विरोध की आवाज पर हमले : “उन्होंने हमें दफनाने की कोशिश की, उन्हें नहीं मालूम था हम बीज हैं”

ए. प्रिया //

इस नवीन दशक की पूर्वसंध्या से ही दुनिया भर में विरोध की एक बड़ी लहर फैली है। भारत में भी 2019 ने शुल्क वृद्धि और शिक्षा के निजीकरण के विरुद्ध छात्रों के विरोध से शुरू कर अंत में एनआरसी-सीएए-एनपीआर के विरुद्ध विरोध के रूप में हालिया भारतीय इतिहास का व्यापकतम जनआंदोलन भी देखा। अभी भी पूरे देश में भोजन, ठिकाने और गांव वापस जाने की मांगों को लेकर प्रवासी श्रमिकों के स्वतःस्फूर्त विरोध जारी हैं। ये सभी विरोध सरकार की जन विरोधी नीतियों और फासीवादी रुझान के खिलाफ सुलगते असंतोष व गुस्से को इंगित कर रहे हैं। किंतु कोरोना महामारी और तालाबंदी की आड़ में राजसत्ता ने यूएपीए, सिडीशन, एनआईए, आदि के अपने पूरे तोपखाने का बेरहम मुंह इन विरोधियों की ओर खोल दिया है। हाल में, जेएनयू छात्रा और सीएए विरोधी कार्यकर्ता नताशा नरवाल और देवांगना कलिता को फरवरी की दिल्ली की हत्यारी मुहिम से जुड़े फर्जी मामलों में गिरफ्तार किया गया है, एक बार जमानत मिल जाने पर एक ही दिन में दूसरी और तीसरी बार तक नये मामले बनाकर जेल भेजा गया है। नताशा को अब उसी अपराध (59/20) में संलग्न कर यूएपीए थोप दिया गया है जो पहले ही सफूरा जरगार, मीरन हैदर, उमर खालिद एवं अन्यों पर लगाया जा चुका है। पिछले साल यूएपीए को और भी दमनकारी बनाने वाले संशोधन के बाद से ही गिरफ्तारियों की एक पूरी मुहिम जारी है। सुधीर धवले, महेश राऊत, शोमा सेन, सुरेन्द्र गाडलिंग, रोना विल्सन, सुधा भारद्वाज, वरवर राव, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुंबड़े, मसरत जहरा, आदि यूएपीए में सलाखों के पीछे डाले जाने वाले सैंकड़ों में से बस चंद नाम हैं।

‘दोषी सिद्ध होने तक निर्दोष’ अब गुजरी बात हो गई है

इन सब गिरफ्तारियों में एक भयावह पैटर्न साफ देखा जा सकता है – अचानक बिना सूचना गिरफ्तारी, एक के बाद एक मामलों की पहले से तैयारी, एक में अदालत से जमानत मिल जाये तो तुरंत दूसरा कोई मामला लगा देना, एक ही पुरानी एफआईआर में अन्य के अंतर्गत नये-नये नाम जोड़ते जाना, यह एक बार फिर नताशा और देवांगना की गिरफ्तारी में साफ देखा गया है जबकि जहां का मामला इनके खिलाफ बनाया गया है ठीक उसी इलाके में बीजेपी के कपिल मिश्रा ने भड़काऊ भाषण दिया था मगर उसका नाम किसी पुलिस रिपोर्ट में नहीं है। यहां तक कि उत्तर-पूर्व दिल्ली के इन मुकदमों को देखने वाले एक जज को भी यह टिप्पणी करने पर मजबूर होना पड़ा कि, “पूरी जांच सिर्फ एक ही निशाने पर केंद्रित दिखाई देती है।” फरवरी के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में जो जनसंहार अंजाम दिया गया था उसमें पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक 53 व्यक्ति मृत हुये जिसमें 38 मुस्लिम थे। इंडियन एक्सप्रेस की 13 अप्रैल की एक रिपोर्ट में सरकारी रवैये का खुलासा किया गया है। इसके अनुसार तालाबंदी के बाद जब घर से काम करते अधिकारियों की वजह से जांच कुछ धीमी हुई तो गृह मंत्रालय ने आदेश जारी किया कि किसी भी हालत में गिरफ्तारियां रुकनी नहीं चाहियें, हालांकि तब तक ही 800 से अधिक लोग गिरफ्तार किए जा चुके थे। इसी तरह 16 मई को द हिंदू में प्रकाशित पीयूडीआर के सचिवों राधिका चित्कारा व विकास कुमार के लेख में खुलासा किया गया है कि लगभग 40 पुलिस रिपोर्टों के विश्लेषण से जाहिर है कि दिल्ली पुलिस इस हिंसा के दोषियों के बजाय इसके शिकार बने लोगों पर कार्रवाई कर रही है।

