कोविड नहीं, पूंजीवाद ही सबसे बड़ी महामारी

केंद्र व राज्य सरकारों ने कोविड टेस्ट की उपलब्धता बहुत सीमित कर रखी है। यहाँ तक कि खुद डॉक्टर, नर्स या चिकित्सकीय कर्मियों तक के भी कोविड संक्रमण के लक्षण साफ दिखाई देने के बावजूद अपने ही अस्पताल में भी जाँच करा पाने में नाकाम होने की कई खबरें आती रही हैं। यह इसलिए ताकि निर्मम पुलिस ताकत से लागू कराई गई तालाबंदी की सरकारी रणनीति से कोविड की रोकथाम की बात सिद्ध करने के लिए बीमारों की तादाद कम करके दिखाई जा सके। इस तालाबंदी ने करोड़ों मेहनतकशों खास तौर पर औद्योगिक क्षेत्रों में रहने वाले प्रवासी श्रमिकों के लिए भूख, बीमारी और मृत्यु की घनघोर मुसीबत खड़ी कर उन्हें रोटी और सिर पर छत की तलाश में अपने छोटे-छोटे बच्चों सहित उन्हीं गाँवों की ओर हजारों किलोमीटर पैदल चलकर जाने के लिए मजबूर कर दिया जिन्हें छोड़कर वे कभी भयंकर गरीबी और जुल्म की वजह से रोजगार और बेहतर जीवन की खोज में इन औद्योगिक शहरों में आये थे। किन्तु हर कोशिश के बावजूद भी महामारी के प्रसार की वास्तविकता को छिपाने के प्रयास कामयाब नहीं हुये हैं और खुद सरकारी आंकड़ों में अब इसकी तादाद लगभग 7 लाख बीमार और 20 हजार मृत्यु तक जा पहुँची हैं, और भारत कुछ ही दिनों में बीमारी के प्रसार में रूस को पीछे छोड़ विश्व में तीसरे स्थान पर पहुँचने वाला है, हालाँकि अधिकांश सार्वजनिक स्वास्थ्य व संक्रामक रोग विशेषज्ञ इन आँकड़ों को भी असल से बहुत कम मानते हैं।

दम तोड़ती सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था, रोगियों-शवों पर डाका डालते निजी अस्पताल!

इस हालत में एक ओर बजट आबंटन के घोर अभाव से जूझती सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा, तो दूसरी ओर निजी पूंजीपतियों द्वारा सुपर मुनाफे के लिए चलाये जा रहे अस्पताल रूपी डकैती केंद्रों से मिलकर बनी हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था का ढांचा पूरी तरह चरमरा चुका है। पिछले कुछ हफ्तों में हमने एक के बाद एक भीड़ भरे सरकारी अस्पतालों के दरवाजों से दुर-दुर होकर लौटाये जाते मरीजों के इलाज के अभाव में अस्पतालों के फाटकों, सड़कों या एंबुलेंस में ही दम तोड़ देने के न जाने कितने हौलनाक वाकये सुने हैं। उधर निजी अस्पताल सिर्फ भर्ती होकर बिस्तर पा जाने के लिए ही 5-6 लाख रु अग्रिम माँग रहे हैं तथा सामान्य वार्ड में 30 हजार रु से वेंटीलेटर पर रखने के लिए एक लाख रु रोजाना तक वसूला जा रहा है। गौर करने की बात ये कि ये सभी निजी अस्पताल लगभग मुफ्त की सार्वजनिक जमीन और अन्य बहुतेरी वित्तीय व कर रियायतों के साथ इस करार पर बनाये गये थे कि वे गरीब मरीजों को मुफ्त या रियायती इलाज मुहैया करायेंगे। पर मुनाफे की पूंजीवादी व्यवस्था में सरमायेदारों द्वारा किए गये करार को मानने और सरकारों द्वारा मनवाने की नैतिकता की उम्मीद करना ही व्यर्थ है! हालत यहाँ तक पहुँच गई है कि गरीब मेहनतकश जनता की तो बात ही क्या, असली जरूरत के इस वक्त स्वास्थ्य सेवा खरीदने में अपनी स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी को असमर्थ पाकर बहुतेरे ‘खुशहाल’ मध्यवर्गीय लोग भी चीख पुकार मचाने लगे हैं, हालाँकि यही वह सबसे खुदगर्ज तबका था जिसने सबके लिए समान, सार्वत्रिक, सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं शिक्षा व्यवस्था के ध्वंस की हिमायत में सबसे अधिक मुंहजोरी की थी ताकि सिर्फ अमीरों के लिए ‘गुणवत्तापूर्ण’ निजी शिक्षा एवं स्वास्थ्य कारोबार फल फूल सके।

