एकता //
163 दिन लंबे संघर्ष की बदौलत दिल्ली सरकार द्वारा मजदूरों की बहाली के मिले आदेश के बावजूद यूनिवर्सिटी ने तत्काल बहाली से इनकार किया, और वार्ता करने गए मजदूर व छात्रा के खिलाफ पुलिस बुलाई।
पुलिस डिटेंशन व एफआईआर की धमकी के बावजूद 6 महीने लंबा संघर्ष अब भी जारी।
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (एनएलयू) दिल्ली के बर्खास्त सफाई मजदूर पिछले 6 महीनों से अवैध रूप से काम से निकाले जाने के खिलाफ अपने रोज़गार के लिए एक बेहतरीन संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं। संघर्ष 4 जनवरी 2020 से शुरू हुआ जब यूनिवर्सिटी में 12 साल से ठेके पर कार्यरत सफाई मजदूरों को एकाएक 31 दिसंबर 2019 को नौकरी से यह कहकर निकाल दिया गया कि अब सफाई कार्य के लिए ठेकेदार बदल गया है और अब नया ठेकेदार नए मज़दूरों को काम पर लेकर आएगा इसलिए पुराने कर्मचारियों की यूनिवर्सिटी में आवश्यकता नहीं है। मज़दूरों का कॉन्ट्रैक्ट खत्म होने के संदर्भ में ना ही यूनिवर्सिटी प्रशासन (जो कि ठेका सिस्टम में प्रमुख नियोक्ता है) और ना ही ठेकेदारों द्वारा कोई भी लिखित नोटिस दिया गया।
यह वे मज़दूर थे जिनके मेहनत की बदौलत यूनिवर्सिटी को समूचे भारत में स्वच्छ कैंपस की रैंकिंग में तीसरा स्थान प्राप्त हुआ जो आज के दिन भी यूनिवर्सिटी में विज्ञापित किया जाता है, पर कैसी विडंबना है कि ठीक इसी के बाद उन्हीं मजदूरों को किसी सामान की तरह यूनिवर्सिटी से बाहर फेंक दिया गया!
पृष्ठभूमि
यूनिवर्सिटी में 2008 से सुरक्षा कर्मियों (गार्ड) एवं सफाई कर्मियों का ठेका पिछले 12 साल से चल रहा था, जिसमें गार्ड एवं सफाई मजदूर लगभग 100 की संख्या में थे। इस कॉन्ट्रैक्ट प्रणाली में मजदूरों का क्या हाल था वह इसी से पता किया जा सकता है कि कॉन्ट्रैक्ट के तहत मज़दूरों द्वारा यूनियन बनाने पर भी रोक लगाई गई थी, जबकि यूनियन बनाना एक मौलिक अधिकार है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसलों में माना है। एक ‘लॉ’ यूनिवर्सिटी में कानून के ऐसे उल्लंघन की बात करना हास्यास्पद बात होती, अगर हमारे संवैधानिक जनतंत्र में संवैधानिक अधिकारों का हनन एक आम बात नहीं होती तो।
ठेका समाप्त करने के पहले ही प्रशासन व ठेकेदारों द्वारा विभाजनकारी पैंतरे अपनाए गए थे। यूनिवर्सिटी प्रशासन ने गार्ड के ठेके को एक महीने पहले ख़त्म कर नया ठेकेदार लाकर सबको निकलवा दिया, और सफाई कर्मियों को एक महीने बाद, जिससे 100 की तादाद में मज़दूर एकजुट होकर बर्खास्तगी के खिलाफ खड़े न हो जाएं और उनकी एकता को आसानी से तोड़ा जा सके। इसके अलावा छात्रों के विरोध से बचने के लिए भी पहली बर्खास्तगी का समय ऐसा चुना गया जब छात्रों की सेमेस्टर परीक्षा बिलकुल पास थी, और दूसरी यानी सफाई कर्मियों की बर्खास्तगी के समय सभी छात्र छुट्टियों में अपने घर गए हुए थे।
