ए. तिवारी //
द्वितीय विश्व युद्ध उपरांत के दमनकरी कानूनों की वैधता को अस्वीकार करते हुए लार्ड एटकिन[1] ने कहा था – “हथियारों की टकराहट के बीच भी कानून चुप नहीं रह सकते।” उनका यह बयान व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सशक्त सुरक्षा कवच की अनिवार्यता और विदेशियों के भी प्रति न्याय में उनके विश्वास को दर्शाता है। जब कानून ही वाक़ई चुप्पी साध ले और लोगों को उपलब्ध सुरक्षा कवच ही तानाशाही सरकारों के सामने घुटने टेक दे, तो क्या होगा? कोविड-19 महामारी बिल्कुल उसी तरह के सवाल प्रस्तुत करती है। मौजूदा सत्ता की बारीक़ जांच, संकट से निबटने के उसके तरीकों और उसकी प्राथमिकताओं पर लगातार सवाल उठाते जाना बहुत आवश्यक हो जाता है।
जन मानस आज बीमार और संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था के बोझ तले पिस रहा है और सरकार लोगों में इस बहस को गुमराह करने, अपने कुकृत्यों को ढकने के लिए बेक़रार है, निगरानी बढाती जा रही है, लोगों का ध्यान भटकाने और उनकी सुरक्षा के नाम पर दमनकारी कानूनों को लाने में लगी है। महामारी ने सरकारों को इसे नकारने अथवा इसके लिए बलि का बकरा ढूंढ़ने के बीच झूलने के लिए मज़बूर कर दिया है। किसी भी तैयारी के बगैर लॉक डाउन होने की असलियत सामने आते ही ‘विश्व नेता’ लोगों का ध्यान असली समस्या- ‘उनकी पूंजीवादी सरकारों की नाकामी’ से बांटने के लिए नए तरीके ढूंढ़ते नज़र आए। जरा सी देर में, विकास और तरक्की के सारे भ्रम टूट गए। सरकारें अपनी वैधता पुनर्स्थापित करने के लिए खुद को भला दिखाने की कोशिश कर रही हैं। हालांकि आर्थिक बदहाली और स्वास्थ्य संकट ने ऐसे झांसे को लगभग असंभव बना दिया है। व्यवस्था में निहित अंतर्द्वंद मुंह बाए खड़े हैं। जैसे ही ये हाय-तौबा शांत होगी, राज्य की असफलताएं नज़र आने लगेंगी। सत्ता हथिया कर और अपना वर्चस्व मजबूत करके सरकारों ने विरोध को कुचलने के लिए कमर कसी हुई है और संकट से पार पाने के लिए तानाशाही तरीके इस्तेमाल कर रही हैं।
अस्वीकार करने, ध्यान हटाने और बलि का बकरा ढूंढ़ने की मानवीय कीमत
कोविड-19 के नाम से अचानक आई महामारी ने मरणासन्न विश्व पूंजीवाद को एकदम गले से ही जकड़ लिया है। संकट का मुक़ाबला सशक्त स्वास्थ्य व्यवस्था से करने की बजाए पहले संकट है ये ही स्वीकार करने से इन्कार किया गया। उसके बाद इस काम को ऐसे एकदम कंगाल जन स्वास्थ्य व्यवस्था के हवाले छोड़ दिया गया जिसे खुद निजीकरण के लिए छोड़ दिया गया था। उसके बाद तो प्राथमिकताएं शुरू से ही तय थीं। वे थीं – नेताओं की छवि बनाना और उसके बाद इस व्यवस्था की दयनीय अवस्था को करोड़ों लोगों की जान की बजाए पवित्र-पावन पूंजीवादी व्यापार के नाम पर की जाने वाली कवायद को लोगों के क्रोध से बचाना। वे अब ये कहने लगे हैं कि अगर उपचार बीमारी से भी बुरा है तो बीमारी को ही विकराल होने देना बेहतर है। अगर मुनाफे का पहिया रुक रहा है तो इससे बचने के लिए वो किसी भी राक्षस को उचित ठहरा सकते हैं। स्वाभाविक है, कुछ पूरी बेशर्मी के साथ यहां तक कहने लगे हैं कि समाज को सुरक्षित रखने के लिए जिसमें लाखों लोग मर जाएं तो ऐसे ‘सामुदायिक रोग प्रतिरोध’ वाले उपाय लेने से भी क्या नुकसान है? ऐसी व्यवस्था को बचाने के लिए जो हर साल लाखों लोगों को भूख, कुपोषण और उससे जुडी बीमारीयों से मार डालती है, पूंजीवादी नेता इस निकृष्ट स्तर तक भी गिर सकते हैं।
