एम. असीम //
2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौर में लीमान ब्रदर्स के दिवालिया होने के वक्त बहुत से भलेमानुसों का सोचना था कि अपने इस संकट की वजह से अब नवउदारवाद कदम पीछे हटाने को विवश होगा। मगर तभी ओबामा के चीफ ऑफ स्टाफ और वित्तीय क्षेत्र के पूर्व बड़े प्रबंधक राम इमैनुएल ने यह मशहूर बयान दिया था, “इतने गंभीर संकट को यूं ही बरबाद नहीं किया जाता। मेरा मतलब है कि ऐसे मौके का लाभ उठाकर वो तमाम काम किए जा सकते हैं जिन्हें करने के बारे में पहले सोचा भी नहीं जा सकता था।” उसका मतलब था कि सभी संकट शासक पूंजीपति वर्ग के लिए अपने नवउदारवादी लूट के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने का अच्छा मौका होते हैं ताकि वो सार्वजनिक संपत्ति और सेवाओं का निजीकरण और तेजी से कर पायें और सरमायेदार तबके का मुनाफा बढ़ाने हेतु मेहनतकश तबके के खून की अंतिम बूंद तक निचोड़ने के लिए श्रमिक अधिकारों पर हमला और भी तेज कर सकें। कोविड महामारी के दौरान भी यही घटनाक्रम जारी है।
इसीलिये पहले ही संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था में कोविड महामारी से पैदा घनघोर मानवीय व आर्थिक संकट के बीच जब प्रधानमंत्री मोदी ने 20 लाख करोड़ के पैकेज के साथ ‘आपदा के अवसर’ में बदलने की बात कही तो उनका मतलब समझना कतई मुश्किल नहीं था, क्योंकि न सिर्फ यह दुनिया भर के शासक पूंजीपति वर्ग का पसंदीदा मुहावरा है, बल्कि कई सप्ताह से अनेक बुर्जुआ विश्लेषक इस बात की रट लगाये थे कि ऐसा संकट ही ‘तीव्र सुधारों’ के लिए सर्वश्रेष्ठ मौका है। अतः वित्त मंत्री ने जब टीवी सीरियल वाले अंदाज में पैकेज का बखान शुरू किया जो अंत में 22 मई को रिजर्व बैंक गवर्नर के बयान से खत्म हुआ, तो इन ‘सुधारों’ की प्रकृति का कुछ अंदाजा तो सबको था, मगर इसकी पूरी जानकारी के बाद आम लोगों को तो कुछ मिलना ही नहीं था मगर बहुत कुछ मिलने की घोषणाओं के बावजूद ज्यादातर बुर्जुआ विश्लेषक भी ‘खोदा पहाड़ निकला चूहा’ वाले अंदाज में निराश ही हुये क्योंकि इसमें 20 लाख करोड़ रु जैसा कहीं कुछ था ही नहीं। हिंदू बिजनेस लाइन ने 10 मई को लिखा, “पैकेज में मुख्यतः कर्ज, नकदी प्रवाह और ढांचागत सुधार हैं लेकिन केंद्र के द्वारा असल खर्च नाममात्र का ही है जो इस साल की जीडीपी में 15-18 लाख करोड़ रु की भारी गिरावट की भरपाई लायक कुछ नहीं है।” हम इस पैकेज की संख्याओं पर अधिक स्थान जाया नहीं करेंगे क्योंकि उसका बुलबुला तो पहले ही अधिकांश विश्लेषकों ने यह कहते हुये फोड़ दिया है कि ये 20 लाख करोड़ के बजाय एक-डेढ़ लाख करोड़ रु के अधिक करीब है। इसमें सरकार की ओर से वास्तविक खर्च के बजाय ढेरों ऋण योजनायें, नकदी प्रवाह बढ़ाने वाले कदम और कुछ ऐसे कदम हैं जिनमें ‘क’ के ही पैसे को ‘क’ को ही देने का ऐलान शामिल है, जैसे आयकर रिफंड, लघु उद्योगों द्वारा आपूर्ति किए गए माल का भुगतान या वेतन में से भविष्य निधि (पीएफ़) कटौती घटाना, आदि।
नकदी प्रवाह – खूब कर्ज बांटो
अतः यहां हमारा मुख्य मकसद यह जानना है कि ‘आपदा में अवसर’ ढूंढने के इस मंथन में आपदा किसकी है और अवसर किसके हाथ लगा तथा सरकार ने नकदी, श्रम, भूमि व कानून के क्षेत्रों में जिन ऐतिहासिक सुधारों का दावा किया है उनकी असलियत क्या है। जहां तक नकदी प्रवाह बढ़ाने का सवाल है एक तो रिजर्व बैंक लगातार बैंकों को नकदी प्राप्त करने पर ब्याज दर अर्थात रिपो दर को लगातार कम करते हुये 4% पर ले आया है और इसकी उल्टी अर्थात बैंकों द्वारा रिजर्व बैंक में नकदी जमा करने पर मिलने वाला रिवर्ज रिपो बज दर 3.35% ही रह गई है। इसके अतिरिक्त रिजर्व बैंक खुले बाजार में कई अन्य तरह के रिपो ऑपरेशन के जरिये लाखों करोड़ सस्ती पूंजी का प्रवाह करता आ रहा है। इसके पहले उसने बैंकों द्वारा रखे जाने वाले न्यूनतम कैश की मात्रा भी 4% से 3% कर 1.37 लाख करोड़ रु अतिरिक्त नकदी बैंकों के हाथ में दे दी थी।
