एस. वी. सिंह //
विस्थापित मजदूरों पर हो रहे जुल्मों की व्यथा की एक से बढ़कर एक भीषण हृदयविदारक रिपोर्ट आना बंद नहीं हो रहीं। उनकी मौत और विनाश की ऐसी दिल दहलाने वाली, सच्चाईयां उजागर हो रही हैं जिनको किसी भी जिंदा इन्सान को सहन करना मुमकिन नहीं। देशभर से दिन रात हर वक्त उन पर ढाई जा रही पहाड़ जैसी मुसीबतों के रोज नित नए ऐतिहासिक दस्तावेज सामने आते जा रहे हैं। देश भर में सड़कों, रेल पटरियों पर जो घट रहा है उसे देखकर सांस रुक जाती हैं। 1947 में हुए देश के विभाजन के बाद से ऐसा नजारा कभी नहीं देखा गया। “देश मजदूरों की त्याग और तपस्या याद रखेगा…” टी वी पर मोदी का ये कथन कितना संवेदनहीन और गैरजिम्मेदाराना है, जैसे घाव पर नमक मसला जा रहा हो। विस्थापित मजदूर ‘कोई त्याग और तपस्या’ नहीं कर रहे हैं। ये सब पाखंड और चोंचले वे नहीं करते। उन्हें तो ‘उनकी’ सरकार ने न पूछकर एकदम किनारे तक धकेलते हुए ऐसी भट्टी में झोंक दिया है जिसमें जिन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ने के सिवा उनके सामने कोई पर्याय ही नहीं बचा। राज्य ने उनके साथ ये एक ऐतिहासिक अन्याय किया है जिसे हमेशा याद रखा जाएगा।
विस्थापित मजदूरों के साथ गुलामों जैसा सलूक किया गया है
घटना घट चुकी है इसलिए हम, विस्थापित मजदूरों के साथ असलियत में क्या हुआ, ये आज अच्छी तरह समझ सकते हैं। आइये, ठोस तथ्यों के आधार पर करोड़ों मेहनतकश मजदूरों पर एक दो दिन या एक दो सप्ताह नहीं बल्कि महीनों लगातार हुए और होते जा रहे भयानक जुल्मों के सन्दर्भ में सरकार की चिरस्मरणीय आपराधिक लापरवाही और उदासीनता की विवेचना की जाए। 23 मार्च को अचानक घोषित लॉक डाउन के बाद का घटनाक्रम बताता है कि ऐसी बात नहीं की सरकार मासूम थी और उसे विस्थापित मजदूरों की सही तादाद का अंदाजा नहीं था और वे अन्जाने में फंस गए। सरकार के सांख्यिकी विभाग और श्रम विभाग के पास सारे आंकड़े मौजूद हैं। सरकार की नीयत शुरू से ये ही नजर आती है कि वो चाहती थी कि इन मजदूरों को जबरदस्ती उनकी झोंपड़ियों में ही बंद रखा जाए जिससे कि कोरोना महामारी के बाद जब कारखाने दुबारा चालू हों तो वे काम करने के लिए उपलब्ध रहें। मजदूर भी इसके लिए तैयार हो सकते थे बशर्ते उन्हें पहले की तरह वेतन दिया जाता, उनके घर का किराया दिया जाता, जरूरी अनाज जैसे गेहूं, चावल, दाल, तेल आदि दिया जाता और उनकी दूसरी फौरी जरूरतों को पूरा करने के लिए उनके खातों में कुछ मदद की रकम तुरंत डाल दी जाती, ना की उन्हें पन्नी की थैलियों में बासी खिचड़ी दी जाती जिसे भी लेने के लिए उन्हें घंटों लाइन में लगाना पड़े। मजदूरों की जिंदगियां बचाने के लिए जरूरी किसी भी योजना को बनाने की जरूरत ही नहीं समझी गई और कोई व्यवस्था नहीं की गई। इससे बेहाल मजदूरों में बेकरारी पसर गई और उन्हें उनकी मौत एकदम सामने खड़ी नजर आने लगी। इसके बावजूद भी, सरकारी आपराधिक संवेदनहीनता और अमानवीयता का कहर बदस्तूर जारी रहा और उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार उनके घर जाने की व्यवस्था की जरूरत बिलकुल नहीं समझी गई बल्कि उन्हें जाने की अनुमति ही नहीं दी गई। यही नहीं सभ्यता और मानवता के सारे मूल्यों को पैरों तले कुचलते हुए लाठी गोली के सहारे भूखे मजदूरों को उनकी बस्तियों में कैद रखने के बे- इन्तेहा जुल्म जारी रहे। बेसहारा मजदूरों ने अन्याय की पराकाष्ठा को झेला और अंत में फैसला किया; ‘हम जाएंगे, हमें कोई नहीं रोक सकता’ और फिर वो सरकार के फरमान, उनकी लाठी गोली की परवाह किए बगैर, सरकार और उसके तंत्र को चुनौती देते हुए अपने लम्बे ऐतिहासिक मार्च पर पैदल ही निकल पड़े। इसके बाद भी सरकारी हठधर्मिता में कोई ढील नजर नहीं आई। ये सब देखकर सारा देश स्तब्ध रह गया और देश भर से सरकार को लोग धिक्कारने लगे तब स्थिति को बेकाबू होता देख सरकार को अपना रुख बदलने को मजबूर होना पड़ा और चीखते चिल्लाते मजदूरों को घर जाने की अनुमति देनी पड़ी और तय किया की ‘कुछ रेलगाड़ियां’ चलाई जाएंगी। इसके बाद का घटनाक्रम और सरकार की ये कुख्यात ‘रेलगाड़ी की कहानी’ लेकिन, सरकार के चाल-चरित्र-चेहेरे को और स्पष्ट रूप से नंगा करते हैं। गूगल ज्ञान से पता चलता है कि भारतीय रेल की रोज 16000 गाड़ियां चलाने की क्षमता है। देह से दूरी की पूरी सावधानी बरती जाए फिर भी एक रेलगाड़ी में कुल 2080 की जगह 1200 यात्री सफर कर सकते हैं। ये सब गाड़ियां इस वक्त यार्ड में खड़ी हैं। ये गाड़ियां डीजल और बिजली से चलती हैं। टैक्स निकाल दिया जाए तो डीजल का दाम इस वक्त आज तक के सबसे कम भाव पर है और कारखाने बंद होने के कारण बिजली भी इस्तेमाल नहीं हो पा रही है। रेल कर्मचारियों को ऐसे भी पगार दी ही जा रही है। इसका अर्थ ये हुआ की यात्रियों को रेल द्वारा ढोने की कुल क्षमता इतनी है कि 48 घंटे में कुल 4.5 करोड़ लोगों को देश के एक कोने से दुसरे कोने तक आसानी से पहुँचाया जा सकता है। सरकार को अगर देश के मेहनतकश मजदूर की जिन्दगी की थोड़ी भी परवाह