जैसी की आशंका थी, भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था के पहले से लचर ढांचे को संकट के सामने ध्वस्त होना ही था। इसमें फिर हैरानी की क्या बात है कि वायरस को इस भ्रम को तोड़ने में कुछ हफ्ते ही लगे। भारत के आंकड़े सबसे ख़राब हैं। यहां, स्वास्थ्य सेवाओं पर कुल सकल घरेलु उत्पाद का महज़ 1.5% ही खर्च होता है जो पूरी दुनिया में सबसे कम है। कुल स्वास्थ्य खर्च में व्यक्ति की खुद की जेब से होने वाला खर्च (out of pocket) का हिस्सा 65% है जबकि वैश्विक औसत 30% है। अक्तूबर 2019 में जारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल 2019, दर्शाता है कि कई सालों तक स्वास्थ्य पर होने वाला सरकारी खर्च भारत में (केंद्र और राज्य दोनों मिलाकर) कुल सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 1.3% ही रहा है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में छपी एक अध्ययन रिपोर्ट बताती है कि भारत में सन 2011-2012 में स्वास्थ्य पर अकेले खुद की जेब से होने वाले खर्च की वज़ह से कुल 38 मिलियन लोग गरीबी की रेखा से नीचे पहुंच गए। शहरी क्षेत्र में 52% और ग्रामीण क्षेत्र में 44% परिवार निजी स्वास्थ्य व्यवस्था पर ही निर्भर हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था और आर्थिक लाभ – मुनाफे के बीच ऐसी ही दोषपूर्ण चुनाव की वज़ह से, दूसरे भी अधिकतर देश, जिनमें कई बड़े पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देश भी शामिल हैं, ऐसी ही शर्मनाक स्थिति में हैं, जैसे कि भारत। सन 2018 में विशेषज्ञों की चेतावनियों को नजरंदाज़ करते हुए, अमेरिकी ट्रम्प प्रशासन ने स्वास्थ्य विभाग के नेतृत्व को नोकरी से निकाल कर और उस पूरी टीम को ही बर्खाश्त कर, अपनी महामारी रोकथाम व्यवस्था को ही भंग कर दिया। इसके बाद इस वायरस से लड़ने में अमेरिका का ये हाल है, तो इसमें हैरानी कैसी!!
लगता है नकारना एक नियम है जो सब फासिस्टों पर एक जैसा लागू होता है
चीन में जब पहला मामला उजागर हुआ तो सरकार ने उसपर भरोसा नहीं किया और उसे नकार दिया। 2003 के सार्स संक्रमण की ही तरह सरकार ने महीनों तक जब 23 जनवरी को लॉक डाउन सिर्फ घोषित ही नहीं किया,बल्कि उसे बहुत कम करके आंका। 19 जनवरी को चीनी सरकार ने बीमारी के समाज में फैल जाने की बात को नकारा जबकि अगले ही दिन उसे अपनी बात से पलटना पड़ा। दुनिया भर में विश्व नेताओं ने इसी तरह ईमानदारी की कमी का प्रदर्शन किया – मैक्सिको के राष्ट्रपति एंड्रेस मनुएल लोपेज़ ओब्रादोर ने अपने लोगों को बाहर होटलों में खाने के लिए प्रोत्साहित किया; अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प ने संकट का मखौल बनाते हुए कहा की ईस्टर तक अधिकतर अमेरिकी काम पर जा सकेंगे; ब्राज़ील के राष्ट्रपति बोलसोनारो ने कोरोना वायरस को हल्का जुकाम बताया; भारत में प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्री पूरे दो महीने तक इस बीमारी को शुरुआती कुछ छिटपुट बेकार के कदम उठाकर बहुत कम करके आंकते रहे। 