दूसरी ओर कर्ज लेने वालों के पास नकदी बढ़ाने के लिए उसने उन्हें 6 महीने कर्ज की किश्त जमा करने से छूट दी है। इसके बाद भी इन 6 महीने का ब्याज उन्हें एक और अतिरिक्त कर्ज की शक्ल में दे दिया जायेगा। साथ ही बहुत सारे ऋणों को समय पर जमा न किए जाने पर खराब ऋण या एनपीए में वर्गीकृत करने से भी बैंकों को छूट दी गई है और अगले एक साल तक बैंक किसी कर्जदार के खिलाफ दिवालिया का वाद भी दायर नहीं करेंगे। पर इससे कर्जदारों को राहत कैसे मिलेगी बल्कि ऐसे तो इन कर्जदारों पर कर्ज की मात्रा और इसके भुगतान का दबाव और अधिक बढ़ जायेगा।
अब वित्त मंत्री ने लगभग 8 लाख करोड़ की अन्य विभिन्न कर्ज योजनाओं का ऐलान किया है जिसमें लघु-मध्यम उद्योगों के लिए 3 लाख करोड़ रु की बिना जमानत/रेहन वाली सरकारी गारंटी पर दिये जाने वाले कर्ज, बिजली वितरण कंपनियों को राज्य सरकार की गारंटी पर 90 हजार करोड़ रु के ऋण सहित कृषि आधारभूत ढांचे, मत्स्यपालन, मधुमक्खी पालन, गैर बैंक वित्त कंपनियों, गृह वित्त कंपनियों, माइक्रोफाइनंस कंपनियों तक के लिए ऋण की कई योजनायें शामिल हैं।
असल में आजकल जब भी कहीं आर्थिक संकट होता है पूंजीपति वर्ग की सबसे बड़ी मांग दो ही होती हैं। एक, ब्याज दर कम करना और दो, इस सस्ती ब्याज दर पर भारी मात्रा में नकदी उपलब्ध कराना। इसके पीछे मुख्य तर्क है कि सस्ते ब्याज पर खूब कर्ज मिलने से व्यवसायी पूंजी निवेश बढ़ाएंगे, जिससे रोजगार सृजन होगा। फिर सस्ते ब्याज वाले कर्ज और जमा पर कम ब्याज मिलने से उपभोक्ता भी पैसा बैंक में रखने के बजाय उपभोग बढ़ाएंगे तथा कर्ज लेकर घर, कार, उपभोक्ता माल खरीदेंगे। इससे मांग का विस्तार होकर अर्थव्यवस्था में उछाल आयेगा। पर क्या वास्तव में ऐसा होता है?
सर्वप्रथम सवाल तो यह है कि क्या मुद्रा बाजार में वास्तव में नकदी की कमी है? पिछले कुछ सप्ताह से रिजर्व बैंक के अपने आंकड़े बता रहे हैं कि बैंक औसतन 8 लाख करोड़ रु से ज्यादा रिजर्व बैंक के पास रिवर्ज रिपो दर अर्थात 3.35% पर जमा कर रहे हैं लेकिन 8-10% की ब्याज दर पर बाजार में कर्ज नहीं दे रहे हैं। स्पष्ट है कि नकदी की कमी का कोई प्रश्न ही अब तक खड़ा नहीं हुआ है। असल में तो स्थिति यह है कि बैंक अभी यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि वर्तमान संकट में कौन सा पूंजीपति बचेगा और कौन सा डूब जायेगा। अतः वे सूद से होने वाली आय के बजाय अपने कर्ज के मूलधन की सुरक्षा को तरजीह दे रहे हैं।
वास्तविकता यह है कि जब तक बाजार में मालों की पर्याप्त माँग न हो और उद्योग पूर्वस्थापित उत्पादन क्षमता से भी नीचे काम कर रहे हों, जैसा अभी भारत में हो रहा है, तो वे सस्ता कर्ज लेकर भी अधिक पूंजी निवेश नहीं कर सकते। पर जब बेरोजगारी 26% पर पहुंच चुकी हो तथा रोजगार सृजन व आय में वृद्धि होने की कोई संभावना न हो, तब उपभोक्ता भी नए ऋण लेने का जोखिम लेने के बजाय अपने उपभोग की मात्रा को और कम ही करते हैं। इसी प्रकार बहुत से मध्यवर्गीय लोग जिनके लिए ब्याज आमदनी का एक बड़ा जरिया है वह भी कम ब्याज दरों से आय में हुई गिरावट की आशंका से ख़रीदारी बढ़ाने के बजाय और अधिक बचत करने का ही प्रयास करेंगे। घर, कार, टीवी, आदि सभी तरह के स्थायी व रोजमर्रा के उपभोग की सामग्री की बिक्री में कमी की मुख्य वजह यही है। पूंजीवादी व्यवस्था में ‘अति-उत्पादन’ की इस स्थिति से बाहर निकलने का एक ही रास्ता होता है कि कुछ कमजोर पूंजीपति दिवालिया होकर बाजार से बाहर हो जायें ताकि उनके हिस्से का बाजार प्राप्त कर बाकी पूंजीपतियों का कारोबार फिर चल सके।
