एस. राज //
मई दिवस का इतिहास काम के घंटे कम करने के लंबे आंदोलन से जुड़ा हुआ है। इसलिए इसे जानना उन सबके लिए जरूरी है जो मजदूरी करते हैं या वेतन पर जिंदा रहते हैं या फिर जो समाज को उन्नत, सुन्दर और शोषणमुक्त बनाना चाहते हैं। मजदूरों के लिए काम करने की मानवीय परिस्थितियों और खास तौर पर काम के घंटे कम करने के लिए संघर्ष 18वी व 19वी सदी में अमेरिका में फैक्ट्री सिस्टम की स्थापना के साथ ही शुरू हुआ, जहां मजदूरों से दिन में 14 से 18 घंटे तक काम कराया जाना आम बात थी, और बाद में अन्य देशों में फैल गया। 19वी सदी में मजदूरों ने दिन में काम के घंटे 10 करने की मांग के साथ संघर्ष की शुरुआत की जो बाद में 8 घंटे में बदला। हालांकि मई दिवस का जन्म 1884 में 8 घंटे का कार्य दिवस करने की मांग के साथ अमेरिका में खड़े हुए मजदूर आंदोलन से हुआ जब वहां के मजदूर वर्ग ने 7 अक्तूबर 1884 में मजदूर संघ ‘फेडरेशन ऑफ आर्गनाइज्ड ट्रेड्स एंड लेबर यूनियन’ के राष्ट्रीय सम्मेलन में यह घोषणा की कि 1 मई 1886 से मजदूरों से एक दिन में 8 घंटे से ज्यादा काम नहीं करवाया जाएगा। इसी के बाद, मई दिवस एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन में तब्दील हो गया जब मजदूर वर्ग के अंतर्राष्ट्रीय संगठन ‘द्वितीय इंटरनेशनल’ ने 14 जुलाई 1889 को पेरिस में हुई अपनी बैठक में 1 मई को काम के घंटे 8 करने की मांग के साथ एक अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शन आयोजित किये जाने का प्रस्ताव पारित किया।
हालांकि, मजदूर वर्ग के इस महान राजनीतिक संघर्ष को पूंजीवादी राज्य के हाथों भारी दमन और हमलों का सामना करना पड़ा जिसमें कई मजदूर जेल गए व घायल और शहीद भी हुए। 1 मई 1886 को आंदोलन की शुरुआत होने पर पूरे अमेरिका में लाखों मजदूरों ने पुलिस और गुंडों द्वारा दमन और हिंसा की धमकियों के बावजूद हड़ताल कर दी। अगले दिन भी यह हड़ताल जारी रही। 2 दिन बाद 3 मई को पुलिस ने हड़ताल कर रहे कुछ मजदूरों पर गोलियां चला दी जिसमें कई मजदूर घायल हुए और 6 मजदूरों की जान चली गई। इसके विरोध में मजदूरों ने अगले ही दिन शिकागो शहर के हे मार्केट स्क्वायर चौक पर आक्रोश सभा का आयोजन किया। सभा शांतिपूर्ण ढंग से चल रही थी लेकिन कुछ देर बाद पुलिस ने सभा को भंग करने के लिए मजदूरों पर धावा बोल दिया. इसके कुछ क्षणों बाद ही अचानक कहीं से भीड़ के बीच से एक बम फेंक दिया गया जिससे 4 मजदूरों और 7 पुलिसवालों की मौत हो गई। बम के फेंके जाने से मची भगदड़ और हिंसा ने पूंजीपति वर्ग को पूरे मई दिवस आंदोलन को कुचलने का एक सुनहरा अवसर प्रदान कर दिया, जिसका उसने भरपूर इस्तेमाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। घटना के बाद ही 8 मजदूर नेताओं को हत्या के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया और आनन-फानन में ढंग से सुनवाई किये बगैर 4 मजदूर नेताओं को फांसी की सजा सुनाई गई और बाकी मजदूरों को कैद में डाल दिया गया। सजा के पीछे राज्य का असली मकसद इसी से दिख जाता है कि 8 गिरफ्तार मजदूरों में से केवल 3 ही हेमार्केट स्क्वायर पर घटनाक्रम के दौरान मौजूद थे और जिस जूरी (न्यायाधीश मंडल) ने मजदूरों को सजा सुनाई उसमें ज्यादातर पूंजीपति और उनके एजेंट शामिल थे। कुछ ही दिन बाद 4 मजदूर नेताओं, अल्बर्ट पारसंस, अगस्त स्पाइस, जॉर्ज एंगेल, अडोल्फ फिशर को मजदूरों के लिए एक बेहतर दुनिया का ख्वाब देखने और उसके लिए आवाज उठाने के ‘जुर्म’ के लिए फांसी दे दी गई, ताकि पूंजीवादी समाज की अदालतों में ‘न्याय’ मिलने की प्रक्रिया बाधित ना हो।
