“कोरोना से मरें न मरें, भूख से तो मरना तय है” – ये बोल आज हर गरीब आबादी के मुंह पर है। कोरोना महामारी की मार से आज देश का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है। चारो ओर बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी तथा सर्वत्र अभाव व्याप्त है। भुखमरी ने तो विकराल रूप धारण करते हुए एक विशाल आबादी को अपने आगोश में ले लिया है। सरकारी योजनाएं, दावे, विज्ञापन आदि की चर्चा से लोग चिढ़ने लगे हैं। सरकार द्वारा अपनी नाकामयाबी छिपाने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति फैलाये गए विद्वेष की भावना को भी मजदूर वर्ग ने लगभग नकार दिया है। संकट गहराता ही चला जा रहा है। निकट भविष्य में अपनी जीवन को अनिश्चितता में देख गरीब आबादी के लोग, खासकर मजदूर, चेतनशील हो रहे हैं। उनका ही कहना है कि ‘जान बचाने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा।’ वे इस बात में अपने हक के लिए संघर्ष या लड़ने की बात को भी शामिल करते हैं।
कोविद संकट के चंद दिनों बाद से ही हमलोगों ने जमीनी स्तर पर जा कर अपनी आंखों से वास्तविक स्थिति को देखने की कोशिश की, जो लगातार जारी है। मोदी अपनी योजनाओं के पहले “गरीब” शब्द जोड़ते रहे हैं, लेकिन ऐसी तिकड़ों का प्रभाव खत्म हो चुका है। इससे गरीबों को अब सांत्वना या कोई खुशी नहीं प्राप्त होती है। उल्टे, इससे लोग चिढ़ कर गालियों की भाषा का प्रयोग करते हैं, क्योंकि चाहे राशन वितरण का मामला हो या आर्थिक मदद की अन्य घोषणाएं हों, जमीनी स्तर पर सरकारी मदद के दावे खोखले हैं। सरकार ने संकट की इस घड़ी में “ऊंट के मुंह में जीरा” के समान गेहूं ,चावल, दाल और 1000 रुपये की आर्थिक सहायता देने की घोषणा की। साथ ही, महिला जनधन खाता धारकों को 500 रुपये देने की बात भी की। लेकिन हमारा सर्वे बताता है कि सरकार द्वारा उपलब्ध करवाए गए राशन में सिर्फ चावल बांटा जा रहा है। कई जगहों पर गेहूं नहीं बांटा जा रहा है। 1 किलो दाल तो हमारे सर्वे वाले इलाके में बांटा ही नहीं गया। यही नहीं, पीडीएस के माध्यम से मुहैया कराए गए चावल की गुणवत्ता काफी खराब है। दिए गए चावल में भी कीड़े लगे हुए हैं। डीलर का रवैया “लेना है तो लो, नहीं तो यहां से जाओ” वाला है। लेकिन कीड़ा लगा हुआ राशन भी उन गरीबों तक नहीं पहुंच पाया, जिनके पास राशन कार्ड नहीं है। सरकारी दावों के उलट यही सच्चाई है। पुनपुन के गांव में किये गये सर्वे से भी इसी बात की पुष्टि हुई है।
लॉकडाउन के दौरान नए राशन कार्ड बनाने की नीतीश सरकार ने घोषणा की। कई इलाको में फॉर्म भी भरे गये। एक सप्ताह का समय मांगा गया। लेकिन कुछ खास नहीं हुआ। हमलोंगों ने जिलाधिकारी के कार्यालय तक दौड़ लगाई जहां से कुछ अधिकारियों ने नाम नहीं बताने की शर्त पर साफ-साफ बताया कि सबको कार्ड उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। ऐसा सोचा भी नहीं गया है। फिर भी, उन्होंने हमारी भरसक मदद की बात कही। सभी इलाकों में जनता अभी तक राशन कार्ड की आस में ही है।
दूसरी तरफ, शहरों में रह रहे ऐसे लोग, जिनका आधार कार्ड उस मूल इलाके (लोकल) का नहीं है, जहां वे लॉकडाउन के दौरान मौजूद हैं, उन्हें कोई राशन नहीं दिया जा रहा है। इसको लेकर भी दावे और वास्तविकता में अंतर है। जिलाधिकारी कार्यालय द्वारा यह दावा किया गया कि अंगूठा की निशानदेही के आधार पर सभी को बिना किसी दिक्क्त और भ्रष्टाचार के राशन दिया जा रहा है, जो हमारी जमीनी रिपोर्ट से मेल नहीं खाता है।
लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में निराश्रितों, झुग्गी झोपड़ी और फुटपाथ पर रहने वाले लोगों को अनाज या कुछ फूड पैकेट दिये जा रहे थे। झुग्गियों के लोगों का कहना है कि पुलिस दिन में दो बार खाना ले कर आती थी, लेकिन बेसमय आती थी। उनके अनुसार, दोपहर या उसके बाद नास्ते का सामान ले कर आती थी। तब तक लोग अपने बच्चों को बड़ी मुश्किल से भूखे रखते थे। लेकिन, अब वह भी बंद हो चुका है। लोगों को अपने हाल पर छोड़ दिया गया है।
जिला प्रशासन द्वारा खोले गये भोजनालय और अस्थायी आश्रय केंद्रों की संख्या काफी कम है। नजदीक वालों के लिए तो ठीक है, लेकिन दूर के किसी भूखे इंसान को खाना खाने के लिए लम्बी दूरी तय करने के बाद केंद्र पर भोजन हासिल करना काफी मुश्किल काम है। घर में यदि छोटे बच्चे हों, तो उन्हें आप केंद्रों पर लेकर नहीं जा सकते। इसमें खासकर सफाई कर्मियों और उनके परिवारों व बच्चों को काफी दिक्कतों का सामना पड़ रहा है। खाना केन्द्रों से बाहर ले जाने के लिए नहीं मिलता है, वहीं भोजन केंद्रों पर उनके बच्चों की साफ-सफाई और ‘हरकतों’ को लेकर आम तौर पर एतराज किया जाता है। खाने की गुणवत्ता भी एकाध केंद्रों को छोड़कर संतोषजनक नहीं है।
सरकार द्वारा मुहैया कराए गए आर्थिक मदद की बात करें, तो हमारी सर्वे के मुताबिक 500 रुपये की मामूली मदद भी सिर्फ महिला जनधन खाता धारकों को मिली है। उन गरीब लोगों को कोई आर्थिक सहयोग नहीं मिला, जिनका जनधन को छोड़ कोई दूसरा खाता है। जनधन खातों के साथ भी दिक्कत है। जीरो बैलेंस वाले खातों में सहायता राशि नहीं आई। जिन गरीब लोगों ने आर्थिक तंगी में “दो रुपये” भी अपने खाते में नहीं डाल पाए, उनका खाता बंद पड़ा है और इसीलिए पैसा उसमें आ नहीं सकता है। इसी कारण से कई महिला खाताधारकों को भी यह लाभ नहीं मिल सका। 1000 रुपये का आर्थिक सहयोग मिला है, लेकिन किसी-किसी इलाके में नहीं भी मिला है।
कुल मिलाकर स्थिति बहुत ही भयावह है और इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं दिखती है। जैसे-जैसे लॉक डाउन ढीला पड़ रहा है, मानवतावादियों द्वारा की जा रही मदद भी सूखती या खत्म होती प्रतीत हो रही है, जबकि समस्या लगभग जस की तस बनी हुई है।
लॉकडाउन के दौरान दिहाड़ी मजदूरों की स्थिति चिंतनीय है। लॉकडाउन के दौरान असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले दिहाड़ी मजदूर, जो रोज कमाते हैं तब खाते है, उनके सामने आजीविका का संकट आ खड़ा हुआ है। लॉकडाउन में थोड़ी छूट मिलने के बाद शहरों में मजदूर चौकों पर वे जमा होने लगे हैं। रेल और बस सेवाएं स्थगित हैं, तो प्रतिदिन शहर के आस-पास के गांवों से ही मजदूर शहर में काम मिलने की आशा में पैदल या साईकल की मदद से पहुंच रहे हैं। फिलहाल निर्माण कार्य में मंदी है, तो कई लोग काम न मिलने पर वापस लौट जाते हैं। एक बड़ा हिस्सा पटना में जहां-तहां रेलवे स्टेशनों से लेकर सड़क किनारे बने फुटपाथों पर रात गुजारने के लिए बाध्य हैं। किराये के कमरें में रह रहे अधिकांश मजदूरों ने पैसे के अभाव में कमरा खाली कर दिया है। पुनः इस आर्थिक तंगी में किराए का कमरा लेना मुश्किल है। दूसरी तरफ, सरकारी आश्रय स्थलों या रैन बसेरों की संख्या काफी कम है और जो हैं भी वहां समुचित व्यवस्था नहीं है। इसके कारण मजदूर वहां रूकने की तुलना में मंदिरों और फुटपाथों पर सोना या रात बिताना बेहतर समझते हैं। लॉकडाउन के दौरान रह गए मजदूरों के ऊपर किस्तों में किराया चुकाने का भारी दबाव है। हालांकि, मजदूरों की रिपोर्ट के अनुसार, कुछ भाग्यशाली मजदूर भी हैं जिनके मकान मालिक एक हद तक दयालु हैं और वे किराया नहीं देने वालों से ठीक से पेश आ रहे हैं।