पूंजीवादी व्यवस्था में बैंक व अन्य वित्तीय पूंजीपति औद्योगिक पूँजीपतियों को निवेश के लिए कर्ज के रूप में पूंजी देते हैं। बदले में औद्योगिक पूंजीपति अपने कुल मुनाफे में से एक हिस्सा उन्हें ब्याज के रूप में चुकाते हैं। अगर अर्थव्यवस्था में औसत लाभ की दर गिर रही हो तो उनके लिए अधिक ब्याज दर चुकाना नामुमकिन हो जाता है और वे ब्याज दर कम करने की मांग करते हैं। ऐसे में बैंक भी बचत कर अपनी पूंजी उनके पास जमा करने वालों को इस जमाराशि पर मिलने वाले ब्याज की दर घटा देते हैं क्योंकि बैंक मुख्यतः इस जमाराशि में से ही औद्योगिक पूंजीपतियों को कर्ज देते हैं। अतः ब्याज दर कम करना मुनाफे की गिरती दर के संकट का नतीजा है, इसका समाधान नहीं। न ब्याज दर कम करने से पहले कभी अर्थव्यवस्था के संकट का कोई समाधान हुआ है, न अब होगा। इसीलिए भारत में भी ब्याज दरों में लगातार कटौती के बाद भी वृद्धि दर गिरती ही जा रही है। हां इसका एक असर होगा कि बहुत से मध्यमवर्गीय लोग, खास तौर पर सेवानिवृत्त लोग, जो बचत पर मिलने वाले बैंक ब्याज को अपने जीवनयापन का आधार मान रहे थे उनके जीवन में संकट बहुत तेजी से बढ़ने वाला है क्योंकि पूंजीपति वर्ग अब इतना अधिशेष या लाभ उत्पन्न नहीं कर पा रहा है कि उसमें से इन्हें एक ठीकठाक हिस्सा दे सके।
ज्यादा कर्ज अर्थात ज्यादा डूबे हुये कर्ज
तब सरकार व रिजर्व बैंक की इन कर्ज योजनाओं से क्या हासिल होगा? एक, जमानत/रेहन बगैर सरकारी गारंटी पर मिलने वाले जोखिम मुक्त कम ब्याज दर वाले नये कर्ज लेकर कुछ पूंजीपति अपने पुराने अधिक ब्याज दर वाले कर्ज चुका सकेंगे। इससे ब्याज चुकाने का उनका बोझ घटेगा। नए कर्ज जल्दी से एनपीए नहीं माने जायेंगे और दिवालिया वाद भी दायर नहीं होगा। बाद में जब ये कर्ज डूब जायेंगे तो सरकारी गारंटी के तहत सार्वजनिक धन से इनका भुगतान होगा जिसकी भरपाई अंत में आम जनता को ही करनी पड़ेगी – अप्रत्यक्ष करों, ऊंचे भाड़ों/दामों/शुल्कों व सामाजिक सेवाओं पर खर्च में कटौती के जरिये।
साफ है कि इन योजनाओं के जरिये बैंकों के ऋण भुगतान संकट को छिपाया और कुछ वक्त के लिए स्थगित किया जा रहा है। इंडिया रेटिंग्स के अनुमान अनुसार कोविड़-19 संकट की वजह से वित्तीय वर्ष 2020-21 में 5.5 लाख करोड़ रु के नए कर्ज डूब कर पहले से ही डूबे 9 लाख करोड़ रु में जुड़ जाने वाले हैं अर्थात कुल डूबे कर्ज 14 लाख करोड़ रु हो जायेंगे। सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के मुखिया महेश व्यास ने तो टिप्पणी ही की है, “केंद्र का पैकेज समस्या का समाधान नहीं करता बल्कि और अधिक एनपीए सृजित करता है।”
जहां तक स्रोत पर कर कटौती की दर कम करना या कर्मचारी भविष्य निधि में कटौती की दर घटाना या आयकर रिफंड जल्दी देने का सवाल है इनसे कुछ हद तक नकदी प्रवाह तो जरूर बढ़ेगा। जैसे स्रोत पर कर कटौती कम करने से 50 हजार करोड़ रु करदाताओं के हाथ में रहेगा। पर यह कर समाप्त नहीं होगा बल्कि अंत में उन्हें देना ही होगा। जहां तक भविष्य निधि या आयकर रिफंड का पैसा है वह तो पहले ही उसी व्यक्ति का अपना था, उसे ही मिल जाने से उसे कोई वास्तविक राहत नहीं मिलने वाली। इसे किसी आर्थिक राहत पैकेज का हिस्सा बताने से बड़ा मज़ाक क्या हो सकता है?
