कोविड-19 की क्रान्तिकारी भूमिका के बारे में

शेखर //

कोविड-19 कोरोना वायरस परिवार का एक नया घातक वायरस है। जानवरों से इंसानों में हुए इसके संक्रमण के बाद इसने पूरी पृथ्वी पर तब धावा बोला जब विश्व पूंजीवाद पहले से ही मरणासन्न अवस्था में एक गहरे ढांचागत संकट को झेल रहा था। असल में, अपनी अंतिम सांसे गिनते पूंजीवाद की इसने गर्दन पकड़ ली है। इतिहास में शायद पहली बार पूंजीवादी व्यवस्था की ऐसी दुर्दशा हुई है। एक अदृश्य वायरस ने विश्व पूंजीवाद को यह दिखा दिया कि उसके दिन अब लद चुके हैं और एक मवाद भरे घाव की तरह, जो कभी ठीक नहीं हो सकता है, वह पूरे शरीर को बीमार कर रहा है। कोविड-19 ने चंद दिनों में ही यह साफ कर दिया है कि ऐसी या भविष्य में आने वाली अन्य महामारियों‍ से पूरी मानवता को और खास कर गरीब मेहनतकश जनता को बचाने के लिए विश्व पूंजीवाद बुरी तरह असक्षम है और इसके पास ज्‍यादा कुछ नहीं है।

महामारी के इन चार महीनों ने पूरी दुनिया को यह बता दिया है कि पूंजीवाद को मानवजाति और मानव गरिमा की कितनी कम परवाह है। आज यह साफ है कि एक महामारी के दौर में भी, जब लाखों लोगों की मृत्यु हो रही है,  इसका अपने मुनाफे से मोह खत्म नहीं हुआ। उसका मुनाफा बरकरार रहे इसके अतिरिक्‍त पूंजीपति और उनके दलालों को भूख और बीमारी से मरती जनता भी दिखाई नहीं देती। अगर किसी समस्या के समाधान से उसका मुनाफा कम होता है तो पूंजीपति वर्ग उस समस्या को बनाये रखने के ही पक्ष में रहेंगे। पूंजीवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो घोर स्वास्थ्य संकट के काल में भी जरूरत के सभी संसाधनों को नष्ट होने के लिए छोड़ सकता है अगर वे उसके मुनाफे की भूख शांत नहीं करते। कोविड-19 ने पूंजीवाद के इस अमानवीय चरित्र को दुनिया के सामने ला दिया है।

दूसरी तरफ, लोगों को इसका अहसास हो रहा है कि यह महामारी जल्दी जाने वाली नहीं है एवं किसी नए वायरस के आक्रमण की सम्भावना भी जताई जा रही है। डॉक्‍टर, विशेषज्ञ तथा वै‍ज्ञानिक लोगों को बता रहे हैं कि हमें कोविड-19 के साथ इसी परिस्थिति में जीना सीखना होगा। ऐसे में लोग सोचने पर मजबूर हैं कि फिर पूंजीवादी विभीषिका और कोरोना महामारी के मिलेजुल व दोहरे जानलेवा प्रहार के समक्ष मानव सभ्यता का और स्‍वयं मानवजाति का क्या होगा? ये सवाल आते ही एक अंधकारमय भविष्य की तस्वीर मन में घर कर जाती है जहां निराशा, भय और व्याकुलता के सिवा और कुछ नहीं है।

पूंजीपति वर्ग को भी इसका आभास है। पूंजीपति ये भलीभांति जानते हैं कि यह निराशा और व्याकुलता जिस दिन हद से गुजर गयी, उस दिन धरती पर उनके दिन उनकी उम्‍मीद से पहले ही लद जाएंगे और उनका त्‍वरित विनाश हो जाएगा। लेकिन वे इससे पार पाने के लिए कुछ भी कर सकने में असमर्थ हैं। उल्‍टे, मुनाफे पर टिके अपने साम्राज्य को बचाने के लिए वे खुद ही बुरी तरह व्याकुल हैं। पूंजीवाद और मानवजाति गहरे आपसी अंतर्विरोध में फंसे चले गये हैं। दोनो आज एक दूसरे के सीधे विरोध में खड़े हैं। कोविड-19 की यही क्रांतिकारी भूमिका है जिसने इस अंतर्विरोध को सुसुप्‍तावस्‍था की अवस्‍था से खींचकर सतह पर ला दिया है और इस तरह पूंजीवाद को इसके अंत के करीब ला खड़ा करने का ऐतिहासिक काम किया है। दूसरे शब्‍दों में, इसने इतिहास के पहिये की रफ्तार बढ़ा दी है जिससे दुनिया के क्रांतिकारी परिवर्तन की जमीन तैयार हो चुकी है। या कहें, इसने पूंजीवाद के शीघ्रातिशीघ्र खात्मे का फरमान सुना दिया है।