होती तो सारी गाड़ियां ना चलाने का कोई कारण ही नहीं था। लाखों मजदूर हजारों मील की दर्दभरी अंतहीन यात्रा पर चीख रहे थे, चिल्ला रहे थे, मर रहे थे लेकिन सारी रेलगाड़ियां चलने की कोई जरूरत समझी ही नहीं गई। लोग आज तक भूखे, प्यासे, मरते, खपते चलते चले जा रहे हैं और ना जाने कब तक चलते जाने वाले हैं। आज दिनांक 31 मई 2020 को लॉक डाउन के दौरान अपनी जान गंवाने वाले मजदूरों की कुल संख्या 798 हो चुकी है। (स्रोत पत्रिका न्यूज नेटवर्क एवं रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स)। इन 798 मजदूरों की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है? सारी रेलगाड़ियां चलाकर, सब मजदूरों को उनके रास्ते के खाने, पानी आदि खर्च उतना भी ना होता जितना की सरकार सरमाएदारों का एक कर्ज माफ करने में उठाती है। इतना ही नहीं सरकार के इस कदम ने मजदूरों के जख्मों पर मरहम का काम किया होता और असहाय मजदूर महामारी के बाद और लॉक डाउन हटने के बाद काम पर भी लौटते। लेकिन अपने असली वर्ग चरित्र के अनुसार सरकार मजदूरों के प्रति ‘भाड़ में जाने दो’ वाली मुद्रा बनकर गूंगी बहरी बनी रही। लोग मरते रहे। देशभर से लगातार उठ रहीं धिक्कार की चीखों के बीच भी वो ही गिनी चुनी गाड़ियां चल रही हैं उनमें जाने की भी हजार शर्तें हैं, लाटरी की तरह नम्बर लग रहा है। जो गाड़ियां चलाई गईं उनमें भी ना पीने का पानी है, ना बिजली, पंखे भी नहीं चल रहे और शौचालय में पानी नहीं। मजदूरों के साथ इससे ज्यादा अमानवीय बर्ताव और क्या हो सकता है? 47 डिग्री तापमान में ऐसी तीखी झुलसती गर्मी, लू के बावजूद लाखों लोग आज भी सड़कों पर हैं। असल नीयत सरकार की अभी भी वही है गाड़ियां कम से कम चलाओ जिससे कम मजदूर ही घर जा पाएं ज्यादातर यहीं फंसे रहें, भले चीखते चिल्लाते रहें, मरते रहें लेकिन जब कारखाने चालू हों तो उन्हें चलाने लायक तो बचे ही रहेंगे। रेल विभाग की एक और चमत्कारिक लापरवाही पहली बार ही देखने को मिली जिसने सैकड़ों मजदूरों की जान ली। एक दो नहीं बल्कि कुल 40 रेलगाड़ियों ने ऐसे विचित्र रूट लिए कि जो यात्रा 20 घंटे में पूरी हो सकती थी उसमें 80 घंटे लगे। मसलन मुम्बई से गोरखपुर के लिए जाने वाली गाड़ी राउरकेला कैसे जा सकती है? कुछ सुदूर दक्षिण विशाखापतनम जाकर वापस आईं! भूखे, प्यासे, बेहाल मजदूर मरते रहे। एक मजदूर की लाश झाँसी स्टेशन पर शौचालय से गली सड़ी हालत में बरामद हुई। ये भी पता नहीं कि वो कब मरा। बाद में पता चला कि वो गाड़ी गोरखपुर से वापस झाँसी पहुँच गई तब उस लाश को निकाला गया। ऐसी अमानवीयता, ऐसी आपराधिक कभी सुनी गई है? क्या कोई सरकार अपने देशवासियों के प्रति इतनी निर्मम हो सकती है? जब देशभर से धिक्कार की चीखें बुलंद होने लगीं और लोगों का क्रोध उबाल मारने लगा तब रेलमंत्री का एक और शर्मनाक बयान आया; “बीमार व्यक्ति रेल में सफर ना करें”, मानो जो लोग भूख, प्यास, गर्मी, में 5-5 दिन की यात्रा में भटकने से मर रहे हैं वो सब बीमार थे। हर वक्त वातानुकूलित कमरों में रहने वालों को खुद ऐसी यात्रा का तजुर्बा जरूर करना चाहिए ये देखने के लिए कहीं वो बीमार तो नहीं हैं! ऐसी घोर आपराधिक लापरवाही की जिम्मेदारी जरूर तय होनी चाहिए। जिम्मेदार लोगों पर कत्ल के मुकदमे दायर होने चाहिएं। यहां तक की जब कुछ राज्य सरकारों ने व्यापक जन आक्रोश देखेते हुए विस्थापित मजदूरों को अपने राज्य की सीमा तक छोड़ने के इन्तेजाम किये तो उन्हें राज्य की सीमा पर ही अड़ा दिया गया मानो वे देश छोड़कर भाग रहे हों या ये कोई विदेशी सीमा हो। केंद्र सरकार का राज्य सरकारों को कोई निर्देश नहीं था कि विस्थापित मजदूर भी इसी देश के नागरिक हैं उनके साथ ऐसा दुश्मनों जैसा व्यवहार क्यों किया जा रहा है? राष्ट्रीय आपदा कानून 2005 ऐसी विपत्ति के समय में केंद्र को वो सारे अधिकार देता है जो राज्यों के अधिकार होते हैं। ऐसा भी नहीं कि सरकार भोली है उसे इस बात का ज्ञान नहीं। इसी केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने 2005 के इसी आपदा कानून के अंतर्गत लॉक डाउन के 68 दिनों में राज्यों को कुल 93 आदेश जारी किये। ‘दंगों’ में संलिप्तता के नाम पर नागरिकता कानूनों का विरोध कर रहे आन्दोलनकारियों और छात्रों की गिरफ्तारियां तो सामान्य दिनों से भी ज्यादा गति से होती रहीं लेकिन खाली पेट, खाली जेब, भूख- प्यास से बिलख रहे, सड़कों, रेल की पटरियों, रेल डिब्बों, रेल शौचालयों में हर रोज मरते जा रहे विस्थापित मजदूरों के बारे में केंद्र सरकार ने कोई भी आदेश राज्य सरकारों को जारी क्यों नहीं किया? कोई सरकार इतनी संवेदनहीन कैसे हो सकती है? क्या यही है इस सरकार की देशभक्ति? क्या ये मजदूर इस देश के नागरिक नहीं? मजदूरों को राज्य की सीमा पर कई दिनों तक पुलिस के डंडे के जोर पर रोकने वाली सरकार देश के हजारों करोड़ रुपये लूट कर विदेश भाग जाने वाले भगौड़ों को क्यों नहीं रोक पाई? वो तो जाने से पहले इनके मंत्रियों से बाकायदा सद्भावना भेंट कर के गए!