ढांचागत ‘सुधार’ – निजीकरण व ईज ऑफ डुइंग बिजनेस
पैकेज का एक बड़ा हिस्सा वह है जिन्हें सरकार ‘ढांचागत सुधार’ कहती है पर असल में निजीकरण और उदारीकरण के जरिये भारतोय अर्थव्यवस्था को वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में एकीकृत करने वाले कदम हैं। समस्त ‘राष्ट्रवादी’ प्रचार के बीच खुद वित्त मंत्री ने स्पष्ट किया है कि आत्मनिर्भर भारत अभियान का अर्थ भारत को विश्व अर्थव्यवस्था से अलग-थलग करना नहीं है। अतः वृद्धिउन्मुख क्षेत्रों में ढांचागत सुधारों के जरिये उन्हें अधिक निवेश तथा उत्पादन के लिए स्वतंत्र करना है। इनमें 8 क्षेत्र – कोयला, खनिज, रक्षा उत्पादन, हवाई क्षेत्र प्रबंधन, हवाई अड्डे, वायुयानों का रखरखाव, बिजली वितरण कंपनियाँ तथा परमाणु ऊर्जा शामिल हैं। इन सभी में निजी क्षेत्र हेतु निवेश के सभी रास्ते खोल दिये गए हैं, रक्षा उत्पादन में विदेशी निवेश की सीमा 51% से बढ़ाकर 74% कर दी गई है, और अंतरिक्ष शोध व परमाणु ऊर्जा में निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा निर्मित सुविधाओं का प्रयोग कर उसका व्यवसायिक प्रयोग कर सकेगा। कोयला व अन्य खनन को व्यवसायिक बनाया जायेगा जिसके लिए 50 हजार करोड़ रु का निवेश कर ढांचागत सुविधायें सरकार उपलब्ध करायेगी। पर इस सार्वजनिक निवेश के मुख्य लाभार्थी अदानी पावर, टाटा पावर, जेएसडबल्यू एनर्जी, रिलायंस पावर, वेदांता जैसी कंपनियां होंगी।
इसी से हम पूंजीवादी व्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को भी कुछ हद तक समझ सकते हैं जो समाजवाद की ओर कदम नहीं बल्कि पूंजीवादी राजसत्ता द्वारा समस्त पूंजीपति वर्ग के स्वार्थ को आगे बढ़ाने के लिए स्थापित किया जाता है। उदाहरण के तौर पर सार्वजनिक धन के द्वारा पिछले 70 सालों में इसरो व अन्य संस्थानों ने जो क्षमता व ज्ञान हासिल किया है उसे जनता के जीवन में उत्थान हेतु सामूहिक हित में प्रयोग करने के बजाय अब निजी पूंजीपतियों के दोहन के लिए दे दिया जायेगा ताकि वे इसके द्वारा कम पूंजी निवेश पर भारी लाभ कमा सकें। कुछ समय बाद पता चलेगा कि सार्वजनिक शोध संस्थानों के वैज्ञानिकों द्वारा सामाजिक निवेश के आधार पर अर्जित समस्त ज्ञान को इन निजी पूँजीपतियों की ‘बौद्धिक संपत्ति’ घोषित कर दावा किया जाने लगेगा कि उनके द्वारा किए गए इस बौद्धिक विकास पर उन्हें अच्छा मुनाफा मिलना ही चाहिये। अमेरिकी नासा के ढांचे का प्रयोग कर एलन मस्क के स्पेस-एक्स यान को छोड़ा जाना भी यही प्रदर्शित करता है। इसी तरह सामाजिक निवेश से अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा, औषधियों, सूचना प्रौद्योगिकी, आदि में किए गए शोध से प्राप्त ज्ञान को समस्त समाज के हित में प्रयोग करने के बजाय निजी पूंजीपतियों की ‘बौद्धिक संपत्ति’ बनाया जाता रहा है। कोविड राहत पैकेज के नाम पर नवउदारवादी लूट-खसोट के द्वारा निजी पूंजी संचय की यह प्रक्रिया और भी तेज की जा रही है।
वायेबिलिटी गैप फंडिंग – निजी पूंजी को भेंट