हालांकि, उपरोक्त कथन इस बात पर निर्भर करता है कि मौजूदा परिस्थिति में क्रांतिकारी ताकतें क्या भूमिका अदा करती हैं। वर्तमान हालात तो यही हैं कि उनके लिए निर्धारित कार्य और उनके द्वारा किये जा रहे कार्यों के बीच एक चौड़ी खाई खड़ी है। मौजूदा परिस्थिति का ठोस विश्लेषण करने पर यह कार्यभार प्रकट होता है कि क्रांतिकारी ताकतों को तात्कालिक मुद्दों को भी इस तरह से उठाने की जरूरत है जिससे वर्ग संघर्ष की जमीन तैयार हो सके, अर्थात, एक ऐसा आह्वान जिसे कल हो के उस अहवाह्न के साथ आसानी से जोड़ा जा सके जो लोगों की चीख पुकार के रूप में गलियों और सड़कों पर सुनाई देने वाला है और जिसे परिस्थितियों के परिपक्व होने पर, जिसकी निकट भविष्‍य में संभावना से इनकार करना मुश्किल है, जनता के तरफ से उठने वाली पूंजीवाद के खात्मे की मांग से आसानी से मिलाया जा सके।

जाहिर है, इसमें ‘कष्टसाध्‍य’ धैर्य और सतत बदलती परिस्थितयों का सटीक व सही विश्लेषण जरूरी है। गहराते संकट के दौर में लगातार बढ़ती अनिश्चितताओं में यानी क्षण-क्षण बदलते हालात में इस कला में निपुण होना ही लेनिनवादी होना है। क्रांति की राह पर बढ़े हर क्रांतिकारी को इस न्‍यूनतम लेकिन विलक्षण कला का ज्ञान अवश्‍य होना चाहिए।

आज पूंजीवाद हमें भूख, बेरोज़गारी, मौत और गैरबराबरी की गहराती खाई के अलावा और कुछ नहीं दे सकता। पूंजीवादी व्यवस्था में आबादी का एक बड़ा हिस्सा भूख और गरीबी की दलदल में धंसते जाने के लिए बाध्य है। इन सबके बावजूद भी लोगों में आज जि‍तना असंतोष और गुस्सा नहीं था जितना कि कोविड-19 के घात के पूंजीवाद द्वारा दी गई मौत और पैदा किये गये विध्वंस के कहर के बाद है। भले ही मौत के कगार पर लाकर ही सही, मानो एक बदले की भावना के साथ, लेकिन कोविड-19 ने यह साबित कर दिया कि पूंजीवाद नाकाम हो चुका है; कि पूंजीवादी राज्य और खासकर नवउदारवादी आर्थिक नीतियों पर चलने वाले राज्य नाकाम हो चुके हैं और इसे (पूंजीवाद को) भविष्य में मानवजाति की जरूरतों और बेहतरी के हिसाब से बदला या संवारा नहीं जा सकता। उसकी सीमा जगजाहिर हो चुकी है। यह साफ है कि इसके सड़न को अब दुरूस्‍त नहीं किया जा सकता है। जिन्हें पहले यह सच्‍चाई दिखाई नहीं देती थी, उन्हें कोविड-19 ने इससे अवगत कराने में बड़ी भूमिका अदा की है।