हालांकि यूनिवर्सिटी की तमाम कोशिशों के बावजूद मज़दूर संघर्ष के लिए एकजुट हुए। कुछ छात्र, जो अपनी इंटर्नशिप व रिसर्च सम्बंधित कार्यों की वजह से यूनिवर्सिटी में छुट्टियों के दौरान रुके हुए थे, ने संघर्षरत मजदूरों के एकता के आह्वान को सुन उनके संघर्ष में अपने आपको भागीदार बना लिया। यह अपने आप में ही बड़ी बात है कि मज़दूरों के इस संघर्ष ने एक अराजनीतिक यूनिवर्सिटी परिसर में प्रगतिशील राजनीतिकरण का रंग घोला और वहां पर पढ़ रहे छात्रों को अपने आस पास हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने का मंच दिया। इसके फलस्वरूप 4 जनवरी 2020 से यूनिवर्सिटी गेट पर मज़दूरों एवं छात्रों द्वारा विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ।
संघर्ष की शुरुआत
संघर्ष के शुरुआती दिनों में गेट के बाहर प्रदर्शन कर रहे छात्रों-मजदूरों को डराने व हटाने के लिए यूनिवर्सिटी प्रशासन द्वारा पुलिस बुलाई गई और मज़दूरों एवं छात्रों को गिरफ्त में लेकर उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की धमकी भी दी गई। इतना ही नहीं, समर्थन में खड़े यूनिवर्सिटी छात्रों को भी प्रशासन द्वारा यूनिवर्सिटी से दंडस्वरूप निष्कासित करने की धमकी दी गई। हालांकि यूनिवर्सिटी के अन्य छात्रों ने इसकी बड़ी संख्या में एकजुट होकर भर्त्सना की जिससे प्रशासन पीछे हटा। यूनिवर्सिटी एवं पुलिस की धमकियों से डरने के विपरीत मज़दूरों-छात्रों ने विरोध प्रदर्शन जारी रखा। इसी के साथ कुछ दिनों बाद संघर्ष को संगठित रूप से आगे बढ़ाने की सोच के साथ समर्थन में खड़े संघर्षरत छात्रों का एक ग्रुप ‘एनएलयूडी वर्कर्स-स्टूडेंट्स सॉलिडैरिटी’ की शुरुआत हुई। एक महीने बाद फरवरी में सभी छात्र छुट्टियां समाप्त होने पर वापस यूनिवर्सिटी लौट आये और संघर्ष को नई उर्जा मिली।
महीने भर के लगातार प्रदर्शन के बाद 10 फरवरी को मज़दूरों-छात्रों ने ठंड के मौसम में रात में यूनिवर्सिटी गेट के बाहर धरना प्रदर्शन किया जिसमें 150 से ज्यादा छात्र, मज़दूरों के संघर्ष में आधी रात के बाद तक भी खड़े रहे, और साथ ही जोशीले नारे लगाए, भाषण दिए और संघर्ष के गीत गाये। अपने मजदूर साथियों के संघर्ष के समर्थन में बाहर निकले छात्रों की एकजुटता की ऐसी मिसाल यूनिवर्सिटी के इतिहास में अभूतपूर्व थी, जिसने इस संघर्ष को असीम ताकत भी प्रदान की।
मज़दूरों ने बर्खास्तगी के बाद से ही दिल्ली के श्रम मंत्री, गोपाल राय, को इस मामले में हस्तक्षेप करने की गुहार की थी और कई बार मंत्री आवास के सामने इकट्ठा भी हुए। यह इसलिए क्योंकि एनएलयू दिल्ली राज्य सरकार द्वारा शासित यूनिवर्सिटी है। श्रम मंत्री द्वारा हस्तक्षेप करवाने की कई नाकामयाब कोशिशों और डेढ़ महीनों के लगातार प्रयास के बाद 14 फरवरी को श्रम मंत्री से बर्खास्तगी के संबंध में मजदूरों-छात्रों की एक मीटिंग हुई। मीटिंग के फलस्वरूप यूनिवर्सिटी प्रशासन से एक तथ्यात्मक रिपोर्ट मांगी गई। उसके बाद उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुए जघन्य सांप्रदायिक हमले से मामला टल गया लेकिन मज़दूरों के कभी न टूटने वाले हौसले और