इसके साथ ही वित्त मंत्री ने सामाजिक क्षेत्रों में निजीकरण और पब्लिक प्राइवेट साझेदारी बढ़ाने के लिए 8100 करोड़ रु की वायेबिलिटी गैप फंडिंग या वीजीएफ़ का भी ऐलान किया। इसके तुरंत बाद ही नीति आयोग ने राज्यों को पत्र लिख कर कहा कि वे सरकारी जिला अस्पतालों के निजीकरण और पीपीपी मॉडल में मेडिकल कॉलेज खोलने के लिए वीजीएफ़ का प्रयोग करें। इसका अर्थ है कि अब सरकार निजीकरण से पैसा जुटाने के बजाय निजीकरण करते हुये उल्टे निजी क्षेत्र को सार्वजनिक धन से मदद देगी ताकि उनके ऊंचे मुनाफे में कमी की कतई कोई गुंजाइश न हो। नीति आयोग के मुताबिक जिला अस्पतालों को अपने नियंत्रण में लेने वाले निजी पूंजीपतियों के मुनाफे को सुनिश्चित करने के लिए उनके द्वारा किए जाने वाले निवेश का 30% इस वीजीएफ के जरिये दिया जायेगा। अर्थात जहां कोविड महामारी के दौरान निजी स्वास्थ्य सेवाओं के विनाशकारी अनुभव के बाद पूरी दुनिया में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को सार्वत्रिक व सशक्त करने की जरूरत बताई जा रही है वहां भारत सरकार जितनी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था अभी है उसे भी निजी करने का काम तेज कर रही है जबकि सामाजिक जरूरत के इस दौर में निजी क्षेत्र स्वास्थ्य सेवा से या तो पूरी तरह गायब पाया गया है या इसे लाशों के ढेर पर की गई लूट का जरिया बना रहा है।
यह वीजीएफ असल में क्या होता है इसे भी समझना चाहिये। उदाहरण वास्ते अंबानी की मुंबई मेट्रो को लेते हैं जिसकी कुल लागत 2356 करोड़ बताई गई थी, जिसमें से अंबानी ने मात्र 1896 करोड़ लगाए, शेष 660 करोड़ उसे केंद्र-राज्य सरकार ने दिये वीजीएफ़ के नाम पर। इसके बदले में सरकार को कंपनी में एक शेयर तक न मिला, वैसे तो उससे भी अधिक कुछ होता नहीं, जिसका कंपनी पर नियंत्रण होता है असली कमाई वो ही करता है। पर खैर, हमारा मुद्दा अभी वीजीएफ है। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप में जो पूंजीपति पूंजी लगायेगा उसे कम से कम एक निश्चित दर पर मुनाफा मिलना चाहिये, नहीं तो पूंजीपति निवेश नहीं करेंगे और ‘विकास’ ठहर जाएगा। उदाहरणार्थ प्रोजेक्ट रिपोर्ट 16% न्यूनतम मुनाफा दर के आधार पर बनाई जायेगी। इसके बाद संभावित आय का हिसाब लगा होने वाले मुनाफे का हिसाब देखा जाता है। जैसे प्रोजेक्ट की कुल लागत 1300 रु है और उस पर संचालन खर्च के बाद सालाना नेट आय 160 रु होगी तो 16% लाभ हेतु पूंजी निवेश 1000 रु से अधिक नहीं हो सकता। अतः सरकार पूंजीपति को 16% लाभ सुनिश्चित करने के लिए 1300 रु कुल लागत में से 300 रु देती है ताकि निजी पूंजीपति 1000 रु निवेश से ही 1300 रु पूंजी का मालिक बन जाये! यहां एक मुद्दा तो लागत को अधिक और संभावित आय को कम दिखाकर की जाने वाली खुली बेईमानी का भी है जो भारतीय पूंजीवाद का सर्वज्ञात रहस्य है। इसके जरिये अक्सर बैंक लोन और वीजीएफ मिलकर ही कुल प्रोजेक्ट लागत से अधिक होता है और पूंजीपति अपनी ओर से एक धेला लगाना तो दूर प्रोजेक्ट पूरा होने के पहले ही कुछ मुनाफा कमा लेता है। इसी वजह से कई पूंजीपति प्रोजेक्ट अधूरे छोड़ने की प्रवृत्ति के लिए ‘मशहूर’ हैं। दूसरा बेईमानी वाला तरीका है जो मुंबई मेट्रो में अंबानी ने अपनाया – आमदनी / लाभ की गणना 6-15 रु का टिकट मानकर की गई थी पर चालू होते ही उसने भाड़ा 10-40 रु कर दिया। संविधान और जनतंत्र के चौकीदार सुप्रीम कोर्ट ने भी इसमें बाधा देने को अंबानी की आजादी का हनन माना! आम तौर पर पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के नाम पर यही सब होता है। कहा ही जाता है कि इस मॉडल का अर्थ है लाभ सारा प्राइवेट, हानि सारी पब्लिक वाली पार्टनरशिप।