जनवादी व्यवस्था में सरकार यदि संवेदनहीन हो, गरीबों, असहायों पर जुल्म कर रही हो, समूचे तंत्र में कहीं सुनवाई ना हो रही हो तो नागरिक के पास अपनी न्याय की फरियाद लेकर सुप्रीम कोर्ट जाने का विकल्प होता है। इससे बड़ा दुर्भाग्य और विडम्बना और क्या होगी की सुप्रीम कोर्ट को इस मुद्दे के लिए वक्त 28 मई को ही मिला जब तक 700 से ज्यादा मजदूर अपनी जान गँवा चुके थे। वो भी तब जब देश के प्रख्यात 10 वकीलों को लगा की जन विक्षोभ कहीं जन विप्लव ना बन जाए और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को उसका फर्ज याद दिलाते हुए एक बहुत कड़ा पत्र लिखा। हालांकि इसी दौरान एक टी वी पर हर रोज उन्माद, अंधराष्ट्रवाद और फासीवादी विचारों को फैलाने, चिल्लाने के लिए कुख्यात एक बेशर्म पत्रकार को गिरफ्तारी से बचाने के लिए रातोंरात सुनवाई हो गई और उसे गिरफ्तार ना किया जाए ये फरमान भी जारी हो गया! यही नहीं, ‘जब सरकार मजदूरों को खाने को दे रही है तो उन्हें वेतन दिए जाने की क्या जरूरत है’ सुप्रीम कोर्ट के इस बयान को भी बिलखते मजदूर कभी नहीं भूल पाएंगे। भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार के बचाव ना किये जा सकने वाले कृत्यों का बचाव करते हुए कहा, “मजदूरों की वापसी के लिए कोई व्यवस्था किये जाने की जरूरत नहीं; अधिकतर मजदूर अब वापस नहीं जाना चाहते क्योंकि कारखाने खुल गए हैं’, मजदूरों पर हो रहे जुल्म रिपोर्ट कर अपना कर्तव्य निभाने वाले पत्रकारों को ‘गिद्ध (Vulture), कयामत/ प्रलय के पैगम्बर (Prophets of doom) तथा आरामतलब बुद्धिजीवी (Armchair intellctuals) कहकर ना सिर्फ उनकी खिल्ली उड़ाई बल्कि अफ्रीका के रंगभेद और भुखमरी के शिकार, मुसीबतजदा लोगों के दुःख दर्द अपने वीडियो से दुनिया के सामने लाने वाले सुविख्यात प्रतिष्ठित फोटोग्राफर केविन कार्टर की भी खिल्ली उड़ाई और देश को शर्मसार किया जिनकी उस एक कालजयी फोटो, जिसमें भूख से एक बच्चा मर रहा है और पास ही बैठा गिद्ध उसके मरने का इन्तेजार कर रहा है, को ना सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय पुलित्ज़र पुरस्कार बल्कि कई अन्य पुरस्कार भी मिल चुके हैं। जिसने अफ्रीका में व्याप्त भुखमरी को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बहस डिबेट का मुद्दा बनाया। सॉलिसिटर जनरल के बयान देश को शर्मसार करने वाले हैं। देश के फोटो पत्रकार एसोसिएशन ने भी उनकी तीव्र भर्त्सना की है। (द हिन्दू 2 जून)
देशभर में, एक राज्य के अन्दर और दूसरे राज्यों में जाकर काम करने वाले विस्थापित मजदूरों की कुल तादाद लगभग 21 करोड़ है हालांकि ‘राष्ट्रीय विस्थापित मजदूर आयोग’ बनाकर विस्थापित मजदूरों की कुल तादाद और उनकी कार्यदशा का व्यापक और वस्तुगत अध्ययन किये जाने की जरूरत है। ये सब मजदूर कोई तफरीह के लिए शहरों की गन्दी बस्तियों में नहीं भटकते बल्कि ठोस ऐतिहासिक सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के चलते इनके उत्पादन के साधन, छोटी छोटी जमीनें, हथकरघे, इनके विभिन्न औजार सामंतवाद के अवसान और उसके गर्भ से जन्मी पूंजीवादी व्यवस्था की भेंट चढ़ गए। ये प्रक्रिया यूँ तो आजादी के बाद 1947 से ही जारी है लेकिन 1991 से लागू नव उदारवाद ने ग्रामीण खेती किसानी में भी पूंजीवादी व्यवस्था के प्रसार को तेज गति प्रदान कर दी है। परिणामस्वरूप देहात से शहरों की तरफ पलायन भी पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गया है। ऐतिहासिक नियति इन मजदूरों को फिर से इनके घरों से उजाड़ने वाली है और ये अपनी श्रम शक्ति के बाजार, शहरों के औद्योगिक क्षेत्रों में आने को मजबूर होने वाले हैं। विस्थापित मजदूरों के प्रति सरकार के रवैये ने ना सिर्फ विपरीत विस्थापन (Reverse migration) में मजदूरों पर जुल्म ढाए हैं बल्कि उनके वापस पुन: विस्थापन प्रक्रिया को मुश्किल बना दिया है जिसके दूरगामी असर होने की आशंका उन राज्यों में अभी से नजर आने लगी है जहाँ ये मजदूर वापस पहुँच रहे हैं।