मजदूर बताते हैं कि आगे आने वाले दिनों में नियमित मजदूरी की दर में गिरावट आने वाली है। हालांकि, वे यह भी कहते हैं कि हम ये होने नहीं देंगे। वे इसे नहीं होने के लिए कुछ भी करने को बाध्य हैं। फिर भी यह रिपोर्ट भी मजदूरों ने दी कि कुछ जगहों पर मजदूर दिन भर के लिए 100 रूपये पर भी काम करने को राजी हुए हैं, क्योंकि उनके पास खाने को कुछ नहीं था।
प्रतिदिन गांवों से शहरों के मजदूर चौकों पर अब पहले से ज्यादा संख्या में लोग जुटेंगे, मजदूरों ने कहा। प्रवासी मजदूर भी उनमें शामिल होंगे। नतीजा, पहले से ही काम के अभाव में खाली हाथ घर लौटने वाले मजदूरों की संख्या काफी बढ़ने वाली है। मजदूरों ने यह कहा कि उन्हें पता है कि आने वाले दिन काफी कठिन हैं। वे गुस्से में दिखते हैं। हालांकि, कुछ न होते देख काफी निराश भी हैं। अधिकांश मजदूर यह कहने लगे हैं, ‘लड़ना अब मजबूरी है’, लेकिन सवाल है, ‘कैसे लड़ा जाए’ और ‘मांगे क्या रखी जाएं’ ताकि अधिकांश जरूरतमंदों के हित में हों, और ‘लड़ाई का रूप लॉक डाउन में कैसा हो’, ऐसे सारे सवाल उठने लग रहे हैं, मजदूरों के बीच भी और उन्हें संगठित करने वालों के बीच में भी। यह सवाल भी विचारनीय बनता जा रहा है कि ‘लड़ने के बावजूद अगर सरकार कुछ नहीं सुनेगी तो क्या किया जाएगा’, हालांकि वे साथ में यह भी कहते हैं कि ‘सुनेगा कैसे नहीं।’ वे यह भी कहते हैं कि गांवों की स्थिति फिलहाल थोड़ी अच्छी है। लेकिन, जल्द ही वे जोड़ते हैं कि वहां भी स्थिति खराब होगी, खासकर तब जब फसल कटाई के बाद गरीबी और रोजगार तथा आय के अभाव की सीधी मार पड़ेगी।
छोटे-मोटे दुकानों में काम करने वालों या निजी धंधों के कर्मचारियों को बिना वेतन दिये हीं काम से निकाल दिया गया है। ऐसे लोग भी अपनी मेहनत को बेचने के लिए चौराहे पर खड़े होने लगे हैं। यानी, मजदूर चौकों पर संख्या बढ़ेगी, इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है। दरअसल, एक बहुत बड़ी आबादी अपने पुराने काम-धंधों को मजबूरी में छोड़ दूसरे विकल्पों के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं।
असंगठित क्षेत्र के निर्माण मजदूरों को आर्थिक मदद पहुंचाने की सरकार की घोषणा पूरी तरह विफल साबित हुई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 94% निर्माण श्रमिक अपंजीकृत हैं। ऐसे में श्रमिकों की विशाल आबादी को स्पष्टत: कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। दूसरे, जो पंजीकृत हैं उनके खातों में भी अभी तक आपदा सहायता राशि आने की बात की कहीं से पुष्टि नहीं हुई है।
मजदूरों से 20 लाख करोड़ रूपये के पैकेज की सहायता के बारे में भी बात की गई। जब उन्हें बताया गया कि सरकार उन्हें कर्ज दे रही है, तो निमार्ण सहित अन्य श्रमिकों व रोजगारविहीन हो चुके लोगों ने यह कहते हुए इसे खारिज कर दिया कि ‘उन्हें कोई लोन नहीं चाहिए।’ उन्होंने कहा कि ‘सरकार सिर्फ उनकी उचित मजदूरी और काम की गारंटी सुनिश्चित करे।’
मनरेगा के तहत 182 रुपये से 20 रुपये मामूली इजाफा के बाद 202 रुपये हुई मजदूरी के प्रति भी श्रमिकों में काफी असंतोष है, क्योंकि इतनी कम मजदूरी में जीवन चलाना मुश्किल है। 8 घंटे काम के नियम के बावजूद भी गरीब दिहाड़ी मज़दूरों से 10 घंटे काम लेना आम बात है, लेकिन सरकार द्वारा बारह घंटे के कार्य दिवस की नीति थोपे जाने पर श्रमिकों ने कहो कि ‘मर जाएंगे लेकिन बारह घंटे काम नहीं करेंगे।’
