शेखर //
22 मई की अखिल भारतीय मजदूर हड़ताल बेहद विषम और प्रतिकूल परिस्थितियों में बुलाई गयी थी। इसका आह्वान दस केंद्रीय ट्रेड यूनियनों, जिसमे मुख्यतः मुख्य धारा के वाम दल बहुलता में हैं, के द्वारा किया गया, जिसमें लगभग सभी ट्रेड यूनियनों और ट्रेड यूनियन मोर्चों, चाहे वे जिससे भी संबद्ध हों, ने भाग लिया। यह हड़ताल उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान एवं अन्य राज्यों के द्वारा लगभग सभी श्रम कानूनों को निलंबित करने और 8 घंटे की जगह 12 घंटे का कार्य दिवस लागू करने के घोर मजदूर विरोधी संशोधनों के खिलाफ बुलाई गयी थी। हालांकि, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि जमीनी तौर पर कोविड-19 के पहले से ही श्रम कानूनों को कमजोर करने की प्रक्रिया सतत रूप से चल रही थी, और, इसके परिणामस्वरूप 1991 में नवउदारवादी नीतियों के आगमन के बाद बढ़ते हमलों के सामने आज का मजदूर वर्ग पहले से ही निहत्था खड़ा होने को मजबूर हो गया था। जहां, एक तरफ 2008 के बाद से ही गहराते आर्थिक संकट के कारण पूंजीपतियों और उनकी सरकारों ने और अधिक क्रूरता के साथ हमले शुरू कर दिए, वहीं, दूसरी तरफ कोविड-19 ने इस आर्थिक संकट को और बढ़ा दिया। अतः यह अपेक्षित था और है कि मजदूर वर्ग पर हमले अभी और बढ़ेंगे।। एक तरह से खुला वर्ग-युद्ध पहले ही मजदूर वर्ग के खिलाफ छेड़ा जा चुका है। पूंजीपति वर्ग और उसके लगुए-भगुए ने अब तक के इस सबसे बड़े वैश्विक स्वास्थ्य संकट को एक ‘अवसर’ बनाने की ठान ली है जिसका इस्तेमाल वे मजदूर वर्ग, विशेषतः असंगठित प्रवासी मजदूरों, के खून का आखरी कतरा तक चूसने में करेंगे, जिससे कि इस संकटकाल में भी उनके मुनाफे का चक्र बिना रुके चलता रहे।
24 मार्च की शाम कोरोना महामारी के मद्देनजर अचानक से घोषित किये गए लॉकडाउन के साथ ही लाखों प्रवासी व स्थानीय मजदूर एवं हाशिए पर पहुंचा दिए गए लोग, जो किसी तरह से अपना गुजारा करते थे, के रोजगार और जीवन-जीविका देखते ही देखते खत्म कर दिए गए। निस्संदेह ही इसकी सबसे बड़ी मार प्रवासी मजदूरों पर पड़ी है। आर्थिक कठिनाइयों के बोझ तले कुचले जा रहे मजदूरों को सरकारी उदासीनता और अलगाव के एक गहरे कुएं में धकेल दिया गया। अपने घर-परिवार से सैंकड़ों किलोमीटर दूर शहरों में फंसे और अकेलेपन से जूझते इन प्रवासी मजदूरों को हैरान-परेशान हालात में बेसहारा छोड़ दिया गया। दूसरी ओर, कोई प्रत्यक्ष आर्थिक या अन्य मदद प्रवासी या स्थानीय मजदूरों तक नहीं पहुंचाई गयी। एक महीना पार होते-होते उनके कंगाल होने की नौबत आ गयी। कई दिनों से भूख और कंगाली झेलते मजदूरों के पास सफर तक के लिए भी पैसे नहीं बचे थे। वे घर का किराया दे पाने की स्थिति में भी नहीं रह गए थे और किसी भी दिन उनको घर-निकाला मिल सकता था। अंततः उन्हें गांव पर अपने रिश्तेदारों के माध्यम से, जिनकी खुद भी नौकरियां छूट चुकी थीं, अत्यधिक ब्याज दरों पर कर्ज लेना पड़ा ताकि वे जीवित रहने लायक संसाधन जुटा सकें और रास्ते के लिए भी कुछ बचा पायें। इससे उन प्रवासी मजदूरों, जो पहले से ही जल्द से जल्द घर पहुंचना चना चाह रहे थे, के दिलों में विषाद की भावना और गहरा गयी। सरकारों से उन्हें पहले से ही कोई उम्मीद नहीं थी। जब वे घर जाने के लिए निकले, तो मदद दिए जाने के बजाय उन्हें पुलिस द्वारा बर्बरता से पीटा गया और वापस भगा दिया गया। इससे उनका भरोसा और हिल गया, वे स्तब्ध रह गए और विकल्पहीनता की एक गहरी खाई में धकेल दिए गए। यहीं से उनका लाखों की संख्या में पलायन शुरू हुआ, जब मजदूर सारे आदेशों, उपेक्षाओं, अनुरोधों और घोषणाओं को पीछे छोड़ पैदल ही अपने गांव के तरफ चल दिए। किसी ने सोचा नहीं था कि मजदूरों का ऐसा उल्टा पलायन होगा, वो भी इतनी बड़ी संख्या में। मजदूरों के पलायन के दृश्यों को देखकर भारत के बटवारे के दिनों की तस्वीर हमारे सामने नाच जाती है। इसने हमें सिनेमाई रचनात्मकता के साथ 73 साल पहले हुए भारत-पाकिस्तान बटवारे के पलों को फिर से जीने को मजबूत कर दिया। गरीब मजदूरों द्वारा उठाये गये इस कदम से पता चलता है कि उनके अन्दर ‘जनतंत्र’, संविधान और न्यायतंत्र प्रति एक विरक्ति की भावना व्याप्त होती जा रही है। ‘आजादी’ पर कोई कितना भी गर्व कर ले, लेकिन यह सच है कि इससे गरीबों और दबे कुचले तबकों के जीवन में कोई ज्यादा मूल बदलाव नहीं आया है।
बाद में जब चौतरफा आलोचना का सामना करना पड़ा, यहां तक कि संवेदनहीन और बिकी हुई मीडिया भी सच्चाई छुपा ना पाई और प्रवासी मजदूरों के पक्ष में बोलने को बाध्य हो गयी, तब दबाव में आ कर सरकार ने मजदूरों को उनके गांव पहुंचाने के लिए कुछ ‘श्रमिक स्पेशल’ ट्रेनें चलाई। लेकिन मजदूरों के लिए यह विकल्प तो सड़कों पर हजारों किलोमीटर पैदल चलने से भी ज्यादा दुखदाई और खतरनाक साबित हुआ। यह ट्रेनें अत्यधिक देरी से चलती हुईं कभी-कभी तो गंतव्य तक पहुंचने में 9 से 10 दिन लगा देती हैं और इस बीच छोटे बच्चे, बूढ़े , बीमार और कमजोर लोग तीव्र भूख, प्यास से सूखते कंठ, भीषण गर्मी और अत्यधिक थकावट की भेंट चढ़ जाते रहे हैं।
गरीब जनता के दूसरे हिस्से को, यानी गांव और शहरों में झोपड़ियां डाल कर रह रहे गरीब लोगों को, जिनकी आर्थिक स्थिति कोरोना महामारी से उत्पन्न हुए संकट के कारण पूरी तरह ध्वस्त हो गयी है, भी कोई वास्तविक मदद नहीं दी गयी। अतः बढ़ती बेरोजगारी से उपजी भूख और दरिद्रता की आग में आज समस्त गरीब जनता झुलसने को बाध्य है।