19 मार्च तक सारा सिस्टम गहरी नींद में सोया हुआ था। हम सब ये जानते हैं। तब ही उन्होंने अचानक तीन हफ्ते के लॉक डाउन का फैसला लिया। तब से वे नियमित रूप से अपनी शेखी बघारने वाले एकांकी उपदेश और झूठ बोलने टी वी पर आते रहे। अनियोजित लॉक डाउन ने विस्थापित मजदूरों को मार डाला है। एक 12 वर्षीय बच्ची उसका सबसे ताज़ा शिकार है। ये, शायद, लॉक डाउन की वही छोटी कीमत है जिसकी बात मोदी जी कर रहे थे। संक्रमण के तीसरी स्टेज तक पहुंचने और संक्रमण के समाज में व्यापक पसर जाने को वे लगातार अस्वीकार कर रहे हैं, भारतीय सरकार वैज्ञानिक सोच और सामान्य समझ को भी हवा में उड़ाती जा रही है। असुविधाजनक, चौंकाने वाले आंकड़ों के साथ खिलवाड़ करना, उन्हें अस्वीकार करना वाकई सरकार के लिए बच्चों का खेल है जो सकल घरेलू उत्पाद सम्बन्धी आंकड़ों के मामलों में भी, भोले चहरे बनाकर, सतत ज़ारी रहता है।
महामारी के अस्तित्व को ही अस्वीकार करना, भयपुर्वक यह याद दिलाता है जब 1918 में स्पेनिश फ्लू को नकारा गया था। तब इंग्लैंड के एक डॉक्टर ने कहा था कि “स्पेनिश फ्लू तो सिर्फ़ अखबारों में ही मौजूद है।” जब तक उन्हें असलियत समझ आई, तब तक 2,28,000 लोग, जिनमें अधिकांश गरीब लोग थे, उस महामारी पर क़ुर्बान हो चुके थे। “सावधानियां बरती जाएं तो खतरे का कोई कारण नहीं’ ऐसे बेरहम बयानों ने ही लॉक डाउन हटवाने का काम किया जो मौतों के बढ़ जाने पर फिर से लगाना पड़ा। डोनाल्ड ट्रम्प, पूंजीवादी शासकों द्वारा संकट के समय में दिए जाने वाले मूर्खतापूर्ण और घोर संवेदनहीनता के ऐसे बयानों में अपना योगदान करने के लिए कभी कोई अवसर अपने हाथ से नहीं जाने देते।
वायरस से तो नहीं बचा जा सकता था, लेकिन ऐसा वायरस द्वारा लोगों में मचाई तबाही के बारे में नहीं कहा जा सकता। सिर्फ दो सप्ताह पहले की जाने वाली कार्यवाही अमेरिका में हुई 90% मौतों को रोक सकती थी। चीन में अगर लॉक डाउन तीन हफ्ते पहले घोषित कर दी गई होती तो ये कुल मिलाकर 95% संक्रमण मामलों को रोक सकती थी। संसाधन और प्राथमिकताओं को दूसरी तरफ़ मोड़ दिया गया जैसे फर्जी खबरें फैलाना और बलि का बकरा तलाशना। बेहूदी और बे सिर पैर के सिद्धांतों, जैसे ये वायरस अमेरिका ने जैव अस्त्र के रूप में पैदा किया है, और ये भी कि इसे चीनी प्रयोगशालाओं में बनाया गया है, को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलाना, बे रोक टोक चलता रहा। कठिन सवालों को भटका देना और अपनी अक्षमताओं को छिपा लेना संकट के समय में बहुत आसान होता है। बच कर निकल जाने का इससे भी अधिक आसान रास्ता होता है डरे सहमे, कमजोर-पीड़ित लोगों के मन में दूसरे विशेष समुदाय और अल्पसंख्यकों के प्रति व्याप्त पूर्वाग्रहों का शोषण करना। वायरस के लिए ‘दूसरों’ जैसे शरणार्थी, विस्थापित