दूसरी तरफ, शहरों में ऐसे गरीब लोग जो सड़क के किनारे या खाली सरकारी जमीनों पर झुग्गी व झोपड़ी बना कर रह रहे हैं, सरकार उन पर अक्सर कहर बरसाती है। कई इलाकों में इन लोगों ने बताया कि ‘सरकार बरसात में झोपड़ी के लिए प्लास्टिक तक नहीं देती’, उल्टे, ‘हर दूसरे महीने ऐसी झुग्गी बस्तियों को उजाड़ देती है।’ वे इस बात से डरे हुए हैं कि ‘इस आपदा में भी उन्हें सरकार उजाड़ना बंद नहीं करने वाली है।’ लॉकडाउन से कुछ ही दिनों पहले इन झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ दिया गया था, जिसे उन्होंने हमें दिखाया भी। हालांकि लॉकडाउन के दौरान कोई तोड़ने नहीं आया है, लेकिन उनका कहना है कि ‘लॉकडाउन के खुलते ही फिर से बस्तियों को उजाड़ दिया जाएगा, जबकि बरसात आने वाला है।’ हरेक सरकार (केंद्र व राज्य सरकार) के दौर में वे लगातार इस समस्या को लेकर लड़ते रहें, लेकिन आज तक कोई स्थायी राहत नहीं मिला। उनके आवास या उन्हें बसाने की कोई व्यवस्था नहीं की गई, न ही कोई नीति तैयार की गई। कोरोना संकट के बीच इनका कामकाज भी बंद है, तो स्वाभाविक रूप से ये आबादी भुखमरी की कगार पर है। सोशल डिस्टेंसिंग बनाना इनके बीच बिल्कुल ही संभव नहीं है। यदि कोरोना का फैलाव इन बस्तियों में हो जाये, जो कि स्थितियों को देखते हुए लगता है कि होगा ही, तो वो दोहरी मौत मारे जाएंगे। वे स्वयं इस बात से वाकिफ दिखे।
कोरोना संकट के बीच महानगरों व बड़े शहरों से अपने गांव की ओर रुख कर रहे प्रवासी मजदूरों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। इनकी व्यथा अकल्पनीय है। पटना के मजदूर प्रवासी मजदूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनके समर्थन में दिखे। वे स्वयं एक हद तक प्रवासी ही हैं और प्रवासी होने के दर्द को अपने अनुभव से बखूबी समझते हैं। उन्होंने यह कहा कि इतने दिनों में रही-सही जमापूंजी भी गवां कर कंगाल हो चुके मजदूरों से श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में टिकट किराया वसूला जाना गलत है। उन्होंने यह भी माना कि अधिकांश प्रवासी मजदूर आधा पेट खाकर ही रह रहे होंगे।
घर लौटे मजदूरों से भी हमारी बात हुई। उन्होंने जो व्यथा बयान की, वह दिलोदिमाग को हिला देने वाली है। सभी बातों को यहां बताना संभव नहीं है। जगह की कमी पड़ जाएगी। फिर भी इतना बताना सही होगा कि श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में उन्हें खाना नहीं मुहैया कराया गया। जब वे ट्रेन से उतरे तो अपने गांवों तक जाने के लिए किसी भी तरह का अंतरराज्यीय परिवहन व परिचालन बंद पाकर उन्हें गांव तक पैदल ही जाना है। बाद में बसों की व्यवस्था की गई, लेकिन उसमें दुगुना किराये का प्रावधान किया गया। इसके कारण भी अधिकांश ने भूखे-प्यासे पैदल जाना ही मुनासिब समझा। हाइवे के नजदीक रह रहे आस-पास के लोगों से इस बारे में बात की गई तो उनका कहना है कि दिन-रात लोग बड़े-बड़े जत्थे में आ रहे हैं। रात को थक कर लोग हाइवे की डिवाइडर और जंगल-झाड़ियों में सो जाते हैं। कई जगहों से यह रिपोर्ट भी आई कि महामारी के संक्रमण के संभावित खतरे की वजह से प्रवासी मजदूरों का कई लोकल इलाके में प्रवेश वर्जित कर दिया गया। इसकी बाजाप्ता निगरानी करने की बातें सामने आईं। स्थानीय लोगों का कहना है कि वे जानते हैं, ‘सरकार कुछ नहीं करने वाली, इसलिए हम अपना बचाव कर रहे हैं।’ लेकिन इसमें पूरी सच्चाई नहीं है। साथ में यह भी सामने आया कि दरअसल गांवों व इलाकों के दबंगों से यह तय हो रहा है कि किसे घर जाने दिया जाएगा और किसे नहीं। अपने गंतव्य तक पहुंचने के बाद, जहां छात्रों व अन्य यात्रियों को होम क्वारेन्टीन की छूट है और गांव के दबंग लोग उन्हें नहीं रोक रहे हैं, वहीं दोहरा रवैया अपनाते हुए मज़दूरों को 2-3 सप्ताह का समय सामुदायिक भवनों पर पृथकवास में गुजारना होता है, जहां पीने के लिए साफ पानी और खाने के लिए भोजन की कोई व्यवस्था नहीं है। बिस्तर भी नहीं है। कमरें और शौचालय गंदे हैं। कहीं-कहीं तो शौचालय है ही नहीं। इलाज या दवा की भी कोई व्यवस्था नहीं है।
इस सबके बावजूद, हम जानते हैं, गांव में कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, क्योंकि राज्य सरकारें या केंद्र सरकारें मजदूरों की टेस्टिंग लगभग नहीं के बराबर कर रही हैं। राज्यों की सीमाओं पर भी टेस्टिंग में काफी लापरवाही बरती जा रही है। अगर दबंग और धनिकों के परिवार आ रहे हैं तो वे सीधे गांव में प्रवेश कर जा रहे हैं, जिससे संक्रमण का खतरा बढ़ा है। वहीं मजदूरों या कमजोर तबके के लोगों को रोका जा रहा है।
कोरोना योद्धाओं की जरूरी मांगों को दमनपूर्वक दबाते हुए उन पर पुष्प-वर्षा का कार्यक्रम करवाया गया। हम यह जानते हैं। जूनियर पुलिस अधिकारियों और यातायात पुलिस से बातें हुईं। इनका 12 घंटे का शिफ्ट है। इन्होंने गुस्से और निराशा से बताया कि विशेष परिस्थितियों, जो कि इन दिनों अक्सर आती हैं, में इनसे 24 घंटे भी काम लिया जा रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि ‘लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद भी किसी तरह की छुट्टी स्वीकार नहीं की जा रही।’ इनकी अलग-अलग चौक-चौराहों पर तैनाती की गई है। बातचीत से यह बात उभर कर आई कि जिस जगह इनकी तैनाती की गई, वहां इनकी सुरक्षा की अनदेखी करते हुए सैनिटाइजर, दस्ताने या इसी तरह के अन्य सुरक्षा किट उन्हें मुहैया नहीं कराया गया। उन्होंने कहा कि ‘मास्क भी वे खुद के पैसे से पहनते हैं।’ यही नहीं, ‘सरकार ने कई जगहों पर पिछले 3 महीनें का वेतन भी नहीं दिया है।’ ऐसे में दुर्भाग्यवश कोरोना संक्रमित हो जाने व अन्य दुर्घटना की स्थिति में ‘वे सरकार से 50 लाख रुपये अनुदान (जिसकी घोषणा की गई है) की आशा भी वे नहीं रखते।’ तैनाती वाली जगह पर ‘उनके लिए ‘खाना-पानी और शौचालय की कोई ठोस व्यवस्था नहीं है।’ उन्होंने हमसे ही पूछा कि ”ऐसे में अगर शौचालय जाना हो तो इस दौर में कौन अपने घर का दरवाजा खोलेगा?”
दूसरी ओर डॉक्टर व नर्सों की सुरक्षा उपकरणों की मांग को तो पहले दिन से ही दबाया जा रहा है। सभी जगहों की तरह पटना की भी यही स्थिति है। उनसे 12 घंटे से भी अधिक काम लिया जा रहा है। अस्थायी कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रही नर्सों के भी वेतन बकाया पड़े हैं। अस्पताल से निकले संक्रमित अवशिष्ट व अन्य कचड़ों का निपटारा कर रहे सफाई कर्मियों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। शहरी क्षेत्रों में भी नगर निगम के कर्मियों के 2 महीने के वेतन का भुगतान बकाया है।