किंतु मुख्य बात यह कि सभी को ‘प्रतिभा, परिश्रम व जोखिम से अमीर बनने का समान मौका’ देने वाली पूंजीवादी व्यवस्था असल में पूंजीपतियों के लिए न्यूनतम लाभ सुनिश्चित करने हेतु तो सार्वजनिक धन व संपत्ति तक को उपहारस्वरूप निजी मालिकाने में सौंप देती है जबकि श्रमिकों के लिए जीने लायक न्यूनतम मजदूरी, काम के घंटे, सुरक्षा उपाय, शौचालय जैसी न्यूनतम मानवीय सुविधायें उपलब्ध कराने को मालिकों-मजदूरों के मध्य ‘स्वतंत्र कांट्रैक्ट के समान जनवादी-संवैधानिक अधिकार’ का उल्लंघन माना जाता है; सबको न्यूनतम आय हेतु रोजगार गारंटी या बेरोजगारी भत्ता तो छोडिये न्यूनतम मजदूरी के आधे पर ही ग्रामीण मजदूरों को 100 दिन काम की गारंटी की आधी अधूरी योजना तक को पैसे की बरबादी बताया जाता है; सुप्रीम कोर्ट तो खाना मिलने पर मजदूरी पाने के अधिकार से ही इनकार कर देता है; और सब के लिए भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य पर खर्च को ‘टैक्सपेयर’ के पैसे की बरबादी व खैरात करार दिया जाता है।
कानूनी व नियामक परिवर्तन
श्रम कानून संशोधनों के अतिरिक्त सरकार अन्य कई क़ानूनों व नियमों में परिवर्तन करने जा रही है। एक, दिवालिया कानून के अंतर्गत कार्यवाही को एक वर्ष के लिए स्थगित रखना जिसकी चर्चा पीछे हो चुकी है। दो, कृषि विपणन कानून (एपीएमसी एक्ट) में परिवर्तन कर किसानों को अपने उत्पाद देश में कहीं भी बेचने की अनुमति देना। इससे धनी किसानों और कृषि उत्पादक कंपनियों को गरीब किसानों से सस्ते दामों पर खरीद कर सीधे शहरी उपभोक्ताओं को महंगे दाम पर बेचने से जो मुनाफा होता है उसमें हिस्सा बांटने का मौका मिलेगा, जो धनी फार्मर संगठनों की पुरानी मांग रही है। पर निश्चित ही इससे न तो किसी गरीब-सीमांत किसान का कोई लाभ होने वाला है न ही शहरों-गांवों की मेहनतकश व निम्नमध्यवर्गीय जनता को कृषि उत्पाद सस्ते मिलने वाले हैं। तीसरे, लघु-मध्यम उद्योगों में वर्गीकरण की पूंजी निवेश सीमा बढ़ाना जिससे इसके जरिये मिलने वाले लाभों तुलनात्मक रूप से बड़े पूंजीपतियों को उपलब्ध होंगे और छोटे उत्पादकों के बरबाद होने की पूंजीवादी प्रक्रिया को और गति मिलेगी। चौथे, कृषि एवं कृषि आधारित व्यवसाय संबंधी विविध योजनाओं के जरिये इन सब में औपचारिक संगठित पूंजीवादी व्यवसाय को बढ़ावा देना। पांचवां, सार्वजनिक क्षेत्र को चंद रणनीतिक सेक्टर तक सीमित कर निजी क्षेत्र को सभी क्षेत्रों में निवेश का मौका खोलना।
साथ ही वित्त मंत्री ने कॉर्पोरेट क्षेत्र को कानूनी प्रावधानों के पालन में बड़ी रियायतें देने का ऐलान किया है। स्टॉक एक्स्चेंज में सूची बद्ध कंपनियों को अभी तक जो कानूनी प्रावधान का पालन करना पड़ता है अब उसके बड़े हिस्से से गैरसूचीबद्ध कंपनियों को छूट दे दी गई है। तुरंत ही कुछ कंपनियों ने खुद को गैरसूचीबद्ध करने की प्रक्रिया भी आरंभ कर दी है। यहां गौर करने लायक तथ्य यह है कि सभी पूंजीपति सूचीबद्ध और गैर सूचीबद्ध दोनों तरह की कंपनियां चलाते हैं और