संक्षेप में, अखिल भारतीय हड़ताल का आह्वान तब आया जब सैकड़ों करोड़ प्रवासी व स्थानीय मजदूर एवं गांव और शहर की गरीब जनता अपने जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी से गुजर रही थी और कोविड-19 के मद्देनजर किये गए लॉकडाउन व पहले से मौजूद व गहराते आर्थिक संकट के और बढ़ जाने के सीधे असर से पैदा हुई बेरोजगारी, भूख, बुनियादी संसाधनों की कमी के साथ-साथ अपमान और पुलिस बर्बरता ने भी उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय बना दी थी। इसके साथ ही सरकार की अविश्वसनीय उपेक्षा उनकी आर्थिक स्थिति को और भयावह बनाने के लिए काफी है। बहुत से बुर्जुआ मानवतावादी कार्यकर्ताओं को भी यह आभास हो रहा है कि अगर स्थिति को उचित तरीके से संभाला ना गया, तो असंतुष्ट जनता का गुस्सा फूटेगा जो कि एक व्यापक स्वतःस्फूर्त विद्रोह का रूप भी ले सकता है। अतः सरकार और बुर्जुआ राज्य की स्थिरता पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है और क्रांतिकारी परिस्थिति की कुछ शर्तें भी पूरी होती दिखती हैं। हालांकि, आत्मगत कारकें अभी भी तैयार नहीं हैं, क्योंकि मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी ताकतें बुरी तरह बिखरी और भटकी हुई हैं।
उपरोक्त पृष्ठभूमि में केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की भूमिका
क्या हड़ताल करते यूनियनों ने इस बेहद अनुकूल क्रांतिकारी परिस्थिति को मजदूर वर्ग की निर्णायक लड़ाई की तरफ मोड़ने की कोशिश की? क्या वे रस्मअदायगी से बाहर निकल कर क्रांतिकारी सर्वहारा जनांदोलनों के नये युग की तरफ आगे बढ़ेंगे, जिसके लिए परिस्थितियां दिन प्रतिदिन और अधिक परिपक्व होती जा रही हैं? क्या उन्होंने कोविड-19 के बाद के हालात में गहराते आर्थिक संकट का गंभीरता से मुल्यांकन करते हुए मजदूर वर्ग के संघर्षों के एक नये सुत्रपात के लिए अपनी भूमिका पर दोबारा मंथन किया है? क्या वे एक ऐसा संघर्ष चलाने को तैयार हैं जो बुर्जुआ हमलों के सामने खड़ा हो सके और अंततः उसे पलट सके?
जरा सोचिये! दो महीने बीत गए हैं और अभी तक प्रवासी मजदूर अपने परिवार के साथ, अपनी कुल जमा गृहस्थी सर पर उठाये शहरों से अपने गृहजनपदों तक का जोखिमभरा सफर अनंत कठिनाइयों के बीच तय करने को विवश हैं। वहीं दूसरी तरफ, श्रमिक स्पेशल ट्रेनें अपने गंतव्य स्थलों से भटक कर कहीं और ही पहुंच जा रही हैं जिसके कारण कई दिनों से विषम परिस्थितियों में सफर कर रहे बेबस मजदूर बिना खाने-पानी के कुछ और दिन जीवित रहने को जद्दोजहत करते हैं और अंततः विफल हो कर प्रचंड गर्मी, भूख और प्यास से बेमौत मारे जा रहे हैं। इन घटनाओं से पूरे देश में फैलता आक्रोश और आम जनमानस के बीच की अशांतिपूर्ण हलचल साफ देखी जा सकती हैं। जो सीधे तौर पर इन नारकीय परिस्थितियों में जी रहे हैं, उनके बीच भी एक किस्म की बेचैनी व्याप्त होती जा रही है। भारत के अन्यथा मजबूत बुर्जुआ-फ़ासिस्ट शासन में दरारें आनी शुरू हो गयी हैं।
क्या 22 मई के हड़ताली केंद्रीय यूनियनों ने इस विकट परिस्थिति को, जो जनता के गुस्से की आग को समाज में फैलाने का माद्दा रखता है, वास्तव में अपने व्यवहार से संबोधित किया? क्या केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की जमीनी तैयारी और राजनीति जनता के अन्दर मौजूद इस बेचैनी के समरूप है?
अभी तक, रेलवे पुलिस फोर्स द्वारा 6 दर्जन ऐसी मौत (श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में हुईं) की घटनाएं सामने लाई जा चुकी हैं। हालांकि जो मजदूर यह जानलेवा ‘श्रमिक स्पेशल’ यात्रा कर चुके हैं उनके हिसाब से मृतकों की संख्या इन आंकड़ों से कहीं ज्यादा है। यह और कुछ नहीं, केंद्र में बैठी कॉर्पोरेट और बड़े पूंजीपतियों की चहेती सरकार द्वारा खुली वर्गीय घृणा का प्रदर्शन है। गांव वापस ना जाने का सरकारी फरमान ठुकराने पर प्रवासियों को सजा सुनाई जा रही है। हर हालत में घर पहुंचने की उनकी निरंतर उठती मांग के लिए उन्हें कैदखानों में ठूंसा जा रहा है। ज्ञातव्य है कि इसके पहले, 667 से ज्यादा मजदूर रेल और सड़क दुर्घटना में मारे जा चुके हैं। बहुतों ने तो पुलिस की लाठियों के आगे दम तोड़ दिया। इनकी कुल संख्या 15 बताई जा रही है। वहीं, घर पहुंच चुके मजदूरों की घरेलु आर्थिक स्थिति अब तक गर्क में जा चुकी है। अगर सरकार पर शीघ्र ही उन तक आर्थिक सहायता पहुंचाने, उन्हें रोजगार देने और आजीविका चलाने हेतु सहयोग करने के लिए दबाव नहीं बनाया गया तो बढ़ती बेरोजगारी, भूख और गरीबी उन सबको भी मौत के घाट उतार देगी। और जैसा कि इतिहास गवाह है, सरकार को केवल जनता की ताकत के बल पर ही मजबूर किया जा सकता है।
क्या हड़ताली केंद्रीय यूनियन इन भूखे और बदहाल लोगों के एक संगठित जन आन्दोलन के लिए आह्वान करने को तैयार हैं? अगर नहीं, तो इस तरह की निरंतर लेकिन लक्ष्यहीन एक-दिवसीय मजदूर हड़ताल, जिसकी कोई क्रांतिकारी दिशा ना हो, सरकार के फैसले और रुख को क्या किसी भी तरह प्रभावित कर पायेगी? केंद्रीय ट्रेड यूनियनों को इस मुद्दे पर अपना आंकलन पेश करने की जरूरत है कि इस हड़ताल से सरकार पर आखिर क्या असर पड़ा है। कोई खास प्रभाव ना दिखने पर उन्हें संघर्ष के अगले चरण की घोषणा करनी चाहिए। क्या वे यह करने के लिए तैयार हैं?
