कर बोलने को मजबूर हो गए हैं। बजटीय घाटा पर हाय-तौबा मचाने वाले आइएमएफ और वर्ल्ड बैंक यह कह रहे हैं कि इसकी चिंता मत कीजिए, खर्च कीजिए और पैसा लोगों की जेबों में डालिए। हालांकि वे यह छुपा लेते हैं कि पूंजी के केंद्रीकरण ने एक ऐसा मुकाम हासिल कर लिया है जहां से इसके पीछे लौटने की उम्मीद बहुत कम है, भले ही इसे खुद से ही अपना गला घोंट लेना पड़े। यही कारण है कि अनेकों बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों की हिदायतों को सरकार ने खारिज कर दिया है, और ऐसा ही पूरी दुनिया में किया जा रहा है। इसकी भी सबसे बड़ी मिसाल इस पैकेज में मौजूद है। जब निवेश करने के लिए और कोई क्षेत्र नहीं बचा है, तो बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे की भूख को शांत करने के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अब तक के ‘वर्जित क्षेत्रों’ (सेंट्रल ट्रेड यूनियनों की भाषा, अन्यथा पूंजी और पूंजीवादी सरकारों के लिए वर्जित कुछ भी नहीं होता) को भी निजी कंपनियों के लिए खोलने का एलान इसी पैकेज के माध्यम से कर दिया है। यह अपने आप में किस बात की ओर इशारा करता है? यही कि आगामी दिनों में पूंजी का पहिया बैठने वाला है और इससे भयंकर तबाही मचेगी जिससे बचने का एकमात्र उपाय इसका समाजिक हस्तगतकरण है और इसके अलावा और कुछ नहीं है। यह एकल ट्रस्ट में पूंजी के केंद्रीकरण की तीव्रता को दिखा रहा है। यह प्रवृत्ति आज खुल कर काम कर रही है। पूंजी की यह गति पूरे समाज को और स्वयं अपने को ध्वंस के रास्ते पर तेजी से धकेलेगी यह तय है। केंद्रीकरण का इसके अंदर हो रहे विस्फोट से इसके विपरीत में रूपांतरण, यानी पूंजीवादी समाज का समाजवाद में रूपांतरण, ही हमें इस ध्वंस से बचा सकता है। मजदूर वर्ग ही वह एकमात्र वर्ग है जो इस काम को अंजाम दे सकता है। वहीं, इस मानवजाति की पूंजी की इस मानवद्रोहिता से रक्षा कर सकता है। इसी के साथ यह बात भी साफ हो चुकी है कि निजी पूंजी और मुनाफे पर टिकी यह व्यवस्थायें मानवजाति को वैश्विक महामारी जैसी आपदा और संकट से बचा पाने और समाज में इसके द्वारा पैदा किये गए विध्वंसकारी परिणामों से उबारने में सक्षम नहीं हैं।
बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों को भी धत्ता बताते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने 16 मई को जिन क्षेत्रों को निजी कंपनियों के लिए खोल दिया, वे निम्नलिखित हैं –
- अंतरिक्ष क्षेत्र, यानी, ISRO में, जहां कल तक निजी कंपनियां नहीं दाखिल हो सकती थीं, सैटेलाइट, लौंच और अंतरिक्ष आधारित सेवाओं में निजी खिलाड़ियों को भी जगह दे दी गयी है.