सबसे बड़ी मुसीबत तो उन रोगियों की है जिन्हें नियत नियमित वक्त पर स्वास्थ्य सेवा की जरूरत पड़ती है जैसे गर्भवती और जच्चगी के करीब वाली स्त्रियाँ, नियमित डायलिसिस करवाने वाले गुर्दे के बीमार, नियमित जाँच-दवा वाले टीबी मरीज, सर्जरी-कीमोथेरेपी का इंतजार करते कैंसर रोगी, वगैरह। बहुतों को तो इलाज से पूरी तरह महरूम हो जाना पड़ा है क्योंकि कई अस्पताल पूरे ही बंद कर दिये गये हैं या ओपीडी में मरीज नहीं देखे जा रहे हैं। दूसरी ओर, बहुत से निजी अस्पताल हर बार कम से कम साढ़े चार हजार रु वाली कोविड जाँच रिपोर्ट दिखाने की शर्त आयद कर रहे हैं और हर बार निजी सुरक्षा वस्त्र (PPE) के नाम पर बिल में बड़ी रकम वसूल मोटा मुनाफा कमा रहे हैं जबकि दूसरी ओर इन कॉर्पोरेट अस्पतालों ने कारोबार में मंदी के नाम पर डॉक्टर, नर्सों व अन्य चिकित्सा कर्मियों के वेतन में 50% तक की भारी कटौती भी कर दी है। बड़ी संख्या में बेहिसाब मौतें इस वजह से इलाज न मिल पाने से हुईं हैं जैसे दिल्ली में 9 अस्पतालों से लौटाई गई जच्चगी के दर्द से तड़पती महिला की शिशु सहित मृत्यु या बैंगलोर में 18 अस्पतालों से लौटाये गये सांस न ले पा रहे बुजुर्ग की दर्दनाक मौत।

सुपर मुनाफे के हवस वाली पूंजीवादी व्यवस्था में हर आपदा ऐसे मौके में बदल दी जाती है जहाँ लाभ के नाम पर डकैती डाली जा सके। कोविड महामारी इसका जीता जागता सबूत है। कोविड के लिए की जाने वाली जाँच की कीमतों को ही लें। इसके लिए प्रयुक्त आरटी-पीसीआर नई नहीं, एक स्थापित तकनीक है जो न सिर्फ जीववैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में बल्कि एचआईवी जैसी वाइरस संक्रमणों की जाँचों में भी प्रयुक्त होती आ रही है। अतः इसकी मशीनें पहले से मौजूद हैं और इसमें काम आने वाले रासायनिक एजेंट भी सामान्य उत्पादन का हिस्सा हैं। अव्यावसायिक प्रयोगशालाओं में इसकी मौजूदा सामान्य लागत 500-600 रु आती है। कोविड के लिए बड़े पैमाने पर प्रयोग होने से परिमाण के पैमाने से बचत के कारण यह और कम हो गई है। अतः बड़े संख्या में प्रयोग के द्वारा सरकार इस लागत को 400 रु तक ला सकती थी और कोविड को रोकने के लिए जाँच का काम बड़े पैमाने पर करना मुमकिन था। किन्तु सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के बजाय इस पर ‘सलाह-मशविरे’ के लिए बायोकॉन की किरण मजूमदार-शॉ, अपोलो अस्पताल की संगीता रेड्डी एवं ऐसे ही अन्य निजी कारोबारियों अर्थात सेहत के डकैतों को चुना। स्वाभाविक है कि इनकी सिफ़ारिश से कीमत 4500/- रु तय की गई ताकि निजी पूंजीपति भारी लाभ कमा सकें। 2 महीने और बहुत विरोध के बाद अब कुछ राज्यों ने इसकी कीमत घटाकर 2400/- रु की है जो अब भी खून चूसने जैसी है। ऐसे ही वेंटिलेटर का उदाहरण है जहाँ हाथ से चलाये जाने वाले एंबु-बैग नाम के उपकरण को स्वचालित कर उसे वेंटिलेटर बता सरकारी अस्पतालों को सामान्य से कई गुना अधिक कीमतों पर बेचा जा रहा है।