लगातार एकताबद्ध प्रयासों की वजह से तकरीबन एक महीने बाद 13 मार्च को श्रम मंत्रालय के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी के साथ दुबारा मीटिंग हुई जिसमें यूनिवर्सिटी को सभी मज़दूरों को काम पर वापस लेने अन्यथा नया कॉन्ट्रैक्ट रद्द करने के निर्देश दिए गए। इसी के बाद इस आदेश को अंतिम व लिखित रूप देने के लिए श्रम मंत्री के साथ बैठक होनी थी, लेकिन अचानक लॉकडाउन हो जाने के कारण वह बैठक अनिश्चित काल तक के लिए टल गई और इसी का फायदा उठाते हुए यूनिवर्सिटी प्रशासन ने निर्देश केवल मौखिक रूप में होने का बहाना देकर उनका पालन करने से इनकार कर दिया।
लॉकडाउन में बेरोज़गारी और गरीबी से सामना
तीन महीने की बेरोज़गारी और उसके बावजूद रोज़ यूनिवर्सिटी गेट पर धरना प्रदर्शन की तैयारी करना, श्रम कार्यालय जाना, श्रम मंत्री से मुलाक़ात के लिए अनगिनत चक्कर लगाना, बेरोजगार रहकर भी बच्चों के स्कूल की फीस देना, घर का किराया देना आदि के कारण मजदूरों की बची-कुची जमा पूंजी भी खर्च हो चुकी थी। ऐसे में पूरे देश भर में लॉकडाउन लगा दिया गया था। जहां अमीर लोग महीनों का राशन खरीद कर अपने घरों में भर रहे थे, इन मज़दूरों के पास इतने पैसे भी नहीं बचे थे कि वे अपने लिए एक हफ्ते तक का राशन खरीद पाएं। लॉकडाउन इनपर एक दोहरी मार साबित हो रहा था।
मज़दूर घर का किराया देने में असमर्थ हो गए, उन्हें अपने बच्चों के ट्यूशन बंद करवाने पड़े, और कई बार तो ऐसा समय भी आया जब उन्होंने एक समय का भोजन भी छोड़ा ताकि राशन ज्यादा दिनों तक चल पाए। कुछ मज़दूरों के घर में उनके अपनों का देहांत हुआ, जिसके क्रियाकर्म तक के लिए उनके पास पैसों की व्यवस्था नहीं थी। हालात यहां तक बिगड़ गए कि कई मज़दूर दिल्ली छोड़ अपने गांव वापस बस जाने के बारे में सोचने लगे। इन्हीं परिस्थितियों में यूनिवर्सिटी के ही छात्रों ने एकजुट होकर उनके संघर्ष को जिंदा रखने के लिए राशन व कुछ पैसों का इंतजाम किया, और इतनी कठिन परिस्थितियों में भी छात्र-मजदूर एकता के कारण मजदूरों के संघर्ष को उर्जा मिलती रही और वह आगे बढ़ा।
संघर्ष की जीत
मई में मजदूरों एवं छात्रों द्वारा एकजुट होकर श्रम मंत्रालय के मौखिक निर्देशों को लिखित रूप में पाने की मांग उठाई गई। दफ्तर के चक्कर लगाने और कई ज्ञापन, कॉल, मेसेज व ईमेल भेजने के बाद, 15 जून को, यानी संघर्ष के 163वे दिन, आखिरकार मजदूरों की मांग मानी गई और श्रम मंत्री ने मजदूरों, छात्रों, यूनिवर्सिटी प्रशासन व ठेकेदार की साझा मीटिंग बुलाई। मीटिंग में यूनिवर्सिटी को नया कॉन्ट्रैक्ट रद्द करने और सभी मज़दूरों को वापस काम पर लेने का दुबारा आदेश दिया गया और इस बार 17 जून को आखिरकार आदेश लिखित रूप में श्रम मंत्रालय द्वारा जारी कर दिया गया।
संघर्षरत मजदूरों व छात्रों के लिए यह एक बड़ी जीत थी। 6 महीने लंबे संघर्ष की जीत पर हर तरफ से बधाइयां मिली, और मीडिया में भी यह बात दूर तक प्रचारित हुई। मजदूर एकता की ताकत दर्शाने के साथ यह संघर्ष छात्र-मजदूर एकता की एक मिसाल बना जिसने छात्रों, युवाओं व समाज के तमाम तबकों को अलग-अलग नहीं बल्कि मजदूरों के संघर्ष के साथ एकजुट होकर ही अन्याय व दमन के विरुद्ध संघर्ष करने की ज़रूरत को भी दर्शाया।