लोग, मुस्लिम, विस्थापित मज़दूर और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी जैसे होंगकोंग के अलगाववादी आदि को जिम्मेदार ठहराने से सरकार अपनी जिम्मेदारी की अर्थपूर्ण समीक्षा होने से बच गई है। भारत में भी हैशतैग जैसे; #कोरोनाजिहाद, मरकज विपदा (टाइम्स नाउ), कोरोना बम (एबीपी) आदि चलाकर अल्पसंख्यकों पर हमला बोल दिया गया है। बबिता फोगाट ने तो पूरी बेशर्मी के साथ सभी मुस्लिमों को सूअर बोला। योगी आदित्यनाथ ने उन्हें ‘मानवता के दुश्मन’ कहा (जबकि उन्होंने खुद लॉक डाउन तोडा था)। नरेंद्र मोदी ने बड़े अनमने ढंग से एकता की अपील की (वो भी तब जब संयुक्त अरब अमीरात ने उनकी बांह मरोड़ी) असलियत में लेकिन उनकी अपनी पार्टी के सदस्यों द्वारा नफरत फैलाने तथा उनकी रक्त लोलुपता को उनका परोक्ष समर्थन रहता ही है।
अस्वीकार करना और अल्पसंख्यक समुदाय का अपमान करना और उन्हें बलि का बकरा बनाना कोई नई बात नहीं है। यहूदी विरोध (ANTI SEMITISM) की लहरें बुबोनिक प्लेग संक्रमण के वक्त भी शुरू से ही नज़र आनी शुरू हो गई थीं। हिटलर ने टायफास के टेबल टॉक पर घोषणा करते हुए कहा था – “यहूदी वायरस के जन्म से ही ना जाने कितनी बिमारियों का जन्म होता है। यहूदियों को खत्म करके ही हम अपना स्वास्थ्य प्राप्त कर सकते हैं।” यहूदियों पर कुओं में जहर घोलने के आरोप लगाए गए थे और उनसे ये आरोप जबरदस्ती मनवाए गए थे। 1990 में अमेरिका ने एचआईवी-एड्स वायरस के लिए हैती मूल के निवासियों को जिम्मेदार बताकर बदनाम किया था। 2009 में लैटिन अमेरिकियों को स्वाइन फ्लू फैलाने वाले बताए गए थे। अफ़्रीकी अमेरिकियों को एबोला वायरस फैलाने वाले बताया गया था। बदले की कार्यवाहियों में पूरे के पूरे गांव तबाह कर दिए गए थे। महामारी सम्बंधित पागलपन ना सिर्फ एकदम हाशिए पर जी रहे लोगों को आम लोगों से अलग थलग करने के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करता है, बल्कि धुर दक्षिणपंथी राजनीति करने वालों की उग्र राष्ट्रवादी विचारों में बिलकुल फिट बैठता है। संकट के वक्त अपनी ज़िम्मेदारी से बच निकलने और अधिनायकवादी तरीकों को इस्तेमाल में लाने का जांचा परखा यही तरीका अमेरिका और इंग्लैंड में आज तक चल रहा है।
संकट के फल: अवसरवाद और भ्रष्टाचार
13 अप्रेल 2020 को डोनाल्ड ट्रम्प ने (जो आजकल अपने भारतीय संस्करण की तरह ही अपनी पीठ खुद थपथपाने की बचाव मुद्रा में है) बोला- “जब कोई व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति बनता है तो सारे अधिकार उसी के होते हैं और ये इसी तरह होना चाहिए और ये इसी तरह है।” ऐसे राष्ट्राध्यक्ष के लिए, जिसके सामने सबसे भयानक महामारी मुंह बाए खड़ी हो, ऐसी शेखी बघारना कितना शर्मनाक है। अर्थ व्यवस्था डांवाडोल है, मौतों की तादाद घड़ी की सुईं के साथ बढती जा रही है, स्वास्थ्य तंत्र और सामाजिक सुरक्षा उपायों का भट्टा बैठ चुका है। हालांकि, इस सब के बावजूद भी विश्व भर की फासीवादी सरकारों को लोगों के जनवादी अधिकारों और सुरक्षा कवच को ध्वस्त करने के लिए संकट को अवसर की तरह लेने से कोई नहीं रोक सकता!