दास प्रथा में भी जब मेहनतकशों को गुलाम बनाकर काम लिया जाता था तब उनपर जुल्म तो बे -इन्तेहां ढाए जाते थे लेकिन उनके खाने और विस्थापित होने पर उनके जाने की व्यवस्था दास प्रभुओं को ही करनी होती थी। उसी तरह बंधुआ मजदूरों की भी जीवित रखने की जिम्मेदारी मालिक की ही होती थी। विस्थापित मजदूरों के साथ जो सलूक किया गया वो उससे भी ज्यादा दिल दहलाने वाला है। संविधान में दर्ज धारा 23 मजदूर से किसी भी प्रकार बलपूर्वक या बन्धक बनाकर काम लेने को प्रतिबंधित करती है। साथ ही बन्धक श्रम उन्मूलन कानून 1976 किसी भी प्रकार के बन्धक श्रम को गैरकानूनी करार देता है और उसके लिए 3 साल की सजा का प्रावधान है। इसके साथ ही भारत सरकार का विस्थापित मजदूरों के साथ किया गया कारनामा अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की सन 2017 की सिफारिशों का भी खुला उल्लंघन है। (Decent Work for Peace and Resilience Recommendation, 2017 of ILO)
डकैतों ने भी मदद की लेकिन उनकी ‘अपनी’ सरकार ने नहीं
मुन्ना लखनऊ के रहने वाले हैं। वे रोहतक, हरियाणा में एक कारखाने में काम करते थे और अपनी पत्नी और बच्चे का भरण पोषण चलाते थे। प्रधानमंत्री ने 24 मार्च को ठीक 8 बजे लॉक डाउन घोषित किया जो 4 घंटे बाद मतलब 12 बजे से लागू हो गया। कारखाना अगले दिन खुला ही नहीं। यातायात के सब साधन तो सरकारी हुक्मनामे के मुताबिक रात 12 से ही बंद हो गए। “लक्ष्मण रेखाएं खिच गईं।” लेकिन भूख कमबख्त लक्ष्मण रेखा के अन्दर भी लगती है! जो कुछ बकाया पैसे मालिक ने दिए थे वो पहले लॉक डाउन खत्म होने से पहले ही खत्म हो गए। तब ही, लेकिन, रमजान का महिना शुरू हो गया और मुस्लिम पड़ोसियों की मदद से मुन्ना के परिवार को शाम का खाना मिलने लगा। दिन भर में एक बार खाना, उसके लिए शाम तक भूखे इन्तेजार करते बैठना, हर रोज किसी की मेहरबानी पर जिंदा रहना, एक के बाद दूसरी लॉक डाउन का घोषित होते जाना, जाने कब तक ‘लक्ष्मण रेखा’ में रहना है इसका कुछ अंदाज ना होना, मुन्ना के लिए असहनीय हो गया और 10 मई को उनका धीरज जवाब दे गया। उन्होंने निर्णय लिया, ‘अब नहीं रुकेंगे’। अपनी साइकिल निकाल ली और 3 प्राणियों का परिवार उस पर सवार होकर रोहतक से लखनऊ की 615 किमी की यात्रा पर निकल पड़ा। आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे पर रात हो गई और वे निढाल हो वहीं सो गए। रात में 1 बजे उन्हें डाकुओं ने जगाया। मुन्ना ने रुंधे दिल से तुरंत अपनी बची एक मात्र पूंजी, एक पुराना मोबाइल उनके हवाले कर दिया। डाकुओं ने तलाशी ली, एक भी पैसा नहीं निकला। पूरे दिन का भूखा बच्चा रोने लगा। डाकुओं से ना देखा गया और उन्होंने 500 रु के कुछ नोट उस मासूम बच्चे के नन्हे हाथों पर ये कहते हुए रख दिए: “हम विस्थापित मजदूरों का हाल जानते हैं उनपर जो विपत्ति आई है उसे देखा भी नहीं जाता। ये कुछ पैसे हैं, इन्हें रख लो। रास्ते में कहीं खाना खा लेना।” मुन्ना ने बाद में गिना तो वे 5000 रु थे। ये ही एक घटना नहीं है। लगभग हर रोड पर जहाँ से इन विस्थापित मजदूरों के अंतहीन मोर्चे गुजर रहे थे, आम जन उनकी जो भी संभव है सेवा करने, मदद करने आगे आते जा रहे थे। रोटी, पानी, फल सड़कों पर रखकर लोग बैठ गए थे। इतना ही नहीं झुलसती गर्मी में मजदूरों के पैरों के लिए नए चप्पल भी दिए जा रहे थे। लोग रेलगाड़ियों के साथ भाग भाग कर भी खाने के पैकेट और पानी की बोतलें अपने अंजान बेहाल देशवासियों को दे रहे थे। इसके पहले लोग सरकार और दरबारी मिडिया द्वारा तब्लीगी जमात के नाम पर लोगों को हिन्दू मुस्लिम में बांटने के षडयंत्रों को ध्वस्त कर ही चुके थे। आम लोगों ने धर्म, जाति भेद भुलाकर अपने सहकर्मियों की हर संभव मदद करने की एक शानदार मिसाल कायम की लेकिन सरकारी तंत्र उसी तरह निष्ठुर, कठोर, संवेदनहीन बना रहा। ‘भूखे थे तो रेलगाड़ी से कूद जाते’ एक अधिकारी का ये शर्मनाक बयान मानो शासक तंत्र की मानसिकता रेखांकित करता है।
सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पूंजी नहीं बल्कि मजदूरों के दम पर चलती है