जमानत अपवाद, कैद नियम – यूएपीए का कायदा

जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के बाहर हुई हिंसा की पुलिस रिपोर्ट में नताशा या देवांगना का नाम नहीं था। किंतु पुलिस ने सभी रिपोर्टों में ‘एवं अन्य’ जोड़कर ऐसा पुख्ता इंतजाम किया है जिसमें किसी को भी जोड़कर, वह वहां उपस्थित भी न रहा हो तब भी, उस पर आरोप लगाया जा सकता है। साफ है कि यह काम इरादतन किया गया है। अतः अगर किसी को एक मामले में निचली अदालत से जमानत मिलती है तो पुलिस तुरंत दूसरी रिपोर्ट में मामला बना उसे वहीं फिर से गिरफ्तार करने के लिए पहले से तैयार रहती है ताकि राजसत्ता की नजर में चढ़े किसी ‘मुलजिम’ को किसी हालत में कोई रियायत न मिलने पाये। न्यायपालिका को पहले ही राजसत्ता का औजार बना दिया गया है ताकि उसके जरिये किसी भी विरोधी को सलाखों के पीछे बंद किया जा सके। गौतम नवलखा के मामले से भी यही जाहिर है। लंबे वक्त से बीमार 68 साला नवलखा की अंतरिम जमानत पर दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई चल ही रही थी, कि एनआईए ने बिना उनके वकील या परिवार को सूचित किए उन्हें चुपके से मुंबई की जेल में भेज दिया ताकि उनका मामला दिल्ली हाईकोर्ट के कार्यक्षेत्र से ही बाहर हो जाये और उन्हें जमानत न मिले। इसी तरह मुंबई की विशेष अदालत में सुधा भारद्वाज की अंतरिम जमानत की याचिका रद्द कर दी गई जबकि उनकी उम्र और बीमारियों की वजह से उन्हें उस जेल में पूरा जोखिम है जहां पहले ही कोविड के मामले सामने आ चुके हैं। एक तरफ जहां कानून में बताया जाता है कि ‘जमानत कायदा है, कैद अपवाद’ वहीं राजसत्ता आतंक के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत करने वाले निर्दोष विरोधियों को तमाम हथकंडों का इस्तेमाल कर दंडित कर रही है।

इतिहास से सबक लेते फासिस्टों ने तुलनात्मक ‘शांतिपूर्ण’ तरीके से राज्यतंत्र को घुन की तरह अंदर से अपने नियंत्रण में ले लिया है। अदालतें कठपुतली की तरह संविधान के जनतांत्रिक ढांचे को चिथड़े-चिथड़े होता देख रही हैं। उत्तर-पूर्व दिल्ली की हिंसा में बीजेपी के कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर व प्रवेश वर्मा के खिलाफ कार्रवाई का आदेश देने वाले दिल्ली हाईकोर्ट जज मुरलीधरन का तुरंत तबादला न्यायपालिका पर उनके कसे जबड़ों की गवाही दे रहा है। मानवाधिकार एवं छात्र कार्यकर्ताओं, वकीलों, प्रोफेसरों, बुद्धिजीवियों, लेखकों सभी को उस यूएपीए में कैद किया जा रहा है जिसमें जमानत मिलना लगभग नामुमकिन है और सामान्य कानूनों के ठीक उल्टे मुलजिम पर ही अपने निर्दोष होने के सबूत पेश करने का जिम्मा है। नतीजा होता है लंबा मुकदमा जिस दौरान राजसत्ता की ख्‍वाहिश मुताबिक आरोपी सड़कों से नजरों से दूर कैद में सड़ता रहता है। यह तो मुकदमा नहीं सजा ही है, और ‘दोष सिद्ध होने तक निर्दोष’ का बेरहम प्रहसन। इसी तरह राजद्रोह का अंग्रेजों का बनाया कानून है जो आजाद भारत में भी बदस्तूर कायम है। इसके अनुसार किसी भी जरिये सरकार के प्रति नाखुशी जताने वाले व्यक्ति को इस इल्जाम में बंद किया जा सकता है। साफ है कि सरकार के विरुद्ध किसी भी अधिकार के लिए किसी भी प्रकार विरोध जताने या सवाल पूछने वाले किसी भी व्यक्ति पर ऐसा इल्जाम आयद किया जा सकता है। फरवरी में कर्नाटक में सीएए विरोधी नाटक का प्रदर्शन करने वाले एक स्कूल के शिक्षकों-छात्रों को भी इसका आरोपी बनाया जा चुका है।