भारत सरकार ने महामारी बीमारी कानून और आपदा प्रबंधन कानून के तहत प्रशासनिक हुक्म से लॉक डाउन की घोषणा कर दी। संविधान कानून विशेषज्ञ गौतम भाटिया का कहना है- ऐसे एकतरफे प्रशासनिक आदेश समाज के ‘धुरी के वर्गों’ के साथ गैरानुपातिक रूप से भेदभाव करते हैं एवं संविधान द्वारा प्रदत्त बराबरी के अधिकार और जिंदा रहने के अधिकार (जीवन यापन के अधिकार सहित) का उल्लंघन करते हैं। यहां तक कि भूतपूर्व आर्थिक सलाहकार श्री शंकर आचार्य ने भी सरकार के इस अधिनायकवादी कदम की आलोचना की है।
‘हुक्मनामे (डिक्री) द्वारा शासन’ संवैधानिक सुरक्षा कवच को भंग कर देता है। कुछ इस काम को बिलकुल सीधे तरीके से कर रहे हैं जैसे व्लादिमीर पुतिन ने संविधान में ऐसा संशोधन कर लिया है कि सन 2036 तक वो ही राष्ट्रपति रहेंगे, कुछ इसी काम को घुमा फिराकर कर रहे हैं, जैसे हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन ने विधायिका को ही मुअत्तल कर दिया है और किसी को भी 5 साल तक जेल में डालने और अनिश्चित काल तक डिक्री द्वारा ही शासन करते रहने की शक्ति खुद अपने हाथ में ले ली है। इस शक्ति का प्रयोग भी तुरंत ही शुरू हो गया जब उन्होंने संग्रहालय बनाने, उभयलिंगी (ट्रांसजेंडर) समुदाय द्वारा सेक्स परिवर्तन करने से रोक और देश में चीनी रेलवे की निवेश योजना को गोपनीय करने के फैसले ले लिए। डोनाल्ड ट्रम्प की ऐसे प्रशासनिक अधिकार अपने हाथ में ले लेने की लिस्ट तो चौंकाने वाली है। उसने 60 दिन के लिए इमीग्रेशन पर तुरंत रोक लगा दी तथा चांद खनन व्यवसाय (MOON MINING) और एस्तारोइड संसाधन की अनुमति दे दी। बेलारूस के तानाशाह एलेग्जेंडर लुकाशेन्को (1994 से सत्ता में) ने तो महामारी को नकार ही दिया और अपने सभी संसाधनों को मई में होने वाली फौजी परेड के लिए 9000 सीटों वाला भव्य रणभूमि स्टेडियम बनाने में झोंक दिया। इसरायली प्रधानमंत्री नेतान्याहू भी जब तक ये संकट मौजूद है, अपनी स्थिति मज़बूत करने में लगे हुए हैं।
अपने यहां भी, सरकार को जब संकट के मंडराते खतरे से बचाव की तैयारियों में लगा होना चाहिए था, मध्य प्रदेश में सरकार बनाने के लिए विधायकों को हथियाने में लगी रही। जब संकट ने पूरी तरह मुल्क को अपने शिकंजे में जकड़ लिया है तब सरकार अपनी प्राथमिकताओं के बारे में पूरी तरह दिशाहीन नज़र आ रही है। एकदम नया बिजली कानून और सेंट्रल विस्टा के नाम पर नया संसद महल से शुरू कर हर चीज़ की तुरंत आवश्यकता है, प्राथमिकता है, बस एक स्वास्थ्य संसाधनों को छोड़कर। ये कोई छिटपुट घटनाएं नहीं हैं, बल्कि जैसा कि फासीवादी चरित्र वाले राष्ट्र में होता है, लोगों के जीवन मरण के बजाए भ्रष्टाचार और बेरोक टोक एकाधिकारी पूंजीवादी लूट का ये आलम आम है।
मिडिया और आलोचक तथा परेशान करने वालों से मुक्ति
ऊपर उल्लेखित कानून हथियाने की कवायद के साथ ही सरकार, मिडिया और राजनितिक विरोधियों के गले में फंदा भी कसती जा रही है। दक्षिण अफ्रीका से भारत और हांगकांग से ईरान हर तरफ दुनियाभर में सरकारों के ऐसे कदमों के खिलाफ लगातार हो रहे विरोध प्रदर्शनों द्वारा चुनौती मिल रही है। जैसे जैसे मौतें बढ़ती जा रही हैं, आर्थिक बदहाली गहराती जा रही है और मानवीय संकट विस्फोट की शक्ल लेता जा रहा है; वैसे-वैसे हालात से निबटने में सरकारों की अक्षमता मुखर होती जा रही है। अपनी राजनीतिक पकड़ बनाए रखना भी बड़ा कठिन काम हो गया है। सत्ता छोड़ देना या विरोध के स्वर को कुचल डालना, विकल्प स्पष्ट हैं। विपरीत मत रखने वालों को मानवता के लिए संकट बताना, सामान्य तौर पर सरकार का ये ही शगल रहा है। करोड़ों लोग अपने घरों में बंद कर दिए गए हैं, जनवादी आजादी स्थगित कर, सरकारें बिलकुल स्वछंद बे-परवाह हो जो चाहें कर रही हैं।