कोरोना महामारी के संकट के बीच उद्योग धंधे तथा कामकाज ठप हैं। यहां तक कि निजी स्कूलों के शिक्षकों व ट्यूशन पढ़ाकर घर परिवार चलाने वालों का भविष्य अंधकारमय हो गया है। निजी स्कूलों में अधिकांश को वेतन नहीं मिला है। ट्यूशन पढ़ाने वाले पूरी तरह बेरोजगार हो गये हैं। जो दुकानों व उद्योगों में कार्यरत थे, मालिकों द्वारा उन्हें कोई वेतन भुगतान नहीं किया गया है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लोग अपनी रही सही जमा पूंजी से अपना पेट भर रहे थे जो अब समाप्त हो चुकी है। लोग एक दूसरे से मदद मांग कर और राशन दुकानों से उधार ले कर खा रहे हैं। अब राशन का उधार मिलना भी मुश्किल हो चुका है। हमें मिली जानकारी के अनुसार, कई परिवार एक शाम खाना खा रहे हैं जिस पर भी आफत है। थाली से अन्न गायब होता चला जा रहा है। कुछ दिन बाद सिर्फ थाली हीं बचेगी, जो मोदी जी के आह्वान पर बजाने के काम आयी थी। ‘लोग इस तरह से स्वयं और अपने बच्चों को भुखमरी से जूझते नहीं देख सकते। क्राइम, लूट-पाट की घटनाएं बढ़ेंगी’ यह एक आम धारणा बनती दिखी।
भूख के सामने कोरोना का भय उनके बीच खत्म हो चुका है। कोरोना जब होगा, तब होगा, लेकिन भुखमरी तो सामने खड़ी है। लोग हताशा व निराशा में कुछ भी करने के लिए तैयार हैं, आंदोलन भी।
कोरोना के अलावा दूसरी बीमारियां भी हैं, जिनका इलाज कहीं नहीं हो रहा है। गरीबों का तो नहीं ही हो रहा है, एक हद तक पैसे वालों को भी संकट है, क्योंकि निजी अस्पताल बंद पड़े हैं। पटना के स्थानीय सरकारी अस्पतालों में भी आम रोगों का इलाज नहीं हो रहा है। बीपी और शुगर चेक कराने वालों को दूर से ही ”ठीक है” कहकर लौटा दिया जा रहा है। निजी बड़े अस्पताल आम तौर पर पैसा लेकर भी तभी इलाज कर रहे हैं अगर रोगी को सर्दी जुकाम और फीवर नहीं है।
ग्रामीण क्षेत्र के ऐसे लोग जिनका इलाज शहरों में सरकारी अस्पतालों के इलाज व दवा के सहारे चल रहा था, वो पूरी तरह रुक चुका है। दवा जारी रख पाना मुश्किल है, क्योंकि न तो सरकारी अस्पताल से दवा मिल रही है, न ही खुद के पास पैसे हैं जिससे वे दवा खरीद सकें। इससे इतर, अगर किसी गरीब के कोरोना से संक्रमित होने का संदेह भी होता है तो उसकी जांच प्रक्रिया भयंकर है। उन्हें अपने परिवार के सदस्यों से तुरंत पृथक कर दिया जाता है। बचे-खुचे पैसे भी लूट लिए जाते हैं। संदेह के आधार पर ही उनसे अमानवीय व्यवहार शुरू हो जाता है। ऐसे में वे जांच करवाने से भी हिचकते हैं और इसे छिपाने लगते हैं। सरकार लगभग मूकदर्शक बन ऐसे मामलों के प्रति पूरी तरह उदासीन बनी हुई है। यह हाल पटना राजधानी की है, गांवों में इलाज की स्थिति क्या होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। शायद इसी कारण, गरीब लोगों के बीच यह धारणा बनने लगी है कि कोरोना का हौवा जानबूझ कर बड़े लोगों के द्वारा खड़ा किया गया है। कई मजदूरों ने जोर देकर यह कहा कि गरीबों को मार देने की यह साजिश है।
कुल मिलाकर कोरोना महामारी के संकट ने देश की विशाल बहुसंख्यक मेहनतकश-गरीब आबादी के सामने इस पूंजीवादी व्यवस्था के घिनौने चरित्र को बेनकाब कर दिया है। सर्वे के दौरान शोषण और लूट पर टीकी इस व्यवस्था के प्रति लोगों को शिक्षित भी किया है। एक नेटवर्क बनाकर आंदोलन की शुरूआत करने की बात भी हुई है जो आगामी दिनों में जल्द ही जमीन पर दिख सकता है। सवाल वही है, संघर्ष का रास्ता व लक्ष्य तथा मांगें क्या हों? ‘सरकार छोटी-मोटी मांगों के अतिरिक्त कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं होगी’ – यह एक आम बात व समझ है जो लोगों के बीच कायम होती जा रही है। इससे निराशा के स्वर भी पैदा हो रहे हैं – ‘भूखे मरेंगे और क्या होगा’, हालांकि यह स्वर भी