कुछ की खुशी के लिये बहुतों के अधिकारों का हनन

जैसा प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषणों में इंगित किया है, सरकार ने यह कहते हुये एक किस्म की ‘इमरजेंसी’ आयद कर दी है कि हम युद्ध जैसी स्थिति से दरपेश हैं और जनता को बलिदान हेतु तैयार रहना चाहिये। पर इस बलिदान का असली मतलब नागरिक के तौर पर हमारे सभी अधिकारों का खात्मा है। यह न सिर्फ असहमति प्रकट करने वालों पर हमला है, बल्कि बहुत कठिन संघर्षों से हासिल किए गये श्रमिक अधिकारों को भी बेदर्दी से कुचला जा रहा है। उन्हें ये अधिकार किसी शासक ने अपनी रहमदिली से अता नहीं फरमाये थे बल्कि इन्हें हासिल करने के लिये दुनिया के मजदूरों ने अपने खून-मज्जा की बड़ी कुर्बानी वाले विकट संघर्षों के जरिये हासिल किया था। पर अब संकटग्रस्त सरमायेदारों के हितपोषण के लिये इन अधिकारों को छीना जा रहा है और मजदूरों की हालत मात्र जुआ ढोने वाले मवेशियों में तब्दील करने की कोशिश की जा रही है। 13 राज्यों ने काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 करने का ऐलान किया है। उप्र, मप्र, गुजरात जैसे राज्यों ने तो सारे के सारे श्रम अधिकार ही निलंबित कर दिये हैं जिससे मजदूरों को कार्यस्थल पर सुरक्षा, यूनियन बनाने, शांतिपूर्वक विरोध करने जैसे मूल अधिकार भी खत्म कर दिये गये हैं। श्रम अधिकारों के निलंबन से कारख़ाना मालिकों को सफाई, रोशनी, आराम अवधि, साप्ताहिक अवकाश एवं अन्य जरूरी सुविधायें उपलब्ध कराने की आवश्यकता भी समाप्त हो गई है। इस माहौल में 2017 की मारुति जैसी नृशंस घटना, जिसमें यूनियन बनाने व ठेका मजदूरी प्रथा को समाप्त करने जैसे अपने अधिकारों के लिये संघर्षरत श्रमिकों पर भारी दमन व जुल्म ढाया गया था और 13 श्रमिक नेताओं को फर्जी हत्या के मामले में आजन्म कारावास की सजा दी गई थी, अब सामान्य घटनाक्रम बन जाने की पूरी संभावना है।