पहली बाधा है मिडिया। 1918 में जब कुछ अमेरिकी राज्यों ने सामुहिक कब्रें खोदनी शुरू कर दी थीं तब कुछ अखबार खबर दे रहे थे कि सबकुछ सामान्य है। टाइम्स ऑफ इण्डिया ने लिखा था- “इस बीमारी के बारे में ज्यादा चिंता की कोई बात नहीं है।” लोगों के दिमाग पर हमला करने के लिए मिडिया, जो आधी और सुविधाजनक सच्चाई परोसता है और मुद्दे को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करता है, एक सशक्त हथियार है। तकनीक के विकास के साथ ये पहले से भी ज्यादा ताक़तवर हो गया है। सरकार के हितों की सेवा में आत्म समर्पण करवाने और घुटने टिकवाने के लिए ये जरूरी है कि मिडिया को दंतविहीन शेर बना दिया जाए। वायरस के बारे में नकारात्मक खबरें छापने से बाज़ आने की छुपी धमकी देने के बाद भारत की सरकार ने कोरोना वायरस के मुद्दे पर हड़बड़ी रोकने और फर्जी खबरें रोकने के नाम पर मिडिया पर सेंसरशिप लगाने का कदम उठाया। सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत ही सरकार के फैसले को सही ठहराया और इसकी ज़िम्मेदारी मिडिया पर ही डाल दी। विजय विनीत नाम के स्वतन्त्र पत्रकार ने बताया कि कैसे मुशहर समुदाय घास खाकर गुजारा करने को मजबूर है। इसका परिणाम ये हुआ कि उन पर ही दहशत फैलाने और गलत खबरें फैलाने का मुकदमा ठोक दिया गया। ट्विटर पर योगी आदित्यनाथ की आलोचना करने के आरोप में सिद्धार्थ वरदराजन पर भी मामला दर्ज कर लिया गया। 26 वर्षीय फोटो पत्रकार मसरत जहरा को देशविरोधी कार्यवाहियों में लिप्त बताकर आतंकवाद विरोधी काले कानून यूएपीए के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।
हमें याद रखना है कि आक्रोश आन्दोलनों ने दक्षिण अफ्रीका से भारत और हांगकांग से ईरान तक सारी दुनिया में सरकारों के अधिकारों को ललकारा है। लोगों का ध्यान बंटाने और अपने विरोधियों तथा नागरिक अधिकार आन्दोलनकारियों पर हमला करने के लिए सरकारों को लॉक डाउन नाम से एक स्वर्णिम अवसर मिला है। नागरिकता सम्बन्धी काले कानूनों के खिलाफ आन्दोलन कर रहे लोगों के खिलाफ आतंकवाद विरोधी काले कानून यूएपीए, देशद्रोह कानून और थोडा बाद याद आया महामारी बीमारी निरोधक कानून के अंतर्गत जम कर कार्यवाहियां की जा रही हैं। मिरान हैदर, सफूरा जरगार, उमर खालिद को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया जा चुका है। इसके 24 घंटे के अंदर ही (22 अप्रेल 2020) को 7 लोगों को जिनमें 3 कश्मीर के पत्रकार शामिल हैं, को भी उसी काले कानून यूएपीए और दूसरी कड़ी धाराओं में गिरफ्तार किया जा चुका है। जामिया संयोजन कमिटी के 50 लोगों को दिल्ली पुलिस द्वारा नोटिस दिए जा चुके हैं। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अमित मिन्टो को तब गिरफ्तार कर लिया गया जब वो राहत अभियान में जुटे हुए थे। हर्ष मंदर की जांच, विरोध भड़काने के आरोप में की जा रही है। आतंकवादी कानूनों के अन्दर आनंद तेलतुम्बडे़, गौतम नवलखा और डा कफील को गिरफ्तार किया जाना भी हमारे देश के मुंह पर एक काला दाग है। बेक़सूर लोगों को गिरफ्तार करने के 10 दिन बाद उत्तर प्रदेश सरकार को मानना पड़ा कि हां, निर्दोष लोगों की गिरफ़्तारी हुई थी। नागरिकता सम्बन्धी कानूनों के विरोध में हो रहे आन्दोलनों में भाग ले रहे 800 लोगों की गिरफ़्तारी हो चुकी है। इनमें 30 लोगों को लॉक डाउन घोषित होने के बाद गिरफ्तार किया गया है। जब सरकारें और अदालतें जेलों की भीड़ कम करने की बात कर रहे हैं, ऐसे समय में इन लोगों के पीछे हाथ धोकर पड़ना, नागरिकता कानूनों के विरोध करने के लिए बदले की कार्यवाही के सिवा और क्या कहा जा सकता है?