अस्पतालों की लूट के बारे में हम पहले बता चुके हैं पर कोविड के इलाज के नाम पर नई-नई दवाओं की बिक्री भी ज़ोर-शोर से ऊँची कीमतों पर हो रही है। सबसे पहले तो खुद सरकारी आयुष मंत्रालय ने रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के नाम पर होम्योपैथी ‘दवा’ आर्सेनिका-30 का प्रचार कर इसकी बिक्री बढ़वाई। फिर गंभीर साइड इफैक्ट के बावजूद हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन को प्रभावी बचाव करने वाली दवा घोषित कर दिया गया। हालत ये हुई कि गैरज़रूरी पर भारी बिक्री से यह दवा दुकानों से गायब ही हो गई और इसकी वास्तविक जरूरत वाले गंभीर रोगियों को दवा के बगैर भारी तकलीफ उठानी पड़ी। हालत यह हुई कि इसे बनाने वाली कंपनियों को उत्पादन बढ़ाना पड़ा। उसके बाद ग्लैनमार्क, सिपला तथा हेटेरो फार्मा जैसी कंपनियों को फाविपिरावीर व रेमदेसीविर जैसी दवाइयों को कोविड के इलाज में परीक्षण के तौर पर इस्तेमाल के लिए बिक्री के आकस्मिक लाइसेंस जारी कर दिये गये जबकि इसके वास्तविक परीक्षण द्वारा इनके असर का कोई वास्तविक सबूत भी नहीं मिला था। इन कंपनियों ने भी इन दवाओं को ऊँची कीमत पर बेचना शुरू कर दिया। ग्लेनमार्क एक पत्ते की कीमत 3500/- रु वसूल कर रहा है जिससे एक मरीज को 14 दिन के लिए यह 20 हजार रु से अधिक पड़ती है। हेटेरो व सिपला भी उस दवा की एक वायल लगभग 5000 रु में बेच रही हैं जो एंड्रू हिल नाम के शोधकर्ता ने कई साल पहले प्रमाणित किया था कि एक डॉलर में बनाई जा सकती है। इसका कुल इलाज भी लगभग 25 हजार रु पड़ता है। ऊपर से ये अब बाजार में कृत्रिम कमी पैदाकर 50-60 हजार रु प्रति मरीज तक बेची जाने की खबर है। फिर लाला रामदेव जैसे भी टीवी चैनलों के भारी प्रचार के जरिये अपनी फ्रॉड कोरोनिल की बिक्री शुरू करने में पीछे क्यों रहते जिसका अब पता चल रहा है कि इसका न कोई परीक्षण हुआ है, न इसका कोई असर प्रमाणित है, न किसी दवा नियामक ने कोई अनुमति दी है!

क्या तालाबंदी सही रणनीति है?

मार्च में खुद संक्रमण की तादाद को बहुत कम बताने वाली सरकार ने विश्व में सबसे सख्त और नृशंसता पूर्वक लागू की गई तालाबंदी का ऐलान किया था। किन्तु महामारी के चहुंतरफा व्यापक प्रसार के बावजूद अब वही सरकार एक-एक कर प्रतिबंधों को हटाने में जुटी है क्योंकि पूंजीपति वर्ग को पता चला कि तालाबंदी से उनकी मुनाफा कमाई भी बंद हो गई है। मुनाफे का स्रोत तो मजदूरों द्वारा अपनी श्रमशक्ति द्वारा उत्पादित मूल्य में से उन्हें दी गई मजदूरी के ऊपर सरमायेदारों द्वारा हथिया लिए जाने वाला अधिशेष मूल्य ही है। जब तालाबंदी द्वारा उद्योग बंद कर श्रमिकों को ही खदेड़ दिया गया है और मूल्य उत्पादन ही लगभग शून्य हो गया है तो पूंजीपतियों को अधिशेष मूल्य ही कहाँ से हासिल हो सकता है? चुनांचे, अब उद्योगपतियों ने ताला खोलने की माँग ऊंचे सुर में उठाई बल्कि नारायणमूर्ति जैसे ‘नैतिकता’ के प्रतिमान बताये जाने वाले सरमायेदारों ने तो यहाँ तक कहा कि पूंजीपति वर्ग को हुये नुकसान के मुआवजे के तौर पर अब श्रमिकों को और अधिक अर्थात सप्ताह में 72 घंटे कामकर खोये हुये मुनाफे की भरपाई करनी चाहिये। तुरंत अनेक राज्य सरकारों ने श्रम क़ानूनों में संशोधन कर इसकी व्यवस्था भी कर दी।