इन हड़तालों का इतिहास और अनुभव यही बताता है कि इस हड़ताल से सरकार के निर्णयों पर कोई ठोस असर नहीं पड़ने वाला। जो अधिकतम हो सकता है वह यह कि इनके नेताओं की आत्मसंतुष्टि के लिए उन्हें कुछ मंत्रियों के साथ बैठक के लिए सरकार आमंत्रित कर सकती है। तो क्या हम ये कह सकते हैं कि ये हड़ताल बिलकुल निरर्थक साबित हुई है? जवाब हां हो या ना, लेकिन समय तेजी से निकलता चला जा रहा है और हम अभी तक इस समस्या से बाहर निकलने के लिए कोई कारगर रणनीति बनाने में असफल रहे हैं। लेकिन इतना तय है कि मजदूर वर्ग के संगठनों की एकता ही उस दिशा में बढ़ने का प्रस्थान बिंदु हो सकता है। लेकिन यह भी हमारी पहुंच के बाहर साबित हो रहा है। जिनके पास तत्परता और क्रांतिकारी उत्साह तथा राजनीति है, वे त्वरित हस्तक्षेप हेतु पर्याप्त जनता को लामबंद कराने के लिहाज से बहुत छोटे हैं, और जो बड़े संगठन हैं जिनके पास मजदूरों का पर्याप्त जनाधार है उनके अन्दर कोई कारगर हस्तक्षेप की चाहत बाकी नहीं है, क्रांतिकारी राजनीति की तो बात ही छोड़िये। वे अभी तक रस्मअदायगी से ही संतुष्ट दिखते हैं और अपनी पुरानी केचुल छोड़ने को तैयार नहीं लगते।
एक-दिवसीय हड़ताल का महत्त्व
कोई भी अखिल भारतीय आह्वान, चाहे वह एक-दिवसीय ही क्यों ना हो, बेशक एक बड़ा आह्वान है। लेकिन सही दृष्टिकोण, दिशा और लक्ष्य के बिना उसका कोई महत्त्व नहीं। एक-दिवसीय अखिल भारतीय हड़ताल सेना के फ्लैग मार्च के समान होती है। हमारे संदर्भ में इसे सर्वहारा वर्ग (की सेना की) का फ्लैग मार्च माना जाना चाहिए। किसी भी सेना के फ्लैग मार्च की तरह इसे भी सर्वहारा वर्ग के हितों के विरोधियों और हमलावर दुश्मन ताकतों के दिलों में भय का संचार करना चाहिए। इस तरह से, एक-दिवसीय हड़तालों को, पूर्ण हड़ताल और अपनी मुक्कमल ताकत का प्रदर्शन करने से पहले अपनी मांग पूरी करवाने या अपने दुश्मन को पीछे हटाने और आक्रमण को रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण हथियार के रूप में लिया जाना चाहिए और लिया भी जाता है। इसीलिए जब भी ऐसा आह्वान किया जाता है तब सभी एक साथ आ कर काम करने को तैयार होते हैं। लेकिन यह भी सच है कि ऐसी एक-दिवसीय हड़तालों की कोई स्पष्ट दिशा या पुर्णतः परिभाषित उद्देश्य नहीं होता जिससे सरकार द्वारा ‘फ्लैग मार्च’ को अनसुना किये जाने के उपरांत आगे का (अनुवर्ती) संघर्ष उठाया जा सके।
संक्षेप में, एक-दिवसीय हड़ताल को पूंजीपतियों और उनकी सरकारों को पीछे हटाने, उनके हमलों को रोकने एवं मजदूरों की मांग नहीं माने जाने के फलस्वरूप हड़तालों के जरिए एक निर्णायक युद्ध के शंखनाद की तरह लिया जाना चाहिए। स्वाभाविक है कि ऐसी हड़तालों के बाद इनके प्रभाव का और विशेषतः मजदूर वर्ग और आम जनमानस के मनोबल पर पड़े प्रभाव का सही-सही मूल्यांकन किया जाना चाहिए, और इसके आधार पर हमें लड़ाई के अगले चरण की तैयारी करनी चाहिए। एक-दिवसीय हड़ताल का उद्देश्य एकमात्र इसी तरह समझा जाना चाहिए।
लेकिन ऐसी हड़तालों का इतिहास क्या है? क्या केंद्रीय ट्रेड यूनियनें उपरोक्त दिशा में चली हैं? क्या वे कम से कम 22 मई की हड़ताल के बाद अपनी दिशा बदलेंगी? इन सारे महत्वपूर्ण सवालों पर हमें तत्काल गौर करने की जरुरत है। अब कोविड-19 द्वारा लाये गए संकट की पृष्ठभूमि में, जिसने मजदूर वर्ग के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है, वर्ग-सचेत मजदूरों को, जिनके कंधों पर ऐसी हड़तालों को सफल करने की जिम्मेदारी होती है, इसके ऊपर गंभीरता से विचार करना चाहिए और आन्दोलन की एक सही और क्रांतिकारी दिशा सूत्रबद्ध करने एवं अपनाने हेतु पूरे कैंप को बाध्य करना चाहिए।
एक या दो-दिवसीय हड़तालों के नाम पर पिछले तीन दशकों से हमें जो मिला है वो इसके बिलकुल विपरीत है। संक्षेप में, जहां एक तरफ पूंजीपति वर्ग मजदूरों के द्वारा सौ सालों में जीते हुए सारे अधिकार छीनने की मंशा से उन पर लगातार हमले तेज कर रहा है, तो वहीं दूसरी तरफ, केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व में मजदूरों ने खुद को केवल फ्लैग मार्च तक ही सीमित कर रखा है। आजकल, यह भी बड़े अनमने और बेतरतीब ढंग से किया जाने लगा है। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों को सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त है और वे केवल किसी तरह अपनी ताकत के प्रदर्शन मात्र को ही संचालित करने में लगे हैं। असल में, उनकी राजनीति देख कर बहुत आश्चर्य भी नहीं होता। वे खुद ही मानते हैं कि उनकी राजनीति का मकसद मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था को सुव्यवस्थित तरीके संचालित करना है, ना कि उसे उखाड़ फेकने का वाहक बनना है। उन्होंने एक नए समाज, जहां लोगों की समस्याओं का पूर्णतः निदान हो सके, का सपना देखना बहुत पहले ही छोड़ दिया था। वे केवल पूंजीपतियों के अथाह संपत्ति पर कर (टैक्स) और सीलिंग लगाने की राजनीति से संतुष्ट हैं। उनकी राजनीति केवल मजदूरों के प्रतिनिधियों को संसद तक पहुंचाने की लड़ाई तक सिमित है, जिससे चंद मजदूरपक्षीय नीतियां बनाई जा सके और कुछ पूंजी विरोधी कानून पारित किये जा सकें। उनकी राजनीति बस इतनी ही है। अतः यह स्वाभाविक है कि जो ‘फ्लैग मार्च’ ये करते और करवाते हैं, और बीते कई दशकों से दिखाते आये हैं, ये वो ‘फ्लैग मार्च’ नहीं हैं जो इसे होना चाहिए था।