ऐसे हमले ना सिर्फ सामान्य विरोधियों और संभावित लक्ष्यों तक सीमित हैं और ना सिर्फ भारत में ही हो रहे हैं। संकट के समय में ये मारक लिस्ट बड़ी होती जा रही है। संकट से निबटने में सरकार की निति से ज़रा भी विरोध दर्शाते ही चरित्र हनन के हमले शुरू हो जाते हैं। ईराक में रायटर्स एजेंसी द्वारा कोरोना मौतों की आधिकारिक संख्या पर सवाल उठाने के तीन महीने के अन्दर एजेंसी का ही लाइसेंस निरस्त कर दिया गया। भारत की तरह ही ईरान में भी कोरोना संकट के बारे में सरकार की नीति की आलोचना करने पर पुलिस द्वारा हमला किया गया। फीलीपिन्स में तो सरकार का विरोध करने वालों को गोली से मारने का ही इरादा राष्ट्राध्यक्ष द्वारा ज़ाहिर किया गया। विरोधियों को बाहर धूप में कुत्तों के पिंजड़े में घन्टों बंद कर रखा गया। अफ्रीका में लोगों की गैरकानूनी तरीके से हुई मौतें कोरोना वायरस से हुई मौतों से कहीं अधिक है। चीन में तो वायरस के बारे में बिगुल बजाने वाले डॉक्टर ली वेन जियांग के साथ ही सरकार ने 40 लोगों को गिरफ्तार कर लिया। सबसे पहले ख़बर देने वाले ली वेन जियांग की मौत के बाद तो मिडिया पर सरकारी शिकंजा और कड़ा हो गया। कितने सारे इन्टरनेट पोर्टल बगैर सोचे बंद कर दिए गए और उनके मालिकों का तो पता ही नहीं चला, कहां गए। चीन ने तो इससे आगे बढ़ते हुए दूसरे देशों को दी जाने वाली खबरों पर अपना नियंत्रण बढ़ा दिया। चीन ने अगर वायरस सम्बन्धी खबरों को अगर शुरू में ना दबाया होता तो संकट और दुनिया भर में उसका प्रसार इस हद तक ना बढ़ा होता। लेकिन निकम्मी सरकारें खुद को जांच-पड़ताल से बचाने के लिए लाखों लोगों की मौत की भी परवाह नहीं करतीं।
सरकारें उतावली में हैं। संकट से पहले ही नए नए तरीके ढूंढ़ रही हैं। “दमन के औजारों को ही स्वास्थ्य के औजारों के रूप में वैधानिक बनाती जा रही हैं।” चीन ना सिर्फ़ जासूसी के उपकरण अपने देश में लगा रहा है, बल्कि वो कई दूसरे देशों जैसे वियतनाम, कैमरून, प्रजातान्त्रिक गणराज्य कोंगो आदि को दे रहा है और उन्हें इन्टरनेट का इस्तेमाल ना करने के लिए प्रोत्साहित भी कर रहा है। कुछ ही दिन में इन्टरनेट, सूचनाएं और स्वतंत्रता सब राज्य के रहमोकरम पर रहने वाली वस्तुएं बन जाने वाली हैं, जो उन्हें ही उपलब्ध रहेंगी जो तानाशाही राज्य के सामने आत्मसमर्पण करेंगे। सूचनाओं को ‘घबराहट फैलाने वाली’ बोला जाएगा, प्रचार को सूचना और असहमति को गद्दारी। सच्चाई बिलकुल मनहूस उपन्यासों जैसी बनकर रह जाएगी।