आज की स्थिति का सार यही है कि लोग भूख, गरीबी, गैरबराबरी, बेरोज़गारी और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में, जो कि पूंजीवाद की ही देन हैं, ज्यादा मरेंगे और मर रहे हैं, कोरोना महामारी से कम, जो कि खुद भी उसी अंतहीन नरभक्षी पूंजीवादी लोभ का परिणाम है। मुनाफे के लिए प्रकृति के अतिदोहन का ही नतीजा है नये-नये सुक्ष्‍मतर वि‍षाणुओं की मानवों के बीच यह छलांग जिसका एक उदाहरण कोविड-19 भी है। लेकिन यह अब केवल एक स्वास्थ्य संकट नहीं रह गया। अब यह मानवजाति के अस्तित्‍व के संकट में तब्दील हो चुका है जिसका हल विश्व पूंजीवाद के पास नहीं है। इसके लिए पूंजीवादी राज्य को जहां एक तरफ, स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की कमजोर कड़ियों की मरम्‍मत करने की जरूरत है, तो वहीं दूसरी तरफ, घोर आर्थिक संकट से, जिससे कि बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और जीवन जीविका के छीन जाने का खतरा पैदा हो गया है और जिससे पलटकर यह संकट और गहरा होता जा रहा है, से निबटने के लिए सभी कल्याणकारी योजनाओं को अमल में लाने की जरूरत है। किंतु, अब यह साफ है कि अपने बनाये सामाजिक संबंधों के चौखटे की परिधि में काम करने की मजबूरी के कारण इसके द्वारा ये सब करने की एक ऐतिहासिक सीमा है जिसके कारण पूंजीवाद मानवजाति की ये मौलिक जरूरतें कभी पूरी नहीं कर सकता है। अतः कोविड-19 ने जितने बड़े स्तर पर पूंजीवाद की कमियों का पर्दाफाश और आम जनता को इसके बारे में जागरूक व शिक्षित किया है वह निकट भविष्य में अन्यथा किसी और तरीके से संभव नहीं था। इस मायने में इसने एक विश्वयुद्ध जैसी‍ स्थिति निर्मित कर दी है जिसके दौरान अक्‍सर पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के अंतर्विरोध इस कदर तेज, तीखे एवं गहरे हो जाया करते हैं।

ठीक यही है कोविड-19 की सकारात्मक भूमिका, जिसने दुनिया को बता दिया कि जब तक पूंजीवाद सत्तासीन है तब तक मानवजाति की उत्तरजीविता खतरे में है। क्योंकि, विश्‍वपूंजीवाद अभी स्थायी संकट में है और इसमें नवजीवन की क्षमता नहीं बची है, इसीलिए उन्नत से उन्‍नत उत्पादन प्रणाली व तकनीक तथा उत्‍पादन की प्रचुरता के बाद भी मानवजाति इस महामारी से लड़ने में अक्षम है। अगर मानवजाति को बचाना है तो पूंजीवाद की जगह एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था को लेनी होगी जो मुनाफे पर निर्मित सामाजिक संबंध की दहलीज लांघ कर पूरे समाज की बेहतरी और खास कर मजदूर मेहनतकश वर्ग की बेहतरी की ओर कदम बढ़ा सके।