मजदूरों-छात्रों के समक्ष नई चुनौतियां
हालांकि, 17 मई को आदेश आने के बाद यूनिवर्सिटी ने ‘ज़रूरी प्रक्रिया’ का हवाला देकर पैंतरेबाजी करते हुए आदेश को तत्काल लागू करने से मना कर दिया। इसके विरोध में 19 जून को जब सभी मजदूर व उनके समर्थन में एनएलयू की एक छात्रा यूनिवर्सिटी प्रशासन से आदेश को लागू करवाने की वार्ता करने यूनिवर्सिटी पहुंचे तो ना सिर्फ प्रशासन ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया, बल्कि शांतिपूर्ण ढंग से गेट पर दूरी बना कर इंतज़ार कर रहे मजदूरों को हटाने के लिए पुलिस बुला ली। लगातार उनसे बदतमीजी करने व धमकियां देने के बाद पुलिस ने अंततः एक छात्रा व एक महिला मजदूर को डीटेन कर लिया। गौरतलब है कि 2 महिलाओं को पुलिस की गाड़ी में डीटेन किया गया जिसमें केवल पुरुष पुलिसवाले थे। करीब एक घंटे बाद समर्थन में आए वकीलों व कार्यकर्ताओं के दबाव से दोनों को बिना प्राथमिकी के छोड़ दिया गया, इस धमकी के साथ कि दुबारा यूनिवर्सिटी के पास दिखने पर उनपर कार्रवाई की जायेगी।
यूनिवर्सिटी की मजदूर-विरोधी कार्रवाई, पुलिस दमन और 6 महीनों से बेरोज़गारी की स्थिति के बावजूद मजदूर व छात्र पहले से भी ज्यादा बुलंद हौसलों के साथ इस संघर्ष में डटे हुए हैं। इस घटना के बाद छात्रों, वकीलों व समाज के जनवादी तबकों के बीच इस संघर्ष को भारी समर्थन प्राप्त हो रहा है। मीडिया भी संघर्ष का कवरेज अधिक रुचि के साथ कर रही है। इस बात से बेचैन यूनिवर्सिटी प्रशासन ने इन संघर्षरत मजदूरों को ‘वैकल्पिक रोजगार’ प्रदान करने में मदद करवाने का खोखला प्रस्ताव भी रखा, लेकिन मजदूरों ने इन गंभीर परिस्थितियों में भी सर्वसम्मति से अपने अधिकार के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाने का निर्णय लेते हुए प्रशासन से किसी भी प्रकार की भीख को ठुकरा दिया, और कहा कि “यह केवल उनके रोज़गार के लिए नहीं बल्कि उनकी अस्मिता के लिए भी एक संघर्ष है।”
यह संघर्ष मजदूर वर्ग की एकता की असीम ताकत का एक छोटा उदाहरण है जो छात्र-मजदूर एकता की अटूट शक्ति को दर्शाने के साथ इसमें शामिल मजदूरों व छात्रों को एक असमान व अन्यायपूर्ण व्यवस्था में लगातार संघर्षरत रहने की ज़रूरत को भी महसूस करवा रहा है। मजदूरों-छात्रों की चट्टानी एकता व चारों तरफ से मिल रहा समर्थन इस संघर्ष को नई उर्जा दे रही है और उनका यह दृढ़ निश्चय है कि तमाम रुकावटों के बावजूद वह इस संघर्ष को अपने मुकाम तक पहुंचा कर ही रहेंगे।
(लेखिका एनएलयूडी मजदूरों के संघर्ष का नेतृत्व कर रहे ग्रुप ‘एनएलयूडी वर्कर्स-स्टूडेंट्स सॉलिडैरिटी’ से हैं)
यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 3/ जुलाई 2020) में छपा था
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