आज के गंभीर संकट के दौर में, ऐसी राजनीति का कोई मतलब नहीं। इसका कोई ज्यादा आधार भी नहीं बचने वाला है। ऐसी ट्रेड यूनियन राजनीति और प्रैक्टिस की पहले भी एक सीमा थी। और अब उस सीमा की भी सीमा आ चुकी है। पुरानी अवसरवादी ट्रेड यूनियन की राजनीति के दिन लग गये हैं और फासीवाद के आगमन के बाद तो यह बिलकुल ही कालातीत हो चुके हैं, क्योंकि यह लड़ाई उन पुराने घिसे-पिटे रास्तों से नहीं लड़ी जा सकती है, जिनमें पूंजी के खिलाफ प्रतिरोध की क्षमता ही ना बची हो। ट्रेड यूनियनों की पूंजी-विरोधी राजनीति और प्रैक्टिस को दुबारा से पुनर्जीवित करने और उनका क्रांतिकारीकरण करने की आवश्यकता है। जमीन पर मौजूद मजदूर वर्ग की सच्ची क्रांतिकारी ताकतों के बीच इसके लिए छटपटाहट साफ दिखाई देती है। समय की मांग है कि केंद्रीय ट्रेड यूनियन खुद को पुनर्जीवित करें और पुन: विकसित करें ताकि वो मजदूर वर्ग को ठीक तूफानों के बीच से उन पर विजय पाते हुए और सफलतापूर्वक उसका संचालन करते हुए बाहर निकाल सकें। इन केंद्रीय यूनियनों के अन्दर की अपनी लड़ाकू कतारें उनसे बड़े हमलों की मांग करती हैं, लेकिन वे तरह-तरह के ढोंग रच कर इससे लगातार बचते रहते हैं। इसीलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि केंद्रीय ट्रेड यूनियन अपने पुराने अस्तित्व की छाया मात्र रह गए हैं और दूसरे मंच उनकी जगह लेते जा रहे हैं। लेकिन क्या ये नए वैकल्पिक मंच मजदूर वर्ग आन्दोलन में एक स्पष्ट दिशा के साथ खुद को उभार पाएंगे? इस सवाल का जवाब मिलना अभी बाकी है।
अतः यह आसानी से समझा जा सकता है कि ऐसे आह्वान पूंजीपतियों और सरकारों के, जो इन्हें लगातार नजरअंदाज करते रहते हैं, दिल में भय क्यों नहीं पैदा करते, जैसे मानो वो जान चुके हों कि यह एक बूढ़े और कमजोर हो चुके शेर की दहाड़ मात्र है। यह अब विशुद्ध रूप से रस्म-अदायगी में तब्दील हो चुका है और केवल एक बंधा-बंधाया काम बन चुका है। जब भी कोई हमला होता है, वे चिट्ठियां लिखते हैं और अधिक से अधिक एक या दो-दिवसीय हड़ताल का आह्वान कर देते हैं। बस इतना ही कुल काम रह गया है। अगले आक्रमण के बाद भी वे यही दोहराएंगे। किसी भी अन्य सामान्य कार्य की भांति यह कार्यक्रम बस यूं हीं निरंतर चलता रहता है, वो भी इसके प्रभावों का कोई मुल्यांकन किये बिना।
हालांकि कोई यह कहते हुए इसका विरोध कर सकता है कि इससे उनके मनोबल को ठेस पहुंच सकती है। तो फिर, इन एक-दिवसीय सांकेतिक हड़तालों के नाम पर बीते इतने सालों में क्या किया जा रहा है (जो संभवतः आगे भी जारी रहेगा) एक अनसुलझा सवाल बन आगे भी यूं ही यह अनसुलझा ही रह जायेया। बात यह है कि जिस दुर्बल तरीके से इन अनमने आह्वानों को ये जमीन तक ले जाते हैं और केवल इसे दोहराने में लगे रहते हैं, वो एक बकरे के मिमियाने जैसा ही है। हम देख सकते हैं कि इसी वजह से सरकारों ने, चाहे वो यूपीए की सरकार हो या मोदी की, इन्हें कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। नतीजा वही हुआ जो होना था। मजदूर अपना अधिकार चुपचाप त्यागने और पूंजी के बेबस गुलाम बनने के लिए विवश होते गए हैं। मजदूर वर्ग के सभी दुर्गों और किलों को कब्जे में ले कर ध्वस्त कर दिया गया है। लेकिन इन तीक्ष्ण हमलों के फलस्वरूप ही सही, इस स्थिति में अब कुछ बदलाव देखा जा सकता है।
जवाबी हमलों की तरफ बढ़ना
मजदूर वर्ग की मुख्यधारा के ट्रेड यूनियन आन्दोलन की अनेकों (उपरोक्त चर्चित) कमजोरियों के बावजूद, लॉकडाउन की परिस्थिति में विभिन्न कानूनों, जैसे महामारी अधिनियम, आदि, के तहत गिरफ्तारियां का खतरा मोले लेते हुए भी 22 मई की हड़ताल का बेहद सफल होना यह साफ दिखाता है कि मजदूर वर्ग इससे कहीं ज्यादा गंभीर और बड़े आह्वान के लिए तैयार है, बशर्ते ट्रेड यूनियनों या अन्य मंच/मोर्चों के पास ऐसे आह्वान को लाने और मजदूर वर्ग के सामने रखने की हिम्मत और ताकत मौजूद हो। इसके लिए जमीन तैयार होती जा रही है। ऐसी स्थिति में एक हड़ताल का दुर्बल आह्वान भी एक मुक्कमल जवाबी हमले में बदलने की क्षमता रखता है, लेकिन शर्त है कि लड़ाकू कतारों द्वारा नीचे से गंभीर हस्तक्षेप किया जाये। सही ही कहा गया है कि “वे हड़तालें जो पूंजीवादी समाज के स्वरूप के कारण जन्म लेती हैं, समाज की उस व्यवस्था के विरुध्द मजदूर वर्ग के संघर्ष की शुरुआत की द्योतक होती हैं।”
इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि मजदूर वर्ग, अपने छोटे संगठनों से भी, परम त्याग की महान परंपरा के साथ जनाक्रोश के शीर्ष पर सवार हो कर एक मुक्कमल जवाबी हमले को अंजाम दे सकता है। फिर वही छोटे मजदूर संगठन और ट्रेड यूनियन जो दिन रात मजदूरों के बीच कार्यरत हैं, इस जवाबी हमले के वाहक बन कर उभरेंगे। इसके अन्य और भी कारण हैं। भारत में फासीवादी शक्तियों का उभार सभी सच्ची क्रांतिकारी ताकतों को लामबंद होने पर और पुनर्एकत्रीकरण के लिए मजबूर कर रहा है, वहीं जमीन पर स्थिति जैसे-जैसे परिपक्व हो रही है उसके साथ ही कई पिछड़े और सड़े तत्व भी किनारे लगते जा रहे हैं। यहां से एक असाधारण संकट फूट सकता है। आर्थिक संकट के गहराने और मेहनतकश आवाम के साथ अन्य वर्गों व तबकों की भी आर्थिक स्थिति बद से बदतर होने के कारण पुराने ढर्रों में दरारें पड़ती जा रही हैं और उनमे से नई चिंगारियां उठ रही हैं। इसके साथ ही, आन्दोलन में मौजूद सड़ांध भी सतह पर आने को मजबूर है। सभी जगह काफी स्वतःस्फूर्तता महसूस की जा सकती है। यह जनांदोलनो के लिए जमीन तैयार कर रहा है, और लगता है कि सतह से उठता यह जनांदोलन लड़ाकू ताकतों की लामबंदी को नेतृत्वकारी स्तर के साथ-साथ जमीनी स्तर पर भी नयी दिशा में पुन: एकत्रित होने के लिए बाध्य कर रहा है। पूरे देश में जमीन से आती रिपोर्ट के साथ-साथ ‘मासा’ जैसे मजदूर वर्ग के वैकल्पिक मंचों की गतिविधियों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मजदूर वर्ग, जो कि संकटों और राजकीय दमन के बीच लगातार शिक्षित हो रहा है, परिस्थितियों को अपने हाथ में लेने और क्रांतिकारी रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए बाध्य हो रहा है। लेकिन एक बात तय है, मजदूर वर्ग की छोटी लेकिन सच्ची ताकतों को एकजुट होना होगा या कम से कम किसी तरह के कार्यक्रम आधारित समन्वय को आपस में स्थापित करना होगा ताकि बिना और देरी किये वे मजदूर वर्ग के दुर्जेय योद्धा बन सकें। इसके बिना, हमारे लाख चाहने के बावजूद हमारी उपरोक्त ख्वाहिशें पूरी नहीं की जा सकती हैं, या कम से कम पर्याप्त मात्रा में तो नहीं ही की जा सकती हैं।
हड़ताल पर लेनिन की शिक्षा की रौशनी में आज के सबक
पूंजीवादी व्यवस्था में जमीन, फैक्ट्री, औजार आदि पर मुट्ठीभर भूस्वामियों और पूंजीपतियों का कब्जा होता है। ऐसी व्यवस्था में, किसी देश की बहुसंख्यक आबादी के पास या तो कोई संपत्ति नहीं होती या बहुत कम संपत्ति होती है। अतः उन्हें खुद को उजरती श्रम के रूप में भूस्वामियों और फैक्ट्री मालिकों के पास काम पर रखना पड़ता है। वे ‘आजाद’ हैं और चाहें तो खुद को काम पर नहीं भी रख सकते हैं, लेकिन ऐसे में उनका दूसरा विकल्प है भोजन के अभाव में मर जाना। जब वे काम पर रखे जाते हैं, तो वे अपने मालिकों के लिए माल (अलग-अलग तरह के सामान) तैयार करते हैं जिसे वो बाजार में बेचता है और मुनाफा कमाता है, जिसका एक हिस्सा वापस उत्पादन में लगा दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि मजदूरों को मजदूरी नहीं मिलती। उन्हें मजदूरी मिलती है, लेकिन केवल उतनी ही जिससे वे अपने और अपने परिवार के लिए बमुश्किल जीने के संसाधन जुटा पाएं। इसके (दी गयी मजदूरी के) अतिरिक्त मजदूर जो भी उत्पादन करता है वो सब मालिक के पास मुनाफे के रूप में संचित होता चला जाता है। संक्षेप में, जैसा कि लेनिन कहते हैं, पूंजीवादी व्यवस्था में “जन समुदाय दूसरों का उजरती मजदूर होता है, वह अपने लिए काम नहीं करता, अपितु मजदूरी पाने हेतु मालिकों के लिए काम करता है।”
मालिक (फैक्ट्री मालिक, आदि) हमेशा मजदूरी घटाने और काम के घंटे बढ़ाने की कोशिश करता है। यह पूंजीपतियों का वर्ग चरित्र है और उस वर्ग में सभी के लिए यह पूर्णत: सच है। वे ऐसा करते हैं क्योंकि काम के घंटे बढ़ाने से उनका मुनाफा बढ़ता है, और हम जानते हैं, मुनाफा ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सार अर्थात इसका मूल तत्व है जिसके बिना पूंजीवाद का कोई अस्तित्व संभव नहीं। वहीं दूसरी तरफ, मजदूर चाहते हैं कि उन्हें ज्यादा मजदूरी मिले ताकि औरों की तरह वे भी अपने परिवार को पर्याप्त भोजन, अच्छे कपड़े, आरामदायक घर एवं अन्य सुविधाएं दे सकें। इस तरह मजदूरों और मालिकों के बीच मजदूरी और सुविधाओं को ले कर निरंतर संघर्ष जारी रहता है। जैसा कि लेनिन कहते हैं, “जहां मालिक सबसे सस्ते (कम मजदूरी पर मजदूर) की तलाश करता है, वहीं मजदूर सबसे महंगे (ज्यादा मजदूरी देने वाले मालिक) की तलाश करता है।” इससे फर्क नहीं पड़ता कि मजदूर किस मालिक के पास काम कर रहे हैं, वे हमेशा उससे मजदूरी के लिए मोल-भाव करेंगे और लड़ेंगे, या तो व्यकिगत स्तर पर या संगठित हो कर। लेकिन उन्हें धीरे धीरे यह एहसास होता है कि अकेले वे बिल्कुल कमजोर और असहाय हैं। और इसी के साथ वे अपने मजदूर साथियों के साथ एकताबद्ध होना शुरू करते हैं। इसी के साथ वे यूनियन बनाना शुरू करते हैं।