देश की सड़कें और रेल की पटरियां मजदूरों के लहू से लहूलुहान हैं। उनके खून के धब्बे रेल के डिब्बों, शौचालयों, और प्लेटफोर्म से कभी मिट नहीं सकते। पिछले दो महीनों में मजदूरों ने जो झेला है उसे हमेशा याद रखा जाएगा। पूंजीवाद की शोकांतिका में एक बड़ा अध्याय कोरोना लॉक डाउन के दौरान हुए जुल्मों, मौतों के विवरण से भरा रहेगा। इस सच्चाई से मुंह फेर पत्थर मूर्ति की तरह जड़वत बैठे रहना और उसे नकारात्मकता भरी रिपोर्टिंग की उपज बताकर अपने अपराध से बच निकलने की कोशिश शर्मनाक है। इस सच्चाई को सिर्फ वो ही झुटला सकता है जिसकी संवेदनाएं पूंजीवाद की जी हुजूरी करते हुए मृत हो चुकी हैं। मौत और मुसीबत का ये तांडव अभी थमा कहाँ है? प्लेटफोर्म पर मृत पड़ी महिला के शव को ढकने वाली चद्दर का एक कोना उठाकर अंजान, अबोध मासूम बच्चा अपनी मां को नींद से उठाने की कोशिश कर रहा है मानो वो उठेगी और उसे दूध पिलाएगी। उसे क्या मालूम की उसकी मां अब कभी नहीं उठेगी। उसकी बलि ये जालिम व्यवस्था और उसकी ताबेदार सरकार ले चुकी है। इस तस्वीर को कौन भूल पाएगा? कहाँ तक बयान की जाएं, कैसे बयान की जा सकती हैं ऐसी सच्चियां? शब्द बौने पड़ जाते हैं, गला रुंध जाता है, हाथ जड़ हो जाते हैं।
देश की अर्थव्यवस्था के संचालन का क्या नियम है? उत्पादन सम्बन्ध क्या हैं? हम ऐतिहासिक भौतिकवाद के कौन से पायदान पर हैं? अर्थराजनिती की थोड़ी भी समझ रखने वाले व्यक्ति को ये अच्छी तरह मालूम था और है कि जो कुछ भी उत्पादन और निर्माण हो रहा है उसके कण कण में मजदूर का खून, पसीना और आंसू मिले हुए हैं। ये कायनात, ये नजारे सब मजदूर के दम से हैं। ये बात, लेकिन, सरकार भी अच्छी तरह जानती है, ये रहस्य भी अब सब लोग जान चुके हैं भले ये सिखाने और प्रस्थापित करने को मजदूरों को बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी। पूरी 800 मौतें और गिनती जारी है! यही वजह है की सरमाएदारों की मैनेजमेंट समिति- ये सरकार, किसी भी हालत में इन मजदूरों को उत्पादन केन्द्रों से हिलने नहीं देना चाहती थी। उसे नहीं मालूम था की जुल्म जब हद से गुजर जाता है तो बगावत होती है। मजदूरों की हजारों मील की पैदल मार्च की ये ललकार, राज्य को मजदूरों की वही ऐतिहासिक चुनौती है। जमीन, बिल्डिंग, मशीनरी, कच्चा माल मतलब जड़ पूंजी के ये पहाड़ यूँ ही सड़ते रह जाएंगे, एक कौड़ी का उत्पादन नहीं कर सकते यदि मजदूर के हाथ उन मशीनों को चलाने के लिए हरकत में ना आएं। उत्पादन की प्रक्रिया ही शुरू नहीं हो सकती। शुरू करने के लिए मजदूर चाहिए और मजदूर ही नहीं बल्कि विस्थापित मजदूर ही चाहिए क्योंकि विस्थापित मजदूर ही है जो इस स्तर तक सताया जा चुका है कि वो न्यूनतम ‘आवश्यक समय’ (necessary labor time ) में काम करने को तैयार रहता है जिसकी बदौलत मुनाफा कमाने का जरिया, ‘अधिशेष श्रम समय (surplus labor time) अधिकतम होता है। मतलब शोषण की दर अधिकतम होती है क्योंकि उसे उसकी हड्डियों की मज्जा तक निचोड़ा जा चुका है। दुनिया जानती है की पूंजीपति की एक ही भूख होती है जो उसकी मृत्यु तक कभी नहीं मिटती, और वो है: मुनाफा, और मुनाफा, अधिकतम मुनाफा। यही वजह है कि उत्पादन के लिए सिर्फ मजदूर ही नहीं चाहिए बल्कि विस्थापित मजदूर ही चाहिए। अधिकतम मुनाफा कमाकर विस्थापित मजदूर ही पूंजीपति के ताबूत भर सकता है। इन मजदूरों को न्यूनतम निर्धारित वेतन भी नहीं मिलता, कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं, कोई घर भत्ता नहीं, कोई पेंशन नहीं। इनके काम के घंटे निर्धारित नहीं। अनेकों क्षेत्रों में उन्हें सोने तक काम करना होता है और फिर वहीं सो जाना होता है और कई बार आग लगने पर वहीं जलकर मर जाना होता है। काम के घंटे जितने ज्यादा होंगे, श्रम के शोषण की दर उतनी ही ज्यादा होगी, पूंजीपति का मुनाफा उतना ही ज्यादा होगा, पूंजीपति और उनकी ताबेदार सरकार उतनी ही ज्यादा खुश होगी। ये एक सीधी समीकरण है जो सारे पूंजीवादी उत्पादन का सार है। पूंजी क्या है वर्ना? मजदूरों की मेहनत का वो समय जिसका मूल्य मजदूर को नहीं मिला, मतलब पूंजी है; चुराया हुआ श्रम समय:
“पूंजी एक मृत श्रम है, वो, चुड़ैल जैसी, जो जीवित श्रम को चूसती है, और उतनी ही ज्यादा जीवित रहती है जितना ज्यादा श्रम चूसती है। मजदूर जिस समय काम करता है उसी वक्त पूंजीपति उसका श्रम समय खा रहा होता है जिसे उसने उससे खरीदा है।
अगर मजदूर अपना बचा वक्त अपने लिए इस्तेमाल करता है तो वो पूंजीपति को लूटता है!”