हमे किसी गफलत में नहीं रहना चाहिए। ना सुविधा संपन्न वर्ग और ना ही विकसित देश, कोई भी इस वायरस से अंतत: नहीं बच सकते। उन्हें भी कोविड-19 संक्रमण का उतना ही खतरा है और पूंजीवाद ने उन्हें बचाने के लिए भी ज्‍यादा कुछ नहीं किया है। न ही वे ज्‍यादा कुछ कर ही सकते हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, स्पेन और फ्रांस जैसे अमीर देशों की स्थिति भी हर तरह से, बल्कि ज्‍यादा खराब है। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने पहले ही साफ कर दिया है कि कुछ लाख लोगों की मौत कोई बड़ी बात नहीं है। उल्‍टे, यह अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा ही है। शुरूआत में, जब तक आम लोगों का गुस्‍सा नहीं भड़का था, सभी पूंजीवादी देशों के शासक वर्ग (पूंजीपति) यह मानकर चल रहे थे कि मुनाफे के चक्र को बनाये रखने से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण कुछ भी नहीं है। इंगलैंड के प्रधानमंत्री ने तो यहां तक कह दिया था कि हम ‘छोटे राष्‍ट्र’ में तब्‍दील होने के लिए तैयार हैं, लेकिन ‘अर्थव्‍यवस्‍था’ के ऊपर मंडराते खतरे को दूर करना जरूरी है। इन देशों में वेंटीलेटर की कौन कहे, फेस मास्‍क जैसे मामूली स्‍वास्‍थ्‍य रक्षा के सामान भी उपलब्‍ध होने में काफी वक्‍त लग गया। साधन व संसाधन से संपन्‍न निजी अस्‍पतालों ने ऐन मौके पर अपना मुंह फेर लिया और सारा दारोमदार अंतत: बचे-खुचे विपन्‍न तथा बर्बाद कर दिये गये सरकारी अस्‍पतालों पर आ गया, जिन्‍हें नवउदारवादी नीतियों के तहत बहुत पहले ही बुरी तरह क्षतिग्रस्‍त कर दिया जा चुका था। परिणामस्‍वरूप, उन सभी देशों में लोगों की हजारों में जानें गई हैं। स्‍पेन में सार्वजनिक सरकारी अस्‍पतालों की स्थिति ऐसी थी कि इसे अस्‍थायी तौर पर ही सही लेकिन तमाम निजी अस्‍पतालों को इसे सरकारी नियंत्रण में लेना पड़ा। तब जाकर स्थिति कुछ हद तक नियंत्रण में आ सकी, हालांकि तब काफी देर हो चुकी थी। 

अमीर और धन्नासेठ लोग हमेशा के लिए गरीब मेहनतकश वर्ग की सेवा लिए बिना नहीं रह सकते। इसलिए अगर गरीबों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष का समुचित ख्याल नहीं रखते हुए उन्हें यूं ही संक्रमित होने के लिए छोड़ दिया जायेगा, तो अमीरों को संक्रमित होने में भी ज्‍यादा समय नहीं लगेगा। उसी तरह से अमीर देश हमेशा के लिए खुद को उन गरीब देशों से अलग नहीं रख सकते जिन्हें कोरोना महामारी से जंग में अकेला छोड़ दिया गया है या छोड़ दिया जाएगा। याद रखना होगा कि वैश्वीकरण का पहिया उल्टा नहीं घूम सकता और सभी देश अब अपनी सीमाओं में सिमट कर नहीं रह सकते। थोड़ी देर के लिए अगर यह मान भी लिया जाये कि यह संभव है, तो इस तरह यह चीज हर जिले, मोहल्ले और शहर को खुद में सिमटने पर मजबूर करेगी, जो कि संभव नहीं है। पूंजी की गति और विकास के नियम इसकी अनुमति नहीं देते। ऐसी बचकानी बातें केवल मोदी सरीखे डींग हांकने और लोगों को मूर्ख बनाने वाले लोग ही कर सकते हैं, जैसा कि उन्होंने देश के सरपंचों से हुए ऑनलाइन संवाद में यह बताते हुए कहा कि कोविड-19 ने हर गांव को आत्मनिर्भर होने का पाठ पढ़ाया है। पूंजीवाद में एक गांव अपने-अपने आप में आत्‍मनिर्भर हो सकता है इसकी कल्‍पना करना भी मूर्खता है। शायद इसी कारणवश, कई कट्टर व आवरणहीन बुर्जुआ अर्थशास्त्री, जो कि कल तक स्वास्थ्य सेवाओं के पूर्ण निजीकरण अर्थात बची-खुची सार्वजनिक सस्थाओं के भी निजीकरण व विनिवेश की मांग उठाते अघाते नहीं थे, वे आज कह रहे हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को बेहतर और व्यापक करने की जरूरत है। और इसी वजह से आईएमएफ जैसी साम्राज्यवादी संस्थाएं भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को सशक्त करने पर जोर डाल रही हैं, चाहे इससे वित्तीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) में वृद्धि ही क्‍यों न हो जिसके लिए ये कल तक क्षण भर के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन यह याद रहे, ये सारी संस्‍थायें विश्‍वपूंजीवाद की आसन्‍न मौत देखते हुए ही ऐसा कह रही हैं, अन्‍यथा वे भला क्‍यों लोगों को यूं ही पैसा देने (हेलिकॉप्‍टर मनी) की वकालत करते। वे कल जब सामान्‍य जीवन लौट आयेगा, तो ये फिर से वही पुराने लय व सुर में नवउदारवादी राग व गीत गाते फिरेंगे। यह भी याद रहे कि हेलिकॉप्‍टर मनी का बड़ा हिस्‍सा पूंजीपतियों को ही प्राप्‍त होने वाला है जैसा कि अमेरिका के घटनाक्रमों से पता चलता है। और यह बिल्‍कुल स्‍वाभाविक भी है। मूल बात यह समझना है कि जनकल्‍याण का दिखावा हो ही इसलिए रहा है क्‍योंकि वे जानते हैं कि अगर गरीब लोग कोरोना और भूख से नहीं बचेंगे, तो वे और उनकी व्‍यवस्‍था भी नहीं बचेंगे।    