जैसे-जैसे तबाह हो रहे किसान काम की तलाश में गांवों से शहर या फैक्ट्री की तरफ आते हैं, वैसे-वैसे मजदूरों की संख्या बढ़ती जाती है। वहीं दूसरी तरफ, फैक्ट्री मालिक और भूस्वामी मशीने लगाते हैं। पूंजी का विकास और तकनीक या मशीन मजदूरों से उनका काम छीन लेते हैं। बेरोजगारों की संख्या बढ़ने के साथ ही, भुखमरी और बदहाली से जूझते लोगों की सख्या भी दिन प्रतिदिन बढ़ती जाती है। जिसके फलस्वरूप मजदूरी कम से कमतर होती जाती है। मालिक पगार काटना शुरू कर देते हैं। एक समय के बाद, मजदूरों के लिए इसके खिलाफ लड़े बिना जीना ही संभव नहीं रह जाता। दूसरी तरफ, ऐसी स्थिति में, अगर यूनियन के मजदूर ज्यादा मजदूरी की मांग करते हैं या मजदूरी में कटौती की खिलाफत करते हैं तो मालिक उनके खिलाफ यूनियन के बाहर के असंगठित बेरोजगार मजदूरों और युवाओं को उनके सामने खड़ा कर देता है। मालिक अप्रत्यक्ष रूप से मजदूरों को ये बताना चाहता है कि इतनी बड़ी बेरोजगार जनता के दम पर वो उन्हें बाहर भी निकाल सकता है। वे (मालिक और सरकार) देखते हैं कि बहुत से बेरोजगार और भूखे मजदूर शहरों में और उनके फैक्ट्री गेट पर घुमते रहते हैं जो इससे भी कम मजदूरी पर काम करने को तैयार होंगे। यहीं मजदूर वर्ग का राजनैतिक संघर्ष काफी महत्वपूर्ण हो जाता है जो सभी (शहरी और गाव दोनों की) मेहनतकश गरीब जनता और युवाओं से एक बैनर के नीचे संगठित हो कर पूंजीवाद के खिलाफ विद्रोह करने का आह्वान करे। यहीं तात्कालिक मुद्दों पर लड़ने वाला एक ट्रेड यूनियन आन्दोलन, सभी दबे कुचले वर्गों द्वारा पूंजीवाद के खिलाफ एक राजनैतिक जनांदोलन में तब्दील करने की क्षमतावान ताकत में तब्दील होने की कूवत रखता है। यहीं एक ट्रेड यूनियन आन्दोलन एक पूंजीवाद-विरोधी क्रांतिकारी आन्दोलन से एकाकार होने की तरफ बढ़ता है, क्योंकि यहां ही तात्कालिक मांगों को पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के खात्मे के दीर्घकालिक मांगों से जोड़ा जा सकता है।
यह परिस्थिति तब आती है जब समाज को एक संकटग्रस्त स्थिति जकड़ लेती है जो चारों ओर से उत्पादक शक्तियों का विनाश करने लगती है, खास कर के मजदूर मेहनतकश जनता का। आज वैश्विक आर्थिक संकट की स्थिति, जो कोविड-19 के आने के बाद और गहरी हो गयी है, एक ऐसी ही परिस्थिति है। मौजूदा हालात में पूंजीवाद विनाश पर उतारू है और एक ऐसे संकट का सबब बन गया है जिससे पुरी मजदूर मेहनतकश जनता का अस्तित्व खतरे में आ गया है।
जब फैक्ट्री मालिक विशाल संपत्ति अर्जित कर लेते हैं तो छोटे और मध्यम बुर्जुआ व भूस्वामी भी निचोड़ लिए जाते हैं और प्रतिस्पर्धा से बाहर धकेल दिये जाते हैं। ऐसी स्थिति में, पूंजीवादी संकेन्द्रण और केन्द्रीकरण के सामने मजदूर और भी असहाय हो जाते हैं और उन्हें राजनैतिक चेतना की सख्त जरुरत होती है, जिसके बिना वे पूंजीपतियों का उचित तरीके से और सफलतापूर्वक सामना नहीं कर पाएंगे। ऐसे समय में, उन्हें पता होना चाहिए कि पूंजीपति वर्ग, समाज के बाकी सभी वर्गों को उनकी (सर्वहारा वर्ग की) कतारों में शामिल होने को मजबूर कर देता है और जब तक पूंजीपति वर्ग का खात्मा नहीं हो जाता और पूंजीवादी उत्पादक प्रणाली को पलट कर उसका सामाजीकरण नहीं कर दिया जाता, तब तक उनके दुखों का कोई अंत संभव नहीं है। यही चेतना उनके भी अन्दर आना जरूरी है जो एक पूंजीवादी समाज में पूंजीपतियों के बीच की प्रतिस्पर्धा का शिकार होते हैं, जहां का नियम ही है कि बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। एक क्रांतिकारी चेतना के अभाव में पूंजीपतियों के लिए ‘बाटों और राज करो’ की नीति लागू करना और मजदूरों को कुचल कर उनको नारकीय जीवन की ओर धकेल देना आसान हो जाता है। मजदूर आन्दोलन को यहां मुख्यतः राजनैतिक होना चाहिए, अर्थात आर्थिक मांगों से बिल्कुल स्वतंत्र या चाहे उसके साथ गुंथा हुआ, क्योंकि तब ही ये आन्दोलन उन सभी तबकों को एक साथ ला पायेगा जो हाशिए पर धकेल दिए गए हैं या तबाही के अंतिम कगार पर पहुंचा दिए गए हैं। केवल आर्थिक मांगों पर आधारित आन्दोलन पूंजीपति सरकार को एक तबके को दूसरे के खिलाफ खड़ा करने का अवसर दे देता है जिससे वे पूंजीवादी प्रतिस्पर्धा के भंवर जाल में फंस जाते हैं और आपस में उलझ कर रह जाते हैं। और फिर एकजुट हुई ताकतें भी छिन्न-भिन्न हो जाती हैं और एक दूसरे के खिलाफ खड़े होने को मजबूर हो जाती हैं। हम जानते हैं कि फासीवादी ताकतें इस तरह की नीतियों में निपुण होती हैं, अतः यूनियन से जुड़े हुए और कार्यरत मजदूरों को लड़ कर हासिल किये अधिकार भी गंवाने पड़ सकते हैं। जाहिर है कि अगर मजदूरों के पास कोई श्रम कानून ना हो तो वे पूंजीवादी दमन के खिलाफ कानूनी पक्ष से आवाज उठाने में असफल होते जायेंगे। अतः उनके पास दो ही रस्ते बचते हैं, या तो बर्बादी का रास्ता या फिर खुले विद्रोह का।