जॉन बेरी न्युयोर्क टाइम्स में लिखते हैं – “सत्ता से भरोसा छिन्न-भिन्न हो गया है और समाज भरोसे पर टिका होता है। जब ये ही पता नहीं किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं, तब लोगों का एक दूसरे से भी भरोसा उठ गया है। वे और अलग-थलग हो गए हैं।” वे आगे बताते हैं कि स्पेनिश फ्लू ने लोगों को कैसे प्रभावित किया था – “लोग एक दूसरे के साथ खाना खाने से भी डरने लगे थे। ” सामाजिक संबंधों को चरमराते हुए अभी से देखा जा सकता है। लोग अपने परिवार, बीमार मां-बाप और बच्चों को भी छोड़ दे रहे हैं। जब ‘पावन पवित्र’ रक्त संबंध ही ढीले पड़ने लगे हैं, तो ‘दूसरों’ से दुश्मनी के नजारों के आलावा और क्या दिखाई पड़ेगा! जिन्हें भी हिंसा, भीड़-भाड़ वाली गन्दी बस्तियों में ठूंसने और समाज से निकाले के लिए चिन्हित किया जाएगा वे सब गरीब और हाशिये पर रहने वाले ही रहने वाले हैं।
मौजूदा संकट से पहले आए सभी संकट बताते हैं कि कैसे तानाशाही शासकों ने सत्ता का दुरूपयोग किया और ऐसे तानाशाही शासकों ने जो ताकत ली वो फिर कभी वापस नहीं हुईं। असंगठित हिंसा और राज्य के तौर-तरीके, संकट के गुजर जाने के बाद भी टिक कर रहने वाले हैं। ये तौर-तरीके, खोया जा चुका आपसी भरोसा और आपसी नफरत संकट के गायब हो जाने के साथ गायब नहीं होने वाले। आप मौजूदा संकट को ही ले लीजिए। दमन के ये औजार आने वाले सभी संकटों और तकनीकी विकास के साथ ही और मज़बूत होते जाने वाले हैं। केवल वर्ग आधारित बीमारियां ही दुनिया का ध्यान आकर्षित करने की हक़दार हैं, उनका समाधान खोजा जाना ज़रूरी है। दबे-कुचले लोगों की प्राथमिकता भूख और ग़रीबी होनी चाहिए, क्योंकि संकट के वक्त् ये और गहरी होती जाती हैं। केवल इन्हें ही बने रहने और बढ़ते जाने के लिए छोड़ दिया जाता है। संकट और व्यवस्था, जो इन्हें पैदा करते हैं और बढ़ाते हैं, इनमें व्यवस्था संकट से ज्यादा खतरनाक है। इसीलिए हमारे संघर्ष का मकसद मौजूदा महामारी के बाद सिर्फ राहत पहुंचाना या ज्यादा से ज्यादा यथास्थिति बनाए रखना ही नहीं होना चाहिए, बल्कि और अधिक मूलभूत और निर्णायक ढांचागत उलटफेर करने का होना चाहिए।
[1] जेम्स रिचर्ड एटकिन, आयरिश मूल के एक वकील और जज थे जिन्होंने इंग्लैंड और वेल्स में वकालत की और अपनी पूरी जिन्दगी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बचाने के लिए काम किया। लार्ड जस्टिस ऑफ अपील बनने के बाद, उन्होंने 1920 में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अन्यायपूर्ण हनन के एक मामले में अपना सशक्त विरोध दर्शाया। उन्हें, हालांकि, लीवरसाइड बनाम एंडरसन मामले में अपने विरोध वाले निर्णय के लिए ज्यादा जाना जाता है जिसमें उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में सुरक्षा एजेंसियों द्वारा किसी भी अनजान व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेने के उन्हें मिले अधिकार का जोरदार विरोध किया, हालांकि उसे रोकने में वे नाकामयाब रहे।
यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 1/ मई 2020) में छपा था
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