इस तरह हम पाते हैं कि कोविड-19 ने दुनिया में बहस, विवाद व संवाद के मुद्दे और रूख को भी बदल कर रख दिया है जो कल तक असंभव था। ‘द हिन्दू’ और ‘द गार्डियन’ से ले कर ‘द फाइनेंसियल टाइम्स’ जैसे पूंजीपति वर्ग के अखबारों में, सभी जगह बहस ने एक नया रुख लिया है जहां निजी नियंत्रण से हटकर राजकीय नियंत्रण  अपनाने पर जोर दिया जा रहा है, जो कि पूंजीवादी नियंत्रण व शासन के ही अलग-अलग रूप (holy cow) हैं। लेकिन, सवाल है, क्या आज यह संभव है? हालांकि बात इसकी नहीं है कि यह एक मुकम्मल तथ्य के रूप में ऐसा कोई परिवर्तन संभव है या नहीं। इसके विपरीत, इस बात को समझना जरूरी है कि अब पूंजीवाद के पास ज्यादा वक्त या स्‍पेस नहीं रह गया है जिसमें यह इस तरह का ज्‍यादा उलट फेर कर सके। जो भी स्‍पेस बचा था, जिसमें वह निजी से राजकीय या राजकीय से निजी नियंत्रण का खेल खेल सकता था, उसे कोविड-19 के हमलें ने लगभग खत्‍म कर दिया है या उसमें काफी सिकुड़न आ चुका है। इसने समाजवाद में परिवर्तन के लिए न सिर्फ जमीन तैयार कर दी है, अपितु पूंजीवाद और इसके कलमघिस्‍सु विद्वानों को भी इसका कायल कर दिया है और यह मुख्‍य बात है जो बताता है कि वास्‍तविक स्थिति क्‍या है। आखिर तभी तो इनके संवाद और बहस का रूख बदला हुआ है जिसमें ये स्‍वीकार करने के लिए बाध्‍य हैं कि वे जिस रास्‍ते पर चल रहे हैं वह अब मानवजाति के बहुत ज्‍यादा काम आने वाला नहीं है। सच तो यह है कि इस रास्‍ते की कोई मंजिल नहीं है सिवाये इसके कि यह बर्बादी की ओर ले जाता है। कोविड-19 ने मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी ताकतें को इतिहास द्वारा निर्धारित भूमिका निभाने के लिए विवश कर दिया है। सवाल उनके चाहने या नहीं चाहने का नहीं रह गया है। जल्द ही एक नये समाज की कल्‍पना लोगों के जेहन में उतरकर उनके सपनों में आने लगेगा।