उधर पहले स्वास्थ्य विज्ञान द्वारा सुझाई गई व्यापक जाँच और संक्रमित रोगियों को अलग कर उनके इलाज के लिए व्यापक स्वास्थ्य सेवा ढांचा खड़ा करने की रणनीति के बजाय ताली-थाली, बर्तन-भांडे बजा, मोमबत्ती जला, पटाखे छोड़ पूरी तरह तालाबंदी करने की हिमायत करने वाले मध्य वर्ग के वही पेटू और कुंददिमाग भक्त अब ताला खोलने को ही सर्वश्रेष्ठ उपाय बताने लगे क्योंकि उन्हें पता चला कि खदेड़े जाने का काम सिर्फ मजदूरों के साथ होने वाला नहीं है बल्कि पूरी तरह ठप अर्थव्यवस्था में खुद उनके अपने काम-धंधे दिवालिया होने और छंटनी किए जाने से सुरक्षित नहीं हैं। अपनी कॉलोनियों की ऊँची दीवारों और ‘फ्लैटों के समाज’ में खुद को सुरक्षित समझ तालियाँ बजाने वालों को जैसे ही पता चला कि उनका आका पूंजीपति सिर्फ श्रमिकों की मजदूरी ही हजम कर नहीं रुकेगा बल्कि श्रमिकों का खून चूसने में उनकी सारी वफादार खिदमत के बावजूद मध्यवर्गीय प्रबंधकों को भी निकाल बाहर करेगा या उनकी पगार में कटौती कर देगा क्योंकि उनकी पगार तो मजदूरों की श्रम शक्ति की लूट से ही दी जाती है तो वे अब उतनी ही दृढ़ता से तालाबंदी उठा लेने के हिमायती हो गये जितने पहले तालाबंदी करने के थे।

लेकिन महामारी को रोकने में तालाबंदी नाकाम क्यों हुई? क्या महामारी के विरुद्ध संघर्ष में तालाबंदी मूलतः गलत नीति थी? नहीं, बचाव के लिए टीके और परीक्षण द्वारा प्रभावी सिद्ध इलाज दोनों के ही अभाव की स्थिति में स्वास्थ्य विज्ञान की दृष्टि से संक्रमण के प्रसार की पहचान के लिए व्यापक जाँच, संक्रमित रोगियों को अलग कर उनकी जरूरी देखभाल के साथ संक्रमण की शृंखला को तोड़ने के लिए शारीरिक दूरी बनाये रखना एक तार्किक, सटीक एवं प्रभावी रणनीति है जिसके लिए तालाबंदी की जा सकती है अर्थात लाखों ज़िंदगियों पर जोखिम के वक्त एक उपाय के रूप में इसमें स्वयं में मूलतः कुछ गलत नहीं है। परंतु मुख्य बात यह है कि किसी समाज में जो आर्थिक-सामाजिक ढाँचा मौजूद है उस पर विचार किए गये बगैर ऐसे तार्किक और वैज्ञानिक रूप से सही सिद्ध उपायों को लागू करना नामुमकिन है, विशेषतया इसलिए क्योंकि यहाँ प्रश्न अलग-अलग व्यक्तियों के इलाज का नहीं पूरे समाज के सार्वजनिक स्वास्थ्य का है जिसे सामाजिक व्यवस्था से अलग कर नहीं देखा जा सकता।