मौजूद है कि ‘लड़ेंगे और क्या करेंगे’ और इसी के साथ वे एक बड़ी लड़ाई की मांग भी करते हैं। लेकिन इस बीच जीवन कैसे चलेगा, और एक बड़े आंदोलन चलाया कैसे जाए, यह एक बड़ी समस्या है। दूसरी तरफ, हालांकि लोगों के बीच कम्युनिस्ट आंदोलन की कमजोरियों का ज्ञान नहीं है, लेकिन इस बात का अहसास है कि बड़ा आंदोलन चलाना आसान नहीं होता है। लेकिन साथ में यह भी अहसास है कि बड़े आंदोलन के बिना सरकार सुनने वाली नहीं है। जब उनसे कहा गया कि पूरे विश्व में यही स्थिति है, तो यह साफ महसूस हुआ कि इस मुतल्लिक भाजपा का प्रचारतंत्र उन तक यह बात पहुंचा चुका है कि अमरीका जैसा देश भी तबाह है, जिसका मतलब यह है कि भारत तबाह है तो क्या हुआ अमेरिका जैसा देश भी तो तबाह हुआ है और हो रहा है। इसका असर भी है, और कुछ इलाकों में गरीब तबके के लोग भी यह कहते पाये गये कि ‘सरकार क्या कर सकती है जब पूरी दुनिया में यही हाल है।’ हालांकि अधिकांश लोगों ने भाजपा के हिंदू-मुस्लिम प्रचार को सिरे से नकारा और कहा कि मिल कर लड़ना होगा। लोगों ने कहा, ‘हमलोगों को हिंदू-मुस्लिम नहीं करना है।’ आरएसएस और भाजपा की तरफ से छोटे-मोटे राहत कार्यक्रमों के अतिरिक्त राहत के लिए कोई बड़ी मुहिम ली गई हो, ऐसा कहीं नहीं दिखा। हालांकि उसका प्रचारतंत्र काफी सक्रिय है। इस बार वह इस बात पर केंद्रित है कि ‘पूरी दुनिया तबाह है, तो भारत तबाह है तो क्या हुआ’, जिसका आशय यह है कि न तो कोई शिकायत करे और न ही कोई उम्मीद, बस मोदी सरकार से लोग सहयोग करे।
उपरोक्त रिपोर्ट पर विशेष टिप्पणी
पटना में हमारे साथियों द्वारा किये गये सर्वे की रिपोर्ट पर आधारित आलेख की पहली किश्त का समाहार करते हुए हम यह कहना चाहते हैं कि आम अवाम भुखमरी के कगार पर खड़ी है। यह एक महाआपदा की स्थिति है। इस स्थिति को दिमाग में रखकर ही हमें अपनी तात्कालिक व राजनीतिक मांगें फ्रेम करनी चाहिए, खासकर इस बात को ध्यान रखा जाना जरूरी है कि तात्कालिक मांगों को राजनीतिक मांगों को सलीके से जोड़ा जाए, ताकि भयंकर बेरोजगारी, भुखमरी तथा इलाज के अभाव से जूझती आवाम के गुस्से को इस व्यवस्था को उलटने के उनके इस्पाती इरादों में बदला जा सके। तभी मजदूर-मेहनतकश वर्ग राजनीतिक रूप से, पूंजीपति वर्ग के विरोध में खड़े एक वर्ग के बतौर, इस संकट काल में राजनीतिक हस्तक्षेप करने की स्थिति में आ सकेगा। निराशा के माहौल में इन बातों को सीधे नकारने की स्थिति मौजूद है। फिर भी, हम इस पर जोर देकर कहना चाहते हैं कि इस तरफ उचित रूप से ध्यान देना जरूरी है।
हम और हमारे जैसे अन्य सभी भी यह मानते होंगे कि निम्नपूंजीवादी तबकों के बीच भी इस बात का अहसास तेजी से हो रहा है कि ‘लड़ने के सिवा कोई विकल्प शेष नहीं रह गया है।’ उनके शब्दों में, ‘जिसने हमें यूं हीं मरने के लिए छोड़ दिया, उन्हें यूं हीं नहीं छोड़ देना है।’ इस आशय की चेतना उनमें आ रही है, तो इसका क्रांतिकारीकरण करने वाले नारों का सुत्रीकरण करना हमारा कार्यभार अवश्य बनता है। आम लोगों के तात्कालिक जीवन-संघर्ष के मुद्दों को क्रांतिकारी नारों से आलिंगनबद्ध करना आज का एक सबसे प्रमुख कार्यभार है। इसमें दृढ़ता के साथ कलात्मकता व कल्पनाशीलता की भी जरूरत होती है, जिसका अभाव आंदोलन में सार्विक रूप से व्याप्त है। आत्मगत शक्तियों की कमजोरी का अक्सर हवाला दिया जाता है जो सही भी है, हालांकि, उस पर पार पाने को लेकर सदा से ही गलत निष्कर्ष निकाले जाते रहे हैं। इसीलिए, इसे तोड़ पाना निश्चय ही एक बहुत अधिक कठिन काम है, हालांकि, कोशिश अवश्य करनी चाहिए।