उनके द्वारा की जाने वाली गबन-जालसाजियों का बड़ा हिस्सा अपनी इन दोनों प्रकार की कंपनियों में आपसी लेन-देन के जरिये ही किया जाता है। अब इसकी बहुत सारी जानकारी छिपी रहेगी। साथ ही कंपनी कानून के बहुत सारे उल्लंघनों को अब तक आपराधिक कृत्य माना जाता था और जेल की सजा हो सकती थी। अब उन्हें दीवानी मामलों में बदला जायेगा जिसमें अपवादस्वृप कभी कार्रवाई होने पर भी सिर्फ जुर्माने से मामले को रफा-दफा किया जा सकेगा।
श्रम कानूनों में ‘सुधार’
इस अंक में श्रम क़ानूनों में तथाकथित ‘सुधारों’ पर अलग से विस्तृत चर्चा है अतः यहां हम उसके विस्तार में जाने के बजाय इतना ही कहेंगे कि 12 घंटे के कार्य दिवस और श्रमिकों की सुरक्षा के सारे प्रावधानों को रद्द-निलंबित किये जाने श्रम कानून संशोधन ऐसी आर्थिक स्थिति में किये जा रहे हैं जबकि ये कानून कभी ठीक ढंग से लागू किये ही नहीं गए थे और मजदूरों की मजदूरी और काम की वास्तविक दशा पहले से अत्यंत विपदाजनक है। असल में तो 3 दशक के उदारीकरण के दौर में मजदूरी अर्थात परिवर्तनशील पूंजी के मुकाबले स्थिर पूंजी अर्थात मशीनों, तकनीक, आदि में किये गये भारी निवेश के जरिये भारत में कुल औद्योगिक लागत में श्रमिकों पर होने वाला व्यय पहले ही अत्यंत निम्न स्तर पर पहुँच चुका है। उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार 2017-18 में भारत में मजदूरी पर व्यय कुल उत्पादक पूंजी में निवेश के 3% से भी कम था, उप्र में यह 2.6% ही था जबकि गुजरात व मप्र में तो मात्र 2%। किन्तु, समस्त मुनाफा श्रमशक्ति द्वारा उत्पादित अधिशेष मूल्य को मालिकों द्वारा हस्तगत करने से ही आता है, अतः श्रमिकों को कम करते जाने की इस नीति से पूंजीपतियों की लाभ की दर गिरने लगी है। किन्तु स्थिर पूंजी को बढ़ाते जाना पूंजीवाद का अनिवार्य नियम है अतः लाभ की दर को बेहतर करने के लिए पूंजीपति वर्ग काम के घंटे बढ़ाने जैसे कदमों के द्वारा उनके खून की आखिरी बूंद तक को निचोड़ने की कोशिश कर रहा है ताकि उसका लाभ बढ़ सके।
इसके विपरीत सरकार ने लॉकडाउन के दौर के वेतन भुगतान के अपने आदेश को वापस ले लिया है। हालांकि यह आदेश पहले भी दिखावटी ही था और इसे निजी छोड़िए खुद सरकारी क्षेत्र में भी कहीं लागू नहीं किया गया था पर कई जगह मजदूर इसके आधार पर मांग उठाने लगे थे। आईआईएम अहमदाबाद की श्रमिक यूनियन ने इस वेतन के भुगतान के लिये कानूनी नोटिस दिया था। अतः सरकार ने अब इस दिखावटी आदेश के झंजट से भी पूंजीपति वर्ग को राहत दे दी है। यह सब उस हालत में किया जा रहा है जब इन दो महीनों के दौर में 14 करोड़ श्रमिकों को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा है और हर जगह से शिकायत यह है कि लॉकडाउन का तो छोड़िये उसके पहले किये गये काम के लिए भी अधिकांश जगह मालिकों ने मजदूरों की मजदूरी का भुगतान करने से इनकार कर दिया है। जहां तक भविष्य निधि में योगदान की घोषणा का सवाल है, एक तो उसमें श्रमिकों के लिए कुछ अतिरिक्त नहीं है, जो मिलना है मालिकों को, दूसरे भारत में अधिकांश श्रमिक असंगठित क्षेत्र में हैं और इसके दायरे में आते ही नहीं हैं। अतः इससे श्रमिकों को कोई लाभ का सवाल ही नहीं उठता है।
पर ऐसा पैकेज ही क्यों?