अभी तक पूंजीवाद के पास कोरोना से लड़ने का बस एक ही रास्ता है, लॉकडाउन, जिससे ये संक्रमण का चक्र तोड़ना और कोरोना महामारी से लड़ने की तैयारी के लिए समय बटोरना चाहता है। लेकिन एक स्थायी संकट तथा अर्थव्‍यवस्‍था के भयानक सिकुड़न से ग्रस्त पूंजीवाद कोरोना महामारी से लड़ने के लिए भला और क्या ही कदम उठा सकता है? किसी भी तरह सबकी टेस्टिंग और इलाज इस व्यवस्था में संभव नहीं है। दूसरी तरफ, कोविड-19 ने हमारे पास केवल दो विकल्प छोड़े हैं। अगर हम लॉकडाउन की अवधि बढ़ाते जाते हैं तो संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिर पड़ेगी और भारी मात्र में बेरोजगारी को जन्म देगी जिसका शिकार हुए लाखों करोड़ों लोग भूख से बेमौत मारे जायेंगे। आत्महत्याओं की सख्या में बेतहाशा वृद्धि होगी। वहीं दूसरी तरफ, अगर पहले से ही चरमराई अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए, बिना सभी के सर्वजनीन तथा व्‍यापक परिक्षण, क्वारंटाइन और इलाज के, लॉकडाउन खोल दिया जाता है तो कोविड-19 के संक्रमण से लाखों लोगों की मौत का खतरा सर पर मंडरा रहा है। अतः हमारे लिए ‘आगे कुआं पीछे खाई’ नहीं, सच कहें तो ‘आगे कुआं और पीछे भी कुंआ’ वाली स्थिति आ खड़ी हुई है।

दशक भर से ज्यादा समय से चले आ रहे तीव्र संकट की गहराई दर्शाते कुछ आंकड़ों पर नज़र डालते हैं। कोरोना महामारी के पहले भी हर साल करीब 1 करोड़ 80 लाख लोगों की मौत गरीबी से जुड़ी समस्याओं से होती थी। विश्व खाद्य उत्पादन वैश्विक आबादी के जरूरी आहार की पूर्ति का 1.8 गुना है। इसके बावजूद आधी से ज्यादा आबादी भूखे सोने को मजबूर है। कोरोना महामारी के संकट काल में भूख से बेहाल लोगों की संख्या असामान्य रूप से बढ़ी है, कहीं-कहीं तो सामान्य दर की तुलना में 1.5 गुना से भी ज्यादा।

हालांकि, कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि ऐसी समस्या इसलिए है कि पूंजीवाद विश्व के अन्य देशों में उतना विकसित नहीं जितना उन्नत वह विकसित देशों में है। यहां तक कि कुछ ‘क्रांतिकारी’ भी यह तर्क देते मिल जाएंगे जो यह मानते हैं कि भारत जैसे देशों में गरीबी, भुखमरी, आवासवि‍हीनता और बेरोजगारी आदि समस्याओं का समाधान इसलिए नहीं निकल पाया है, क्योंकि अभी भी समाज में प्राक-पूंजीवादी सामाजिक संबंध ही व्याप्त हैं, पूंजी विस्‍तार का अभाव है और इसी कारणवश उनका मानना है कि जनवादी क्रांति से पूंजीवादी सामाजिक संबंध स्थापित हो जायेंगे तो उन्‍नति आएगी और जनता सुखी और समृद्ध हो जाएगी और एकमात्र तभी समाजवाद की बात ठोस रूप से की जा सकती है। लेकिन आंकड़े इसके उलट कुछ और ही बताते हैं। भारत जैसे देश में भी पूंजी संचय आधिक्‍य की स्थिति से गुजर रहा है। दूसरी तरफ, उन्नत से उन्‍नत पूंजीवादी देशों में भी गरीबी में वृद्धि से जुड़ी समस्याओं में सीधा इजाफा देखा जा सकता है। अमेरिका का कोई भी आंकड़ा उपरोक्त भ्रम को तोड़ने के लिए पर्याप्त है। पूंजीवाद का मक्का-मदीना कहे जाने वाले अमेरिका से इन‍ दिनों लगातार आते आकड़ें झकझोर देने वाले हैं। उदहारण के तौर पर, अमेरिका में हर बेघर इंसान पर पांच खाली घर हैं, और तब भी लाखों अमेरिकि‍यों (गोरी चमड़ी वाले अमेरिकी सहित) के पास स्थायी घर नहीं है। 77.5% अमेरिकी परिवार कर्ज में डूबे हैं और हर 7 में से 1 अमेरिकी निवासी के पीछे बकाया पैसे वसूलने वाले बैंक अधिकारी पड़े रहते हैं।