कार्ल मार्क्स, पूंजी खंड-1 पृष्ठ 225
गुजरात मॉडल
विस्थापित मजदूर नहीं होंगे तो क्या होगा? अक्षरस: कुछ नहीं होगा! कोई निर्माण कार्य नहीं होगा, एक ईंट नहीं रखी जा सकती क्योंकि सफाई कर्मचारी, बेलदार, मिस्त्री, प्लम्बर, पेंटर, इलेक्ट्रीशियन सब विस्थापित मजदूर हैं। निर्माण कार्य ही नहीं निर्माण सामग्री जैसे ईंटें नहीं मिल सकतीं क्योंकि ईंट भट्टों में काम करने वाले 100% मजदूर विस्थापित मजदूर ही हैं। ये चमचमाते होटेल, रेस्टोरेंट आवारा कुत्तों के विश्राम स्थल बन जाएंगे जैसे की आज बने हुए हैं क्योंकि सारे होटेल कर्मचारी विस्थापित मजदूर ही हैं जिनका भयंकरतम शोषण होता है। ‘काम वाली बाई’ नाम से भयंकर शोषित जो महिला मजदूर जानी जाती हैं वे सब इन विस्थापित मजदूरों की बहन, बेटियां, मा अथवा पत्नियां हैं अत: घर घर में चिल्लाहट शुरू हो जाएगी। कोई सड़क नहीं बन सकती। कहाँ तक गिना जाए, सारे गार्ड्स, हजार तरह के खोमचे लगाकर पेट पालने वाले, सब्जी वाले, दरवाजे तक दूध पहुँचाने वाले (मुम्बई में दूध सप्लाई ठप्प हो चुकी है) कोई नहीं मिलेगा। सब कुछ ठप्प पड़ जाएगा। दरअसल आज पूरे देश में ‘गुजरात मॉडल’ लागू है। गुजरात मॉडल के दो ही सूत्र हैं; पहला, श्रम कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करने वाले महकमों की कोई जरूरत नहीं, इस सम्बन्ध में मालिकों से कोई सवाल ना पूछा जाए और दूसरा; हर विभाग में सारे काम नियमित कर्मचारियों की बजाय ठेके पर दे दो जिससे औसत रु 50000 प्रति माह के मजदूर की जगह औसत रु 15000 प्रति माह वेतन वाले मजदूर से काम चलाया जा सके। इसीलिए आज सभी ड्राईवर, चपरासी और हर सरकारी विभाग में कार्यरत लाखों कंप्यूटर ऑपरेटर ठेके पर काम करने वाले युवक हैं जिन्हें न्यूनतम मजदूरी ही मिलती है, जिन्हें कोई छुट्टी, स्वास्थ्य खर्च, घर किराया, पेंशन आदि कुछ नहीं मिलता। इसके साथ ही उन्हें यूनियन बनाने का अधिकार भी नहीं होता। यही नहीं आगे तो फौज की भी अधिकांश नौकारियां इसी तरह दी जाने वाली हैं। दरअसल वर्त्तमान प्रधानमंत्री जब गुजरात के मुख्य मंत्री थे तो उन्होंने देश में सबसे पहले ये नीतियां वहां लागू की जो पूंजीपति वर्ग को स्वाभाविक रूप से बहुत पसंद आई और जिसे गुजरात मॉडल नाम से ‘विकास-विकास’ बोलकर ढोल बजाकर प्रचारित-प्रसारित किया गया। इसे वो संजीवनी बूटी बताया गया जो मरी हुई अर्थव्यवस्था को भी पहलवान बना देगी। टुकड़खोर मिडिया के भोंपू मदमस्त होकर, बेखुदी की मुद्रा में दिन रात इसी गुजरात मॉडल की आरती गाने लगे। मोदी जी कॉर्पोरेट के लाडले बन गए और ‘विकास पुरुष’ के नाम से एक कमोडिटी बन गए जिकी भयानक रूप से आक्रामक मार्केटिंग की गई और अंतत: परिणाम ये हुआ कि वो प्रधानमंत्री की कुर्सी में बैठे नजर आए। इतना ही नहीं वो ऐसी ‘महानता’ को प्राप्त हो चुके हैं जिनका कोई विकल्प नहीं, कोई पर्याय नहीं!
कुल श्रम शक्ति का 93% असंगठित मजदूर हैं। इनकी कुल तादाद लगभग 47 करोड़ है। सारी अर्थव्यवस्था इन्हीं के दम पर चल रही है। असली निर्माता, उत्पादन कर्ता यही हैं। ये भूखे हैं, जीवन मृत्यु की बहुत महीन डोर से बंधे हैं, कंगाल हैं। लेकिन ये संसद, सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रपति भवन और बुर्जुआ जनवाद के ये सारे गढ़ इन्हीं के खून पसीने और आंसुओं से बने हैं। ये भूखे मर रहे हैं, महीनों तपती सड़कों पर दम तोड़ रहे हैं लेकिन देश की सारी दौलत, सारी पूंजी इन्हीं की मेहनत का वो हिस्सा है जिसका भुगतान इन्हें नहीं किया गया। ये मुल्क दुनिया की 9वी अर्थव्यवस्था इन्हीं की मेहनत की बदौलत बना है। अम्बानी-अडानी की पूंजी का पहाड़ वस्तुत: इन्हीं का है। ये ही सारी व्यवस्था को चला रहे हैं, इसका ये भी अर्थ होता है कि चाहें तो ये ही सारी अर्थव्यवस्था को ठप्प भी कर सकते हैं। देश की अर्थव्यवस्था अगर इनके लिए अनर्थव्यवस्था बन रही हो तो उसके घुटने टिकाने में भी इन्हें कोई वक्त नहीं लगेगा। यही है असली सर्वहारा, क्रांति का जांबाज योद्धा, सारे शोषण उत्पीड़न की जड़ इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को जमीन में गाड़ने वाला। विनाश से सारी कायनात को बचाने वाला, असली मुक्ति दाता। मौजूदा व्यवस्था को चलाए रखना है या करोड़ों की गुरबत का सबब बन रही इस व्यवस्था को मिटाना है, ये दोनों काम बस ये असंगठित मजदूर वर्ग के ही बस की बात है और किसी की नहीं। इन दोनों अवस्थाओं में बस इतना सा ही अंतर है कि ये असंगठित हैं मतलब इनकी ताकत क्या है इसका ज्ञान खुद इन्हें ही नहीं है वरना इनका हौसला क्या है, जज्बा क्या है, जिगर क्या है, मौत से खेलना किसे कहते हैं, ये मजदूर इस बात को पूरे देश को बता ही चुके हैं।
क्या किया जाए?