आज काम के घंटे बढ़ाने, मजदूरों से 16-18 घंटे काम लेने के पीछे, एक ठोस वजह है। हम पाते हैं कि 6 से 10 साल के छोटे बच्चों को भी कमरतोड़ श्रम करना पड़ रहा है। हमारे सामने भुखमरी और कुपोषण से बेमौत मरते मजदूरों की एक पूरी पीढ़ी खड़ी हो रही है। कोरोना महामारी की पृष्ठभूमि में आज की स्थिति गुलामी और अर्ध-गुलामी के युग से भी भयानक हो चुकी है। आज की सड़ती पूंजीवादी व्यवस्था से ज्यादा भयावह स्थिति शायद ही कभी इतिहास में हुई हो जहां मजदूरों को एक लद्दू जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता। जो भी बचे-खुचे कानून हैं, उन्हें भी लगातार छीना जा रहा है। आज शायद ही संविधान पर चलने वाली कोई संस्था बाकी बची हो जो मालिकों और सरकार के मनमाने रवैये को काबू में कर पाए। आज का खौफनाक व अंधकारमय दौर, जहां उन्हें आगे का रास्ता ना दिख रहा हो, बहुतों को अवसादग्रस्त कर सकता है। ये उन्हें पूर्ण समर्पण और पराजय के तरफ ले जा सकता है। लेकिन यही वह दौर भी है जहां हड़तालों में क्रांतिकारी जनांदोलन बनने की पूरी सम्भावना व्याप्त होती है और इसे केवल नीतियां बदलने की लड़ाई तक सिमित ना रखते हुए पूरी पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकने की लड़ाई में तब्दील किया जा सकता है, बशर्ते सच्ची लड़ाकू ताकतें ठोस परिस्थिति का ठोस मुल्यांकन करते हुए अपनी जिम्मेदारियों को समझ कर आगे आयें।
आज, उस दयनीय स्थिति में खुद को जाने से बचाने के लिए मजदूरों को सुनियोजित, सुसंचालित और दृढ़ निश्चय के साथ लड़ाइयां उठानी होंगी जो तात्कालिक मांगों को दीर्घकालिक राजनैतिक मांगों से जोड़ कर मजदूर वर्ग के साथ-साथ अन्य सभी वर्गों और शोषित तबकों की मुक्ति व आजादी को लक्षित हो। राजनैतिक मजदूर हड़तालों को आर्थिक हड़तालों के साथ जोड़ कर उठाने की आज सख्त जरूरत है। हमें तात्कालिक लड़ाइयां जीतने के साथ मौजूदा पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली को जड़ से हटाने पर आधारित राजनीति की बढ़ती जरूरत को भी प्रचारित करना चाहिए। दोनों को एकबद्ध होना होगा, जैसा कि लेनिन स्वयं लिखते हैं, “तमाम देशों में मजदूरों के रोष ने पहले छिटपुट विद्रोहों का रूप ग्रहण किया… तमाम देशों में इन छुटपुट विद्रोहों ने, एक ओर, कमोबेश शान्तिपूर्ण हड़तालों को और दूसरी ओर, अपनी मुक्ति हेतु मजदूर वर्ग के चहुंमुखी संघर्ष को जन्म दिया।”
अतः हमें हड़तालों को समग्रता में देखने की जरूरत है। लेनिन लिखते हैं, “यदि पूंजीपति ऐसे मजदूर नहीं ढूंढ़ पायें, जो अपनी श्रम-शक्ति को पूंजीपतियों के औजारों और सामग्री पर लगाने और नयी दौलत पैदा करने के लिए तैयार हों, तो फिर कोई भी दौलत पूंजीपतियों के लिए लाभकर नहीं हो सकती।” अतः अगर मजदूर उनके सामने झुकने से इंकार कर दें, तो पहले तो वे असहाय नहीं रह जायेंगे और, दूसरे, वे पूंजीपतियों को अपने सामने झुकने के लिए मजबूर भी कर सकते हैं। ऐसी हड़तालें पूंजीपतियों के दिलों में भय व्याप्त करने को काफी होती हैं, क्योंकि वे उनके वर्चस्व को चुनौती देने लगती हैं। वहीं दूसरी तरफ, मजदूर मेहनतकश भाइयों का हौसला बढ़ता है। वर्ग संघर्ष की राह पर ऐसी हड़तालों को अंजाम दे कर, मजदूर वर्ग उनके मुनाफे के चक्र को रोक सकता है। यह पूंजीपतियों की रूह कंपा देने के लिए काफी है। आज के दौर में हमें ऐसी ही हड़तालों की जरूरत है।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की सम्पूर्ण मशीनरी मजदूरों से ही चलती है। ये मजदूर ही हैं जो हल जोतने से ले कर घर, मशीन, रेल, आदि बनाने तक, यानी, पूरे समाज को चलायमान रखते हैं। जब मजदूर वर्ग-संघर्ष की चेतना से लैस हो कर काम करने से इनकार करते हैं, तो यह पूरी मशीनरी रूक जाती है। अतः जैसा लेनिन कहते हैं, “हरेक हड़ताल पूंजीपतियों को याद दिलाती है कि वे नहीं, बल्कि मजदूर ही वास्तविक स्वामी हैं।” इसका मतलब है कि मजदूरों को अधिकाधिक ऊंचे स्वरों में अपने अधिकारों की मांग की घोषणा करनी चाहिए और उनके लिए लड़ना भी चाहिए। हरेक हड़ताल मजदूरों को भी अपने कद का एहसास कराती है। ऐसी ही मजबूत हड़तालें मजदूरों को एहसास दिलाती हैं कि उन्हें निराश होने की जरूरत नहीं है, और यह कि वे अकेले नहीं हैं। वे इन हड़तालों से पूरे समाज की गरीब जनता पर हुए अनेकों सकारात्मक प्रभाव को भी देख पाते हैं। राजनैतिक हड़तालों में, मजदूर ना सिर्फ अपने लिए एक संगठित नेतृत्वकारी ताकत बनते हैं, बल्कि वे उस पूरे समाज का नेतृत्व भी करते हैं जिसका बड़ा हिस्सा पूंजीवादी शोषण के बोझ तले कराह रहा होता है। तब एक मजदूर केवल अपने बारे में नहीं सोचता बल्कि पूरे समाज, जिसमें उसके मजदूर सहकर्मी, दुनिया के अन्य कोनों के मजदूर भाई और तमाम शोषित उत्पीड़ित गरीब जनता शामिल है, के बारे में भी सोचता है।