संकटग्रस्त पूंजीवादी संकट और प्रयावरण के संकट के बीच भी गहरा संबंध है। कोरोना महामारी इसी संबंध का सबसे नवीनतम प्रस्फुटन है, हालांकि जो पूंजीवाद के लिए मौत का फरमान साबित होने जा रहा है। जाहिर है, ये फरमान केवल पूंजीवाद के नाम ही नहीं है, बल्कि पूरी मानवजाति के नाम है, क्योंकि हम उसी पूंजी शासित सामाजिक व्यवस्था में रहते हैं।

अतः कोरोना ने पूरी मानवजाति के समक्ष पूंजीवाद में उनके विश्वास को ले कर गहरे प्रश्न खड़े कर दिए हैं और उन्हें पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया है। आखिर समृद्ध पूंजीवादी देश सबको मुफ्त स्वास्थ्य सेवा क्यों नहीं दे सकते? भारत जैसे पिछड़े पूंजीवादी मुल्‍क के शासक इसके पीछे अपने शासन के गरीब व मजदूर विरोधी पापों व अपराधों को छुपाने की कोशिश करते हैं। वे कहते हैं, जब अमेरिका कोविड-19 से नहीं लड़ पा रहा है, तो हम पर अक्षमता का आरोप कैसे लग सकता है। लेकिन दोनों की असफलता के पीछे पूंजीवाद की क्रूर अक्षमता तथा लाभ के प्रति असीम लोलुपता ही तो है जो दोनों में मौजूद है। यह याद रहे, यह अक्षमता अधिकांशत: बनावटी और वास्‍तविक क्षमता की प्रचुरता के बावजूद है। समृद्ध से समृद्ध पूंजीवाद मुल्‍क हों या कोई अपेक्षाकृत कम समृद्ध मुल्‍क, दोनों ही सबको मुफ्त इलाज इसलिए नहीं दे सकते हैं, क्‍योंकि फार्मास्यूटिकल और बीमा कंपनियों के शेयरहोल्डर इससे नाराज हो जायेंगे ; क्योंकि उन्हें अपने मुनाफे की ज्यादा चिंता है। वे बेघरों को घर क्यों नहीं दे सकते? इसलिए क्योंकि वित्तीय, बीमा और रियल एस्टेट कारोबार (FIRE Industries) सार्वजनिक आवास के खिलाफ हैं ; क्योंकि यह उनके बाजार और मुनाफे की लूट में बाधक बनता है। अमेरिका के फेडरल रिजर्व के पास डूबते शेयर बाजार को बचाने के लिए 15 लाख करोड़ थे, लेकिन सार्वजनिक कर्ज माफी के समय उनकी तिजोरियां खाली हो गयीं, ना ही बेघर होते लोगों को बचाने हेतु अधिस्थगन के लिए कुछ दिया गया। मास्क, आईसीयू और वेंटीलेटर की कमी को पूरा करने के लिए चिकित्सीय इंफ्रास्ट्रक्चर में तब तक बहुत कुछ नहीं लगाया गया जब तक कि लोगों का गुस्‍सा फूटने के बाद से भारी दबाव नहीं बना। अमेरिका के कांग्रेस में कोविड-19 राहत को ले कर एक बिल भी तब ही आ पाया, हालांकि उसमे भी पूंजीपतियों के पक्ष में बड़े-बड़े छिद्र छोड़ दिये गये। इसी कारण लगभग 80 प्रतिशत मजदूर व आम लोग सरकार द्वारा आदेशित और वित्तपोषित (फंडेड) चिकित्सा अवकाश सुविधा से बाहर रखे गए हैं। अभी जब सत्‍तर हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है, तब सरकार की आंख खुली है और उसने एक ‘पर्याप्त’ आर्थिक मदद की बात शुरू की है, कम से कम उसकी घोषणा की है। बाकी तो हम जानते ही हैं कि जनता तक वास्‍तविक मदद पहुंचना कितनी टेढ़ी खीर है। शायद जब सड़कें लाशों से पट जाएंगी, तब इनकी आंख पूरी तरह खूलेंगी। लेकिन क्‍या सच में यह कभी संभव है?