कोविड महामारी और तालाबंदी का इस्तेमाल पूंजीपति वर्ग को विश्व पूंजीवादी संकट के तूफान से सुरक्षित बचाने के लिये किया जा रहा है। विरोधियों एवं कार्यकर्ताओं की बढ़ती गिरफ्तारियां एवं श्रमिक अधिकारों को खत्म करने का प्रयास शासक वर्ग की बढ़ती बेचैनी का परिचायक है। निरंतर बदतर और लगभग स्थायी प्रतीत होता वैश्विक आर्थिक संकट सरकार को बेकरारी भरे कदम उठाने को विवश कर रहा है। पूंजीवाद का अंतर्निहित अति-उत्पादन का संकट खुद पूंजीपतियों के मुनाफे को संकट में डाल रहा है। महामारी के पहले ही बाजार में जिंसों की भरमार थी और उद्योग स्थापित क्षमता के मात्र दो तिहाई पर उत्पादन करने पर विवश थे। महामारी के बाद तो आर्थिक हालात और भी बदतर हुये हैं, बढ़ती छंटनी और आकाश छूती बेरोजगारी के कारण न सिर्फ जनता की क्रय शक्ति बेहद गिरी है, बल्कि खुद पूंजीपति वर्ग भी स्थिति को अंधकारमय पाकर बेचैन हो रहा है। मुनाफे की पूंजीपतियों की कभी संतुष्ट न होने वाली हवस के चलते उन्हें विश्व के सभी उपलब्ध संसाधनों की लूट का खुला मौका चाहिये। इसके लिये हर असहमत आवाज का गला घोंटा जाना और हर उठती उंगली को काट दिया जाना जरूरी है। इन गिरफ्तारियों और मानवाधिकारों के दमन के जरिये भारतीय राजसत्ता ठीक यही कर रही है।

किंतु विरोध व असहमति की हर आवाज को कुचलने का मौजूदा फासीवादी हुकूमत का हर कदम पूंजीवाद को अपने विनाश की ओर ले जाता है। जनतंत्र के पर्दे को हटाकर फासिस्ट शासकों द्वारा सीधे दमन के कदम जनता की आंखों से ओझल नहीं रहेंगे। कोविड महामारी जनित भूख, गरीबी, बेरोजगारी और बेघरी के मौजूदा मानवीय संकट के बीच इन गिरफ्तारियों ने बहुत से लोगों को सरकार के इरादों पर सवाल उठाने के लिये विवश किया है। फासिस्ट हुकूमत हमेशा समाज में असंतुलन और उथल-पुथल पैदा करती है, अतः बढ़ता जुल्म और दमन अंततः अवाम को प्रतिरोध के द्वारा यथास्थिति को पलटकर शक्ति संतुलन को बदल देने के लिये विवश करेगा। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा है जब कठोरतम दमन के सम्मुख शक्तिशाली जनसंघर्ष उठ खड़े हुये, चाहे वो फ्रांसीसी क्रांति हो जब भूख और गरीबी से पीड़ित मेहनतकश जनता ने शासक वर्ग के खिलाफ जंग छेड़ी, या वो रूसी क्रांति हो जहां विश्व युद्ध के दौरान जार के जुल्मों ने जनता को भूमि, शांति और रोटी का सवाल बुलंद कर स्थापित व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिये प्रेरित किया।

आज भारत के अवाम की सहने की हद का इम्तहान लिया जा रहा है। एक ओर मेहनतकश अवाम को कुछ हद तक हिफाजत देने वाले श्रम अधिकार छीने जा रहे हैं, दूसरी ओर, इसे चुनौती देती उत्पीड़ित जनता की हर आवाज का गला घोंटा जा रहा है। श्रमिक अवाम और समाज के अन्य सभी प्रगतिशील हिस्सों को इतिहास के इस तथ्य को समझना होगा कि ऐसा जुल्म हमेशा इतिहास की सर्वोच्च ताकत, जनता, के सामने घुटने टेकने को मजबूर होता आया है। बीमार पूंजीवादी हुकूमत की सड़न ने ही मौजूदा फासिस्ट शासन को जन्म दिया है, और वह खुद एक जहरीला वृक्ष बन चुकी है जिसे क्रांतिकारी अवाम एक दिन जरूर इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देंगे। अभी उनका और अंततः पूरी मानवता का जीवन इस पर निर्भर है कि वो फासिस्ट हुकूमत और इसको जन्म देने वाले पूंजीवाद दोनों से निजात हासिल करें।

विरोध की आवाज को कुचलने वाला बुर्जुआ फासिस्ट शासन मुर्दाबाद!

यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 2/ जून 2020) में छपा था

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