एंगल्स कहते हैं कि, “जो लोग एक बुर्जुआ को झुकाने के लिए इतना कुछ सहते हैं, वे पूरे बुर्जुआ वर्ग की शक्ति को चकनाचूर करने में भी समर्थ होंगे।” लेनिन लिखते हैं कि यहां आकर हड़ताल एक ‘युद्ध की पाठशाला’ बन जाता है। वे कहते हैं, “प्रत्येक हड़ताल समाजवाद के विचार को, पूंजी के उत्पीड़न से मुक्ति के लिए पूरे मजदूर वर्ग के संघर्ष के विचार को बहुत सशक्त ढंग से मजदूर के दिमाग में लाती है।”
अतः सच्ची हड़तालें मजदूर वर्ग की मुक्ति का एक अहम शस्त्र है। हड़तालों को सर्वहारा वर्गीय दृढ़ता के साथ छेड़ा जाना चाहिए; केवल तब ही वो एक सच्ची हड़ताल बन पाएंगी और मजदूर वर्ग की मुक्ति के उपरोक्त शस्त्र की भूमिका अदा कर पाएंगी। केवल ऐसी ही हड़तालें मजदूरों में यह भरोसा ला पाती हैं कि वे पूंजीपतियों को समाज की ड्राइविंग सीट से हटा कर खुद एक नेतृत्वकारी भूमिका ले सकते हैं। केवल ऐसी ही हड़तालें मजदूरों को यह सिखा सकती हैं कि उनका संघर्ष ‘मजदूर वर्ग बनाम समूचे फैक्ट्री मालिक वर्ग का संघर्ष है’ और सरकार की मनमानी नीतियों के खिलाफ संघर्ष है। और इसीलिए ऐसी हड़तालों को पूंजीपतियों और उनकी सरकारों के खिलाफ ‘युद्ध की पाठशाला’ भी कहा जाता है। लेनिन लिखते हैं, “ये एक ऐसी पाठशाला है जिसमें मजदूर पूरी जनता को एवं श्रम करने वाले तमाम लोगों को सरकारी अधिाकारियों के जुए से, पूंजी के जुए से मुक्त करने के लिए अपने दुश्मनों के खिलाफ युध्द करना सीखते हैं।”
हालांकि लेनिन यह भी कहते हैं कि, “युद्ध की पाठशाला, अपने आप में युद्ध नहीं होती।” यह सोचना गलत है कि मात्र यूनियन की हड़तालों से उनकी स्थिति में पुर्णतः सुधार हो जायेगा या उनकी मुक्ति हो जायेगी। लेनिन लिखते हैं, “यदि मजदूर संघर्ष करने के अन्य उपायों की ओर धयान नहीं देते, तो वे मजदूर वर्ग की शंक्ति की संवृध्दि तथा सफलताओं की गति धीमी कर देंगे।”
ऐसे गलत विचार आन्दोलन के कुछ हिस्सों में, कम से कम जमीन पर, अभी भी व्याप्त है। लेकिन इनमें से सबसे खतरनाक यह सोच है कि मजदूर या यूनियन इसी तरह निरंतर रस्मअदायगीपूर्ण एक-दिवसीय हड़तालों के सहारे ही सब कुछ हासिल कर लेंगे और सरकार को झुकाने में भी सफल हो जाएंगे। यह बिलकुल ही हास्यास्पद है। यह केवल रस्म-अदायगी भर है और अब इस घोर संकट के काल में इसे बंद हो जाना चाहिए।
अंत में हमें यह समझना होगा कि जब वर्ग-सचेत मजदूर कम्युनिस्ट बनते हैं और क्रांतिकारी सिद्धांत व घोर संकट के काल के मजदूर आन्दोलन की गत्यात्मकता सीखते हैं, एवं मुक्ति के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं और अंततः समाजवाद की विचारधारा को देश भर के मजदूरों के बीच फैलाने के लिए अपने वर्ग-सचेत कॉमरेडों को एकताबद्ध करने की कोशिश करते हैं, तो इससे उन्हें सर्वहारा वर्ग की एक सच्ची पार्टी बनाने की जरूरत महसूस होती है। एक ऐसी पार्टी जो सरकारी दमन से सारी जनता की मुक्ति के साथ-साथ, पूंजीवाद के जुए से सम्पूर्ण मजदूर मेहनतकश अवाम की मुक्ति के लिए भी संघर्ष करे। ऐसी पार्टी, जो मजदूरों को अपने दुश्मनों के खिलाफ लड़ाई के सारे दांव-पेंच सिखा सके, के बनने की प्रमुख शर्त है कि हम उपरोक्त सभी कार्यभार को बखूबी पूरा करें। सिर्फ तब ही मजदूर वर्ग उस महान क्रांतिकारी आन्दोलन का एक अभिन्न अंग बन पायेगा जो सभी को – मजदूर, मेहनतकश, खेतिहर मजदूर, युवा, महिलाएं और अन्य सभी शोषित लोगों और तबकों को एक बैनर के नीचे एकताबद्ध करने के साथ ही उन्हें क्रांतिकारी विचारधारा और राजनीति की महान परंपरा में प्रशिक्षित करके, पूंजीवाद को हमेशा हमेशा के लिए उखाड़ फेकेगा। ऐसी एक क्रांतिकारी पार्टी में एकताबद्ध होने के बाद ही मजदूर पूंजीवाद के खिलाफ विद्रोह का परचम लहरा सकता है। आशा है कि मौजूदा संकट के दौरान उनके कटु अनुभव भी उनको बखूबी ठीक यही सब सीखा रहे होंगे।
मजदूर वर्ग की चट्टानी एकता जिंदाबाद!
पूंजीवाद का नाश हो!
यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 2/ जून 2020) में छपा था
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