बहुत लोग इसे ‘इच्छा’ की कमी मानते हैं, अन्यथा, वे समझते हैं कि मौजूदा बूर्जुआ व्यवस्था में भी इस वायरस को रोकने और आम जनता का पर्याप्त ख्याल रखने के लिए बहुत कुछ करने की प्रयाप्‍त क्षमता है। भौतिक संसाधनों के रूप में देखा जाए तो यह बात सत्‍य और संदेह से परे है। लेकिन, पूंजीवाद की वर्तमान में ऐसी कोई ‘इच्‍छा’ भी क्‍या उसी भौतिक अवस्‍था का हिस्‍सा नहीं है जिसे हम पूंजी का अत्‍यधिक केंद्रीकरण कहते हैं और उसके इसी रूप में बरकरार रहते भौतिक संसाधनों की प्रचुरता भी जनता के लिए उसकी उपादेयता के अर्थ में कोई मायने नहीं रखती है? दरअसल ऐसा मानना आज की तारीख में हमें सुधारवादी भटकाव की तरफ ले जाता है, जहां हम जनता को केवल चंद सुधारों के लिए लड़ने का आह्वान करते हैं, ना कि इस शोषण पर आधारित पूरी तरह पतित समाज को पूरी तरह बदलने का। सवाल यह है कि क्या आज का वैश्विक पूंजीवाद आज ऐसी किसी ‘इच्छा’ का  वरण कर सकता है, इसे अपने में पैदा कर सकता है? क्‍या बाहर से ऐसी ‘इच्‍छा’ आरोपित की जा सकती है? क्‍या वह किसी ऐसी ‘इच्‍छा’ से चलने की हालत में है? नहीं, बिल्‍कुल ही नहीं।

सच यही है कि ‘इच्छा’ अपने आप में कोई स्वतंत्र कारक न है, न ही हो सकता है। ऐसी ‘प्रगतिशील इच्छा’ आखिर आएगी भी कहां से, जब विश्व पूंजीवाद अपनी सारी प्रगतिशीलता निःशेष कर के पूरी तरह खोखला हो चुका है? क्या यह एक ‘बेहद केंद्रीकृत’ एकाधिकारी पूंजीवाद से जरूरत से ज्यादा की अपेक्षा करना नहीं है? क्या केन्द्रीकरण की गति कभी रोकी या पलटी जा सकती है? नहीं, कभी नहीं।

अंत में, यह समझ लेना जरूरी है कि इस महामारी के संकट से जूझती जनता को बचाने के लिए पूंजीवाद के पास मामूली जनकल्याण के रास्‍ते पर भी चलने वाली नहीं है। बल्कि, यह आम जनता से ही लगातार युद्धरत रहने वाली व्‍यवस्‍था बन चुकी है। कोविड-19 जैसी महामारी ने मौजूदा व्यवस्था को हटा कर उसकी कब्र पर आधुनिक सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में एक नयी दुनिया बनाने की प्रक्रिया को अनिवार्य बना दिया है। इसे जितनी हो तामील किया जाना चाहिए, वरना हमारी तबाही बढ़ती ही जाएगी। एकमात्र उत्पादन के समाजीकरण के आधार पर बनी नई दुनिया में ही सभी को स्वास्थ्य सेवा, आवास, शिक्षा, रोजगार और जीवन-जीविका से जुड़ी अन्य सभी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति हो सकती है। असफल पूंजीवाद ना केवल असमर्थ है, बल्कि मानवजाति पर एक बोझ भी बन गया है। आज यह दिन के उजाले की तरह स्‍पष्‍ट हो चुका है, इतना अधिक कि कोई चाह कर भी इसकी अनदेखी नहीं कर सकता।

यह लेख मूलतः यथार्थ : मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी स्वरों एवं विचारों का मंच (अंक 1/ मई 2020) में छपा था

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

Create a website or blog at WordPress.com

Up ↑