मई दिवस का महत्व आज भी उतना ही या शायद उससे ज्यादा है जितना कि दो सदियों पहले था, क्योंकि सर्वप्रथम यह हमें मजदूर वर्ग के उस विद्रोही इतिहास से अवगत कराता है जो कि बताता है कि मजदूर वर्ग ने पूंजीपति वर्ग को कई मौकों पर पराजित किया है और साथ ही दुनिया के मजदूरों एक हो के नारे के महत्व को भी दर्शाता है। हालांकि 20वीं सदी के मध्य से पूरी दुनिया में मजदूर वर्ग के आंदोलन पर पूंजीपति वर्ग द्वारा लगातार हमले होते गए जिससे आंदोलन कमजोर होता गया और जिसके लिए 1950 के दशक में सर्वहारा वर्ग के राज्य वाले देश, सोवियत संघ, में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना हो जाना एक बेहद बड़ा प्रहार साबित हुआ। मजदूरों द्वारा लड़ कर हासिल किये गए अधिकारों को एक-एक कर के पूंजीवादी सरकारों द्वारा ध्वस्त कर दिया गया जिसमें खास तौर पर पिछले चार दशकों में पूरे विश्व में नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के कारण अभूतपूर्व तेजी देखने को मिली। 8 घंटे के कार्यदिवस का अधिकार महज कागज पर लिखी एक बात बन कर रह गया और अब मजदूरों से 12-14 घंटे भी काम करवाया जाना कोई बड़ी बात नहीं रह गई है। स्थाई रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, काम के लिए सुरक्षित व मानवीय परिस्थितियों का होना आदि मजदूरों की एक बड़ी आबादी के लिए मौलिक अधिकार के बजाये एक सुंदर सपने जैसा हो गया है। महंगाई लगातार बढ़ती गई है और मजदूरी व वेतन इन दशकों में ना के बराबर बढ़ा है। संगठित होने और आवाज उठाने के अधिकार भी वास्तव में ध्वस्त कर दिए गए हैं। जैसे-जैसे मजदूर वर्ग और कमजोर और असंगठित होता गया, इन पूंजी पक्षीय नीतियों को धड़ल्ले से लागू करने और मजदूरों पर बड़े से बड़ा हमला करने की जमीन पूंजीपति शासक वर्ग के लिए उर्वर बनती गई।
आज जब विश्व पूंजीवादी व्यवस्था एक स्थाई व ढांचागत संकट में फंसी है, मजदूर-विरोधी नीतियों को लागू कर और मजदूरों द्वारा लड़ कर हासिल किये गए अधिकारों को ध्वस्त कर अपने आकाओं, यानी बड़े पूंजीपति वर्ग के मुनाफा दरों की हिफाजत करने को मुख्य एजेंडा मानने वाली दुनिया भर की पूंजीवादी सरकारों का रुख और भी दमनकारी व घोर मजदूर-विरोधी बनता जा रहा है। विशेष तौर पर भारत इसी प्रक्रिया का एक प्रमुख उदाहरण है जहां 2014 और फिर 2019 में एक फासीवादी ताकत ने भारी बहुमत से सरकार का गठन किया और उसके बाद से भारत के मजदूर वर्ग पर सुनियोजित ढंग से एक के बाद एक बड़े हमले होते गए। श्रम कानूनों में विभिन्न मजदूर विरोधी सुधार, नोटबंदी और जीएसटी जैसी नीतियों से 94% मजदूरों-कर्मचारियों को रोजगार देने वाले असंगठित क्षेत्र की कमर तोड़ देने, और पूंजी के केंद्रीकरण को अभूतपूर्व स्तर पर बढ़ावा देने वाली अन्य नीतियों के अलावा, इसने मजदूर वर्ग पर अभी तक के शायद सबसे बड़े हमले की योजना बनाई है जो। इसमें 44 श्रम कानूनों की प्रणाली को ध्वस्त कर उसके बदले 4 मजदूर-विरोधी श्रम संहिताओं को स्थापित करना शामिल है जिसके बाद न्यूनतम वेतन, काम के तय सीमित घंटे, सामाजिक सुरक्षा, स्थाई रोजगार, यूनियन व संगठन बनाने का अधिकार, काम करने के लिए सुरक्षित व मानवीय परिस्थितियां व अन्य अधिकार वास्तव में ध्वस्त हो जायेंगे, और जिसमें से एक (मजदूरी पर श्रम संहिता) संसद में पारित भी हो चुकी है। इसके साथ ही साथ अपने मजदूर-विरोधी एजेंडे को आगे बढ़ाने के मार्ग को और आसान बनाने के लिए,इसके द्वारा जनवादी व नागरिक अधिकारों व आंदोलनों के साथ-साथ किसी भी प्रकार के विरोध को कुचलने की मुहिम राज्य व गैर-राजकीय तत्वों के सहारे और भी ज्यादा प्रत्यक्ष व प्रबल रूप से चलाई जा रही है। यह दोनों मुहिमें एक साथ दिनों दिन और भी संगठित रूप लेकर तेज हो रही हैं।