- जदूर लॉक डाउन से सम्बंधित कारणों जैसे, भूख, आर्थिक बदहाली, थकान, सड़क दुर्घटना, रेल दुर्घटना, पुलिस बर्बरता, अवसाद, दवाई ना मिलना, आत्म हत्या आदि से अपनी जान गँवा चुके हैं। इनका पूरा विवरण इकठ्ठा कर एक डोसियर बनाया जाना चाहिए जिससे इनके साथ न्याय हो सके। इनके परिवारों को आजीवन अपना खर्च चलने लायक मुआवजा मिलना और इनके परिवार के एक सदस्य को नौकरी मिलना आवश्यक है। इस मुद्दे को अगर छोड़ दिया गया तो ना सिर्फ इन विस्थापित मजदूरों को सरकारों ने जो भी तुच्छ मुआवजा घोषित किया है वो भी नहीं मिलने वाला बल्कि इनका भरोसा सरकार से ही नहीं पूरे समाज से भी उठ जाएगा।
- जदूर पूरी तरह टूट चुके हैं, पूरी तरह तहस नहस हो चुके हैं। उन्हें ये विश्वास दिलाने के लिए कि वो भी बाकी लोगों जैसे ही इन्सान हैं, इस देश के नागरिक हैं, इज्ज़त के हकदार हैं और सबसे बड़ी बात कि वे अकेले नहीं हैं, बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। उन्हें संगठित करने के प्रयास पूरी शिद्दत से करने पड़ेंगे। उनका कोई निश्चित कार्य स्थल नहीं होता अत: उन्हें उनकी बस्तियों और लेबर चौकों पर जहाँ वो हर रोज सुबह अपना श्रम बेचने के लिए खड़े होते हैं जिससे कि शाम को चूल्हा जल सके, पर ही संपर्क करना पड़ेगा। झुग्गी बस्तियां शाम को और लेबर चौक सुबह के वक्त, ट्रेड यूनियन गतिविधियों और राजनीतिक चर्चा डिबेट के दो नए केंद्र विकसित करने होंगे।
- जगार की तलाश में मजदूरों के विशाल स्तर पर विस्थापन का कारण सामंती व्यवस्था के पतन के बाद उसके गर्भ से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का उद्भव है। छोटी छोटी खेती में लगे, कुटीर उद्योग तथा कारीगर, करोड़ों लोग पूंजी के भेंट चढ़ गए। ये प्रक्रिया अब पल्टी नहीं जा सकती। शासक वर्ग ने खेती किसानी के क्षेत्र में पूंजी के खेल के रास्ते में सचेत रूप से अवरोध पैदा किए जिससे करोड़ों करोड़ लोग एक झटके में देहात से बेदखल होकर शहरों में ना टूट पड़े। लेकिन पूंजी का संकट उसके अंतर्गत नियम से जैसे जैसे गहराता गया, भयंकर होता गया तो उसने इन अवरोधों को उखाड़ फेकते हुए नव उदारवादी नीतियों के नाम पर अपना हमला तीखा और कठोर कर दिया। इसी का परिणाम है की आज मजदूरों की कुल संख्या का लगभग 33% हिस्सा विस्थापित मजदूरों का है। कोरोना महामारी और उस सम्बन्ध में सरकार की सम्पूर्ण आपराधिक नाकामी का नतीजा है कि इतने विशाल स्तर पर विपरीत दिशा में विस्थापन (reverse migration) हुआ है। ये सभी मजदूर, लेकिन फिर वहीं पहुँचने को अभिशप्त हैं जहाँ से वापस आए हैं। आज चूंकि पूंजीवाद उस स्तर तक सड़ चुका है कि अपनी जिन्दगी कुछ दिन और खींचने के लिए सम्पूर्ण वातावरण (Eco System) को ही खाने लगा है और समूची दुनिया समाजवाद की ओर ना बढ़ पाने के कारण सम्पूर्ण विनाश की ओर बढ़ रही है। इसलिए भविष्य में कोविद-19 जैसी ही या इससे भी भयानक महामारियां आती रहनी अवश्यम्भावी है और मजदूरों के विस्थापन होता रहना लाजमी है। इसलिए इस समस्या से स्थाई निदान के लिए और भविष्य में ये दृश्य दुबारा ना देखने पड़ें जो आज देखने पड़ रहे हैं, ये सुनिश्चित करने के लिए ‘विस्थापित मजदूर कल्याण बोर्ड’ बनाया जाना अत्यावश्यक है। ये सिर्फ कागज पर ही नहीं विशाल बजट के साथ जमीन पर ही बने जो विस्थापित मजदूरों की समस्याओं का विस्तृत अध्ययन करे और उसके निदान के उपाय सुझाए। इसमें एक-दो ‘बड़ी यूनियनों’ के ही नहीं सभी ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधि शामिल हों। इसकी नियमित बैठकें हों और इनकी सभी रिपोर्ट्स सार्वजनिक की जाएं।
- यालय ने गुजरात सरकार को हुक्म दिया कि वो इन गरीब मजदूरों के वापस जाने का किराया इनसे ना वसूले बल्कि खुद भरे (हालांकि सरकार ने अपने गुण धर्म के अनुरूप अदालत के इस फैसले के बाद तुरंत उन दो न्यायाधीशों का तुरंत तबादला कर दिया जिन्होंने ये फैसला सुनाया था)। सरकार ने बड़ी मासूमियत से कोर्ट को बोला, हुजुर, गुजरात राज्य में पंजीकृत विस्थापित मजदूरों की कुल तादाद 7223 ही है और इनका किराया सरकार देने को तैयार है। जबकि उसी सुनवाई में सरकार ने स्वीकार किया कि प्रदेश में कुल विस्थापित मजदूर 12,50,000 से भी अधिक हैं! ये है, जमीनी हकीकत। मजदूरों के ‘हितों’ में जो भी कानून सरकारों को बनाने पड़ते हैं उनमें इतनी शर्तें लगी होती हैं कि किसी भी प्रकार की कोई राहत मजदूरों तक पहुँच ही नहीं पाती। ये सच्चाई असलियत में मजदूर आन्दोलन की नाकामी और ट्रेड यूनियनों का निकम्मापन रेखांकित करती है। ट्रेड यूनियनें अपनी गतिविधियां, दरअसल उन्हीं सफेद कालर मजदूरों तक सीमित रखती हैं जो इस कदर भ्रष्ट हो चुके हैं कि अपने अधिकारों के लिए लड़ना तो छोड़ ही दीजिए वो अपने को मजदूर मानने को भी तैयार नहीं होते। विस्थापित मजदूरों से उन्हें बदबू आती है, उनके साथ बैठने में भी उन्हें शर्म आती है। मजदूरों के इस हिस्से को सभी अधिकार तश्तरी में रखकर भेंट की तरह मिले हैं उनके लिए लड़ाई लड़ने वाले मजदूर दूसरे थे जिन्हें ये आरामतलब, मतलबपरस्त मजदूरों का हिस्सा याद भी करना नहीं चाहता। असल क्रांतिकारी सर्वहारा की लड़ाई लड़ने के लिए ट्रेड यूनियनों और उनके नेताओं का सर्वहाराकरण होना बहुत जरूरी है वरना क्रांति की बातें महज एक लफ्फाजी बनकर रह जाएंगी। विभिन्न क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं की एक संयुक्त संघर्ष टीम बननी चाहिए जो एक ऐसी व्यवस्था प्रस्तुत करे जिसमें मजदूरों को मिलने वाली कोई भी राहत किसी भी पंजीकरण, आधार कार्ड, राशन कार्ड की बंदिशों से पूर्णरूप से मुक्त हो। पंजीकरण करना और किसी भी नाम का कार्ड प्रदान करना सरकारी काम है उसके लिए सम्बंधित सरकारी अधिकारी जिम्मेदार हैं। वैसे भी आजकल ये सब डेटा ऑन लाइन उपलब्ध है। अगर कार्ड नहीं है तो तत्काल प्रदान करे, अगर दूसरी-तीसरी जगह देश में कहीं भी है तो सरकार अपनी मशीनरी से उसे सत्यापित करे। उसके लिए किसी भी राहत को रोका जाना आपराधिक कृत्य समझा जाए। ये व्यवस्था स्थापित किये बगैर विस्थापित मजदूरों तक किसी भी राहत का पहुंचना असंभव है।