बिना वास्तविक बजटीय खर्च के बड़ी धूमधाम से घोषित यह पैकेज संकटग्रस्त सरकार की कठिन स्थिति का ही परिचायक है। गोल्डमैन सैक्स ने पहले ही अनुमान जताया है कि दूसरी तिमाही में जीडीपी 45% गिरेगी और वित्तीय वर्ष 2021 में जीडीपी में 5% की कमी होगी अर्थात यह भारत के लिए आज तक की सबसे भयानक मंदी होगी और सरकार के द्वारा घोषित ये ढांचागत सुधारों के कदम इसमें अर्थव्यवस्था में सुधार में कोई खास असर नहीं डाल पायेंगे।
इस स्थिति में सरकार की कर तथा अन्य आय में भारी गिरावट होगी और वित्तीय घाटा आसमान छूने लगेगा। वित्तीय वर्ष 2019-20 खास तौर पर इसकी मार्च में समाप्त चौथी तिमाही के हाल में घोषित आंकड़े पहले ही इसकी पुष्टि कर रहे हैं – पूरे साल में सरकार की कुल कर आय बजट अनुमान से 18% कम रही है, जो वर्तमान साल में और भी गिरेगी। अतः अनुमान है कि केंद्र-राज्यों सहित सार्वजनिक क्षेत्र का कुल वित्तीय घाटा जीडीपी के लगभग 13-14% या अधिक भी पहुंच सकता है। 9 मई की एक घोषणा अनुसार सरकार इस वित्तीय वर्ष में बजटीय अनुमान 7.80 लाख करोड़ रु के मुक़ाबले 12 लाख करोड़ रु का ऋण लेने वाली है। पर भारत में बचत करने वाले घरेलू क्षेत्र की कुल वित्तीय बचत जीडीपी की 9% ही है और उसमें भी इस बार कमी निश्चित है। इससे सरकार के वित्तीय घाटे की भरपाई के लिए ऋण जुटाने लायक वित्तीय बचत ही देश के अंदर मौजूद नहीं है। यही वजह है कि सरकार की ऋण जरूरतें बाजार से पूरा करने के बजाय रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा प्रसार अर्थात नोट छापने के जरिये ही पूरी होने की संभावना है। सरकार का कुल ऋण पहले ही जीडीपी का 70% है और अब इसके बढ़कर 80% से ऊपर हो जाने की संभावना है जिसके ब्याज व मूल भुगतान में सरकार को बहुत मुश्किल होने वाली है और सामाजिक सेवाओं पर खर्च में और भी कटौती होने की पूरी संभावना है। यही इस पैकेज के स्वरूप का निर्धारक रहा है अर्थात बिना खर्च के ऐसे परिवर्तन जो पूंजीपति वर्ग को दीर्घावधि में लाभ पहुंचाये, पर तुरंत लाभ के बेहद सीमित होने के कारण पूंजीपति वर्ग इससे संतुष्ट नहीं हुआ है।
पूंजीपति वर्ग में आम सहमति
कुछ भलेमानुस सोचते हैं कि ये मात्र मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां हैं। पर गौर करेंगे तो पायेंगे कि इन नीतियों पर विपक्षी दलों सहित समस्त पूंजीपति वर्ग में मूलतः एक आम सहमति है। श्रम सुधारों में बीजेपी ही नहीं कांग्रेस की राजस्थान-पंजाब सरकारों द्वारा संशोधन यही दिखाते हैं। फिर रघुराम राजन, अभिजीत बैनर्जी जैसे सरकार के बजाय विपक्ष के साथ पेंगे बढ़ाते नजर आते अर्थशास्त्रियों के हाल के बयान भी इसकी पुष्टि करते हैं। रघुराम राजन का वायर को दिया गया हालिया साक्षात्कार खास तौर पर गौर करने लायक है जिसमें वे यहां तक कहते हैं कि राज्यों द्वारा श्रम सुधारों को तीन साल के लिए करना अनिश्चितता पैदा करता है, इन्हें स्थायी होना चाहिए, तभी पूंजीपति वर्ग इस पर भरोसा कर पायेगा। वे सार्वजनिक क्षेत्र को कुछ क्षेत्रों तक सीमित करने का स्वागत करते हुये ईज ऑफ डुइंग बिजनेस को और भी जोरों से लागू करने पर भी बल देते हैं। इस आम सहमति को समझने के लिए हमें नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को समझना होगा।
अतः जिन भलेमानुसों को लगता है कि कोविड महामारी के भयानक तजुर्बे से नवउदारवाद असफल होकर खत्म हो जायेगा, वे भारी मुगालते में हैं क्योंकि उन्हें पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था और उत्पादन संबंधों की वास्तविक समझ नहीं है। उल्टे इससे पूंजीपतियों की लुटेरी हवस और भी बढ़ जायेगी, वे बचीखुची सामाजिक सुविधाओं का भी निजीकरण करेंगे तथा भुगतान न कर सकने वालों को ऐसे ही तड़प कर मरने के लिए छोड़ देंगे जैसे अभी मजदूरों को भूखे पैदल चलने के लिए छोड़ा है। खुद अपने लिए तो उन्होने न्यूजीलैंड, हवाई, आइसलैंड वगैरह विरल आबादी वाले जजीरों पर सुरम्य, जरूरी सुविधा/भंडार युक्त बंगले बना लिए हैं, उन्हें इन महामारियों, पर्यावरण विनाश की चिंता नहीं। वास्तव में ही नवउदारवाद को समाप्त करना है तो मेहनतकश जनता को वर्ग चेतना के आधार पर संगठित हो निजी संपत्ति आधारित पूंजीवादी व्यवस्था को ही उखाड़ फेंकना होगा। प्रेम, मुहब्बत, भलमनसाहत, नैतिकता, जनतंत्र के आधार पर पूंजीपतियों के सुधरने वाले विकल्प के सपने दिखाने वालों पर भरोसा करना मजदूर वर्ग के लिए असल में खुदकुशी करने जैसा है।
यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 2/ जून 2020) में छपा था
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