तालाबंदी जैसे उपाय मात्र एक मानवीय एवं न्यायसंगत समाज में ही प्रभावी ढंग से लागू किए जा सकते हैं जैसे समाजवादी व्यवस्था की नियोजित सामाजिक उत्पादन आधारित अर्थव्यवस्था जिसमें उत्पादन और वितरण की व्यवस्था को सारी आबादी की सामूहिक सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु असरदार ढंग से परिवर्तित-समायोजित किया जा सकता है; ऐसी सामाजिक व्यवस्था में जहाँ पूरी आर्थिक व्यवस्था और उत्पादन का ढाँचा निजी संपत्ति मालिकों के मुनाफ़ों को उच्चतम करने हेतु संचालित करने के बजाय जरूरत के वक्त सभी सामाजिक संसाधनों को समाज के सभी सदस्यों की प्रत्यक्ष जरूरतों की पूर्ति के काम में नियोजित ढंग से शीघ्रता से जुटाया-लगाया जा सकता है। ऐसी वक्त जरूरत के लिए भंडार में रखे अन्न भंडारों को कारखाने-फार्म-दफ्तर बंद होने पर भी भोजन के लिए मुफ्त उपलब्ध कराया जा सकता है – आखिर बफर भंडार का मतलब क्या होता है, आज से बड़ी वक्त जरूरत क्या हो सकती है जब एक ओर 10.40 करोड़ टन अनाज बफर भंडार में हो और गरीब लोग भोजन न जुटा पा रहे हों? ऐसी व्यवस्था में प्रधानमंत्री 80 करोड़ के लिए अन्न वितरण की व्यवस्था का झूठ नहीं बोल पाता जबकि वितरण खुद सरकारी आँकड़ों में भी केवल 10 करोड़ व्यक्तियों को ही हुआ हो। ऐसी व्यवस्था में बिक्री न हो पाने से उत्पादक दूध, सब्जी, फल को फेंकते नहीं बल्कि उन्हें उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का पक्का इंतजाम किया जाता। ऐसी व्यवस्था में कार-टीवी कारखाने बंद रहने से भी सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा पहुंचाने का काम जारी रहता बल्कि कार एवं अन्य ऐसे उत्पादन करने वाले कारखानों को जल्दी से वेंटिलेटर, ऑक्सिजन सिलिंडर, आदि निर्मित करने के काम में लगा दिया जाता क्योंकि इस वक्त सामाजिक जरूरत इन वस्तुओं की है। ऐसी व्यवस्था में बालकों एवं बुजुर्गों की देखभाल के काम को ऐसे प्रबंधित किया जाता कि वे संक्रमण से उतनी अधिक दूर रखे जा सकें जितना तकनीकी-व्यवहारिक रूप से संभव हो। समाजवादी व्यवस्था में ये सभी कर पाना मुमकिन होता क्योंकि सब कुछ सामाजिक स्वामित्व में होता और उत्पादन का संगठन-प्रबंधन सामूहिक-सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति होता। ऐसे मानवीय और न्यायसंगत समाज में अगर स्वास्थ्य विशेषज्ञ महामारी से निपटने के लिए तालाबंदी को ही सर्वश्रेष्ठ उपाय बताते तो उसे भी प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता, और इसके लिए किसी नृशंस पुलिस बल की भी जरूरत न होती क्योंकि ऐसा समाज लोगों को सामाजिक जरूरतों और जिम्मेदारियों से विमुख नहीं करता और वे स्वयं स्वेच्छा से इसे असरदार ढंग से लागू कर देते।

पूंजीवाद में तालाबंदी क्यों कामयाब नहीं हो सकती?

किन्तु एक वर्ग विभाजित अन्यायपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था में यह कदम किसी विशेष स्थिति में जरूरी हो जाने पर भी नाकामयाब होना तय है क्योंकि इस व्यवस्था में निजी संपत्ति मालिक पूंजीपतियों के अधिकतम मुनाफे की हवस से उत्पादन में अव्यवस्था छाई रहती है। पूंजीवाद में उत्पादन इसलिए नहीं होता क्योंकि समाज को उन उत्पादों की वास्तविक आवश्यकता है। उत्पादन इस मकसद से होता है कि मालिक पूंजीपति उन्हें बाजार में बेचकर लाभ कमा सके। अतः किसी वस्तु की करोड़ों व्यक्तियों को कितनी भी आवश्यकता होने पर भी उसका उत्पादन नहीं किया जाएगा अगर वह बिक न सके क्योंकि ये करोड़ों लोग उसकी कीमत चुकाने में असमर्थ हैं। ऐसे उत्पादन में लगे श्रमिकों को छंटनी कर बलपूर्वक खदेड़ दिया जाता है। श्रमिकों को उतनी ही न्यूनतम मजदूरी मिलती है जिससे वे जिंदा रहकर पूंजीपतियों को अपनी श्रमशक्ति बेचते रहें। इस न्यूनतम से अधिक जो भी मूल्य इस श्रमशक्ति से उत्पन्न होता है वह सारा अधिशेष पूंजीपतियों के मालिकाने में चला जाता है। यही पूंजीपति वर्ग का मुनाफा है। अगर मुनाफा मुमकिन न हो तो उत्पादन रोक दिया जाता है और मजदूरों को भुगतान बंद कर दिया जाता है। लेकिन मजदूरों को जिंदा रहने के लिए तो न्यूनतम संभव भुगतान ही मिलता है। अतः उनके पास किसी ‘बचत’ का सवाल ही नहीं उठता जिसे वो बेरोजगारी की आफत में ज़िंदगी चलाने के काम ले सकें। अतः अपने परिवारों के साथ भुखमरी उनकी विवशता बन जाती है। चुनांचे, तालाबंदी का अनिवार्य नतीजा भुखमरी और बेघरबारी ही होना था।