- जार मुसीबतें झेलकर, अपनी जान को दांव पर लगाकर, सरकारी रुकावटों को ठोकर मारकर, विपरीत विस्थापन के चलते कई करोड़ मजदूर वापस अपने गांवों में पहुँच चुके हैं या पहुँचने वाले हैं। उनका भी, लेकिन दुर्भाग्य देखिए, वहां भी उनका कोई स्वागत सत्कार नहीं हुआ। उन्हें गाँव के बाहर रोकने की वजह मात्र क्वारंटाइन या वायरस का खतरा ही नहीं, बल्कि गाँवों में कार्यरत खेत मजदूर भी इन्हें अपने रोजगार के लिए खतरा मान रहे हैं। जितने भी दिन वहां रहेंगे, इन्हें वहां काम मिलने की संभावना बिलकुल नहीं है। ये बहुत विकराल समस्या मुंह बाए खड़ी है। फासीवादी ताकतों की पहुँच सुदूर गावों तक हो ही चुकी है। यदि इस क्रांतिकारी ऊर्जा को मजहब पर लड़ाने वाले कुशल दंगाइयों-उन्मादियों को इस्तेमाल का अवसर मिल गया तो तबाही निश्चित जानिए। सम्बंधित राज्य सरकारों को मजबूर करना होगा कि उसे केंद्र सरकार से जो मारामारी करनी है करें लेकिन हर घर में मुफ्त राशन सुनिश्चित करना, इन्हें रोजगार देना या मनरेगा में काम देना सम्बंधित राज्य सरकार की ही जिम्मेदारी है।
- जदूरी बढ़वाना, उसे दिया जाना सुनिश्चित करवाना, मनरेगा-आँगनवाड़ी-आशा वर्करों को भी न्यूनतम वेतन सुनिश्चित कराना, जन स्वास्थ्य सेवाओं का लगातार हो रहा सत्यानाश रोकना और उन्हें प्रभावी बनाना, हर व्यक्ति का मुफ्त स्वास्थ्य बीमा होना, पर्याप्त बेरोजगारी भत्ता सुनिश्चित करना, सभी को वृद्धावस्था पेंशन होना और ये भीख जैसी ना होकर पर्याप्त होना, सभी के लिए मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराना, शिक्षा एवं स्वास्थ्य बजट बढ़वाना; इन सब जीवन मरण के मुद्दों पर सशक्त एवं संयुक्त जन आन्दोलन पुरे देश के पैमाने पर छेड़े बगैर ना मजदूरों का कोई भला हो सकता है और ना फासीवादी ताकतों को रोका जा सकता है। ये सच्चाई मोटे अक्षरों में हर दीवार पर लिखी हुई है इसे जानने-समझने के लिए राकेट साइंटिस्ट होना कतई जरूरी नहीं।
- देश में अनाज के गोदाम भरे पड़े हैं। कुल 7.7 करोड़ टन अनाज पहले से मौजूद था उसमें 40 लाख टन रबी का और जुड़ गया। रखने को जगह नहीं है। पिछले 4 महीने के अन्दर 65 लाख टन अनाज गोदामों में सड़ने के कारण फेंकना पड़ा है जबकि अभी मानसून केरल में ही पहुंचा है। यदि इतने भर अनाज का भी वितरण किया जाता तो देश की 18 करोड़ आबादी को पूरे लॉक डाउन के दौरान मुफ्त भोजन खिलाया जा सकता था। फिर भी हमने बनारस में बच्चों को घास खाते हुए, एक मजदूर को सड़क पर पड़े मरे कुत्ते का मांस खाते हुए और शमशान में बच्चों को केले के छिलके खाते हुए देखा। पूंजीवादी विधान में सार्वभौमिक खाद्य वितरण और भुखमरी का समाधान आता ही नही। जिस भी काम में मुनाफा ना हो, वो क्यों करना? इस मानवद्रोही व्यवस्था को ये चुनौती तो अभी ही देनी पड़ेगी कि ये महामारी काल है और हर भूखे इन्सान तक मुफ्त अनाज पहुँचाना ही होगा। ये बात बार बार कहने की जरूरत है की भूख से मरने वाले हर व्यक्ति के लिए उस जिले का सर्वोच्च खाद्य अधिकारी अथवा जिला मजिस्ट्रेट, कलेक्टर/ डी सी व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होंगे वरना भुखमरी इस कोरोना महामारी से भी विकराल रूप ले लेने वाली है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सार्वभौम और सशक्त बनाने के आन्दोलन सतत चलाने पड़ेंगे। इस मांग को मजदूर आन्दोलन की मांगों से जोड़ना पड़ेगा।
- राशि जन धन खातों में जमा करने और रु 1000 प्रति माह की मदद मजदूरों को देने की घोषणा कुछ इस अंदाज में की थी मानो पूरा सरकारी खजाना ही लुटा दे रहे हों, वो भी मजदूरों के खातों में नहीं पहुंचा है। इनमें बहुत से खाते शून्य बैलेंस होने के नाते बैंकों ने बंद कर दिए हैं। उसी तरह जो मुफ्त राशन देने की घोषणाएं हुई थीं वे भी महज घोषणाएं बनकर ही रह गईं। जिसकी वजह राशन कार्ड ना होना या उसका आधार कार्ड से लिंक ना होना समझ आया। ‘मजदूर समितियों’ को खाद्य वितरण प्रक्रिया का हिस्सा ना बनाया गया तो यही होने वाला है।
- ‘आपदा को अवसर’ में बदलने का कोई भी अवसर हुकूमतें अपने हाथ से जाने देना नहीं चाहतीं। अब इससे आगे जितने दिन भी ये पूंजीवादी व्यवस्था जिंदा रहेगी उतना ही ज्यादा ये मजदूरों के शोषण की दर बढ़ाती जाएगी। मजदूरों की हड्डियां भी निचोड़ डालेंगे ये सरमाएदार। मजदूरों के काम के घंटे बढ़ने की किसी भी साजिश को नाकाम करना ही होगा वरना ये मई दिवस के शिकागो के अमर शहीदों के बलिदानों का घोर अपमान होगा।
मज़दूरों की एक पुकार—इज्ज़त, रोटी, रोज़गार!
यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 2/ जून 2020) में छपा था
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