इन्हीं बुरी परिस्थितियों में बीते कुछ महीनों से पूरी दुनिया में एक दूसरा संकट आ खड़ा हुआ है, यानी, कोरोना महामारी का संकट आया है, जिसने पूरी दुनिया को लॉकडाउन की स्थिति में डाल दिया है और पहले से ही संकट से जूझ रहे पूंजीवाद को और भी गहरे संकट में डाल दिया है। अर्थव्यवस्था और उत्पादन के सारे क्षेत्र महीनों से ठप पड़े होने के कारण आने वाले दिनों में पूंजीवाद शायद अभी तक के अपने सबसे बड़े संकट का सामना करने जा रहा है। पूंजीपतियों की तमाम संस्थाएं तथा जानकार लोग व समाचार पत्र आदि इसी ओर इशारा कर रहे हैं। और जैसा कि हर आर्थिक संकट में होता है, इस संकट में सबसे बड़ी मार दुनिया भर के मजदूर वर्ग को ही खानी पड़ रही है, जिसमें एक बड़ी आबादी को महामारी के साथ-साथ बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी के महासंकट का सामना करना पड़ रहा है। वहीं दूसरी ओर, दुनिया भर की सरकारें एक के बाद एक अपने आकाओं के लिए लाखों करोड़ों के पैकेज दिए जा रही है। यह कोई नई बात नहीं है कि बड़े पूंजीपति वर्ग को इस संकट के दौर में कम से कम नुकसान हो, इसे सुनिश्चित करने के लिए दिए जा रहे इन आर्थिक पैकेजों की राशि जनता की जेबों से ही वसूली जा रही है तथा आगे भी वसूली जाएगी, वो भी तब जब आम गरीब व मेहनतकश जनता को महामारी से बचाने के लिए एक तरफ जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं व उपकरण जैसे वेंटीलेटर, टेस्ट किट, मास्क-दस्ताने, क्वारंटाइन व आइसोलेशन बेड, पीपीई आदि का भारी अभाव है और दूसरी तरफ गरीब जनता महामारी से लड़ने व जीवन की सबसे बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में भी अक्षम होती जा रही है। जाहिर है, इस संकट से उबरने के लिए पूंजीपति वर्ग ने पूंजी के केंद्रीकरण और जनता के सर्वहाराकरण की गति को और भी ज्यादा तीव्र कर दिया है। यहां तक कि मध्य वर्ग भी इससे अछूता नहीं रह गया है और आगे उस पर भी इसकी गाज गिरने वाली है। केंद्र सरकार के कर्मचारियों व पेंशनधारियों के महंगाई व राहत भत्ते को रोका जाना, बड़ी कंपनियों द्वारा वेतन में कटौती, छटनी आदि इसी की शुरुआत है।
इतने बड़े स्तर की महामारी के दौर में भी बड़े पूंजीपति वर्ग की मुनाफे की हवास ने पूंजीवाद को स्वयं उसके अभी तक के सबसे गंभीर संकट में धकेल दिया है जिसके अत्यंत विनाशकारी परिणाम अभी आने बाकी हैं। संसाधनों की प्रचुरता, गोदामों में सड़ रहे अनाज, महामारी से लड़ने के लिए जरूरत की वस्तुओं के उत्पादन के लिए विशालकाय फैक्ट्रियां व मशीनें, मुफ्त आवास व क्वारंटाइन सेवा मुहैया करवाने के लिए खाली पड़े भवन, मुफ्त व गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा के लिए बड़े निजी अस्पताल, मुफ्त जांच के लिए लैब, यह सब की उपलब्धता और महामारी से लड़ने के साथ मानव जीवन और बेहतर व खुशहाल बनाने में इनका इस्तेमाल करने की क्षमता होने के बावजूद, मुनाफ़े की होड़ में और पूंजी के संचय के नियमों (संकेंद्रण व केंद्रीकरण) की वजह से पूंजीवादी व्यवस्था ने समस्त मानव जाति को ही इस विश्व महामारी के समक्ष अब दांव पर लगा दिया है, या यूं कहें कि लगाने के लिए बाध्य है। मानव जाति के सामने खड़े इस बड़े खतरे के बावजूद पूंजीपति वर्ग ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह इससे लड़ने के लिए अपने मुनाफे का एक धेला भी देने को तैयार नहीं हैं, उसके उलट यह बिलकुल स्पष्ट है कि मुनाफे और अपने राज को कायम रखने के लिए वह मेहनतकश जनता के खून-पसीने की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेने को तैयार