- एटॉमिक एनर्जी के क्षेत्र में भी कल तक किसी भी निजी कंपनी का प्रवेश वर्जित था, लेकिन अब पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) के तहत उन्हें इस क्षेत्र की बेशुमार ताकत को भी निचोड़ने की आजादी दे दी गई है।
- आर्डिनेंस यानी हथियार बनाने वाली सरकारी कंपनियों के बोर्ड का निगमीकरण (कॉर्पोरेटाईजेशन) करने का भी निर्णय ले लिया गया है। वित्तमंत्री ने अपनी सफाई में यह जरूर कहा कि उनका निजीकरण नहीं हो रहा; कि निगमीकरण और निजीकरण में अंतर है। लेकिन असल में इनमें कितना अंतर है और ये रास्ता कहां जाता है, यह जनता के सामने साफ है। कम से कम ऑर्डिनेंस फैक्टरियों में कार्यरत लोग अवश्य समझते होंगे। इसके साथ ही भारत को आत्मनिर्भर बनाने की अपील करने वाली सरकार ने रक्षा उत्पादन (डिफेंस मैन्युफैक्चरिंग) के क्षेत्र में एफडीआई, यानी, विदेशी पूंजी के निवेश, को 49% से बढ़ा कर 74% कर दिया है।
- बिजली वितरण, कोयला और हवाई अड्डे की नीलामी में भी निजी कंपनियों को मौका देने की घोषणा की गयी है। दरअसल यह सब उन्हीं के लिए ही किया गया है, जिसके तहत केंद्र-शासित प्रदेशों में बिजली वितरण कंपनियों का निजीकरण किया जायेगा। अब से कोई भी निजी कंपनी कोयले के ब्लॉक के लिए बोली लगा सकती है और उसे खुले बाजार में बेच सकती है एवं एयर पोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के साथ पीपीपी आधारित मॉडल पर छः हवाई अड्डों की नीलामी की जाएगी।
साथियों, इस पैकेज में न गरीब मजदूर-मेहनतकश जनता के लिए कोई मदद है, न ही सड़कों पर दम तोड़ते करोड़ों प्रवासी मजदूरों के लिए कोई सहायता है, और न ही निम्न-मध्यम या मध्यम वर्ग के लिए कोई सचमुच की राहत। और तो और, ऐसी कोई इच्छा का भी अभाव साफ-साफ दिखता है। मौजूदा व्यवस्था मानव जीवन और सभ्यता के विकास की दृष्टि से मृतप्राय हो चुकी है। 20 लाख करोड़ के इस पूरे ढोंग का पर्दाफाश वित्तमंत्री के आखिरी दो दिनों की कवायदों से साफ हो जाता है, जब पूरे देश की जनता को छोड़ पूंजीपतियों की सेवा में लीन यह सरकार निजीकरण तथा मुनाफे को और आगे बढ़ाने के लिए इस महामारी का बेशर्मी से उपयोग करते दिखी। ऐसा कोई मृत और लाश में तब्दील हो चुकी अर्थव्यवस्था ही कर सकती है कि वह जनता के लिए राहत पैकेज का ढोल पीटते हुए आए और अब तक के ‘वर्जित क्षेत्र’ में काम करने वाले कामगारों और कर्मचारियों को भी पूंजी की भूख मिटाने के लिए उसके समक्ष चारे के रूप में लूटे जाने के लिए परोस दे। यह सारी हदों को पार करने वाली बेशर्मी है।
लेकिन, जैसा कि हम जानते हैं, ‘मुनाफ़े की होड़ में पागल हुआ पूंजीवाद अपना गला खुद घोंट लेगा’, पूंजी के संकेद्रण और केन्द्रीकरण से पैदा हुए पूंजीवादी अतिउत्पादन के संकट, पूंजी आधिक्य और अधिकांश आबादी के सर्वहाराकरण ने पूंजीवाद के खात्मे की जमीन तैयार कर दी है। मजदूर वर्ग और उनकी नेतृत्वकारी ताकतों को यह समझना होगा कि इस संवेदनहीन फासीवादी सरकार ने चंद उद्योगों और पूंजीपतियों को छोड़ कर बाकी पूरे देश की मजदूर-मेहनतकश जनता सहित अन्य सभी लाचार तबकों से मुंह मोड़ लिया है, तो यह उनके लिए सही समय है कि वे उन्हें संगठित करें और उनके बीच क्रांतिकारी राजनीतिक प्रचार ले जाएं। संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था की अंदरूनी मजबूरियां टस से मस नहीं होने वाली हैं इसे ठीक से समझ लेना चाहिए, ताकि सही तरीके से कार्यनीति और रणनीति बनायी जाए। ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ में आत्मनिर्भरता जैसी कोई चीज है ही नहीं।
हां, मोदी जी की कृपा से आत्मनिर्भरता का एक बेहद जरूरी पाठ हम मजदूरों को आज जरूर पढ़ना चाहिए। वह यह कि अपनी जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए हमें खुद ही आगे बढ़कर जर्जर और मानवद्रोही पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म करना होगा और एक शोषणमुक्त समाज के निर्माण की ऐतिहासिक जिम्मेवारी को पूरा करने की भूमिका में आना होगा।
दूसरी तरफ, सरकार के लिए भी यह पाठ पढ़ना और ठीक से इसे याद कर लेना जरूरी है कि जो सरकार अपने संकुचित वर्ग हितों के कारण ऐसे मुश्किल दौर में भी आम जनता के हितों को सर्वोपरि नहीं रख सकती, उसके बने रहने का कोई औचित्य नहीं है। इस पैकेज ने साबित कर दिया है कि मोदी सरकार सहित पूरी व्यवस्था के अब एक मिनट के लिए भी बने रहने का कोई औचित्य नहीं है।
आइए, मजदूर वर्ग तथा तमाम उत्पीड़ित व लाचार तबकों तक यह प्रचार ले चलें – मोदी का ‘आत्मनिर्भर’ भारत नहीं, मजदूर वर्ग के समाजवादी आत्मनिर्भर भारत के लिए संघर्ष तेज करें।