हम ऐसी व्यवस्था में रहते हैं जहाँ पुराने रखे 7 करोड़ टन भंडार के साथ नई फसल आ जाने से 1 जून को खाद्य निगम के पास 10 करोड़ 40 लाख टन अन्न भंडार हो चुका है। खुले में रखे होने से इसमें बहुत सारा सड़ और बरबाद हो जाने वाला है। किन्तु पूंजीवादी व्यवस्था में इसे बरबाद होने दिया जा सकता है पर शहरों-गाँवों में भुखमरी के शिकार मेहनतकश लोगों को इसके वितरण की उचित व्यवस्था नहीं की जा सकती। हम ऐसी व्यवस्था में रहते हैं जिसमें दुग्ध उत्पादक लाखों लीटर दूध बहा देते हैं और किसान पके फल-सब्जियों को फेंक देते हैं या पूरे खेत में ट्रैक्टर चला फल-सब्जियों को नष्ट कर डालते हैं जबकि बच्चों को पीने को दूध नहीं मिलता और फल, सब्जी, दाल, या बस आलू तक भी खरीदने में असमर्थ करोड़ों गरीब लोग सिर्फ पानी के साथ सूखी रोटी निगलने के लिए मजबूर हैं। बस इसलिए क्योंकि इस व्यवस्था में उत्पादन की चालक शक्ति मुनाफा है, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं। हम ऐसे निजाम में रहते हैं जिसमें लाखो घर-फ्लैट खाली छोड़े जा सकते हैं जबकि भाड़ा चुकाने में असमर्थ बेरोजगार हुये मजदूर अपने नन्हें बच्चों के साथ सड़कों पर सोने को मज़बूर हैं। हम मुनाफा संचालित ऐसी व्यवस्था में रहते हैं जहाँ एक तरफ अस्पतालों में बिस्तर खाली रहते हैं वहीं दूसरी तरफ गरीब लोग इन अस्पतालों के बाहर सड़क और फुटपाथ पर इलाज बगैर मरते रहते हैं। हम इतनी विकृत-दूषित सामाजिक व्यवस्था में रहते हैं जिसमें अधिसंख्य लोग जरूरी सामान्य खाद्य सामग्री खरीदने में भी असमर्थ होने से इनकी माँग घट जाती है, जबकि उधर इनके उत्पादन और आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, और फिर भी इनके दाम बढ़ते जाते हैं! हम ऐसे निजाम में रहते हैं जहाँ तालाबंदी की वजह से यातायात से लेकर कारखानों तक में ऊर्जा की जरूरत और माँग घट गई। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी क्रूड के दाम नीचे हैं। फिर भी हमारे देश में हर दिन इनके दाम बढ़ाये जा रहे हैं और जिंदा रहने की लागत और भी बढ़ती ही जा रही है।

चुनांचे, ये कोविड नहीं जिसने एक अरब से अधिक लोगों के जीवन में भूख, बीमारी व मृत्यु की विराट एवं भयावह पर कतई गैरज़रूरी आफत ढायी है। ये कोविड नहीं, शोषणमूलक पूंजीवाद है जिसने असल में इस संकट को जन्म दिया है। वक्त के साथ कोविड तो चला भी जाएगा, पर जब तक पूंजीवाद रहेगा, ऐसे कितने ही संकटों, मुसीबतों, आफतों को लाकर मेहनतकश जनता के जीवन को दुख-तकलीफ के समंदर में डुबोते रहेगा। अतः ये पूंजीवाद ही इंसानियत के लिए सारे बैक्टीरिया-वाइरसों से भी संक्रामक, सबसे बड़ी, सबसे खतरनाक, सबसे भयावह बीमारी है, सब संकटों और बीमारियों के कष्टों में राहत के लिए सबसे पहले इस बीमारी को ही दुनिया के नक्शे से मिटा देना जरूरी है।

यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 3/ जुलाई 2020) के संपादकीय में छपा था

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