एक बहुत बड़ी आबादी का जीवन संकट में आ चुका है और पूरे विश्व की सरकारों तथा स्वयं अपने देश की सरकार द्वारा उठाये जाने वाले कदमों से यह साफ है कि यह संकट खत्म होने के बजाए और बढ़ने वाला है। जाहिर है, जैसे-जैसे जीवन के अस्तित्व का संकट बढ़ेगा, वैसे-वैसे तात्कालिक मांगों के लिए स्पेस घटता जाएगा। जीवन के अस्तित्व से जुड़ी तात्कालिक मांगें इस रूप में प्रकट की जा सकती हैं जो एक बड़ी आबादी की मांग को समेटती हों। तब वे क्रांतिकारी विस्फोट के बीजकण लिए हुए भी होंगी, खासकर जब संकट तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा हो। यानी, संकट के तीव्रीकरण के काल में तात्कालिक मांगों का सही से किया गया प्रस्तुतीकरण उन्हें क्रांतिकारी नारे में बदल दे सकता है। इसलिए, यह जरूरी है कि संकट की तीव्रता का सही से, और पूरे देशव्यापी स्तर पर, अनुमान लगाया जाए और इसके लिए सही से और उचित लक्ष्य तथा सावधानी से तय की गई प्रश्नावलियों के माध्यम से सर्वे और विश्लेषण करना जरूरी है, ताकि वस्तुस्थिति का ठीक-ठीक आकलन किया जा सके।
हमें पता है, वस्तुगत रूप से रूसी क्रांति रोटी, शांति और जमीन के मुद्दे पर घनीभूत हुई थी। तीव्र होते संकट के बीच ठीक-ठीक कौन से तात्कालिक मुद्दे आज क्रांतिकारी शक्ल लेंगे जिन पर जनाक्रोश घनीभूत होगा या हो सकता है, यह बहुधा पहले से तय नहीं किया जा सकता है। लेकिन, वे मेहनतकश जनता के टूटते-बिखरते जीवन से ही जुड़े होंगे यह तय है। इसलिए हम कम से कम उनके उभरने के लिए रास्ते जरूर प्रशस्त कर सकते हैं। जैसे, प्रति परिवार अनाज की एक नियत मात्रा की मांग के बदले या श्रम कानूनों में हुए पूंजीपक्षीय सुधारों की गिनती कर उन्हें वापस लेने आदि जैसे टुकड़ों में विभाजित मांगों के बदले सीधे-सीधे मानवीय जीवन की गरिमा के साथ जीने की मूल शर्तों पर आधारित मांगें पेश की जा सकती हैं, जिसके सहारे हम वृहतर आबादी को क्रांतिकारी दिशा में गतिशील कर सकें। फिर इसे लेकर सतत घनीभूत आंदोलन, जो निश्चय ही जीवन के वास्तविक संकट की तीव्रता पर निर्भर करता है, चलाया जाना चाहिए। कुल मिलाकर, हम यह कहना चाहते हैं कि संकट की तीव्रता के आंकलन को देखते हुए तात्कालिक मांगों के फ्रेम को तय करने से लेकर क्रांतिकारी राजनीतिक मांगों के सुत्रीकरण तक के समस्त मामले को आज पूरी गंभीरता से हाथ में लेने की जरूरत है, क्योंकि संकट के और गहराने के संकेत चारो तरफ दिखाई दे रहे हैं, हालांकि इसकी तीव्रता और गहराई का ठीक-ठीक आंकलन करना अभी बाकी है। ऐसे में, अगर हम महज तात्कालिक मांगों व नारों तक अपने अभियान को सीमित रखते हैं, तो संकट तीव्र से तीव्रतर होकर बीत जाएगा और हम बिना कुछ किये बस गुब्बार देखते रह जाएंगे। मजदूर वर्ग, हालांकि जिसकी स्थिति निस्संदेह बहुत अधिक भयावह है और वे बुरी तरह असंगठित भी हैं, तथा इससे जुड़ा क्रांतिकारी आंदोलन न्यूनतम राजनीतिक हस्तक्षेप करने से भी बुरी तरह चूक जाएगा। जीत और हार तो बाद की, बहुत दूर की बात है, अभी तो सवाल बस इतना है कि हम भविष्य के लिए इसका कुछ अनुभव भी ले सकेंगे या नहीं। संक्षेप में, अभी मुख्य सवाल यह कि हम इस विश्वव्यापी संकट में एक क्रांतिकारी की तरह व्यवहार कर सकेंगे या नहीं।
हमने यहां इस विमर्श की बस शुरूआत भर की है। इस पर और भी गंभीरता से चर्चा व मंथन करने की जरूरत है।
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