बैठा है। राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हिमाचल के राज्यों में काम के घंटे 8 से 12 कर दिया जाना, श्रम संहिताओं को संसदीय प्रक्रिया के बजाए अध्यादेश या कार्यकारी ऑर्डर के जरिये पारित करवाने की योजना, बड़ी संख्या में छंटनी व वेतन कटौती इसी बात के कुछ सबूत हैं। अतः पूंजीवाद ने केवल कोरोना महामारी से लड़ने में खुद को अक्षम ही साबित नहीं किया है बल्कि, यह कहना गलत नहीं होगा कि, उसने मानव जाति की प्रगति व उन्नति ही नहीं, बल्कि उसकी उत्तरजीविता के रास्ते में भी खुद को ही एक रोड़े के रूप में खड़ा कर दिया है।
इन दुस्साध्य परिस्थितियों में देश भर के विभिन्न औद्योगिक शहरों में रोजगार व मूलभूत संसाधनों के अभाव में जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रहे प्रवासी मजदूरों ने कई दफे लॉकडाउन के बावजूद ट्रेन स्टेशनों व बस अड्डों पर घर जाने की मांग के साथ बड़ी संख्या में जुटकर विद्रोह जैसी स्थिति बना दी। हालांकि 5 हफ्तों तक उन्हें अपने-अपने राज्य में लौटने की अनुमति नहीं दी गई, अप्रैल के अंत में लॉकडाउन हटने के बावजूद उद्योगों के तुरंत शुरू नहीं होने की स्थिति को देखते हुए और काम के घंटे बढ़ा कर श्रमिकों की मांग कम कर देने के बाद मजदूरों में बढ़ते असंतोष से घबरा कर सरकार ने मजदूरों को अपने गांव लौटने की अनुमति दे दी; जहां आने वाले दिनों में लॉकडाउन हटने के बाद भी इससे भी और भी बुरे दिन, व रोजगार के अभाव में अत्यंत गरीबी और भुखमरी की परिस्थिति का सामना करने के लिए मजदूरों की बड़ी आबादी बाध्य होगी। हालांकि बाद में देखा गया कि उद्योगों के दबाव में आकर सरकार अपने ही इस ऑर्डर से मुकर गई और छल-बल का प्रयोग करते हुए उन्हें रोकने पर आमादा हो गई। मजदूरों को रोकने के लिए उनसे भाड़ा वसूला जा रहा है, रवाना हो चुकी बसों को गंतव्य राज्यों की सीमा से लौटा दिया जा रहा है, मजदूरों को कहीं-कहीं बीच रास्ते में ही उतार दिया जा रहा है। इससे यह स्पष्ट है कि बड़े पूंजीपतियों के हित पर कोई प्रभाव नहीं पड़े, इसके लिए मजदूरों की स्थिति बद से बदतर बनाई जा रही है और इससे उनके बीच असंतोष भी बढ़ता जा रहा है।
इस कठिनतम दौर में मई दिवस के अवसर मजदूर वर्ग को न केवल अपने दुखों व समस्याओं की, बल्कि समस्त मानव जाति की उत्तरजीविता व उन्नति के सामने खड़े खतरे की जड़ को पहचानना बेहद आवश्यक है। वे पायेंगे कि इनकी जड़ एक ही है: कालातीत होने के लिए बाध्य परंतु संकटग्रस्त होने की वजह से दिनों दिन और भी खूंखार और मजदूर-विरोधी बनता जा रहा पूंजीवाद। अतः मजदूर वर्ग की मुक्ति के साथ समस्त मानव जाति की उन्नति और इतिहास की गति को आगे बढ़ाने के लिए समाज को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त करना आवश्यक है। इसके बिना, मानव जाति को ना सिर्फ कोरोना महामारी से अपनी लड़ाई में एक बेहद बड़ी कुर्बानी देनी पड़ेगी, बल्कि आने वाले दिनों में मानव जाति किसी मानव-निर्मित आपदा का रास्ता ही तैयार करेगी जिसका एकमात्र परिणाम बर्बरता और स्वयं मानव जाति का ही विनाश होगा।
अतः इन परिस्थितियों में आज अतिआवश्यक है कि मजदूर वर्ग मई दिवस व अपने महान संघर्षों के इतिहास के पन्नों को पलटे, उसे जाने और उससे प्रेरणा लेकर शोषण व गैरबराबरी पर टिकी इस मानवद्रोही व्यवस्था को बदलने और इससे पूरी तरह अलग व स्वतंत्र एक नए समाज की स्थापना करने के संघर्ष का परचम एकताबद्ध होकर बुलंदी के साथ उठाये।
मई दिवस जिंदाबाद!
यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 1/ मई 2020) में छपा था
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